किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के संतुलन को बनाए रखने के लिए मुद्रा विनिमय दर (Currency Exchange Rate) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मुद्रा विनिमय दर दो अलग-अलग मुद्राओं की सापेक्ष कीमत होती है, जो यह बताती है कि आपके देश की मुद्रा का विदेशी मुद्रा में कितना मूल्य है। इसे उस मुद्रा को खरीदने के लिए लगाये जा रहे मूल्य के रूप में देखा जा सकता है। ज्यादातर मुद्राओं के लिए विदेशी मुद्रा व्यापारी विनिमय दर तय करते हैं। कुछ देशों के लिए, विनिमय दरें लगातार बदलती रहती हैं, जबकि अन्य निश्चित विनिमय दर का उपयोग करते हैं। किसी देश का आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण अन्य देशों की तुलना में उसकी मुद्रा विनिमय दर को प्रभावित करता है। मुद्रा विनिमय दरें विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित की जाती हैं, जैसे ब्याज दरें, आर्थिक विकास, सापेक्ष मुद्रास्फीति की दरें आदि। उदाहरण के लिए, यदि अमेरिकी व्यापार अपेक्षाकृत अधिक प्रतिस्पर्धी है, तो अमेरिकी वस्तुओं की अधिक मांग होगी तथा अमेरिकी वस्तुओं की मांग में यह वृद्धि डॉलर (Dollar) की सराहना (मूल्य में वृद्धि) का कारण बनेगी।
मुद्रा विनिमय दर को मुख्य रूप से तीन कारक प्रभावित करते हैं जिसका पहला कारक ब्याज दर है। किसी देश की मुद्रा की मांग इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश में क्या हो रहा है। किसी देश के केंद्रीय बैंक द्वारा दी जाने वाली ब्याज दर इसका एक बड़ा कारक है। उच्च ब्याज दर उस मुद्रा को अधिक मूल्यवान बनाती है। निवेशक अपनी मुद्रा का विनिमय अधिक भुगतान करने वाले के साथ करेंगे। तब वे इसे उस देश के बैंक में उच्च ब्याज दर प्राप्त करने के लिए संचित करेंगे। दूसरा कारक देश के केंद्रीय बैंक द्वारा निर्मित धन की आपूर्ति है। अगर सरकार बहुत अधिक मुद्रा छापती है, तो उस देश की उन्हीं वस्तुओं को खरीदने के लिए अधिक मुद्रा इप्लाब्ध होगी। इससे मुद्रा धारक वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में वृद्धि करेंगे, जिससे मुद्रास्फीति (Inflation) उत्पन्न होगी। अगर अत्यधिक धन मुद्रित किया जाता है तो यह अत्यधिक मुद्रास्फीति का कारण बन जाता है। कुछ नकदी धारक विदेशों में निवेश करेंगे जहां मुद्रास्फीति नहीं है, लेकिन वे पाएंगे कि उनकी मुद्रा की उतनी मांग नहीं है, क्योंकि वहां पहले से ही बहुत कुछ है। यही कारण है कि मुद्रास्फीति एक मुद्रा के मूल्य को कम कर देती है। तीसरा कारक किसी देश की आर्थिक वृद्धि और वित्तीय स्थिरता है, जो इसकी विनिमय दरों को प्रभावित करती है। यदि देश में एक मज़बूत, बढ़ती अर्थव्यवस्था है, तो निवेशक इसकी वस्तुओं और सेवाओं को खरीदेंगे। ऐसा करने के लिए उन्हें इसकी मुद्रा की अधिक आवश्यकता होगी। यदि वित्तीय स्थिरता खराब दिखती है, तो वे उस देश में निवेश करने के लिए कम इच्छुक होंगे।
व्यापार संतुलन (Balance of Trade) भी मुद्रा विनिमय दर को प्रभावित करने वाला एक अन्य कारक है। व्यापार संतुलन को वाणिज्यिक संतुलन या नेट निर्यात (Net Exports) भी कहा जा सकता है, जो एक निश्चित समय अवधि में किसी देश के निर्यात और आयात के मौद्रिक मूल्य के बीच का अंतर है। यह निश्चित अवधि में निर्यात और आयात के प्रवाह को मापता है। यदि कोई देश आयात करने से अधिक मूल्य का निर्यात करता है, तो उसका व्यापार संतुलन सकारात्मक है। इसके विपरीत, यदि देश निर्यात से अधिक मूल्य का आयात करता है, तो उसका व्यापार संतुलन नकारात्मक होगा। विदेशी मुद्रा की आपूर्ति और मांग पर अपने प्रभाव के कारण व्यापार संतुलन मुद्रा विनिमय दरों को प्रभावित करता है। जब किसी देश का निर्यात, आयात के बराबर नहीं होता है, तो देश की मुद्रा के लिए अपेक्षाकृत अधिक आपूर्ति या मांग होती है, जो विश्व बाज़ार पर उस मुद्रा की कीमत को प्रभावित करती है। इस प्रकार व्यापार संतुलन, मुद्रा विनिमय दरों को आपूर्ति और मांग के रूप में प्रभावित करता है जिससे मुद्राओं के मूल्य की मांग या तो बढ़ती है या फिर कम होती है। अपने माल की अधिक मांग वाला देश आयात से अधिक निर्यात करता है, जिससे उसकी मुद्रा की मांग बढ़ती है। एक देश जो निर्यात से अधिक आयात करता है, उसकी मुद्रा की मांग कम होगी।
क्रिसिल (Crisil) के अनुसार, भारत के कुल माल का लगभग 18% आयात चीन से होता है। 2019 के अनुसार भारत में व्यापार संतुलन नकारात्मक 159 बिलियन डॉलर था। भारत चीन का 56 बिलियन डॉलर का शुद्ध आयातक बना हुआ है। यह कमी इलेक्ट्रॉनिक्स (Electronics), कंज्यूमर ड्यूरेबल्स (Consumer Durables), ऑटो कंपोनेंट्स (Auto Components) और फार्मा (Pharma) में स्थापित उद्योगों को सबसे अधिक प्रभावित करती है। भारत में, 2018 में रुपये की डॉलर विनिमय दर लगातार गिरती गई। शुरूआत में, एक डॉलर की कीमत 63 रुपये थी, लेकिन बाद के महीनों तक डॉलर की कीमत 74 रुपये तक बढ़ गयी। इस गिरावट का मुख्य कारण भारत के केंद्रीय बैंक या भारतीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank of India) को माना जाता है क्योंकि वह रुपया-डॉलर विनिमय दर को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं थे। 2017-18 में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन अच्छा था। इस समय देश की वास्तविक जीडीपी (GDP) वृद्धि 6.5% थी, तथा मुद्रास्फीति 3.6% थी, जिसका लक्ष्य 4% रखा गया था। इस आधार पर, आरबीआई ने अपनी बेंचमार्क (Benchmark) ब्याज दर को अपरिवर्तित 6.5% रखने का निर्णय लिया। आरबीआई से फेडरल रिजर्व (Federal Reserve) के अनुरूप ब्याज दरें बढ़ाने की उम्मीद की जा रही थी, किंतु ऐसा नहीं हुआ और नतीजतन डॉलर के मुकाबले रुपया 74.2 के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गया। आरबीआई अपने मुद्रास्फीति लक्ष्य को पूरा करने के लिए ब्याज दरों को निर्धारित करता है।
भारत की बढ़ती हुई वर्तमान खाता कमी (Current Account Deficit) आंशिक रूप से रुपये की कमज़ोरी को दर्शाती है। हाल के वर्षों में, भारत अपनी अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए कम तेल की कीमतों और भरपूर आपूर्ति पर निर्भर है। लेकिन तेल की डॉलर की कीमत बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त, रुपये की गिरती डॉलर विनिमय दर के कारण, रुपये में तेल की कीमत बढ़ रही है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति भी बढ़ रही है। तेल की बढ़ती कीमत भारत के वर्तमान खाता कमी के आकार को बढ़ाती है। यदि यह कमी लगातार बढ़ती गयी, तो भारत के अचानक रुक जाने का जोखिम बढ़ सकता है, जिससे विदेशी निवेशक अपने फंड (Fund) को अचानक वापस ले सकते हैं। भारत का सीमित फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व (Foreign Exchange Reserves) भी इस जोखिम को और अधिक बढ़ाता है।
सन्दर्भ:
1.https://www.thebalance.com/how-do-exchange-rates-work-3306084
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Balance_of_trade
3.https://www.investopedia.com/ask/answers/041515/how-does-balance-trade-impact-currency-exchange-rates.asp
4.https://www.economicshelp.org/macroeconomics/exchangerate/factors-influencing/
5.https://bit.ly/2wmQp0B
6.https://www.americanexpress.com/us/foreign-exchange/articles/fall-indian-rupee-strong-dollar-exchange-rate/
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