मनीं इश्वराचे चरण । सर्वभावें त्यास शरण ।
योजे ऐसे अंत:करण । योग म्हणावे त्याला ।।
‘मन में ईश्वर के चरण हों, सब प्रकार से चित्त उन्हीं के शरण हो, ऐसा अंत:करण हो, इसी का नाम योग है।‘ योगाभ्यास की जो आवश्यकता होती है, वह मनोनाश करके चित्त को ऐसा बना लेने के लिए होती है। जिस योग के अभ्यास से यह काम बनता है, उसे राजयोग कहते हैं। राजयोग जिस क्रम से प्राप्त होता है उसमें तीन ‘क्रम-भूमिकाएं हैं, जिन्हें हठ, लय और मंत्र योग कहते हैं। इस क्रम से चित्त चिन्मय तो हो जात है, पर इसमें केवल व्यतिरेक्ज्ञान रहता है अर्थात उससे जीवन्मुक्त अवस्था नहीं प्राप्त होती। जीवन्मुक्त होने के लिए अन्व्यज्ञान आवश्यक होता है।
शब्दज्ञाने पारंगत। जो ब्रह्मानन्दे सदा डूल्लत।
शिष्य प्रबोधनीं समर्थ। तो मूर्तिमंत स्वरुप माझें।।
अर्थात श्रीगुरु, जो शब्द ज्ञान में पारंगत है और ब्रह्मानंद में सदा झूमते रहते हैं और जो शिष्य को प्रबुद्ध करने में सक्षम होते हैं, वह भगवान के ही मूर्तिमान रूप हैं। ऐसे गुरु की शरण में जाकर ज्ञान प्राप्त करना होता है। ग्रिन्थों के अध्ययन से केवल रूचि होती है। यथार्थ ज्ञान श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ही प्राप्त होता है। यौग्धर्म के अनुशार कलयुग में ‘नाम संकीर्तन ही मख्य साधन है। हरी कीर्तन से ब्रहमा, विष्णु और रूद्र तीनों ही ग्रंथियों का भेदन होकर आत्मस्वरूप बोध होता है। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत, वेदाब्त-सूत्र और अष्ठाद्श पुराण रचे, पर उन्हें उनसे शांति नही प्राप्त हुई। भाग्वान्नाम्कीर्तन वीणाधारी श्री नारद से उन्होंने शांति का मार्ग पुछा। तब देवरिषि नारद ने भक्ति के सूत्र बताये और ऐसा ग्रन्थ रचने को कहा जिसमे श्रीहरी का कीर्तन हो। तब वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत लिखा।
कीर्तन से काया ब्रह्म्भूत होती है और महाभाग्य का उदय होता है। इसीलिए संकीर्तन योग अन्य सभी योगों से विलक्षण है।
सन्दर्भ:-
1. जालन, घनश्यामदास 1882 कल्याण योगांक गोरखपुर,यु.पी.,भारत गीता प्रेस
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