तत्व बोध का शाब्दिक अर्थ है ‘सत्य का ज्ञान’। यह एक छोटा लेकिन समग्र वेदांत का प्रकरण ग्रंथ (परिचयात्मक पाठ) है। इसकी रचना भारत के महानतम अध्यापक, सुधारक और प्रचारक भगवान श्री आदि शंकराचार्य ने की थी। वे न केवल महान दार्शनिक थे बल्कि महान लेखक, कवि, स्वप्नदर्शा, सुधारक, आयोजक भी थे। वे भगवान शिव के साक्षात ज्ञान अवतार माने जाते हैं। श्री आदि शंकराचार्य वेदों के काल-निरपेक्ष और अमर दृष्टि के अवतार थे।
तितिक्षा
तितिक्षा को उद्धव गीता में ‘पीड़ा की धैर्यवान सहनशक्ति’ के रूप में परिभाषित किया गया है। वेदांत दर्शन में इसे उदासीनता के साथ सारे विपरीतों को सहना जैसे - ख़ुशी और पीड़ा, गर्मी और सर्दी, इनाम की अपेक्षा और सज़ा, लाभ और हानि, घमंड और ईर्ष्या, नाराज़गी और प्रतिवाद, प्रसिद्धि और अंधकार, गर्व और अहंकार, जन्म और मृत्यु, प्रेम और वियोग इत्यादि। व्यक्ति के अपने व्यवहार या अतीत में उसके व्यवहार के लिए प्रोत्साहन या तिरस्कार की ज़िम्मेदारी ख़ुद उसकी होती है। तितिक्षा के छह गुणों में त्याग, सम, मानस, दम आदि है।
शंकराचार्य निम्नलिखित शब्दों में तितिक्षा की व्याख्या करते हैं-
सभी तरह की यातनाओं को धैर्य के साथ बिना मुक़ाबला किए, बिना चिंता, बिना विलाप सहना तितिक्षा कहलाता है। शंकराचार्य इस तितिक्षा का संदर्भ ब्राह्मण की जाँच के लिए एक साधन के रूप में प्रयोग करने के लिए देते हैं क्योंकि जो मन दुखी हो, विलाप करता हो, वह इस जाँच के लिए अनुपयुक्त होता है।
विवेकानंद बताते हैं, सभी दुखों का निवारण, बिना विरोध या उसे निकाल बाहर करने के विचार, बिना मन में दर्दभरी पीड़ा या किसी पश्चाताप के करने को तितिक्षा कहते हैं।
योग के अभ्यास से व्यक्ति आंतरिक रूप से शांतचित्त और प्रसन्न रहता है। भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को शांत करके बाहरी परिस्थितियों को प्रभावित करने का बेहतर सामर्थ्य पैदा होता है। इसलिए तितिक्षा एक उदासीन या सुस्त नहीं बल्कि पहला कदम है जो मन की आंतरिक बनावट को और उसकी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है। तितिक्षा के अभ्यास का महत्वपूर्ण तरीक़ा अपनी साँस पर नियंत्रण रखना। इसके सही अभ्यास से ध्यान ठीक प्रकार से होता है। प्रकृति तितिक्षा को रास्ता दिखाती है, जीवन का रचनात्मक नियम - जैसे कि जड़ता (inertia) पदार्थ का एक गुण है।
तितिक्षा क्या है ?
तितिक्षा का अर्थ है दो विपरीत जोड़ों को एक साथ सहन करने की क्षमता, जैसे गर्मी और सर्दी, सुख और कष्ट आदि। तितिक्षा या सहनशक्ति बहुत बड़ी क्षमता होती है। लोग इस तरह के विपरीत जोड़ों का सामना करने से बचना चाहते हैं। वास्तव में यह सही नहीं है, क्योंकि वह प्रक्रिया न केवल हमें एक नक़ली दुनिया दिखाती है, बल्कि हमारी आज़ादी पर भी पाबंदी लगाती है। लगातार एक भय बना रहता है उसका सामना करने का। दूसरी तरफ़ व्यक्ति के पास एक बेहतर विकल्प होता है। अपने अंदर सहनशक्ति को बढ़ाना।इसके लिए कठिन प्रयास की ज़रूरत होती है।
सहनशक्ति का तात्पर्य है कि बाहर जो भी परिस्थितियाँ हों, हमारा दिमाग़ उनसे प्रभावित न हो। हमें इस लायक़ बनना होगा कि ज़िंदगी के छोटे-मोटे उतार-चढ़ावों से प्रभावित न हों, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। स्वीकृति लेकिन बिना किसी असंतोष और असहायता के। यह तितिक्षा की एकमात्र परीक्षा है।अपने में सहनशक्ति बढ़ाने के लिए एक ही तरीक़ा है धीरे- धीरे अपनी कमियों और अपने डरों को ज़्यादा उजागर करना।मनुष्य के या किसी भी जीवित प्राणी के शरीर की अनूठी ख़ूबी होती है, नई जलवायु में ढल जाने की क्षमता। मनुष्य बड़े आराम से सभी तरह की जलवायु में रह सकता है - रेगिस्तान, बर्फ़ ढके पहाड़ी स्थान, जंगल, आर्द्र भूमि हो या शुष्क स्थान। व्यक्ति की समायोजन क्षमता अद्भुत है।
तितिक्षा को प्रकट करने के पीछे तर्क है - सभी दिखने वाली चीजों की क्षरभंगुरता का एहसास होना। सारी चीज़ें अपने बदलने के दौर में हैं, अगर हम थोड़ी देर कर देते हैं तो परिस्थिति अपने आप बदल जाती है। यहाँ यह मुहावरा बहुत सटीक है - ‘यह भी वक़्त गुज़र जाएगा’। तितिक्षा मन के स्तर तक सिर्फ़ प्रदर्शन-मात्र से नहीं पहुँचती बल्कि इसके साथ-साथ ज़्यादा समझदारी और परिपक्वता भी ज़रूरी हैं। दूसरी तरफ़ इसका ज़्यादा प्रदर्शन काफ़ी नहीं है। अंत में इसका अहसास होना ही चाहिए कि ख़ुशी और दुःख ‘व्यक्तिपरक विकास और प्रतिक्रिया’ हैं ,न कि ‘वस्तुनिष्ठ तथ्य’। सिर्फ़ इसलिए कि कोई परिस्थिति हमारे अनुकूल नहीं है, हमें अपनी शांति क्यों खो देनी चाहिए? सच तो यह है कि उस समय ज़्यादा सावधानी और शांत मन की ज़रूरत है।संतुलित मन के साथ हम कार्यशील रहते है जबकि अशांत मन के साथ झगड़े होते हैं, असहायता पैदा होती है। अपने संतुलन को बनाए रखने की क्षमता के ज़रिए हम न केवल एक परिस्थिति को ठीक से समझ पाते हैं बल्कि उसकी गहराई तक भी जाते हैं। यह एक बड़ी और बेहद ज़रूरी ख़ूबी है। यह कल्पना एक साधारण आदमी की सोच से परे है कि वह तमाम तरह की चुभने वाली स्थितियों से मुक्त हो गया है। वास्तव में यह एक लघु क्रांति है।
विपरीतों की सुलह
प्राचीन समय से पूर्वी और पश्चिमी दर्शन में दो विपरीतों के बीच एकता और समरसता का विचार मौजूद रहा है। सुकरात (Socrates) से पहले के ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिटस (Heraclitus) के अनुसार - ‘विपरीतों की एकता ब्रह्मांड में समान तत्वों के मुक़ाबले अधिक है।’
पूर्व में (उदाहरण के लिए तांत्रिक हिंदुत्व,बौद्ध धर्म, ताओ धर्म)विरोध का क़ानून(Law of opposites)या ध्रुवीकरण के सिद्धांत यह बताते हैं कि यथार्थ का खेल हमेशा दो पक्ष , दो ध्रुव सामने लाता है और इन दोनों में जो भिन्नता होती है, वह केवल मापने की डिग्री का फ़र्क़ होती है(जैसे गर्मी और ठंड स्वभाव में एक से होते हैं, एक ख़ास तापमान पर यह भिन्न होते हैं)।हर सच आधा झूठ होता है और कोई भी चीज़ एक ही समय में है, और नहीं भी है जैसे विपरीतों के मिलान का सार्वभौमिक नियम (The Universal principle of the reconciliation of opposites) दो ध्रुवों या दो विपरीतों के मिलाप के लिए जो प्रयास करना चाहता है, वह तत्व उनमें अपने आप मौजूद है। पूर्वी परम्पराओं में इस एकता का अनुभव सतोरी (Zen Buddhism), निर्वाण (Buddhism) और मोक्ष (Hinduism) में होता है।
आधुनिक समय में तमाम रचनात्मक प्रतिभावान व्यक्ति विपरीतों की पहेली में उलझ गए। ऐसे ही एक प्रतिभावान थे सैमुअल टेलर कॉलरिज (Samuel Taylor Coleridge) । उन्होंने विपरीतों के मिलान को एक संकल्पना बताया जिसमें दो विपरीत लेकिन बराबर के बल आपस में प्रतिक्रिया करते हैं जिससे तीसरा बल पैदा होता है जो कि दोनों के जोड़ और उनके अलग-अलग बल से भिन्न होता है। कॉलरिज की खोज के संदर्भ में कवि ,दार्शनिक और साहित्यिक आलोचक एली सीगल (Eli Siegel) ने प्रतिक्रिया दी- ‘जो शक्ति कविता में और सारी कलाओं में होती है और जिसे हमेशा हम अपनी ज़िंदगी में चाहते हैं - वह है विपरीतों की एकता।’ एक जाने-माने स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जंग (Swiss psychiatrist Karl Gustav Jung) ने गतिशील (dynamic) परस्पर क्रिया (interaction) और ध्रुवीय विपरीतों की आपसी क्रिया और अंत में उनके एकीकरण को एक पूर्णता के लिए आवश्यक बताया। सालों तक विपरीतों की धारणा पर बहुत अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हुए जैसे कि ब्राह्मणीय चिंतन, क्रिश्चियन रहस्यवाद (Christian Mysticism), रस विधा (Alchemy), दासता/ ग़ुलामी में उन्होंने इसके अंश पाए। उनके अनुसार - ‘विपरीतों से भेदभाव के बिना किसी चेतना का अस्तित्व नहीं है’।(The Red Book,1930)
फिर भी हम जीवन का लक्ष्य(उदा.-आत्मज्ञान , व्यक्तिवाद, आत्मबोध, स्व वास्तविकीकरण इत्यादि) परिभाषित करते हैं, वास्तविक ‘स्व’ का पूरा ज्ञान विपरीतों के समन्वय से ही हो सकता है (उदा.-प्रकाश और अंधकार,अच्छाई और बुराई ,प्रेम और घृणा इत्यादि)। इनके मिलाप से (छाया के एकीकरण) के माध्यम से हम अपने ‘आत्मीय मित्रों ‘से मिलते हैं। इस मिलाप की अवहेलना से पैदा हुए परिणामों के उदाहरण बेशुमार मानसिक उलझनों के रूप में न्यूरोसिस(neurosis) से लेकर मनोविकृतियों, तर्कहीन आपसी दुश्मनी और विध्वंसक अंतरराष्ट्रीय संघर्ष के रूप में दिखाई देते हैं। जिन चुनौतियों और जटिलताओं का सामना हम एक चिकित्सक के रूप में 21 वीं शताब्दी के शुरुआती दशक में कर रहे हैं उनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज विपरीतों की सुलह सर्वोच्च नैतिक महत्व की मनोवैज्ञानिक समस्या बन गई है और यह मानवता के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन गई है । हमें अपने पर नियंत्रण रखना होगा ।
सन्दर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Titiksha
2. http://vedantamission.tripod.com/Pub/1Read/TBodha-1.htm
3. https://www.aapweb.com/aad/ev/sr2018preview.pdf
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में चौबों को एक पंक्ति में दिखाकर तितिक्षा और उसके अभ्यास के बिंदु को प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी है।
2. द्वितीय चित्र में विरोध का क़ानून(Law of opposites) दृश्यांवित किया है।
3. तीसरे चित्र में योग मुद्रा के रूप में आत्मिक ज्ञान प्रदर्शित किया गया है।
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