किसी भी स्थल का ज्ञान वहां से प्राप्त पुरातात्विक संपदाओं पर निर्भर करता है। मेरठ भारत का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण शहर है और यहाँ की ऐतिहासिकता को यदि देखा जाए तो ये भी अत्यंत प्राचीन काल तक जाती है। मेरठ के नजदीक ही दो पुरातात्विक स्थल हैं जिन्हें की आलमगीरपुर और हस्तिनापुर के नाम से जाना जाता है। ये दोनों पुरातात्विक स्थल मेरठ की और इसके आस पास के क्षेत्रों की ऐतिहासिकता सिन्धु सभ्यता, लौह युग आदि तक लेकर जाते हैं। इस लेख में हम हस्तिनापुर और आलमगीरपुर से मिले लोहे के अवशेषों और वहां से मिले इस युग के मृद्भांडों के विषय में भी चर्चा करेंगे।
पहले हम हस्तिनापुर के विषय में चर्चा करते हैं-
हस्तिनापुर मेरठ के समीप बसा हुआ एक प्राचीन पौराणिक शहर है। यहाँ पर हुए विभिन्न उत्खननों में कई पुरावशेष सामने आये। इन तमाम पुरावशेषों में लोहे की प्राप्ति एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण खोज है। यहाँ पर पिघले हुए लोहे कई कई टुकड़े चित्रित धुषर मृद्भांड के उपरी सतह से मिले हैं। मिले हुए डिपाजिट को हस्तिनापुर का द्वितीय काल का अवशेष माना जाता है। हांलाकि यहाँ से लोहे के बने हुए कोई भी सामान की प्राप्ति अभी तक नहीं हुयी है परन्तु पिघले हुए लोहे के टुकड़ों को कम आकना बेमानी हो सकती है। लोहे से बनी वस्तुओं की प्राप्ति यह भी साबित कर सकती है कि ये लोहे से बनी वस्तु कहीं से लेकर आये होंगे लेकिन पिघला हुआ लोहा यह साबित करता है कि ये यहीं का है।
आलमगीरपुर की बात करें तो
यहाँ से भी जो लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं वे भी चित्रित धूसर मृद्भांड डिपाजिट से ही मिले हैं। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में तीर, भाला, कील, पिन आदि मिले हैं। आलमगीरपुर से मिले अवशेषों को आलमगीरपुर की द्वीतीय काल से सम्बंधित हैं।
अब उपरोक्त लिखे तथ्यों की माने तो यह समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है की आखिर यह चित्रित धूसर मृद्भांड है क्या और इनकी परंपरा क्या है? इसको समझने से पहले यह भी समझना जरूरी है की आलमगीरपुर और हस्तिनापुर दोनों मैदानी इलाकों में बसे हुए पुरास्थल हैं जहाँ पर हेमाटाईट मिलने की संभावना नगण्य है अतः यह सिद्ध होता है कि यहाँ पर कच्चा लोहा कहीं और से मंगाया जाता रहा होगा।
चित्रित धूसर मृद्भांड उत्तर भारत में पश्चिमी गंगा के मैदान और घग्घर हाकरा घाटी की एक लौह युगीन संस्कृति से सम्बंधित मृद्भांड है। इसका तिथिनुसार यदि अध्ययन किया जाए तो यह करीब 1200 ईसा पूर्व से लेकर के 600 ईसा पूर्व तक की मानी जाती है। इस मृद्भांड परंपरा के साथ ही एक और परंपरा प्रफुल्लित हुयी और उसको हम लाल और काली मिश्रित मृद्भांड परंपरा के नाम से जानते हैं। यह परंपरा पूर्वी गंगा मैदान में पायी जाती है। अभी तक करीब 1100 से अधिक चित्रित धूसर मृद्भांड से सम्बंधित पुरास्थल अबतक खोजे जा चुके हैं। ये काले रंग के ज्यामितीय चित्रों द्वारा सजाये हुए भूरे रंग के मृद्भांड होते हैं। इनको पालतू घोड़ों, हाथी दांत के कार्य और लौह संस्कृति के समकालीन का माना जाता है। चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति मध्य और उत्तर .वैदिक काल से मेल खाती है जिसे की जनपद युग के पहले और सिन्धु सभ्यता के बाद वाले समय को माना जाता है।
सन्दर्भ:-
1. https://archive.org/details/in.gov.ignca.73624/page/n30
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Painted_Grey_Ware_culture
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Ochre_Coloured_Pottery_culture
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