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120 वर्षों से आर्थ्रोपोड (Arthropods) द्वारा मनुष्य में रोगों को प्रसारित किया जा रहा है। दरसल सैकड़ों विषाणु, जीवाणु, एककोशी और पेट के कीड़ों को कशेरुक मेज़बानों के बीच संचरण के लिए एक रक्त-चूसने वाले आर्थ्रोपॉड की आवश्यकता होती है। ऐतिहासिक रूप से, मलेरिया (Malaria), डेंगू (Dengue), पीतज्वर, प्लेग (Plague), नारू-ज्वर, ट्रायपैनोसोमायेसिस (Trypanosomiasis), लीशमैनायेसिस (Leishmaniasis) और अन्य रोगवाहक-जनित बीमारियां 17वीं शताब्दी और उसके बाद काफी अधिक रूप से मानवीय बीमारी और मृत्यु के लिए जिम्मेदार थीं।
1877 की खोज के बाद यह पता चला कि मच्छरों द्वारा नारू-ज्वर को संक्रमित व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचारित किया जा रहा था। इसके बाद ऐसे ही कई अन्य मामले सामने आए जैसे, मलेरिया (1898), पीतज्वर (1900), और डेंगू (1903) को मच्छरों द्वारा प्रसारित किया गया था। 1910 तक, अन्य प्रमुख रोगवाहक-जनित बीमारियाँ, जैसे अफ्रीकी नींद की बीमारी, प्लेग, रॉकी माउंटेन स्पॉटेड बुखार (Rocky mountain spotted fever), रिलेप्सिंग बुखार (Relapsing fever), चगास रोग (Chagas disease), सैंडफ्लाय बुखार (Sandfly fever) आदि सामने आए जिनके संचरण के लिए रक्त-चूसने वाले आर्थ्रोपॉड एक मुख्य भूमिका निभाते हैं।
आर्थ्रोपॉड मच्छरों, मक्खियों, रेत मक्खियों, जूँ, पिस्सू, टिक्स (Ticks) और घुन के साथ रोगज़नक़ रोगवाहक का एक प्रमुख समूह बनाते हैं और ये बड़ी संख्या में रोगजनकों को संक्रमित करते हैं। इन कीड़ों के इंद्रिय अंगों में विशेष रूप से संभावित मेज़बान के रक्त द्वारा उत्सर्जित रासायनिक और भौतिक संकेतों का पता लगाने का गुण मौजूद होता है। कई ऐसे रोगवाहक रक्त-चूसने वाले होते हैं, जो पूरी तरह से या सभी चरणों में रक्त का सेवन करते हैं। जब कीड़े रक्त का सेवन करते हैं, तो रोगज़नक़ मेज़बान के रक्त प्रवाह में प्रवेश कर लेते हैं। रोगजनक विभिन्न अन्य प्रकार से भी मेज़बान के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। एनोफिलिस (Anopheles) मच्छर, जो मलेरिया, नारू-ज्वर और विभिन्न आर्थ्रोपोड जनित विषाणुओं का एक रोगवाहक है, मेज़बान की त्वचा के नीचे अपने नाज़ुक मुखपत्र के माध्यम से रक्त का सेवन करता है। दरसल मच्छर द्वारा वहन किए हुए परजीवी आमतौर पर उसकी लार ग्रंथियों में स्थित होते हैं। इस कारण ही परजीवी सीधे मेज़बान के रक्त प्रवाह में संचारित हो जाते हैं।
मानव से मानव में रोगों को फैलाने वाले कीट रोगवाहक स्वास्थ्य प्रणालियों पर काफी बोझ डालते हैं और लाखों लोगों की मौत का कारण बनते हैं, खासकर दक्षिण और मध्य अमेरिका (America) और एशिया (Asia) जैसे विकासशील देशों में। कीटों के काटने से होने वाले रोगों को रोकने के लिए प्रति वर्ष लाखों डॉलर अनुसंधान और प्रतिकारक यौगिकों के उत्पादन पर खर्च किए जाते हैं। इन रोगों को फैलने से रोकने और नियंत्रित करने के लिए अधिकांश तौर पर इन रोगजनक कीटों पर नियंत्रण किया जाता है। इसी उपाय का उपयोग करके सर्वप्रथम क्यूबा (Cuba) में पीतज्वर पर नियंत्रण पाया गया था और उसके बाद पनामा (Panama) में पीतज्वर और मलेरिया पर भी काफी तेज़ी से नियंत्रण पा लिया गया।
वहीं कीट रोगवाहक संभावित रूप से सूक्ष्मजीवनिवारक प्रतिरोध को बढ़ाने के लिए रोगाणुरोधकों का एक बड़ा भंडार हो सकते हैं। संक्रामक रोगों के प्रति जीवाणुनाशक प्रतिरोध में वृद्धि के साथ, निरोधात्मक प्रभाव वाले यौगिकों की पहचान के लिए नई रणनीतियों की गंभीर आवश्यकता देखी गई है। हालांकि, जीनोम (Genome) अनुक्रमण और संभावित रोगाणुरोधी जीन समूहों के व्यवस्थित लक्षण के पारंपरिक तरीके प्रभावी हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश सूक्ष्मजीवनिवारक प्रतिरोध में वृद्धि की गति के अनुरूप परिणाम नहीं दे रहे हैं। इसके लिए सूक्ष्मजीवनिवारक यौगिक खोज के लिए लक्षित दृष्टिकोण का उपयोग किया जा सकता है।
कीटों के भीतर और रोगजनकों के बीच सहसंयोजक सहजीवी जीवाणु होते हैं, जो अक्सर कीट मेज़बान के उपनिवेशण पर एक जनसंख्या बदलाव से गुज़रते हैं। वहीं शेष जीवाणु या तो संबंधित परजीवियों के प्रभावों के लिए प्रतिरोधी हो सकते हैं या संभवतः एक सफल उपनिवेशण के लिए आवश्यक होते हैं और इससे जीवाणु और कीट मेज़बान के बीच एक विदारक सहजीवन के कारण परजीवी का प्रसार जारी रहता है। दिलचस्प बात यह है कि ये बदलाव अक्सर जीवाणु के समूहों की ओर होते हैं, वे जीवाणु जो कई पॉलीकेटाइड सिन्थेज़ (Polyketide synthase) और गैर-राइबोसोमल पेप्टाइड सिंथेटेज़ (Non-ribosomal Peptide Synthetase) जीन समूहों को बायोएक्टिव (Bioactive) अणु उत्पादन में शामिल करने के लिए जाने जाते हैं।
संदर्भ:
1.https://en.wikipedia.org/wiki/Vector_(epidemiology)#Arthropods
2.https://www.sciencedirect.com/topics/medicine-and-dentistry/insect-vector
3.https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC5177651/
4.https://wwwnc.cdc.gov/eid/article/4/3/98-0326_article