डोडो, एशियाटिक चीता, पिंक हेडेड डक, सुंदरवन दरियाई घोड़ा, चीनी रिवर डॉल्फिन, पैसेंजर पिजन और इंपीरियल वुडपैकर उस लंबी सूची के कुछ प्रमुख नाम है जिसमें शामिल पशु और पक्षियों को इंसान ने जाने या अनजाने में विलुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया। अब जबकि कई और प्रजातियां खतरे में हैं यह संख्या बढ़ने वाली है। शोधकर्ता उस स्थिति में पहुंच गए हैं जहां वे क्लोनिंग की मदद से इस प्रक्रिया को पलट कर वापस करने की कोशिश करेंगे। एक विलुप्त हो चुकी प्रजाति को पुनर्जीवित करना अब किसी सपने जैसा नहीं है। लेकिन क्या है यह एक अच्छा विकल्प है? इस कदम को डी-एक्सटिंक्शन (De-Extinction) या रिसरेक्शन बायोलॉजी भी कहते हैं।
30 जुलाई 2003 को स्पेन और फ्रांस के वैज्ञानिकों ने ऐसा कारनामा कर दिखाया लगा मानो मानव का बीता हुआ समय फिर से लौट आया हो। इन वैज्ञानिकों ने एक जानवर के विलुप्त हो जाने के बावजूद उसे दोबारा जीवित कर दिया। यह जानवर एक जंगली बकरी थी जिसे बकार्डो (Bucardo) या पैरेनीन आईबेक्स (Pyrenean ibex) भी कहा जाता था। यह एक बड़ी सुंदर दिखने वाली 220 पाउंड वजन और घुमावदार सिंघों वाली बकरी थी। हजारों साल पहले यह पायरेनीस पर्वत श्रंखला पर पाई जाती थी जो फ्रांस और स्पेन को विभाजित करती है। इसके बाद शिकारियों की बारी आई जिन्होंने कई 100 सालों तक बुकार्डो का जमकर शिकार किया। 1989 में स्पेन के वैज्ञानिक ने सर्वेक्षण किया तो पता चला कि अब सिर्फ दर्जनभर ही बुकार्डो जीवित बचे बची हैं। 10 साल बाद सिर्फ एक मादा बुकार्डो बच गई उसका नाम रखा गया सीलिया। वन्य जीव संरक्षक ने सीलिया को पकड़कर एक रेडियो कॉलर लगाया और उसे वापस जंगलों में छोड़ दिया। 9 महीनों बाद रेडियो कॉलर ने अचानक जोर से संकेत दिया जिसका मतलब था कि सीलिया की मौत हो गई। वन्य संरक्षक को सीलिया की डेड बॉडी एक गिरे हुए पेड़ के नीचे दबी मिली। इस मौत के साथ बुकार्डो प्रजाति औपचारिक रूप से समाप्त हो गई, लेकिन सीलिया की कोशिकाएं अभी भी जीवित थी जोकि जारागोजा और मेड्रिड की प्रयोगशालाओं में संरक्षित थी। वैज्ञानिक सिर्फ उन्हीं प्रजातियों को क्लोन कर सकते हैं जिनके अवशेष हमारे पास संरक्षित हो।
अब तक जितने क्लोन बनाए गए हैं, उनमें सबसे जाना माना नाम है - डॉली नाम की भेड़ का। डॉली का जन्म क्लोनिंग के द्वारा 1990 के मध्य में हुआ था और उसने लगभग एक सामान्य जीवन जिया। स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के चलते हुए आगे चलकर उसकी मौत हो गई। 1813 में पैसेंजर पिजन की भरमार थी लेकिन व्यावसायिक शिकार और इनके रिहायशी इलाकों के खत्म होने के साथ ही पैसेंजर पिजन भी विलुप्त हो गए। हालांकि पैसेंजर पिजन के डीएनए को एक म्यूजियम में पाए गए अवशेषों की मदद से पुनर्जीवित करने का प्रयास हो रहा है। उम्मीद की जा रही है कि पैसेंजर पिजन की कैपटिव ब्रीडिंग क्लोनिंग के द्वारा 2024 तक होगी और 2030 तक इन्हें जंगलों में छोड़ दिया जाएगा। नई जीन संपादन तकनीक कुछ भी पुनर्जीवित कर सकती है - पैसेंजर पिजन से लेकर वूली मैमूथ तक। लेकिन क्या वैज्ञानिकों द्वारा भगवान की पदवी लेना ठीक है? पिछले 6 सालों से नई जीन संपादन तकनीक ने अकल्पनीय ढंग से जेनेटिक्स पर हमें नियंत्रण दे दिया है। जनवरी 2013 में वैज्ञानिकों ने कुछ शोध पत्र प्रकाशित किए जिनके मुताबिक पिछली बार उन्होंने क्रिस्पर की मदद से सफलतापूर्वक इंसान और जानवर की कोशिकाएं संपादित की है। फियर ऑफ डिजाइनर बेबीज (Fear of Designer Babies) यानी जन्म से पहले जेनेटिकली मॉडिफाइड बच्चों की पैदाइश का डर। डिजाइनर बेबीज यानी वह बच्चे जो मां-बाप की पसंद के अनुसार जेनेटिक के लिए डिजाइन किए जाएंगे उदाहरण के रूप में बुद्धिमत्ता और खेलकूद में अव्वल बच्चे, हालांकि यह कदम अभी बहुत दूर है लेकिन रिसर्च के लिए भ्रूण की जेनेटिक एडिटिंग चलन में आ गई है जो कि चिंता का विषय है।
एक रिपोर्ट की माने तो गुजरे डेढ़ साल में अमेरिका और चीन के शोधार्थियों ने ह्यूमन एंब्रियो में बीमारी फैलाने वाले म्यूटेशन को सफलतापूर्वक संपादित किया है। क्रिस्पर तकनीक की मदद से रोग रोधक क्षमता वाली मुर्गियां और बिना सींग वाले दुधारू पशुओं का प्रजनन किया जा रहा है। दूसरी ओर क्रिस्पर द्वारा संपादित सूअर के गुर्दे वैज्ञानिकों के अनुसार किसी दिन मनुष्य में प्रत्यारोपण के काम आ सकते हैं। डोडो एक थोड़ी दूरी तक उड़ान भरने वाली चिड़िया थी जोकि हिंद महासागर और मॉरीशस के द्वीप में पाई जाती थी। यह जमीन पर घोंसला बनाती थी और एक बार में एक ही अंडा देती थी। वैज्ञानिकों का मत है कि डोडो को क्लोनिंग के जरिए वापस लाना एक गलत कदम होगा क्योंकि 1638 में इस द्वीप पर जो मनुष्य रहने आए थे वह अपने साथ बहुत सारी बिल्लियां, चूहे और सूअर लाए थे जिनकी खुराक थी डोडो के अंडे। इसलिए वैज्ञानिकों का मत है कि इस बार भी डोडो के अंडे उसी तरीके से खा लिए जाएंगे और डोडो प्रजाति एक बार फिर विलुप्त हो जाएगी। डी-एक्सटिंक्शन के लिए सरकारी, अकैडमी कमेटी और जन सहमति जरूरी है।
प्रजाति का पुनर्जीवन है, एक महंगी प्रक्रिया
पुनर्जीवन के नए शोध के अनुसार सीमित संसाधनों में यदि हम विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के प्रयास पर खर्च करेंगे तो इसका खामियाजा उन प्रजातियों को भुगतना पड़ेगा जो इस समय विलुप्त होने की कगार पर हैं। हम इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि अभी तक कोई भी वैज्ञानिक या संस्थान किसी विलुप्त हो चुकी प्रजाति को एक लंबे समय के लिए जीवित नहीं रख पाए हैं। ऐसी स्थिति में समग्र विकास को ध्यान में रखते हुए क्लोनिंग के विकल्प के संतुलित प्रयोग से ही मानवता और इस संसार का संतुलन बना रहेगा।
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में डी एक्सटिंक्शन का कलात्मक चित्र है। (Prarang)
2. दूसरे चित्र में क्लोनिंग द्वारा बनाये गए सूअर का चरणबद्ध प्रक्रिया चित्रण है। (Peakpx)
3. तीसरे चित्र में संरक्षित किया गया डोली भेड़ का शरीर है। (Wikimedia)
4. क्लोनिंग का कलात्मक चित्रण। (Prarang)
5. अंतिम चित्रण में कबूतर का संरक्षण दिखाया गया है, डी एन ए के द्वारा। (Prarang)
सन्दर्भ:
1. https://www.nationalgeographic.com/magazine/2013/04/species-revival-bringing-back-extinct-animals/
2. https://en.wikipedia.org/wiki/De-extinction
3. https://www.wsj.com/articles/meet-the-scientists-bringing-extinct-species-back-from-the-dead-1539093600
4. https://www.livescience.com/58027-cost-of-reviving-extinct-species.html
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