भारत विविध संस्कृति और जातियों का देश है, जिसकी वजह से ही भारत अपने प्राचीन काल से ही विकसित मार्शल आर्ट के लिए प्रसिद्ध है। मेरठ में बड़ी संख्या में मार्शल आर्ट के विद्यालय देखे जा सकते हैं जो विभिन्न लोकप्रिय प्राच्य मार्शल आर्ट्स में अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करते हैं। लेकिन यहाँ ऐसे बहुत कम विद्यालय हैं जो केरल में उत्पन्न हुई भारत की सबसे पुरानी मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु सीखने का विकल्प प्रदान करते हैं।
कलरीपायट्टु एक भारतीय मार्शल आर्ट और युद्ध कला है, इसका उल्लेख केरल के मालाबार क्षेत्र से चेकावर के बारे में लिखे गए वडक्कान पट्टुकल गाथागीत में भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति मार्शल आर्ट समयरेखा में कम से कम तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से हुई है। इसे प्राचीन समय में युद्ध के मेदानों में लड़ने के उद्देश्य से बनाया गया था, साथ ही इसकी हथियार और लड़ाकू तकनीकें भारत के लिए अद्वितीय हैं। कलरीपायट्टु के गुणी को मानव शरीर पर मौजूद दबाव बिंदुओं और चिकित्सा तकनीकों का गहन ज्ञान होता है जो आयुर्वेद और योग के ज्ञान को शामिल करता है।
छात्रों को गुरु, साथी-छात्रों, माता-पिता और समुदाय के प्रति सम्मान, दया, और अनुशासन के साथ जीवन व्यतीत करने के तरीके के रूप में मार्शल आर्ट सिखाई जाती है। इसके साथ ही उन्हें कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं होने पर टकराव की स्थितियों से बचने और सुरक्षा के साधन के रूप में ही मार्शल आर्ट का उपयोग करने पर विशेष जोर दिया जाता है। वहीं भारत के अन्य हिस्सों के विपरीत, केरल में योद्धा सभी जातियों से आते हैं और महिलाओं द्वारा भी कलरीपायट्टु का प्रशिक्षण लिया जाता था। योग और प्रदर्शनकारी नृत्य के तत्वों को शामिल करते हुए, कलरीपायट्टु के संचलन बेशक क्रूर होते हैं, लेकिन उन्हें सुंदर नृत्यकला की तरह देखा जाता है।
कलरीपायट्टु के मार्शल आर्ट में उरुमी तलवार का उपयोग भी किया जाता है। हालांकि उरुमी का उपयोग वर्तमान समय में वास्तविक हथियार के रूप में नहीं किया जाता है, लेकिन इसका उपयोग आमतौर पर एक प्रदर्शन हथियार के रूप में किया जाता है, पर यह अभी भी अविश्वसनीय रूप से खतरनाक है, खासतौर पर उपयोगकर्ता के लिए। उरुमी को 'सुरुल वाल' के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है ‘वसंत तलवार’। जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता है कि इस हथियार में एक धातु का ब्लेड (blade) होता है जिसे चाबुक की तरह लपेटा जाता है। एक अत्यधिक कठिन हथियार होने के कारण उरुमी की तकनीक को कलरीपायट्टु में आमतौर पर अंत में सिखाया जाता है। चूंकि उरुमी एक चाबुक की तरह काम करता है, इसलिए इस हथियार का उपयोग करने से पहले इसका पूर्व ज्ञान होने की आवश्यकता होना अनिवार्य होता है। इसलिए छात्रों को पहले कपड़े के एक टुकड़े के साथ अभ्यास करके उरुमी का उपयोग करना सिखाया जाता है। यह छात्रों को चोट पहुंचाने के जोखिम को कम करने का भी कार्य करता है।
उरुमी में धातु की एक लंबी पट्टी के साथ उसे पकड़ने के लिए उसमें अंगूठे और उंगली के लिए कवच भी मौजूद होता है। उरुमी के चाबुक जैसे डिज़ाइन (design) के कारण जब इसका उपयोग नहीं किया जाता है तब इसे लपेटकर रखा जाता है। ऐसा करने से इसे छुपाने के लिए या यात्रा के दौरान ले जाने के लिए आसानी होती है। इसके अलावा इसे अधिकांश मामले में बेल्ट के रूप में पहना जाता है। ऐसा माना जाता है कि उरुमी की उत्पत्ति भारत के दक्षिणी राज्यों में मौर्य राजवंश (अर्थात् चौथी और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच) के समय में हुई थी। हालांकि, उरुमी का उपयोग अंततः दक्षिण भारत के योद्धाओं द्वारा अब नहीं किया जाता है और इसका एक हथियार के रूप में नियमित रूप से इस्तेमाल किया जाना भी बंद हो गया है।
संदर्भ:-
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Urumi
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Kalaripayattu
3. https://bit.ly/2v8P6Bz
4. https://bit.ly/32nmxfZ
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