एक मोहर्रम के तीन संदर्भ

मेरठ

 29-08-2020 10:26 AM
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)

इस्लामी कैलेंडर का महत्व
1440 साल पहले इस्लामी कैलेंडर (Calendar) की शुरुआत दूसरे खलीफा हजरत उमर इब्न अल-ख़त्ताब (Hazrat Umar ibn al-Khatab) द्वारा हुई थी। इससे पहले मुस्लिम अरब के समय की अवधारणा के अनुसार अपने-अपने राज्यों में दिन और रात की गिनती नए चांद को देखकर करते थे। बिना किसी कैलेंडर या तारीख प्रणाली के लोग नये चांद के अगले दिन से नया महीना मान लेते थे। जब इस्लाम अरब की जमीन से निकलकर नए क्षेत्रों में पहुंचा, तो तारीख को लेकर गणना प्रणाली की खामियां सामने आने लगी। तब एक बेहतर और सही कैलेंडर की जरूरत महसूस हुई।

खलीफा जो कि इस्लामिक स्टेट (Islamic State) के प्रमुख थे, वह सारे दिशा निर्देश और आदेश मदीना से दूसरे इस्लामिक राज्यों को भेजते थे। नज़दीक के राज्यों तक सब कुछ ठीक था, लेकिन जब दूर के राज्यों में आदेश पहुंचते थे, तो तारीख को लेकर बड़े भ्रम की स्थिति होने लगी क्योंकि आदेशों पर कोई तारीख नहीं होती थी। कौन नया है, कौन पुराना- पता ही नहीं चलता था। इस भ्रम को दूर करने के लिए खलीफ उमर ने अंतिम रूप से इस्लामिक कैलेंडर तैयार करने का फैसला किया और लोगों से भी इस बारे में सुझाव मांगे। इस तरह लगभग 1440 में शुरू हुआ इस्लामिक कैलेंडर जल्दी लोकप्रिय हुआ और हर मुस्लिम के घर तक पहुंच गया।

अलम
मोहर्रम के दौरान शोक के जो रिवाज होते हैं, उनमें सबसे जरूरी और प्रतीकात्मक चीज है अलम। यह कर्बला के मैदान में शहीद हुए हुसैन इब्न अली का प्रतीक चिन्ह है। यह सच्चाई और बहादुरी की निशानी है। कर्बला के मैदान में हुए युद्ध में मूल झंडे को अब्बास उठाए थे, जो हुसैन इब्न अली के भाई थे। अब्बास की मौत उस समय हुई, जब वह यूफ्रेट्स नदी (Euphrates River) से अपने कारवां के युवा बच्चों के लिए पानी लेने जा रहे थे, जो कि 3 दिन से प्यासे थे। जब अब्बास पानी लेकर वापस आ रहे थे तब उन पर प्राणघातक हमला हुआ। उधर कैंप (Camp) में बच्चे आतुरता से पानी का इंतजार कर रहे थे, उन्हें डूबता हुआ अलम दिखाई दिया। हमले में अब्बास ने अपने दोनों हाथ गंवा दिए, लेकिन तब भी वह पानी से भरी मशक को दांतो से दबाकर पानी बच्चों तक पहुंचाना चाहते थे। उधर विरोधी कैंप के मुखिया ने अब्बास को खत्म करने के लिए और सैनिक भेजे क्योंकि उसे डर था कि अगर पानी हुसैन इब्न अली के तंबू तक पहुंच गया तो उन्हें कोई नहीं रोक सकेगा। सैनिकों ने अब्बास पर तीरों की झड़ी लगा दी, जिन्होंने मशक को फाड़ दिया। अब्बास घोड़े से गिर गए और अलम जमीन पर गिर गया। अलम अब्बास की शहादत की निशानी है। साथ ही वह सलामी है उन वीर योद्धाओं के लिए जिन्होंने हुसैन इब्न अली के लिए अपनी जिंदगी गवा दी। अलम अलग-अलग आकार के होते हैं, लेकिन सबका आधार एक लकड़ी का खंबा होता है, जिसके ऊपर धातु की पत्ती लगी होती है। इसके बाद खंबे को कपड़े और एक बैनर से सजाया जाता है, जिस पर हुसैन के परिवार के सभी लोगों के नाम अंकित होते हैं। जिन अलम पर अब्बास का नाम होता है, उस पर मशक के आकार का एक आभूषण सजाया जाता है, जिसे लेकर वे बच्चों के लिए पानी भरने गए थे। अलम की लंबाई 15 फीट तक होती है। इसके ऊपरी हिस्से में लचीली स्टील की प्लेट लगी होती है। इसको पंखों, महीन कढ़ाई वाले सिल्क और ज़री के बेल-बूटे से सजाया जाता है।

बेटी की याद में बना अज़ाखाना: वज़ीर उन निसा
अमरोहा की रहने वाली मुसम्मत वजीर उन निसा (Musammat Wazir-un-nisa) ने 1226 हिजरी(सन 1802) से पहले अपनी बेटी की असमय मौत के गम को एक सकारात्मक यादगार के रूप में समाज को सौंप दिया। यह यादगार है अज़ाखाना: वज़ीर उन निसा । इसके साथ एक मस्जिद भी है। मुसम्मत वजीराना ने अपनी पूरी संपत्ति को अज़ाखाना और मस्जिद को दान कर दिया। अपने भतीजे सैयद नजर अली को इसका मुतवली या संरक्षक नियुक्त किया। बाद की पीढ़ियों ने भी कोई वारिस ना होने पर अपनी संपत्ति इसी अज़ाखाना और मस्जिद को दान कर दी। जिससे बाद में इस इमारत का फिर से खूबसूरत निर्माण कराया गया।

आजकल इस अज़ाखाना में मजलिस-ए-अज़ा बहुत अच्छी तरह से आयोजित होती है। इसकी सारी गतिविधियां वर्तमान मुतवल्ली सैयद हादी रजा तकवी की देखरेख में होती है। अज़ाखाना की नियमित मरम्मत होती रहती है। दोनों मुख्य दरवाजों का फिर से निर्माण करवाया गया है। मोहर्रम के दिनों में यहां रोज सुबह 10:00 बजे(11 से 19वी तक) सफर, शाम 4 बजे मजलिस, तथा मोहर्रम का ताजिया जुलूस सुबह 8:00 बजे निकलता है, जो कर्बला दानिशमदान तक जाता है। रास्ते में अमरोहा का प्रसिद्ध 'मरसिया(कैद से छूट के जब सैयद-ए-सज्जाद आए)' गाया जाता है। मोहर्रम की शुरुआत आठवीं तारीख से जंजीर का मातम से होती है। यह अज़ाखाना 1000 गज से अधिक क्षेत्र में बना है।

लगभग 2 शताब्दी पहले बने इस अज़ाखाना की नींव में एक बेटी की जुदाई का गम दफन है, जिसे एक माँ ने अनजाने ही मुस्लिम इतिहास के सबसे बड़े मातम से जोड़ दिया।

सन्दर्भ :
http://azadariamroha.blogspot.com/2010/04/azakhana-wazeer-un-nisa-amroha.html
https://ummid.com/news/2019/august/31.08.2019/muharram-moon-sighting-2019-in-india-pakistan-bangladesh-live.html
https://en.wikipedia.org/wiki/Mourning_of_Muharram#Alam

चित्र सन्दर्भ :
मुख्य चित्र में कर्बला युद्ध का दृस्य दिखाया गया है। (freedomainpictures)
दूसरे चित्र में चाँद के अनुसार इस्लामिक कैलेंडर को दिखाया गया है। (Wikimedia)
तीसरे चित्र में कर्बला युद्ध पर आधारित एक अन्य दृस्य दिखाया गया है। (Freepik)
अंतिम चित्र में अमरोहा में स्थित अज़ाख़ाना को दिखाया गया है। (Youtube)

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