पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान परशुराम दिग्विजय जब पूरी पृथ्वी को जीत चुके थे तब वह मयराष्ट्र, जो आज मेरठ के नाम से जाना जाता है से होकर निकले, तब उन्होंने पुरा नामक जगह पर जाकर आराम किया, जो उन्हें काफी पसंद आया। ऐसे में उन्होंने उस स्थान पर शिव मंदिर बनवाने का संकल्प ले लिया। इस मंदिर में शिवलिंग को स्थापित करने के लिए पत्थर की ज़रूरत थी, जिसे लाने वह हरिद्वार गंगा तट पर पहुंच जाते हैं। वहां पहुंच के वह मां गंगा की आराधना करते हैं और मंतव्य बताते हुए उनसे एक पत्थर देने की विनती करते हैं।
परशुराम के इस अनुरोध को सुन वहां मौजूद पत्थर रोने लगता है, क्योंकि वह देवी गंगा से दूर नहीं जाना चाहते थे। ऐसे में जब भगवान परशुराम ने उनसे कहा कि जो पत्थर वह वहां से ले जाएंगे, उसका चिरकाल तक गंगा जल से अभिषेक किया जाएगा। फिर क्या… हरिद्वार के गंगातट से भगवान परशुराम खुद पत्थर लेकर आए और उसे शिवलिंग के रूप में पुरेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित कर दिया।
कहते हैं कि जब से भगवान परशुराम ने हरिद्वार से पत्थर लाकर उसका शिवलिंग पुरेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित किया था तब से ही इस कावड़ यात्रा की शुरूआत हो गई।
पुरामहादेव (जिसे परशुरामेश्वर भी कहते हैं) उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के पास, बागपत जिले से 4.5 कि.मी दूर बालौनी कस्बे में एक छोटा से गाँव पुरा में हिन्दू भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है जो शिवभक्तों का श्रध्दा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ भी माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिये ही नहीं प्रत्युत्त समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसकी मान्यता है। लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव भी प्रसन्न हो कर अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। जहाँ पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है। काफी पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है, पास से ही निकलती है। यह मंदिर मेरठ से 36 कि.मी व बागपत से 30 कि.मी दूर स्थित है।
प्राचीन समय में एक बार राजा सहस्त्र बाहु शिकार खेलते हुए उस आश्रम में पहुँचे। ऋषि की अनुपस्थिति में रेणुका ने कामधेनु गाय की कृपा से राजा का पूर्ण आदर सत्कार किया। हिन्दू धर्म के धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कामधेनु गाय जिसके पास होती है वह जो कुछ कामना करता है उसे वह मिल जाता है। राजा उस अद्भुत गाय को बलपूर्वक वहाँ से ले जाना चाहता था। परन्तु वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका। अन्त में राजा गुस्से में रेणुका को ही बलपूर्वक अपने साथ हस्तिनापुर अपने महल में ले गया तथा कमरे में बन्द कर दिया। रानी ने अवसर पाते ही अपनी छोटी बहन द्वारा रेणुका को मुक्त्त कर दिया। रेणुका ने वापिस आकर सारा वृतान्त ऋषि को सुनाया। परन्तु ऋषि ने एक रात्रि दूसरे पुरूष के महल में रहने के कारण रेणुका को ही आश्रम छोड़ने का आदेश दे दिया। रेणुका ने अपने पति से बार-बार प्रार्थना की कि वह पूर्णता पवित्र है तथा वह आश्रम छोड़कर नहीं जायेगी। और अगर उन्हें विश्वास नहीं है तो वे अपने हाथों से उसे मार दें। जिससे पति के हाथों मरकर वह मोक्ष को प्राप्त हो जाये। परन्तु ऋषि अपने आदेश पर अडिग रहे।
तत्पश्चात् ऋषि ने अपने तीन पुत्रों को उनकी माता का सिर धड़ से अलग करने को कहा, लेकिन उनके पुत्रों ने मना कर दिया। चौथे पुत्र परशुराम ने पितृ आज्ञा को अपना धर्म मानते हुए अपनी माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। बाद में परशुराम जी को इसका घोर पश्चाताप हुआ। उन्होंने थोड़ी दूर पर ही घोर तपस्या करनी आरम्भ कर दी तथा वहाँ पर शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आशुतोश भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये तथा वरदान माँगने को कहा। भगवान परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी माता को जीवित कर दिया तथा एक परशु (फरसा) भी दिया तथा कहा जब भी युद्ध के समय इसका प्रयोग करोगे तो विजय होगे।
परशुराम जी वही पास के वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे। थोड़े दिन बाद ही परशुराम जी ने अपने फरसे से सम्पूर्ण सेना सहित राजा सहस्त्रबाहु को मार दिया। वे तत्कालीन क्षत्रियों के दुष्कर्मों के कारण बहुत ही क्षुब्ध थे, अतः उन्होंने पृथ्वी पर क्षत्रियों को मृत्यु दण्ड दिया व इक्कीस बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया। जिस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की थी वहां एक मंदिर भी बनवा दिया। कालान्तर वह मंदिर खंडहरों में बदल गया। काफी समय बाद एक दिन लण्डौरा की रानी इधर घूमने निकली तो उसका हाथी वहाँ आकर रूक गया। महावत की बड़ी कोशिश के बाद भी जब वह हाथी वहां से नहीं हिला तब रानी ने सैनिकों को वह स्थान खोदने का आदेश दिया। खुदाई में वहाँ एक शिवलिंग प्रकट हुआ जिस पर रानी ने एक मंदिर बनवा दिया यही शिवलिंग तथा इस पर बना मंदिर आज परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से विख्यात है।
इसी पवित्र स्थल पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की, तथा उन्हीं की अनुकम्पा से पुरामहादेव महादेव समिति भी गठित की गई जो इस मंदिर का संचालन करती है।
सन्दर्भ:-
1. https://www.youtube.com/watch?v=j-v85bEbJ7A
2. https://bit.ly/2MU3z83
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