समय - सीमा 277
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भारतीय धार्मिक ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ श्रीमद्भगवत् गीता का प्रत्येक अध्याय योग को समर्पित है। इसके अनुसार जीवात्मा का इस नश्वर संसार में आने का परम उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है, जो मात्र योग से ही संभव है। गीता में योग के विभिन्न रूप जैसे- कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, सांख्य योग, राज योग, मंत्र योग, लय योग, हठ योग इत्यादि बताए गए हैं। जिनके माध्यम से मनुष्य चौरासी के जाल से मुक्ति प्राप्त कर सदा के लिए परमात्मा में लीन हो सकता है। यह योग तब ही प्रभावी होंगें जब इन्हें करने का परम ध्येय ईश्वर की प्राप्ति हो, अन्यथा इन्हें करना आपके पतन का ही कारण बनेगा। क्योंकि योग का यर्थाथ उद्देश्य सिद्धी प्राप्त करना नहीं वरन् आत्मा को परमात्मा से मिलाना है।
इन योगों को सम्पन्न करने की विधि भी भिन्न-भिन्न होती हैं, अक्सर पूर्ण ज्ञान के अभाव में शारीरिक रूप से किए जाने वाले योग लाभ के स्थान पर भांति-भांति के शारीरिक विकार उत्पन्न कर देते हैं। ऐसी स्थिति में भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञान योग इत्यादि का अनुसरण करना ज्यादा लाभदायक रहेगा। गीता में निष्काम कर्मयोग का विशेष महत्व दिया गया है अर्थात निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म मानव को आसक्ति से मुक्त कराता है। आसक्ति ही परमात्मा के मिलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। सांख्य योग में आत्मा को नश्वर गया तथा शरीर को वस्त्र बताया गया है, यहस भौतिक जगत चेतन अविनाशी तत्वों से बना है और वही सत् चित्त आनंद है, जीवात्मा भी उसी का ही अंश है।
इंद्रियों द्वारा प्राप्त किया जाने वाला बाह्य भोग मात्र दुख का कारण है, जो हमारे मन को भी अपने मार्ग से विचलित करता है तथा मन अज्ञानतावश सांसारिक सुख को ही परम सुख मानने लगता है। इन सुख को प्राप्त करने के लिए मन मानव को कई अनुचित गतिविधियों को करने के लिए विवश कर देता है। कर्म और अभ्यास योग मन की मलीनता को समाप्त करता है जिसके लिए विशेष अभ्यास की आवश्यकता है। इसमें सांसारिक सुख को अनदेखा कर सर्वत्र निराकार ब्रह्म के अस्तित्व को स्वीकार करने का अभ्यास किया जाता है, जो मानव को वैराग्य की ओर ले जाता है। गीता के छठे अध्याय में कर्मयोग का वर्णन किया गया है। यदि यर्थाथ योग की बात की जाए तो सीधे शब्दों में कहा जाएगा दूसरों के सुख की कामना और उनके दुख का निवारण करने का प्रयास ही यर्थाथ योग है। प्रत्येक मानव में परमात्मा का अंश है, किसी मानव का अहित और अपकार करना साक्षात परमात्मा का अपमान करना है। इसलिए कहा भी गया है ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधिमाई’।
अतः मानव को मोह, माया और अहं के भाव को त्यागकर योग के माध्यम से परमात्मा की खोज में जुट जाना चाहिए। सर्वप्रथम इसके लिए एक मार्ग दर्शक की आवश्यकता होती है, जो शांत, शीलवान, शास्त्रज्ञ, सिद्धी प्राप्त गुरू हो। आज देश में अनगिनत गुरू मिल जाएंगे ऐसे में एक सही गुरू का चयन करना कोयले की खान से हीरा ढुंढने के समान होगा किंतु असंभव नहीं। वास्तव में ऐसे सिद्ध पुरूष की गुरू के रूप में प्राप्ति होन हमारे अच्छे कर्मों का ही फल होगा। जिनके माध्यम से योग साधना अपेक्षाकृत सरल और सुगम्य बन जाती है। योग के लिए सबसे अनिवार्य गुण ब्रह्मचर्य योग का पालन है तथा मानव को सब कुछ त्यागकर ईश्वर की शरण में मन लगाना है। गीता में कहा गया है:
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
अर्थात मन, कर्म, वचन और शरीर से हृदय में निवास करने वाले इश्वर की शरण में जाओ, उसकी कृपा से आपको परम शांति और सनातन परमधाम की प्राप्ति होगी। निरंतर ईश्वर का चिंतन, मनन, स्मरण इत्यादि करना ही भक्तियोग है तथा मन में अपने आराध्य की एक आकृति तैयार कर उसमें तन्मयता से लीन हो जाना ध्यान योग है। गीता में योग के विभिन्न रूप बताए गए हैं, इनके से उसी का चयन किया जाए जिसमें आपकी विशेष रूची हो तथा उसे पूरी तन्मयता से संपन्न किया जाए।
वास्तव में यदि गीता के माध्यम से योग की एक परिभाषा देनी हो या एक अर्थ बताना हो, तो यह असंभव है। क्योंकि इसमें इसकी अनेक अर्थ प्रस्तुत किए गए हैं। वचनों की दृष्टि से देखा जाए तो वस्तु की प्राप्ति, युक्ति, शरीर की दृढ़ता, प्रयोग, द्रव्य, उपाय, कवच आदि योग है जबकि धातु की दृष्टि से इसकी उत्पत्ति युजिर तथा युज धातु से हुयी है जिसका शाब्दिक अर्थ है योग, समाधि तथा संयमन। इसके बाद भी योग के अनेक अर्थ हैं। गीता में एक स्थान पर समत्व का नाम योग रखा है तो दूसरे स्थान पर कौशल का। समत्व जहां निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म है तो वहीं कौशल विशेषज्ञता की जानकारी है जो भावात्मक है। इस प्रकार जहां कौशल विधानात्मक (आशावादी) है, तो वहीं समत्व अनासक्त। गीता की प्रमुख उपादेयता मनुष्य को व्यवहारिक जीवन के माध्यम से परमात्मा में विलिनता प्रदान कराना है। चाहे वह किसी भी रूप या अवस्था में हो।
इस गीता के भक्तियोग की संक्षिप्त व्याख्या कल्याण पत्रिका, गीता प्रेस (http://www.kalyan-gitapress.org/pdf_full_issues/yog_ank_1935.pdf) में की गयी है. जिसमें अन्य 1940 योग विशेषांक भी छापे गये हैं।
संदर्भ :
1. http://www.kalyan-gitapress.org/pdf_full_issues/yog_ank_1935.pdf