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सिल्क का नाम सुनते ही लोग अपने आप मानसिक तौर पर उसके मुलायम स्पर्श, ख़ास पहनावों और अभिजात्य अहसास से जुड़ जाते हैं।भारतीय लोगों के लिए सिल्क या रेशमी कपड़ों का मतलब शादी-ब्याह के अवसर या उत्सवों में पहनने वाले वस्त्रों से होता है। कभी-कभी तो विरासत में भी ख़ास कपड़े मिलते हैं। बावजूद इसके कि सिल्क का निर्माण पहली बार चीन में नवपाषाण युग में हुआ था, यह शताब्दियों तक भारत में बहुत प्रचलन में था। कुछ समय पहले तक विश्व में भारत रेशमी कपड़ों की खपत में पहले नम्बर पर था। बदलते समय के साथ सिल्क उत्पादन के तरीक़े भी बदले और पर्यावरण के हित में अहिंसा सिल्क का प्रचलन शुरू हुआ। इससे पहले सिल्क का उत्पादन रेशम के कीड़े से होता था। भारत में रेशमी वस्त्रों के उत्पादन और उससे वस्त्र निर्माण की समृद्ध परम्परा है।
इतिहास : प्राचीन काल से मनुष्य सिल्क का उपयोग कई प्रकार से करता रहा है। शुद्ध रेशम दुनिया का सबसे सुंदर प्राकृतिक रेशा होता है।इसीलिए इसे रेशों की रानी कहा जाता है। सिल्क के बेहतर उत्पादन के लिए दुनिया में बहुत तरह के प्रयोग किए गए। एक तरीक़ा सिल्कवर्म (Silkworm) के बड़े स्तर पर पालन-पोषण का था। इस बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है कि सिल्क का उद्भव और विकास कैसे हुआ।एक मत यह है कि हिमालय की घाटियों में भारत में पहली बार इसका उत्पादन हुआ। यहाँ से दुनिया के बाक़ी देशों में इसका प्रसार हुआ।दूसरा मत ज़्यादा सही माना जाता है कि 3000 BC पहले चीन में रेशम का निर्माण हुआ था। इस अवधारणा के अनुसार एक चीनी राजकुमारी सिलिंग ची (Siling Chi) ने पहली बार रेशम के कीड़े से लम्बा धागा बनाया था। यह कला 3000 हज़ार साल गुप्त रखी गई। बाद में यह कला कई सूत्रों जैसे लड़ाई के शरणार्थियों, युद्ध बंदियों, राजघरानों में विवाह के माध्यम से बाक़ी दुनिया में फैली।
सिल्क के प्रकार : रेशम उत्पादों के प्रकार रेशम के कीड़ों की विभिन्नता से सम्बंधित होते हैं। कीड़े कई प्रकार के होते हैं, लेकिन मनुष्य कुछ का ही इस्तेमाल करते हैं। मुख्य रूप से 4 तरह की सिल्क होती है।
1. शहतूत से निर्मित रेशम : यह सबसे उत्तम कोटि का रेशम होता है- अपनी चमक और क्रीम रंग के कारण। बॉम्बेक्स मोरी (Bombyx Mori) के कीड़े से इसका निर्माण होता है, जो शहतूत की पत्तियाँ खाता है।
2. टसर रेशम : यह एथेरा माइलाट्टा (Antheraea Mylitta) के कीड़ों ए. पपीहिया, ए. रॉयली, ए. पर्नी (A. Papihia, A. Royeli, A. Pernyi) आदि से बनता है। ये ताँबई रंग का रेशम होता है। ये कीड़े अर्जुन, असन, साल, ओक और दूसरी वनस्पतियाँ खाते हैं।
3. एरी रेशम : ये अटैकस रिकिनी (Attacus Ricini) के कीड़ों से बनता है, जो रैंड़ी की पत्तियाँ खाते हैं। मल्बरी रेशम की तरह ही यह क्रीमी- सफ़ेद रंग की होती है लेकिन इसमें चमक कम होती है।
4. मूंगा रेशम : ये एथेराए अस्मा (Antheraea Assama) के कीड़ों से बनती है, जो सोम, चम्पा और मोयंकुरी पर निर्भर होते हैं।
अहिंसा रेशम : यह पर्यावरण हितैषी होती है और इसमें किसी रेशम के कीड़े की मौत नहीं होती। 2006 में इस अहिंसक रेशम का पंजीकरण भारत ने किया और आज विश्व के विशिष्ट परिधान इसी से बनते हैं। वह समय अब नहीं रहा जब छह गज़ की रेशम की साड़ी के निर्माण में 30,000 से 50,000 रेशम के कीड़े शहीद होते थे। बुनकर परिवार के कुसुमा रजाईआह ने इण्डियन इन्स्टिट्यूट ऑफ़ हैंडलूम टैक्नोलॉजी (Indian Institute of Handloom Technology) में 3 साल रेशे और तन्तुओं का अध्ययन किया। 1990 की शुरूआत में वह आंध्र प्रदेश के हैंडलूम विभाग में काम करते थे। वहाँ पूर्व राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमन की पत्नी श्रीमती जानकी ने, जो उस समय सिल्क उत्पादन सम्बंधी सुविधाओं का जायज़ा लेने शासकीय दौरे पर थीं, उन्होंने राजइय्याह से पूछा कि क्या रेशम का निर्माण बिना कीड़ों को मारे हो सकता है? इस सवाल ने उन्हें दस साल लम्बी उस यात्रा से जोड़ा, जिसका अंत अहिंसा सिल्क के निर्माण से हुआ। उन्होंने 1991 में नमूने के तौर पर साड़ियों का निर्माण किया और 2001 में उसे व्यावसायिक उत्पाद बना दिया। उन्होंने इस प्रक्रिया को स्पष्ट किया कि इसमें रेशम कीटों को उनके कोकून समेत उबालकर मारने के बजाय हम उनको उनके कोकून में प्रवेश करने देते हैं और उनके कायांतरण से बाहर आकर जीवित रहने का पूरा मौक़ा देते हैं। इसके बाद कोकून में से रेशे निकालकर, रेशम के धागे को कातकर उससे रेशम का निर्माण करते हैं। इस प्रकार अहिंसा का संदेश और तकनीक एक बार फिर पूरे विश्व को भारत के मार्फ़त मिला।
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