आज दुनिया भर में लोग अपनी जीविका चलाने के लिये संगठित और असंगठित क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं। जहां संगठित क्षेत्र में लोगों का रोजगार सरकार द्वारा निर्धारित नियमों और कानूनों के माध्यम से संचालित होता है, तो वहीं असंगठित क्षेत्र में लोग निजी नियोक्ताओं के अंतर्गत कार्य करते हैं। संगठित रोजगार के अभाव में हमारे देश के अधिकाधिक लोग असंगठित क्षेत्रों से जुड़ गये हैं। किंतु इनकी कुल भागीदारी कितनी है इसकी जानकारी किसी को भी नहीं। यहां तक कि सरकार भी असंगठित क्षेत्रों में नागरिकों की हिस्सेदारी का सही आंकलन नहीं लगा पायी है।
2019 को जारी 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल कार्यबल का लगभग 93% असंगठित है, जबकि 2018 में जारी नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार यह हिस्सा देश के कुल कार्यबल का लगभग 85% है। ऐसी जानकारी के स्रोत क्या हैं? यह वास्तव में कोई नहीं जानता। सरकार का मानना है कि असंगठित क्षेत्र और कार्यकर्ता देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं किंतु समस्या यह है कि असंगठित क्षेत्र के आकार, वितरण और आर्थिक योगदान के लिये सरकार के पास कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है।
हमारे देश में इस असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले श्रमिकों के लिये काम करने की स्थितियां और सामाजिक सुरक्षा दिन-प्रतिदिन बदतर और दयनीय होती जा रही हैं। 2017-18 के नवीनतम आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पी.एल.एफ.एस.) के अनुसार असंगठित क्षेत्र में लगभग 71.1% वेतनभोगी श्रमिकों के पास कोई लिखित नौकरी अनुबंध नहीं था, 54.2% श्रमिकों के पास वैतनिक अवकाश की सुविधा नहीं थी तथा 49.6% को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती थी। यह क्षेत्र वस्तुतः कानूनी संरक्षण से बाहर है जिस कारण असंगठित श्रमिकों की स्थिति निरंतर खराब होती जा रही है। 2008 में असंगठित श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा अधिनियम आने के बाद भी बहुत कम श्रमिक (लगभग 5% से 6%) सामाजिक सुरक्षा लाभों के लिए नामांकित हो पाये हैं। इन श्रमिकों को कोई छुट्टी नहीं मिलती और न ही कोई सुरक्षा उपकरण, चिकित्सा सुविधा या परिवार कल्याण सहायता मिल पाती है। उनके काम के घंटों की अपेक्षा में उनकी मजदूरी बहुत ही कम है। देश में बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक है जबकि रोजगार बहुत अल्प है। ऐसी परिस्थितियों में लेबर चौक (Labour Chowks) ऐसे श्रमिकों, जो अपना जीवन निर्वाह बड़ी कठिनाईयों से करते हैं, के लिये आशा की किरण जगाते हैं जो अपने साथ कभी प्रकाश तो कभी अंधेरा लाते हैं।
वास्तव में लेबर चौक वे स्थान हैं जहां बहुत बड़ी संख्या में विभिन्न किस्म के श्रमिक रोजगार तलाशने के लिये आते हैं। भारत के लगभग हर बड़े शहर के व्यस्त चौराहों पर चित्रकार, बढ़ई, राजमिस्त्री और प्लंबर (Plumber) जैसे असंगठित श्रमिक हर दिन लाखों की संख्या में काम का इंतज़ार करते नज़र आते हैं। चौराहों पर असंगठित श्रमिकों की संख्या इतनी अधिक होती है कि चौकों को प्रायः लेबर चौक नाम दे दिया गया है। यहाँ नाबालिग से बुज़ुर्ग, बिल्कुल नये से अनुभवी, हर किस्म के मजदूर उपलब्ध रहते हैं जो अपनी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के प्रयास में इंतज़ार करते हैं कि कब कोई मालिक या ठेकेदार आये और उन्हें अपने साथ श्रम के लिये ले जाये। इनकी पूरे दिन भर की दिहाड़ी 400 रुपये होती है किंतु अगर काम दिन के बाद मिले तो यह घटकर 200-250 तक हो जाती है। राजधानी दिल्ली में भी ऐसे कई चौक हैं जहां रोज़ बढ़ई, निर्माण श्रमिक और चित्रकार जैसे अर्ध-कुशल मजदूर एक दिन का काम खोजने के लिए इकट्ठा होते हैं। इन चौकों में एन.सी.आर क्षेत्र को मुख्य केंद्र माना जाता है जिसमें चांदनी चौक और हरोला के लेबर चौक मुख्य हैं।
इन श्रमिकों के अनुसार वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) के कार्यान्वयन से उनकी स्थिति बदतर हो गयी है। विमुद्रीकरण के बाद इन चौकों के व्यवसायों ने अपने कारोबार को लगभग 70% खो दिया जिसके कारण कई लघु उद्योग बंद हो गए और असंगठित क्षेत्र के ये श्रमिक बेरोजगार हो गए। बेरोजगारी के इस दौर में असंगठित क्षेत्रों का बंद हो जाना इन श्रमिकों के लिये किसी सदमे से कम नहीं है। इन चौकों पर बैठे हुए निराश और हताश श्रमिकों की भीड़ यह इंगित करती है कि पुरुषों, महिलाओं और उनके बच्चों के इस महत्वपूर्ण हिस्से को दशकों से सरकार द्वारा उपेक्षित किया गया है, जिससे वे कभी न खत्म होने वाले संघर्ष का सामना कर रहे हैं। हालांकि सरकार द्वारा कई योजनाएं भी चलाई गयीं किंतु ये योजनाएं श्रमिकों के इस संघर्ष को समाप्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/32BeDza
2. https://bit.ly/2Lt5rb6
3. https://bit.ly/30AJ1rR
4. https://bit.ly/2Y9gnw8
5. https://bit.ly/2LrPnGe
6. http://labourschowk.com/why_labourschowk.html
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