देश में कृषकों की एक बड़ी संख्या भूमिहीन होने की दिशा में अग्रसर है। साल 2001 की तुलना में भूमिहीनों की संख्या 10.67 करोड़ से बढ़कर 2011 की गणना के अनुसार 14.43 करोड़ तक पहुँच गयी थी। यानी कि 2011 की जातिगत जनगणना के अनुसार देश की 51% ग्रामीण आबादी भूमिहीन है।
भूमिहीनता देश मे ग्रामीण गरीबी का एक मजबूत संकेतक है, वहीँ ठीक इसके विपरीत भूमि सबसे मूल्यवान, अविनाशी संपत्ति है, जिसके माध्यम से लोग अपनी आर्थिक और आजीविका को एक स्थायित्व प्रदान करते हैं। भूमि का होना कृषक को उसकी सामाजिक पहचान के साथ-साथ हालात और अवसर की नई दिशा भी प्रदान करती है। मगर भूमिहीनो के माध्यम से लगातार लिया जा रहा श्रम, उनमें एक निराशा का बोध दे रहा है। इतनी अपरिहार्यता के बावजूद वो चुपचाप पीड़ित रहते हैं और गरीबी में ही जीवन व्यतीत करते हैं। कृषि के व्यवसायीकरण ने आम और परती भूमि को भी खेती के अधीन ला दिया है, जिस कारण भूमिहीन मजदूरो को अपने पशु चराने और लकड़ी प्राप्त करने में भी दिक्कतें आ रही हैं।
उन्हें अपने पशुधन बेचने पर मजबूर किया जा रहा है,जो कि उनके लिए एक प्रमुख आय स्त्रोत है। कृषि क्षेत्र में आधुनिकरण से रोजगार में भारी कमी आई है, जिससे इस क्षेत्र का श्रम निरर्थक हो गया है और नतीजन भूमिहीनों की माली हालत खस्ता हुए जा रही है। एक सर्वे के अनुसार पंजाब में 2000 से 2010 के बीच आत्महत्या के कुल 6296 मामले थे, जिनमें 43℅ संख्या कृषकों की थी। ये आंकड़ा मात्र एक खेती बहुल क्षेत्र का है, यदि बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश की संख्या के विषय में बात करें तो यह और भी भयावह है। इस विषय पर हालांकि सरकार ने भी अब भूमिहीनो की स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रयत्न किये हैं तथा वह अलग अलग योजनाए और कार्यक्रम चला रही है। सरकार छोटे किसानो की ऋण माफी की योजनायें भी लाई है ताकि श्रम में लगे मजदूरों पर इसकी मार न पड़े।
वही पंजाब राज्य सरकार ने एक दृष्टिकोण को रखते हुए, भूमिहीनो को लीज (Lease) पर सामूहिक खेती के लिए भूमि देने का कार्यक्रम प्रारंभ किया, जो कि अभी तक का सबसे सफल मॉडल रहा है। इस प्रकार से भूमिहीन किसानों के पास भी खेती के लिए जमीन की उपलब्धता हो जाती है। वर्तमान में श्रमिक वर्ग एक अभावग्रस्त व उदासीन समाज की मिसाल है। वे कमजोरी और असुरक्षा की शास्वत स्थिति में दुर्बल रहते हैं। अब जब जनसंवाद का मुख्य ध्यान 'सबका साथ सबका विकास' पर है, तो भूमिहीनों की परेशानियों को ध्यान में लेते हुए उन्हें बेरोजगारी से बचाना और उन्हें नाममात्र की दर से पट्टे पर भूमि देने की आवश्यता है ताकि उनके अंदर असुरक्षा की भावना खत्म हो, जो मात्र अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सुबह से शाम पसीना बहाते हैं। किसान किसी भी देश की रीढ़ का कार्य करते हैं और भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तो यहाँ के किसानों की मौलिक सुरक्षा का महत्व अन्य देशों से और भी अधिक हो जाता है।
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