भारतीय घरों में अक्सर किसी पर्व या अनुष्ठान जैसे समारोहों पर पूजा स्थल या अन्य स्थलों को लाल, भूरे या हल्के पीले रंग के तरल पदार्थ से अवश्य रंगा जाता है। यह पदार्थ गेरू, जो कि एक खनिज है से बनाया जाता है। गेरू का ऐसा रंग मुख्य रूप से उसमें उपस्थित आयरन ऑक्साइड (Iron oxide) के कारण आता है।
इसकी उपयोगिता का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि इसका इस्तेमाल प्राचीन काल से ही किया जा रहा है। इसके साक्ष्य मध्य पाषाण युग और मध्य पुरापाषाण युग से प्राप्त किये गये हैं। इसका पहला साक्ष्य अफ्रीका से प्राप्त हुआ है जो लगभग 2,85,000 वर्ष पहले का है। माना जाता है कि ऑरिग्नैशियन (Aurignacians) काल में मनुष्य गेरू का प्रयोग अपने शरीर को नियमित रूप से रंगने के लिए करता था यहां तक कि उन्होंने अपने जानवरों की खाल को भी गेरू से रंगा।
मनुष्य ने इसका प्रयोग अपने हथियारों तथा आवास की ज़मीन को लेपने के लिए भी किया। इस प्रकार यह घरेलू जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। अफ्रीका में लोग सूर्य की तेज़ किरणों तथा मच्छरों जैसे कीड़ों से बचने के लिए गेरू का उपयोग करते हैं तथा यह प्रक्रिया वहां प्राचीन काल से चली आ रही है। गेरू लोहे से समृद्ध चट्टानें हैं जो कि लोहे के आक्साइडों (Oxides) या ऑक्सीहाइड्रॉक्साइड (Oxyhydroxides) से मिलकर बनी हैं। मध्य पाषाण युग में गेरू को पाउडर (Powder) रूप में परिवर्तित करने के लिए मोटे बलुआ पत्थर की पटिया पर इसके टुकड़ों को पीसा जाता था। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी से पहले, कलाकारों द्वारा उपयोग किए जाने वाले अधिकांश रंजक प्राकृतिक मूल के थे, जो कि कार्बनिक रंगों, रेजिन (resins), वैक्स (waxes) और खनिजों के मिश्रण से बने थे। गेरू को आम तौर पर लाल माना जाता है, लेकिन वास्तव में यह एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला पीला खनिज वर्णक हैं, जिसमें मिट्टी, सिलिसस (siliceous) सामग्री और लिमोनाइट (Limonite) उपस्थित होती हैं।
गेरू को अक्सर मानव समाधि के साथ भी जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए
आर्नी कैंडाइड (Arene Candide) के ऊपरी पैलियोलिथिक (Paleolithic) गुफा स्थल में 23,500 साल पहले एक युवा व्यक्ति की कब्र पर गेरू का उपयोग किया गया था। अब तक खोजे गए गेरू का सबसे पहला संभव उपयोग लगभग 2,85,000 साल पुराने एक होमो इरेक्टस साइट (Homo erectus site) से है। इसका उपयोग सोने के आभूषणों पर चमक लाने तथा कपड़ा रंगने के विविध प्रकार के रंगों को तैयार करने में होता है। माना जाता है कि कला और विज्ञान के बीच अंतर या विभाजन करने की समझ गेरू के कारण ही उत्पन्न हुई।
गेरू की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें एंटी-बैक्टीरियल (Anti-bacterial) गुण होते हैं जो कोलेजन (Collagen) को टूटने से रोकते हैं तथा खाल को संरक्षित करने में मदद करते हैं। पराबैंगनी विकिरण के प्रभावों को रोकने के लिए भी गेरू को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया गया है। आज भी गेरू का उपयोग सनस्क्रीन (Sunscreen) के रूप में किया जाता है तथा इसे पेंट (Paint) और कलाकृति में भी उपयोग में लाया जाता है। लाल और पीले रंग के रॉक आर्ट पैनल (Rock art panels) जो दुनिया भर में हैं, गेरू आधारित पेंट से बनाए जाते हैं। यह कला और प्रतीकात्मकता का सबसे प्रारंभिक रूप है जो बताता है कि कैसे प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक मानव मस्तिष्क विकसित हुआ और विकास के साथ किस प्रकार इसका उपयोग कई लाभकारी वस्तुओं के निर्माण के लिए किया गया। वर्तमान समय में कोरोना महामारी को रोकने के लिए विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा अनेकों प्रयास किये गये हैं, जिसमें तालाबंदी भी शामिल है। इससे औद्योगिक उत्पादन, व्यापार, व्यवसाय, और उपभोक्ता खर्च यहां तक कि सकल घरेलू उत्पाद के सभी घटकों में तेज गिरावट आई है। इसका सीधा-सीधा प्रभाव वर्णक आपूर्तिकर्ताओं पर भी पडा है तथा उन्हें भारी नुकसान का सामना करना पडा है। वर्णक आपूर्तिकर्ताओं के लिए पिछला साल काफी खराब था, लेकिन कोरोना के मद्देनजर यह साल उससे भी खराब है।
चित्र सन्दर्भ:
मुख्य चित्र में गेरू को पत्थर से पीसते हुए एक महिला को दिखाया गया है। (Youtube)
दूसरे चित्र में गेरू द्वारा की जाने वाली वरली (लोक कला) को दिखाया गया है। (Wallpaperflare)
तीसरे चित्र में एक अफ़्रीकी जनजाति को शरीर पर गेरू लगाए हुए दिखाया गया है। (Unsplash)
चौथे चित्र में गेरू के पाउडर को दिखाया गया है। (Flickr)
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