विभिन्न स्थानों पर हुए पुरातात्विक सर्वेक्षणों के माध्यम से मानव को यह पता चला कि वास्तव में सदियों पहले भी पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व था। ज्यों-ज्यों विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ त्यों-त्यों मानव विकास की प्रक्रिया भी समझ आने लगी। यूं तो सिंधु घाटी सभ्यता को काफी अधिक विकसित सभ्यता कहा गया है। किंतु इसके बाद भी कई ऐसी सभ्यताओं और संस्कृतियों का विकास हुआ जिसने मानव जीवन को और अधिक सरल और व्यवहार्यपूर्ण बना दिया। चित्रित धूसर मृदभांड (Painted Grey Ware- PGW) भी इन्हीं संस्कृतियों में से एक है। जिसका प्रारंभ लौह युग सभ्यता के दौरान हुआ।
चित्रित धूसर मृदभांड पश्चिमी गंगा के मैदान और भारतीय उपमहाद्वीप पर घग्गर-हकरा घाटी के लौह युग की भारतीय संस्कृति है जो लगभग 1200 ईसा पूर्व से शुरू होकर 600 ईसा पूर्व तक चली। यह संस्कृति काली और लाल मृदभांड संस्कृति के बाद प्रारंभ हुई। हस्तिनापुर, मथुरा, अहिछत्र, काम्पिल्य, बरनावा, कुरुक्षेत्र आदि सभी इसी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। सम्भवतः हड़प्पा संस्कृति के बाद या इसके अंतिम चरण में इस संस्कृति का विकास हुआ। इस दौरान धूमिल भूरे रंग की मिट्टी के बर्तन बनाये गये जिनमें काले रंग के ज्यामितीय पैटर्न (Pattern) को उकेरा गया। विभिन्न गांव और शहरों में इनका निर्माण किया गया हालांकि, ये हड़प्पा सभ्यता के शहरों जितने बड़े नहीं थे। इस दौरान हाथी दांत और लोहे की धातु को अधिकाधिक प्रयोग में लाया गया। इस संस्कृति को मध्य और उत्तर वैदिक काल अर्थात कुरु-पंचाल साम्राज्य से जोड़ा जाता है जो सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद दक्षिण एशिया में पहला बड़ा राज्य था। इस प्रकार यह संस्कृति मगध साम्राज्य के महाजनपद राज्यों के उदय के साथ जुड़ी हुई है। पी.जी.डब्ल्यू. संस्कृति में चावल, गेंहू, जौं का उत्पादन किया गया तथा पालतू पशुओं जैसे भेड़, सूअर और घोड़ों को पाला गया। संस्कृति में छोटी झोपड़ियों से लेकर बड़े मकानों का निर्माण मलबे, मिट्टी या ईंटों से किया गया था।
भारत में अब तक लगभग 1100 से भी अधिक पी.जी.डब्ल्यू. स्थल खोजे जा चुके हैं जिनकी संख्या उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक आंकी गयी है। उत्तरप्रदेश स्थित मेरठ से बस 25 किलोमीटर दूर स्थित आलमगीरपुर और हस्तिनापुर में पी.जी.डब्ल्यू. के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए जो यह दर्शाते हैं कि 1500 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व तक यहां मानव निवास हुआ करता था। आलमगीरपुर की खुदाई 1958 और 1959 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई जिसमें मिट्टी के बर्तन, मनके और पिंड प्राप्त हुए। खुदाई से प्राप्त बर्तन विशिष्ट हड़प्पा की मिट्टी से बने थे। इसके अतिरिक्त चीनी मिट्टी की प्लेटों (Plates), कपों (Cups), और फूलदान और सांप व बैलों की मूर्तियों के अवशेष भी खुदाई में प्राप्त हुए। खुदाई में कांच, चमकीले पत्थर, सुलेमानी पत्थर आदि से बने विभिन्न प्रकार के मनके भी प्राप्त हुए।
इसी प्रकार 1950-52 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) द्वारा हस्तिनापुर में उत्खनन किया गया। इस खुदाई में 50 से 60 फीट ऊँचे टीलों के समूह पाये गये जिसका नाम महाभारत काल के विदुर के नाम पर रखा गया था। यह निष्कर्ष निकाला गया कि सम्भवतः यह महाभारत काल के हस्तिनापुर के अवशेषों से बने थे जोकि उस समय गंगा नदी में आयी बाढ़ के कारण बह गये थे। हस्तिनापुर के आसपास की पुरातात्विक खुदाई में लगभग 135 लोहे की वस्तुएं (तीर, भाले, चिमटे, हुक (Hook), कुल्हाड़ी, चाकू आदि) पायी गईं जो उस युग में लौह उद्योग के अस्तित्व की ओर संकेत करती हैं। ईंटों से बने मार्ग और जल निकासी प्रणालियों के अवशेष भी वहां बरामद हुए। आगे हुई खुदाई में तांबे के बर्तन, लोहे की मुहरें, सोने और चांदी से बने आभूषण आदि पाये गये जिन्हें सम्भवतः द्रौपदी द्वारा उपयोग किया गया माना जा रहा था। इसके अतिरिक्त टेराकोटा डिस्क (Terracotta discs) और कई आयताकार हाथीदांत पासे भी पाये गये जिनका उपयोग चौपर के खेल में किया जाता था।
ये सभी अवशेष यह इंगित करते हैं कि चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति महाभारत काल से जुड़ी हुई थी तथा इसके साथ यह भी पता चलता है कि लगभग 1500 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व तक आलमगीरपुर और हस्तिनापुर में मानव निवास हुआ करता था।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2LqG0qk
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Alamgirpur
3. https://bit.ly/2Gf7RWC
4. https://www.indianetzone.com/55/painted_gray_ware.htm
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.