आम तौर पर संग्रहालय का काम इतिहास की धरोहरों को सहेज कर रखना होता है, लेकिन लंदन (London) के हैकनी म्यूज़ियम (Hackney Museum) ने एक अनोखी पहल की है, जिसमें वे औपनिवेशिक भारत के एक अनछुए पहलू से पर्दा उठाने में जुटे हैं।
लगभग एक शताब्दी पहले की बात है, किंग्स क्रॉस स्टेशन (Kings Cross Station), लंदन पर एक महिला को अकेला छोड़ दिया गया। उस महिला का नाम किसी रिकॉर्ड (Record) में दर्ज नहीं था लेकिन उसको काम पर रखने वाले का नाम ज़रूर रिकॉर्ड में दर्ज था। एक ब्रिटिश परिवार ने इस महिला को औपनिवेशिक भारत से इंग्लैंड के लिए समुद्री यात्रा में अपने बच्चों की देखरेख के लिए काम पर रखा था। मिस्टर एंड मिसेस ड्रमंड (Drummond) ने उसे आश्वासन दिया कि इंगलैंड से मुंबई वे उसे अपने साथ वापस इसी तरह लाएंगे। इसके बजाए उसे स्टेशन पर अकेला छोड़ ड्रमंड दम्पत्ति खुद जहाज़ से चले गए, जबकि उस भारतीय महिला की जेब में सिर्फ एक पाउंड (Pound) का नोट था। जून 1908 को एक अंजान देश में इस बेनाम महिला का अनुभव दर्दनाक होते हुए भी, यह कोई नई बात नहीं थी। वह उन सैकड़ों-हज़ारों आयाओं में से एक थी जो मालदार परिवारों द्वारा यात्रा के लिए बच्चों की सस्ती देखरेख के लिए 18वीं और 20वीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटेन (Britain) लाई जाती थीं। बहुत सी वापिस अपने घर हिंदुस्तान चली जाती थीं, लेकिन दूसरी महिलाएं जहाज़ से लंदन उतरते ही छोड़ दी जाती थीं, जोखिम भरे हालातों में और ज्यादातर मामलों में आगे उनके साथ क्या हुआ इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। 80 वर्षों बाद जब ब्रिटिश साम्राज्य के अंत के साथ इन आया रखने का चलन भी खत्म हो गया, तब पूर्वी लंदन के हैकनी म्यूजियम में एक समारोह रखा गया, जिससे ये उम्मीद बंधी कि इन महिलाओं पर एक बार फिर ध्यान जाए और भूले हुए ब्रिटिश औपनिवेशिक और प्रवासी इतिहास को फिर से याद किया जाए।
इस समारोह का आयोजन फरहाना मामूजी, पूर्वी लंदन की एक 28 साल की युवती ने किया था। इन्होंने एक डॉक्यूमेंटरी (Documentary) से इस विषय पर जानकारी हासिल की। सबसे ज्यादा ताज्जुब उन्हें ये जानकर हुआ कि जिस इमारत के पड़ोस में वो रहती थीं, वहां कभी ऐसी बेसहारा आयाओं का हौस्टल (Hostel) हुआ करता था। ये हॉस्टल आयाज़ होम (Ayah’s Home) 19वीं शताब्दी में पूर्वी लंदन में संबंधित समाजसेवियों द्वारा बनवाया गया था। जिन दो इमारतों में ये होम चलता था वो आज भी हैकनी में मौजूद है। मामूजी ने इस ब्रिटिश विरासत को ब्लू प्लाक (Blue Plaque - यानि ब्रिटेन द्वारा इस जगह को एक ऐतिहासिक महत्व की जगह करार दिया जाएगा) पहचान दिए जाने के लिए आवेदन किया है जिसे स्वीकार करके उस पर आगे काम चल रहा है। फरहाना का मानना है कि सिर्फ वो ही नहीं बल्कि दूसरे लोग भी इसके बारे में जानना चाहते हैं। इत्तेफाक से फरहाना एक सेवा निवृत्त इतिहासकार रोज़ीना विस्राम से मिलीं। रोज़ीना ज़न्ज़ीबार (Zanzibar) से 1970 में ब्रिटेन आईं थीं। उन्होंने इन अनाम भारतीय आयाओं के बारे में शोध शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि लगभग 140 महिलाएं जो हर साल ब्रिटेन आती थीं वे एकदम अकेली और मुसीबतों की चपेट में रहती थीं, लेकिन वे अकेली पीड़ित नहीं थीं। ऐसा विस्राम का मानना था कि वे बहुत साहसी और जुझारु थीं। मिन्नी ग्रीन (Minnie Green) नाम की आया ने अपने अत्याचारी मालिक के विरुद्ध अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और वो मुकदमा जीत भी गई। एक और महिला श्रीमती एन्थोनी परेरा (Mrs Anthony Pareira) के नाम ये रिकॉर्ड है कि उन्होंने भारत और ब्रिटेन के बीच 54 बार महीनों लंबी समुद्री यात्रा की और बच्चों की देखभाल को अपना करियर (Career) बनाया।
विस्राम का मानना है कि वो नौकरीपेशा थीं, और नौकरी पेशा लोग इतिहास से हमेशा गायब रहते हैं क्योंकि वो अपनी आप बीती खुद नहीं लिखते और महिला होने के नाते, यहां पर लिंगभेद की भी समस्या होती है। ऐसे में हम उनकी जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते। फरहाना के उत्साह से प्रेरित होकर, हैकनी म्यूज़ियम के स्टाफ (Staff) ने आयाओं के इतिहास के बारे में खुद अपने स्तर पर शोध शुरू कर दिया है। म्यूज़ियम की मैनेजर (Manager) नीति आचार्य इसे एक बड़ी चुनौती मानती हैं। 20वीं शताब्दी की शुरुआत से उन्होंने ऐसी पैसेंजर लिस्ट (Passanger List) और लैंडिंग कार्ड्स (Landing Cards) की स्कैनिंग (Scanning) शुरू की है, जिनमें साथ यात्रा करने वाली आयाओं का ज़िक्र है। 95% से अधिक लिस्ट का अध्ययन करने पर उन्हें आया स्मिथ (Smith), आया लैगाट (Leggatt) जैसे नाम मिले हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो ये परिवार इन आया को अपनी संपत्ति ही मानते थे। उनका अध्ययन ये बताता है कि जितनी आया ब्रिटेन से वापस लौट गईं, उससे कहीं ज्यादा संख्या में आया ब्रिटेन लाई गई थीं। इससे ये सवाल उठता है कि उनका क्या हुआ जो ब्रिटेन में रुक गईं? उनकी जिंदगी में आगे क्या हुआ? क्या वो अपने परिवारों के साथ रह रही हैं, क्या उन्हें अपना प्यार मिला और उन्होंने अपनी गृहस्थी बसा ली? विडंबना ये है कि जब महिला खुद का नाम बदल लेती है, अंग्रेजीकरण वाला दिया गया नाम रख लेती है तो आया के रूप में उन्हें ढूंढना नामुमकिन हो जाता है और वो इतिहास से गायब हो जाती हैं। लेकिन ये सिर्फ भारतीयों का मामला नहीं है क्योंकि यह अप्रवासी इतिहास नहीं है- ये ब्रिटिश इतिहास का हिस्सा है और ये पूरी दुनिया को बताया जाना चाहिए।
इन गुमनाम आयाओं के साथ-साथ विक्टोरियन इंग्लैंड (Victorian England) के दौर में ज्यादातर नौकरों के लिए अपना काम वाकई में किसी कांटों भरे ताज से कम नहीं था। 18वीं और 19वीं शताब्दी में जब ब्रिटेन का भारत में शासन था, तब घरेलू नौकर रखना सामान्य चलन में था। वेतन बहुत कम थे और नौकरों का रहन-सहन भी दयनीय था। आज ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें नौकर रखने की मनाही हो, सामाजिक आदतें बदल चुकी हैं, चूंकि नौकरों के निम्नतम वेतन बहुत ऊंचे हो चुके हैं और इस संबंध में कानून भी बहुत सख्त हो गया है। इंग्लैंड में बहुत अमीर लोग ही अपने घर में नौकर रख सकते हैं। यही आज के लगभग सभी विकसित देशों का सच है, चाहे वो अमेरिका (America), जर्मनी (Germany), फ्रांस (France), डेन्मार्क (Denmark) जैसे देश ही क्यों ना हों। ध्यान देने की बात ये है कि आज उन नौकरों की दुर्दशा की बड़ी कहानियां निकलकर बाहर आ रही हैं, जो अपने मालिकों के साथ भारत में ब्रिटिश राज के चलते इंग्लैंड आये थे।
विक्टोरियन इंगलैंड में घरेलू नौकरों की स्थिति
विक्टोरियन समय में जैसे-जैसे धनाढ्य परिवारों के सामाजिक स्तर में तरक्की होती गई, वैसे—वैसे नौकरों की ज़रूरत विक्टोरियन इंग्लैंड में बढ़ती गई।
विक्टोरियन इंग्लैंड में नौकरों की मुश्किल जिंदगी
1891 में ब्रिटिश जनगणना से पता चला कि 13 लाख लड़कियां और औरतें विक्टोरियन इंग्लैंड में नौकरों का काम करती थीं। वह 10-13 साल की उम्र में ही काम पर रख ली जाती थीं। इससे पहले उनकी थोड़ी बहुत पढ़ाई लिखाई हो जाती थी। बहुत से मालिक ये उम्मीद करते थे कि जो नौकर वे काम पर रख रहे हैं, उसे थोड़ा लिखना-पढ़ना और हिसाब करना आता हो। 1850 के आस-पास ऐसा होना मुश्किल था, लेकिन 1880-1890 के दशक में इस बात की ज़रूरत बढ़ गई। जब सबसे ज्यादा काम करना होता था वे छुट्टी के दिन होते थे, उदाहरण के लिए क्रिसमस (Christmas) पर जिस परिवार के यहां भोजन का आयोजन होता तो सारे इंतजाम नौकरों को ही पूरे करने होते थे। इसी प्रकार क्रिसमस के अगले दिन बॉक्सिंग डे (Boxing Day) एक पारंपरिक आयोजन होता था जिसमें सभी नौकरों को उपहार के तौर पर डिब्बे दिए जाते थे, इसलिए इस रीत का नाम ही बॉक्सिंग डे पड़ गया।
इस नौकरी से बहुत सारे नुक्सान भी थे। पहला, नौकर होने के कारण हर समय व्यक्ति की जांच होती रहती थी। साथ ही जबरदस्त रंगभेद के कारण नौकर ही निशाने पर रहते थे। परिवार के साथ बहुत करीब से रहने के कारण हर समय यह अहसास कराया जाता था कि नौकर उस परिवार का हिस्सा नहीं हैं। ज्यादातर मालिकों को लगता था कि नौकरों के सामान की जांच करने का उन्हें अधिकार है। यह उनकी परिधि में था कि वे नौकरों के कमरों की दराजों की जांच करें और देखें कि कोई आपत्तिजनक चीज तो वहां नहीं छुपी है। मध्यमवर्ग की शादीशुदा औरतों की सलाह-पुस्तिकाओं में निर्देश रहते थे कि नौकरों पर कड़ी नज़र रखी जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वे ठीक से काम कर रहे हैं। 1860 तक कानूनी तौर पर नौकरों को पीटना जायज़ था। यह भी न्यायसंगत था कि वह मालिकों के साथ चर्च (Church) जाएं। चर्च में भी भेदभाव कम नहीं होता था और नौकरों को चर्च में भी एक अलग स्थान पर बैठना पड़ता था। नौकरों के विज्ञापन में यह स्पष्ट होता था कि उन्हें इंग्लैंड चर्च का होना चाहिए था। कभी-कभी अखबार के विज्ञापनों में ऐसा भी लिखा होता था –किसी विशिष्ट मूल के व्यक्ति को आवेदन करने की ज़रूरत नहीं है। नौकरों को अक्सर कहा जाता था कि वे खामोश रहें और अपनी उपस्थिति का पता न चलने दें।
विक्टोरियन नौकरों की उपेक्षित जिन्दगी
विक्टोरियन नौकरों की अपनी कोई पहचान नहीं थी बल्कि किसी काम से उनका नाम जुड़ा होना बहुत आम बात थी। जैसे बावर्ची की मददगार नौकरानी के पद का नाम मैरी था, अगर नौकरानी का नाम कुछ और भी हो, लेकिन उसे मैरी ही बुलाया जाएगा क्योंकि बावर्ची की मदद करने वाली महिला को मैरी ही बुलाया जाता है। अगर नौकर के मालिक आर्थिक रूप से कमज़ोर हालत के होते तो नौकर को एक समय के भर पेट भोजन की उम्मीद भी रखने का अधिकार नहीं था। ऐसे तमाम नौकरों के किस्से आम थे जो कुपोषण के शिकार थे। अगर एक नौकर बीमार पड़ जाए तो उसकी नौकरी बची रहने का कोई आश्वासन नहीं था। उसे नौकरी से निकालने के लिए मालिक को इतनी वजह बहुत थी कि वो ज़रूरत पर काम करने के लिए मौजूद नहीं था।
यही नहीं नौकर बनने का मतलब था कि अपने परिवार और दोस्तों से दूरी बनाकर रहना। बहुत से मालिकों को लगता था कि नौकर का अपने परिवार और दोस्तों से घुल मिलकर रहने का मतलब था कि उसके परिवार वाले कहीं मालिक के घर मेहमान बनकर डेरा ना जमा लें। वहीं मालिकों को ये भी डर था कि कहीं नौकर अचानक अपने परिवार से मिलने लंबी छुट्टी लेकर ना चला जाए। उस समय के इंग्लैंड में लड़कियों का अपनी किशोरावस्था और बीस साल की उम्र के बाद भी काम करना सामान्य बात थी और फिर वे अपने सामाजिक तबके में शादी करने के लिए नौकरी छोड़ देतीं थी। अपना पूरा जीवन नौकरी करते बिताना औरतों के लिए आसान नहीं था, लेकिन फिर भी कुछ संख्या ऐसी महिलाओं की भी थी जिन्होंने अपना पूरा जीवन नौकरी करते ही काट दिया।
विक्टोरियन इंग्लैंड में नौकर होने के फायदे भी थे
लेकिन नौकर होने के कुछ फायदे भी थे। सबसे पहले, भव्य वातावरण में रहने का मौका मिलता था, नौकरी के दौरान अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा अच्छे माहौल में रहने का मौका मिलता जो किसी और नौकरी में शायद नहीं मिलता। एक नौकर होने के नाते दूसरे नौकरों के साथ जगह बांटनी पड़ती थी। बहुतों को यह बात बहुत खटकती होगी लेकिन उन नौकरों के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। और ऐसे में उनके लिए सोने पर सुहागा वाली बात थी अगर अच्छा मालिक मिल जाए जो उन्हें कुछ हद तक ही सही पर अपने परिवार का हिस्सा माने। कुछ विक्टोरियन परिवार वाकई अपने नौकरों का बहुत ख्याल रखते थे, बिलकुल अपनी औलाद की तरह। विक्टोरियन इंग्लैंड उस दौर से गुज़र रहा था जब अभिभावकों का बच्चों के लिए एक ही संदेश था कि तुम दिखाई तो देने चाहिए हो, पर तुम सुनाई नहीं देने चाहिए हो। नौकरों की भी ठीक ये ही दशा थी। यानि बड़ी उम्र के लोगों की गतिविधियों में शामिल ना किया जाना, जबरदस्ती खामोश, आज्ञाकारी और विनम्र बने रहना। जिन्दगी जीने के इस तरीके की जैसे उन्होंने आदत सी डाल ली थी। विक्टोरियन समय में जो बच्चे पले बड़े हुए उनके द्वारा लिखे गए सभी संस्मरणों का निचोड़ यही था कि वे लोग अपने नौकरों के बेहद करीब थे बजाए अपने माता-पिता के। अभिभावकों और बच्चों के बीच संवादहीनता की पारदर्शी दीवार सी खड़ी थी।
1940 से 1945 तक और 1951 से 1955 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे सर विंस्टन चर्चिल (Sir Winston Churchill) की किताब माई अर्ली लाइफ (My Early Life) में चर्चिल ने बड़ी बेबाकी से बताया है कि वे बचपन में अपनी आया के बहेद करीब थे। वहीं दूसरी ओर चर्चिल की नज़र में उनके माता-पिता के साथ उनका रत्ती भर भी भावनात्मक संबंध नहीं था और उनके अभिभावक महज एक अजनबी थे। और उनके पास चर्चिल के लिए कभी वक्त ही नहीं था। इस किस्से का सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि जब चर्चिल आत्मनिर्भर हो गए तो उनकी आया ने एटली (Attlee) परिवार के घर नौकरी करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि जिस बच्चे की देखरेख में वो लगी थीं वो कोई और नहीं बल्कि क्लेमेंट एटली (Clement Attlee) थे जो आगे चलकर चर्चिल के बाद 1940 के दशक के अंत में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने। ब्रिटेन के विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस (Charles Dickens) ने विक्टोरियन समय में बाल श्रमिक का काम किया था। जब वे 12 साल के थे तो उन्हें जबरन एक फैक्ट्री (Factory) में मजदूरी करने जाना पड़ा था। शायद यही कारण है कि अपने उपन्यासों में उन्होंने बाल श्रम की पीड़ा को बहुत गहराई से व्यक्त किया है। डिकेंस कहते हैं - ऐसा कोई भी व्यक्ति बेकार नहीं है जिसे दूसरों के बोझ को हल्का करने की कला आती है।
संदर्भ:
1. https://www.thegreatcoursesdaily.com/servants-in-victorian-england/
2. https://bit.ly/2Qjwx5i
3. https://bit.ly/3a174Fq
4. https://bit.ly/2wVFStd
चित्र सन्दर्भ:
1. The Ayahs’ Home at 26 King Edward’s Rd, Hackney. Photograph: British Library
2. Maids of All Work, by John Finnie, https://bit.ly/2QlvLV4
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Maid
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Amah_(occupation)
5. George Clive and his family with an Indian maid, painted 1765. As she appears to be caring for the child, she may be an ayah.
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