जैसे ही भारत देश का नाम आता है वैसे ही दिमाग में कला और सौंदर्य हिचकोले मारने लगता है, यह इसलिए संभव हुआ क्यूंकि इस देश में अनेकों प्रकार की कलाएं फैली हुयी हैं। आदिवासी सभ्यता से लेकर मुख्य धारा तक के लोग अनेकों रसों और सौंदर्य कलाओं को अपने में समाहित किये हुए हैं। इन कलाओं पर एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा नाट्यशास्त्र से। नाट्य शास्त्र आदिकालीन भरत मुनि द्वारा रचित एक रचना है जो कि नाट्य के विभिन्न पहलुओं पर बात करती है। नाट्य का शाब्दिक अर्थ है रंगमंच, रंगमंच - अभिनय का पर्याय होता है, यह विभिन्न अभिनयों को समाहित करता है चाहे वह नृत्य हो या नाटक, प्रत्येक अभिनयों में नाट्य शास्त्र का एक अहम् योगदान होता है। यह नाट्यशास्त्र और उसमे लिखित भाव और रस के सिद्धांत ही हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति को सौंदर्य का प्रतीक या यूँ कहें कि केंद्र बना दिया है।
भारत में आज के वर्तमान समय में जितनी भी कला की विधाएं हैं उनमे नाट्य शास्त्र का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। भाव और रस एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण बिंदु हैं जो कि किसी एक अभिनयकर्ता द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। भाव अर्थात भावभंगिमा का प्रस्तुतीकरण, नाट्य शास्त्र में भाव के तीन रूपों का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसको स्थाई, संचारी और सात्विक के रूप से जाना जाता है। नाट्य शास्त्र के छठे अध्याय के सोलहवें श्लोक में भाव का विवरण प्रस्तुत किया गया है-
अब प्रत्येक भावों की बात करें तो इसमें स्थाई भाव पहला भाव है जो की आठ रसों के आधार पर कार्य करता है जिसमे रति, हास्य, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, विभत्स और विस्मय आदि का समावेश होता है। संचारी भाव में कुल 33 भावों का वर्णन होता है। सात्विक भाव में 8 भावों का वर्णन होता है। समस्त भावों और उनके उपभावों का वर्णन भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में संस्कृत श्लोक के रूप में हमें प्राप्त हो जाते हैं। नाट्य शास्त्र पूर्ण रूप से रस और भाव के आधार पर ही कार्य करता है। अब अन्य मुख्य भाग है भावों को समझने के बाद ‘रस’। रस का शाब्दिक अर्थ है स्वाद या सार, बिना रस के कोई भी भावना का प्रदर्शन संभव ही नहीं है। यह रस ही है जो कि किसी भाव को उसके चरमोत्कर्ष तक पहुचाने का कार्य करता है।
नाट्य शास्त्र के छठे अध्याय में रस का विवरण प्रस्तुत किया गया है। नाट्य शास्त्र प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व की रचना है, रस की बात करें तो यह वैदिक साहित्यों में भी वर्णित है। ऋग्वेद में रस को पेय के रूप मं बताया गया है और अथर्ववेद में इसे स्वाद के रूप में बताया गया है। उपनिषदों में भी इसे स्वाद के रूप में ही बताया गया है लेकिन भाव के रूप में रस का विवरण नाट्य शास्त्र में ही प्रस्तुत किया गया है। नाट्य शास्त्र के अनुसार रस किसी भी अभिनय का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण अंग होता है तथा यह मस्तिष्क और भाव को प्रस्तुत करने का कारक है। अभिनव भारती जो कि नाट्य शास्त्र पर आश्रित लेख है अभिनव गुप्त द्वारा लिखा गया है जो कि नाट्य शास्त्र को नाट्य वेड के नाम से भी बुलाते हैं। इसमें उन्होंने रसों के विषय में अत्यंत ही अनूप वर्णन लिखा है। भारत में रस को नृत्य, संगीत, रंगमंच, चल चित्रों में तथा साहित्य में समावेशित किया गया है। रसों के मुख्य रूपों में श्रृंगार, हास्य, रूद्र, करुण, बिभित्स, भयानक, वीर और अद्भुत आदि हैं। इन्ही वर्णित रसों के आधार पर ही पूर्ण श्रृंगार और संगीत अभिनय टिके हुए हैं।
चित्र (सन्दर्भ):
1. प्रथम चित्र में रस के दौरान चहेरे की भाव भंगिमा दिखाई दे रही है।, Wiki
2. दूसरे चित्र में नृत्य के दौरान रस भाव।, Pexels
3. वीर रस, Youtube
सन्दर्भ :
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Rasa_(aesthetics)
2. http://www.iosrjournals.org/iosr-jhss/papers/Vol19-issue5/Version-4/E019542529.pdf
3. https://disco.teak.fi/asia/bharata-and-his-natyashastra/
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