जब भारत स्वतंत्र नहीं था, उससे पहले से मेरठ, आगरा और कानपुर अपने चमड़ा उद्योग के लिए मशहूर थे। जहां एक और आगरा और कानपुर उच्च श्रेणी की चमड़े की चीजें निर्यात के लिए बनाते थे, मेरठ अपने यहां के जूता निर्माण के लिए मशहूर था, सानिया बाजार में इन जूतों की बड़ी खपत थी। मोचीगिरी रोजी रोटी के लिए किए जा रहे मुख्य व्यवसाय में से एक था। जैसे जैसे समय बीता, लोग अब पुराने जूते मरम्मत कराने के बजाय उन्हें फेंकना ज्यादा पसंद करते हैं। इससे मोचीगिरी पर गहरा असर पड़ा और ऐसे परिवार जो रोजी-रोटी के लिए पूरी तरह मोचीगिरी पर निर्भर थे, आज अपना पेट पालने की समस्या से जूझ रहे हैं। सोचने की बात यह है कि कैसे आधुनिक तकनीकी उपायों से मेरठ के मोचियों की स्थिति को सुधारा जाए। एक जमाना वह भी था जब मेरठ में पीढ़ी दर पीढ़ी मोचीगीरी का काम किया जाता था और सड़कों के किनारे मोचियों की कतार दिखाई पड़ती थी और उन सब के पास काम होता था। उस समय इस काम में इतनी बरकत थी कि मोचियों का मानना था जब तक लोगों के पैरों में जूते रहेंगे, तब तक कोई मोची बेरोजगार नहीं रहेगा। लेकिन वह जमाने लद गए जब एक बार का खरीदा जूता बार-बार मोची से ठीक करवा कर तब तक पहना जाता था जब तक वह पूरा फट ना जाए। लेकिन अब लोग बदलते फैशन के साथ पुराने जूतों को फेंकना ज्यादा पसंद करते हैं बजाए मोची से ठीक कराने के।
पहले तो मेरठ जैसे शहरों में घर भर के लोग एक ही चप्पल से काम चला लेते थे। यहां तक की शादी ब्याह में पहनने के लिए परिवार के कई सदस्य अपने जूते आपस में अदल बदल कर पहन लेते थे। पुराने जमाने में मोचीगिरी का काम बहुत अच्छा चलता था और एक अच्छे मोची को अपने इलाके में ही नहीं, दूर-दराज तक उसके अच्छे काम को लेकर जाना जाता था और दूर-दूर से लोग अपना जूता बनवाने वहां आते थे क्योंकि लोगों का मानना था कि एक अच्छे मोची के हाथों लगा टांका उनके जूते में लगे चमड़े से भी ज्यादा चलेगा। जैसे-जैसे मोचियों की मांग घटी तो उनके पास कुछ नियमित ग्राहक ही बचे जो उन्हें रोज जूता पॉलिश कराई के पैसे एकमुश्त दे दिया करते थे। जब खर्चा चलाना मुश्किल पड़ गया तो ज्यादातर मोचियों को कोई दूसरा व्यवसाय चुनना पड़ा, जो लोग चंद रुपयों में आपके पुराने जूतों को नए जूते जैसा कर देते हैं, उन्हें समाज में कोई इज्जत नहीं मिलती। यही वजह है कि आज यह मोची कतई नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस लाइन में आए। समाज के बनाए इस खोखले बड़े आदमी के तमगे का पीछा करते हुए अपने हुनर की दुनिया को छोड़ कर यह मजबूर कारीगर एक अंधी दौड़ में भाग रहे हैं।
मोचीगिरी की दम तोड़ती परंपरा को मानो एक नया जीवन देने की कोशिश है एक स्टार्टअप जिसका नाम है ‘देसी हैंगओवर’। यह स्टार्टअप एक ‘पालक सामुदायिक उद्यमिता (Foster Community Entrepreneurship)‘ है जहां हितेश केंजली और उनके दोस्त और साथी मोची जैसे कुशल कारीगरों को सफल उद्यमी बनने में सहायता करते हैं। यह कंपनी पूरी तरह हाथ से बने चमड़े के जूतों का व्यवसाय करती है। सबसे अच्छी क्वालिटी का चमड़ा तलाशते हुए यह स्टार्टअप कर्नाटक की मोची कम्युनिटी तक जा पहुंचा। इस कंपनी का दावा है कि वह नैतिक रूप से संकेंद्रित हाथ से बने हुए चमड़े (Ethically Sourced Hand Tanned Leather) का ही इस्तेमाल करती है। इस इलाके में हैंगओवर स्टार्टअप के पहुंचने से पहले अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बड़े स्तर पर उत्पादन करने का इतना दबाव था कि मोचियों को ब्रांडेड कंपनियों के सस्ते विकल्प बनाने के एवज में महीने के 2-3 हजार रुपए ही मिल पाते थे। इस इलाके में देसी हैंगओवर ने एक छोटी सी मैन्युफैक्चरिंग फैक्ट्री सेटअप की है, साथ ही इस इलाके के एक मात्र स्कूल को भी अपने ’अडॉप्ट अ स्कूल (Adopt a School)’ प्रोग्राम के तहत गोद ले लिया है। साथ ही व्यापारिक पक्ष पर देसी हैंगओवर ने अंतरराष्ट्रीय मार्केट में नए तरीके से अपने उत्पाद उतारे जिसमें कनाडा, ऑस्ट्रेलिया ,नीदरलैंड और रोमानिया शामिल थे। इस तरह की पहल, 21वीं सदी में मोचियों के व्यवसाय के लिए एक नया क्षितिज बनकर उभरी है। हम सभी को अपने अपने स्तर पर मोची या किसी भी प्रकार के कुशल कारीगरों को आत्म सम्मान के साथ जीवन जीने में हर संभव मदद करने का सदैव प्रयास करना चाहिए।
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में जूते को सिलता हुआ एक मोची का चित्र है, चित्र में मोची टांकों पर गौर किया गया है। (Prarang)
2. दूसरे चित्र में नौचंदी मेला मैदान के प्रवेश द्वार पर बैठने वाले एक वृद्ध मोची है। (Prarang)
3. तीसरे चित्र में बेगम पूल के पास बैठने वाले एक मोची का चित्रण है। (Prarang)
सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/3eDIb5a
2. https://bit.ly/2BAoJHG
3. https://yourstory.com/2015/04/desi-hangover
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