उत्तर प्रदेश लोक संगीत का खजाना है, जिसमें प्रत्येक जिले में अद्वितीय संगीत परंपराएं हैं। लोक गीतों ने सामूहिक जीवन और सामूहिक श्रम को अधिक सुखद बनाया और स्थानीय बोलियों और भाषाओं के साथ समाज में एकीकृत हो गया। वे आम तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से संचरित होते थे किंतु कई स्थानीय बोलियों के गायब होने के साथ लोक संगीत का पूरा वर्ग समाप्त होता जा रहा है, जिससे इस परंपरा में अब भारी गिरावट आ रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार, ‘लोक संगीत में, पृथ्वी गाती है, पहाड़ गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसल गाती हैं’। उत्तर प्रदेश के लोक संगीत के अंतर्गत हर मनोदशा और हर अवसर के लिए कोई न कोई गीत है। यहां के लोक संगीतों की बात करें तो सोहर (Sohar), कहारवा (Kaharwa), चनायनी (Chanayni), नौका झक्कड (Nauka Jhakkad), बंजारा और नजवा (Banjara and Njava), कजली या कजरी (Kajli or Kajri), जरेवा और सदवाजरा सारंगा (Jarewa and Sadavajra Saranga) आदि हैं। सोहर एक ऐसा रूप है जो जीवन-चक्र के प्रदर्शनों का हिस्सा है। इसे एक बच्चे के जन्म का जश्न मनाने के लिए गाया जाने वाला गीत बताया गया है। कहारवा विवाह के समय कहार जाति द्वारा गाया जाता है। चनायनी एक प्रकार का नृत्य संगीत है। नौका झक्कड नाई समुदाय में बहुत लोकप्रिय है और इसे नाई गीत के रूप में जाना जाता है। बंजारा और नजवा रात के समय तेली समुदाय के लोगों द्वारा गाया जाता है। कजली या कजरी महिलाओं द्वारा सावन के महीने में गाया जाता है। यह अर्ध-शास्त्रीय गायन के रूप में भी विकसित हुआ और इसकी गायन शैली बनारस घराने से निकटता से जुड़ी हुई है। संगीत का जरेवा और सदवाजरा सरंगा रूप लोक-पत्थरों के लिए गाया जाता है। इन लोक गीतों के अलावा, ग़ज़ल और ठुमरियाँ अवध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय रही हैं तथा कव्वालियाँ और मार्सियस (Marsiyas) दोनों उत्तर प्रदेश के लोक संगीत के एक मजबूत प्रभाव को दर्शाते हैं। इनके अलावा आल्हा उदल, रागिनी, स्वांग और ढोला भी लोक संगीत के अन्य रूप हैं। ये सभी लोक गीत विभिन्न अवसरों जैसे विभिन्न मौसमों की शुरुआत को संदर्भित करने के लिए मौसमी त्योहारों या उत्सवों, धार्मिक और साथ ही विवाह समारोहों का एक अभिन्न हिस्सा थे।
स्थानीय बोलियां, लोक गीतों का मुख्य आधार होती हैं, क्योंकि इनके बोल प्रायः स्थानीय बोली में होते हैं और गाये जाते हैं। क्षेत्र की कई स्थानीय बोलियां जैसे- जाटू, गुर्जरी, अहिरी और ब्रज भाषा मुख्य धारा से बाहर होते नजर आ रहे हैं, जिसका मतलब है कि इन भाषाओं में लिखे लोक गीतों की परंपरा भी मर रही है। उदाहरण के लिए ऐसे बहुत कम कलाकार बचे हैं, जो आल्हा उदल, रागिनी, स्वांग और ढोला जैसी प्रस्तुतियाँ दे सकते हैं। इस तेजी से लुप्त होती परंपरा को बचाए रखने के लिए, सेंटर फॉर आर्म्ड फोर्सेस हिस्टोरिकल रिसर्च (Centre for Armed Forces Historical Research) ने एकल कलाकार की आवाज़ में, 33 कहानियों का दस्तावेजीकरण किया है। इसके साथ, राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अमूर्त सांस्कृतिक संपत्ति के दस्तावेजीकरण का काम कर रहा है।
लोक गीतों और लोक भाषाओं को संरक्षित करने के कई तरीकें हो सकते हैं। पहला ये कि हम सुनिश्चित करें कि दूसरे लोग उन्हें सीखें और गायें। लोक गीतों और लोक भाषाओं को अनुकूलित किया जा सकता है। अधिक आधुनिक घटनाओं को प्रतिबिंबित करने के लिए लोक गीतों को अपडेट (Update) करने से गीत के भीतर धुनों और सामान्य संदेश को जीवित रखने में मदद की जा सकती है। सामान्य संगीत संकेतन और आसानी से पढे जाने वाले विषय इस प्रकार से लिखे या उपलब्ध होने चाहिए, जिनका उपयोग भविष्य की पीढ़ियों द्वारा आसानी से किया जा सके। परिणामी पुस्तक को यह सुनिश्चित करते हुए प्रकाशित किया जाना चाहिए कि इसकी कुछ प्रतियां आसपास मौजूद या उपलब्ध हों।
लोक गीतों को संरक्षित करने के लिए उन्हें फिर से रिकॉर्ड (Record) किया जा सकता है और यह कुछ दीर्घकालिक इलेक्ट्रॉनिक (Electronic) प्रारूप में होना चाहिए। यदि हम इन अद्भुत लोक संगीतों को नियमित रूप से गाते या सुनते हैं, तो हम निश्चित ही इनके संरक्षण में सक्षम हो पायेंगे।
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.