आपने झांसी की रानी से लेकर रज़िया सुल्तान जैसी कई बहादुर स्त्रियों की कहानियां तो सुनी होंगी। किंतु पूरे देश भर में शायद कम ही लोग होंगे जिन्होंने बेगम सुमरू का नाम सुना होगा। बेगम सुमरू इतिहास की एक ऐसी महिला थी जिसने 4,000 से भी अधिक सिपाहियों का नेतृत्व किया और अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ के कारण सरधना जोकि मेरठ के निकट स्थित है, की जागीरदार बन गयी। 1753 को जन्मी सुमरू को पहले एक नर्तकी के रूप में जाना जाता था जोकि बाद में सरधना की शासक बन गयी थी। वे एक पेशेवर प्रशिक्षित भाड़े की सेना की प्रमुख थीं जोकि उन्हें अपने यूरोपीय पति वाल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे से विरासत में मिली थीं। भाड़े की इस सेना में यूरोपीय और भारतीय सिपाही शामिल थे।
कश्मीरी वंश की सुमरू पहले फरज़ाना नाम से जानी जाती थी जिसने किशोरावस्था में ही लक्समबर्ग के एक भाड़े के सैनिक वाल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे के साथ विवाह कर लिया था। सोम्ब्रे उस समय भारत में काम कर रहा था जो भाड़े की उस सेना को चला रहा था। शादी के बाद सुमरू ने भी सोम्ब्रे की कई लड़ाइयों में उसका साथ दिया जिस कारण उसके बहादुरी के चर्चे दूर-दूर तक फैल गये। वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे के साथ फरज़ाना को अब सुमरू नाम से जाना जाने लगा था। मुग़ल राजा शाह आलम द्वारा वॉल्टर को सरधना का जागीरदार बनाया गया किंतु इसके कुछ समय बाद वॉल्टर की मृत्यु हो गई और बेगम सुमरू को सरधना का जागीरदार बनाया गया। अपने पति की मृत्यु के बाद अपने जीवनकाल के दौरान ही सुमरू ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया तथा इस्लाम से ईसाई धर्म को अपना लिया। इस प्रकार बेगम सुमरू, बेगम जोआना सौम्ब्रे बन गयी। सुमरू को भारत में एकमात्र कैथोलिक (Catholic) शासक माना जाता है, क्योंकि उसने भारत में 18वीं और 19वीं शताब्दी के सरधना की रियासत पर शासन किया। अपने पैसों और सेना का इस्तेमाल सुमरू ने अपनी जागीर सरधना का ख्याल रखने में किया।
बेगम द्वारा सरधना में एक बहुत बड़ा गिरजाघर भी बनवाया गया जिसे ‘बेसिलिका ऑफ़ आवर लेडी ऑफ ग्रेसेज़’ (Basilica of Our Lady of Graces) कहा जाता है। ईसाई धर्म अपनाने के बाद बेगम ने सरधना में ईसाई धर्म की शिक्षाओं का भी प्रसार किया। 29 दिसंबर, 1829 को सरधना चर्च (Church) को पीज़ोनी द्वारा आशीर्वाद दिया गया जोकि कैपुचिन तिब्बत-हिंदुस्तान मिशन (Capuchin Tibet-Hindustan Mission) के ईसाई धर्म-प्रचारकों के प्रतिनिधि थे। बेगम ने पोप ग्रेगरी XVI को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि, "मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि चर्च को भारत में बिना किसी अपवाद के सराहा जा रहा है”। बेगम ने कई मौजूदा इमारतों को चर्च को दान कर दिया जिसका उपयोग ईसाई धर्म की शिक्षाओं को फैलाने में किया गया। वह मेरठ में पहली प्रोटेस्टेंट मिशनरी (Protestant missionary) के लिए भी उत्तरदायी थी। 1813 में जॉन चेम्बरलियन नाम का एक बपतिस्मा-दाता बेगम से हरिद्वार, जोकि गंगा नदी के तट पर स्थित सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है, में मिला। यहां उन्होंने हिंदू तीर्थयात्रियों को ईसाई धर्म के कई उपदेश और ग्रंथ वितरित किये। एक चश्मदीद ने बताया कि वह पवित्र ग्रंथों के हिंदी अनुवादों से रोज़ाना काफी अंश पढ़ता था और उनके हर अंश पर टिप्पणी करता था। इसके बाद गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने बेगम को एक पत्र लिखा तथा उस व्यक्ति को अपनी सेवा से बर्खास्त करने का आदेश दिया क्योंकि गवर्नर जनरल का मानना था कि ईसाई धर्म के इस प्रचार से हिंदुओं और मुसलमानों में अशांति फैल सकती है। बेगम को अफसोस के साथ चेम्बरलियन को एक सिपाही के साथ बरेली भेजना पड़ा जहाँ हेस्टिंग्स का डेरा था। वहां चेम्बरलियन को गवर्नर जनरल द्वारा निजी दर्शकगण दिये गये। लेकिन उसे उत्तरी प्रांतों में किसी भी मिशनरी गतिविधि के विरोध में अडिग पाया गया।
बेगम सुमरू द्वारा बनवाया गया ऐतिहासिक चर्च बेसिलिका ऑफ आवर लेडी ऑफ ग्रेसेज़ मेरठ मुख्यालय से करीब 20 किलामीटर दूर सरधना में है जो सौहार्द, आस्था और इतिहास का बेजोड़ नमूना है। यह चर्च बेगम द्वारा वर्जिन मैरी (Virgin Mary) को समर्पित किया गया। 1961 में चर्च को माइनर बसिलिका (Minor Basilica) का दर्जा प्रदान किया गया था। चर्च भारत के कुल 23 माइनर बसिलिकाओं में से एक है और उत्तर भारत में एकमात्र माइनर बसिलिका है। इस चर्च के निर्माण का कार्य 1809 में शुरू हुआ। गिरिजाघर के खास दरवाज़े पर इस इमारत के बनने का साल 1822 दशार्या गया है। कुछ अभिलेखों में इसके निर्माण का वर्ष 1820 भी बताया गया है। यह चर्च करीब 11 वर्ष में बनकर तैयार हुआ। चर्च के निर्माण में लगभग 4 लाख रुपये व्यय हुए थे जो उन दिनों एक बहुत बड़ी राशि हुआ करती थी। इसके निर्माण कार्य के लिये मुख्य राजमिस्त्रियों को प्रतिदिन 25 पैसे का भुगतान किया गया था। चर्च के पास दो विशाल झीलें उस मिट्टी का परिणाम हैं जो चर्च के निर्माण के लिये आपूर्ति सामग्री के रूप में हटा दी गईं थी। बेगम ने चर्च के निर्माण कार्य की कमान सैन्य अधिकारी मेजर अंतोनियो रेगेलीनी के हाथ में सौंपी थी। उन्हें वास्तुकला का भी काफी ज्ञान था। चर्च में जिस स्थान पर प्रार्थना होती है, उसे अल्तर (Altar) कहा जाता है। इस अल्तार के निर्माण के लिए सफेद संगमरमर का उपयोग किया गया था जिसमें कई कीमती पत्थर जड़े हैं। चर्च के भारी बरामदे को संभाले 18 चौड़े और खूबसूरत खंबे खड़े हैं।
संदर्भ:
1.https://bit.ly/2ZoyvUo
2.https://bit.ly/2YzbnkR
3.https://bit.ly/2KvdlxN
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