भारतीय समाज में उपहार देने की परम्परा अत्यंत ही प्राचीन है और वर्तमान समय में ऐसे कई उपहार हैं, जो कि दुनिया भर के संग्रहालयों में रखे गए हैं। 1880-90 के दशक में उपहारों की इसी फेहरिश्त में दो ऐसे नाम जुड़े जो कि मेरठ शहर की ऐतिहासिकता को ताजा करते हैं। मेरठ शहर वैसे तो अत्यंत ही प्राचीन है परन्तु इसे औपनिवेशिक काल में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त हुआ। इसका कारण यहाँ पर बनी छावनी और उद्योग हैं। यहाँ से दो सादली बक्से इंग्लैंड (England) की महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) को भेंट स्वरुप दिए गए थे।
आज वर्तमान समय में ये बक्से विंडसर महल (Windsor Palace) में रानी विक्टोरिया के संग्रहालय में मौजूद हैं। सादली बक्से देने की परम्परा आज भी भारत में मौजूद है, अभी हाल ही में देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (Donald Trump) की बेटी इवांका ट्रम्प (Ivanka Trump) को भेंट स्वरुप दी, जब वे भारत के दौरे पर आई थी। पहला बक्सा जो रानी विक्टोरिया को भेंट स्वरुप दिया गया था, वह हाथी के दांत, चन्दन की लकड़ी तथा धातु के मिश्रण से बना हुआ था। यह 1897 में मेरठ एसोसिएशन (Meerut Association) के सदस्यों द्वारा उनकी डायमंड जुबली (Diamond Jublee) के उपलक्ष्य में दिया गया था।
यह बक्सा अत्यंत ही बेहतर तरीके से सजाया गया था तथा इसपर जानवरों आदि की आकृति को भी उकेरा गया था। दूसरा बक्सा 1887-97 के मध्य मुस्लिम एसोसिएशन (Muslim Association) के सदस्यों द्वारा 1897 के जुबली वर्ष के उपलक्ष्य में दिया गया था। यह बक्सा लकड़ी और चांदी की नक्कासी के साथ बनाया गया था, जिसे गिल्ट (Gilt), चांदी और तामचीनी के साथ सजाया गया था। इसके अन्दर हरे रंग का मखमल लगाया गया था तथा बक्से में कई छोटे डिब्बों को भी बनाया गया था, जिसका ढक्कन कई सामूहिक चित्रों से सजाया गया था। सादली बक्से मध्यकालीन भारत में अत्यंत ही प्रसिद्द हो चुके थे, जिसके कारण इनका बड़े पैमाने पर निर्यात बम्बई के डॉक (Bombay Dock) से किया जाता था और इसी कारण से इन्हें बाम्बे बॉक्स (Bombay Box) के नाम से भी जाना जाता था। सादली एक सजावटी तकनीकी है, जो की ज्यामितीय आधारों के साथ साथ सूक्ष्म मोजेक कला (Mosaic Art) का भी एक प्रकार है। इस बक्से का भारत में बेहद पुराना इतिहास है तथा इसका शुरूआती चरण हमें 16वीं शताब्दी में दिखाई देता है। यह कला एक अत्यंत ही उच्च कोटि की कला है तथा 19वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अत्यंत ही लोकप्रिय हुई थी और यही कारण है की इसका व्यापार भारत से अत्यंत ही बड़े पैमाने पर फलने फूलने लगा था।
सादली तकनीकी देखने में अत्यंत ही जटिल प्रतीत होती है परन्तु यह वास्तव में काफी सरल होती है। इस प्रकार के कलाकृति को बनाने के लिए हाथी दांत, लकड़ी या अन्य सामग्री को एक पतली पट्टी के आकार का काट लिया जाता है, जिसे पुनः छोटे-छोटे त्रिकोणीय टुकड़ों में काट लिया जाता है फिर इसे विभिन्न ज्यामितीय आकारों के अनुसार बनाया जाता है। इसको चिपकाने के लिए जानवरों से निकले गोंद का प्रयोग किया जाता था। इसे चिपकाने के बाद बक्से की उंचाई के अनुसार समतल कर लिया जाता था। इन बक्सों को शुरूआती समय में भारत में लेखन बक्सों के रूप में भी देखा जाता था।
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