समय - सीमा 276
मानव और उनकी इंद्रियाँ 1031
मानव और उनके आविष्कार 812
भूगोल 249
जीव-जंतु 302
किसी भी शहर की वास्तुकला उस शहर को आकर्षक रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मेरठ का दिगंबर जैन मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से शहर का एक प्रमुख उदाहरण है। आधुनिक और मध्ययुगीन जैनियों ने कई मंदिरों का निर्माण किया, विशेष रूप से पश्चिमी भारत में। सबसे पहले जैन स्मारक मंदिर थे, जो कि जैन भिक्षुओं के लिए ब्राह्मणवादी हिंदू मंदिर योजना और मठों पर आधारित थे। अधिकांश भाग के लिए, प्राचीन भारत में कलाकार गैर-सांप्रदायिक शिल्प संघों से सम्बंधित थे, जो कि हिंदू, बौद्ध या जैन किसी भी संरक्षक को अपनी सेवाएं देने के लिए तैयार थे। उनके द्वारा तैयार की गयी कई शैलियां किसी विशेष धर्म के बजाय समय और स्थान पर आधारित थीं। इसलिए, इस अवधि की जैन कला, शैलीगत रूप से हिंदू या बौद्ध कला के समान है, हालांकि इसके विषय और आइकनोग्राफी (Iconography) विशेष रूप से जैन हैं। कुछ मामूली बदलावों के साथ, भारतीय कला की पश्चिमी शैली 16वीं और 17वीं शताब्दी में भी बनी रही। इस्लाम की वृद्धि जैन कला के पतन का कारण बनी किंतु जैन कला का पूरी तरह से निष्कासन नहीं हुआ और यह आज भी हमें कई स्थानों पर देखने को मिलती है।
भारत में मुख्य कला के लिए जैन कला का काफी योगदान रहा है। भारतीय कला के प्रत्येक चरण को एक जैन संस्करण द्वारा दर्शाया गया है और उनमें से प्रत्येक सूक्ष्म अध्ययन और समझ के योग्य है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान के महान जैन मंदिर और मूर्तियां विश्व प्रसिद्ध हैं। प्रारंभिक वर्षों में, कई जैन मंदिर बौद्ध रॉक-कट (Rock-cut) शैली का अनुसरण करते हुए बौद्ध मंदिरों के समान थे। प्रारंभ में इन मंदिरों को मुख्य रूप से रॉक फेसेस (Rock Faces) से उकेरा गया था और ईंटों का उपयोग लगभग नगण्य था। हालांकि, बाद के वर्षों में जैनियों ने पहाड़ों की अमरता की अवधारणा के आधार पर पहाड़ियों पर मंदिर-शहरों का निर्माण शुरू किया।
गढ़वाले शहरों के समान जैन मंदिरों को सशस्त्र आक्रामकता से बचाने के लिए वार्डों (Wards) में बांटा गया था। मुख्य द्वार के रूप में एक किलेबंद प्रवेश द्वार के साथ प्रत्येक वार्ड को इसके सिरों पर बड़े पैमाने पर गढ़ों द्वारा संरक्षित किया गया था। इसका कारण यह है कि जैन मंदिर दुनिया में सबसे समृद्ध मंदिर हैं, जो भव्यता और भौतिक संपदा के मामले में मुगलकालीन इमारतों से भी आगे हैं। मंदिर-शहर एक विशिष्ट योजना पर नहीं बने थे, इसके बजाय वे विकीर्ण निर्माण के परिणाम थे। पहाड़ी का प्राकृतिक स्तर, जिस पर शहर का निर्माण किया जा रहा था, को विभिन्न स्तरों पर समायोजित किया गया, ताकि जैसे-जैसे ऊँचाई बढे वैसे-वैसे वास्तुकला और भव्यता बढ़े। प्रत्येक मंदिर एक निर्धारित पैटर्न (Pattern), शैलियों का पालन करता था, जो कि उस अवधि के दौरान वास्तुकला के सिद्धांतों पर डिजाईन (Design) किए गए थे। मंदिरों में चार तीर्थंकरों की छवियों को चार मुख्य बिंदुओं के सामने रखा गया। इन मंदिरों में प्रवेश के लिए चार दरवाजे बनाए गये थे। भगवान आदिनाथ का चारमुखी मंदिर चार दरवाजों वाले मंदिर का एक विशिष्ट उदाहरण है।
मेरठ के दिगंबर जैन मंदिर में प्रमुख (मूलनायक) देवता 16वें तीर्थंकर, श्री शांतिनाथ हैं जोकि पद्मासन मुद्रा में हैं। इसके अलावा 17वें और 18वें तीर्थंकर, श्री कुंथुनाथ और श्री अरनाथ की मूर्तियां भी हैं। परिसर में कुछ उल्लेखनीय स्मारक और मंदिर हैं, जो जैन वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। 1955 में निर्मित, मानस्तंभ यहां की एक 31 फीट ऊची संरचना है, जो मुख्य मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार के बाहर स्थित है। यहाँ स्थित त्रिमूर्ति मंदिर में 12वीं सदी की श्री शांतिनाथ की मूर्ति है, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इसके अलावा पार्श्वनाथ की मूर्ति और एक सफेद रंग की श्री महावीर स्वामी की मूर्ति भी स्थापित है।
रॉक-कट जैन मंदिर और मठ अन्य धर्मों के साथ स्थलों को साझा करते हैं, जैसे कि उदयगिरि, बावा प्यारा, एलोरा, ऐहोल, बादामी और कलुगुमलाई। एलोरा की गुफाओं में तीनों धर्मों के मंदिर पाये गये हैं। विभिन्न धर्मों की शैलियों में काफी समानता है किंतु जैनियों ने 24 तीर्थंकरों में से एक या अधिक तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों को मंदिर के अंदर रखने की बजाय बाहर रखा था। बाद में इन्हें और भी बड़ा बनाया गया जोकि नग्न अवस्था में कायोत्सर्ग ध्यान की स्थिति में खडी हैं। मूर्तियों के समूह के साथ गोपाल रॉक कट जैन स्मारक और सिद्धांचल गुफाएं तथा 12वीं सदी के गोम्मतेश्वर की प्रतिमा, और वासुपूज्य की आधुनिक प्रतिमा सहित कई एकल प्रतिमाएं इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। हिंदू मंदिरों में क्षेत्रीय शैलियों का अनुसरण करते हुए, उत्तर भारत के जैन मंदिरों में आमतौर पर उत्तर भारतीय नगारा (Nagara) शैली का उपयोग किया गया है, जबकि दक्षिण भारत में द्रविड़ (Dravid) शैली का उपयोग किया गया है। पिछली सदी से दक्षिण भारत में, उत्तर भारतीय मरु-गुर्जर शैली या सोलंकी शैली का भी इस्तेमाल किया गया है। मरु-गुर्जर शैली के अंतर्गत मंदिरों की बाहरी दीवारों को बढते हुए प्रोजेक्शन (Projections) और रिसेस (आलाओं- Recesses) से संरचित किया गया है, जिनके साथ नक्काशीदार मूर्तियों को समायोजित किया गया है। जैन धर्म ने भारत में स्थापत्य शैली के विकास पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है तथा चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला जैसे कई कलात्मक क्षेत्रों में अपना योगदान दिया है।
उदयगिरि और खंडगिरी गुफाएं प्रारंभिक जैन स्मारक हैं, जोकि आंशिक रूप से प्राकृतिक और आंशिक रूप से मानव निर्मित हैं। गुफाएँ तीर्थंकरों, हाथियों, महिलाओं और कुछ कलहंसों को दर्शाती हुई शिलालेखों और मूर्तिकलाओं से सुसज्जित हैं। इसी प्रकार से 11वीं और 13वीं शताब्दी में चालुक्य शासक द्वारा निर्मित दिलवाड़ा मंदिर परिसर में 5 सजावटी संगमरमर के मंदिर हैं, जिनमें से प्रत्येक एक अलग तीर्थंकर को समर्पित है। परिसर का सबसे बड़ा मंदिर, 1021 में निर्मित विमल वसाही मंदिर है जोकि तीर्थंकर ऋषभ को समर्पित है। एक रंग मंड (Rang Manda), 12 स्तम्भों और लुभावनी केंद्रीय गुंबद के साथ एक भव्य हॉल, नवचौकी (Navchowki), नौ आयताकार छत का एक संग्रह इसकी सबसे उल्लेखनीय विशेषताएं हैं, जिन पर बडे पैमाने पर नक्काशी की गयी है।
मंदिर के अंदर, मरु-गुर्जर शैली में बेहद भव्य नक्काशी है। जैन उद्धारकर्ताओं या देवताओं की नग्न ध्यानमग्न मुद्राएं जैन मूर्तिकला की सबसे प्रमुख विशेषता है।