कश्मीर की कशीदा कढ़ाई जिसने प्रभावित किया रामपुर सहित पूर्ण भारत की कढ़ाई को

मेरठ

 18-06-2019 11:08 AM
स्पर्शः रचना व कपड़े

कश्मीर की हरियाली, बर्फ के पहाड़ों और नदियों की तो पूरी दुनिया दीवानी है। कश्मीर में देखने लायक ना सिर्फ खूबसूरत वादियां और खूबसूरत लोग हैं, बल्कि यहां से फैशन (Fashion) की दुनिया को भी कुछ कमाल के तोहफे मिले हैं। जिनमें से एक है काश्मीरी कढ़ाई, जिसे कशीदा के रूप में भी जाना जाता है। यह कढ़ाई कश्मीरी कालीन उद्योग के साथ, भारत के सबसे बड़े वाणिज्यिक शिल्पों में से एक है। हालांकि यह कढ़ाई अलंकरण के रूप में उत्पन्न हुई थी, लेकिन अब इसका उपयोग कई प्रकार की सामग्री को सजाने के लिए किया जाता है जिनमें घर के सामान, जैकेट (Jacket), कोट (Coat), मफलर (Muffler), जूती आदि शामिल हैं।

विभिन्न पैटर्न (Pattern) बनाने के लिए मोटे रंगीन धागे के साथ ही मोतियों का उपयोग करके कशीदा कढ़ाई बनाई जाती है। अधिकांश कशीदा कढ़ाई में प्रकृति से प्रेरित चित्र शामिल होते हैं जैसे बेलें, पक्षी, पत्ते और फूल आदि और साथ ही यह इस कढ़ाई के स्पष्ट पहलुओं में से एक है। यह एक प्रकार की श्रृंखलाबद्ध सिलाई के साथ बनाई जाती है। यह कढ़ाई आमतौर पर सफेद या क्रीम (Cream) रंग के कपड़े पर की जाती है, जबकि धागे रंगीन होते हैं। कशीदा कढ़ाई भारत और भारत के बाहर आसानी से पहचाने जाने वाली कढ़ाई की सबसे विशिष्ट शैलियों में से एक है। सांस्कृतिक प्रासंगिकता के संदर्भ में, कढ़ाई की इस शैली को कश्मीर में प्रमुख कुटीर उद्योगों में से एक माना जाता है।

यदि कशीदा कढ़ाई को करने की बात की जाए तो इस कढ़ाई के एक से अधिक प्रकार हैं, जिसे अलग-अलग आकृति देने के लिए किया जाता है। कशीदा कढ़ाई के निम्न विभिन्न प्रकार हैं :-
• ज़लाकदोज़ो :- ज़लाकदोज़ो शॉल से फर्श के कवर (Cover) तक लगभग हर कपड़े पर हुक (Hook) के साथ की जाने वाली श्रृंखलाबद्ध सिलाई है।
• सुज़नी :- सबसे लोकप्रिय शैलियों में से एक है सुज़नी कढ़ाई। इस कढ़ाई को इतनी कुशलता से बनाया जाता है कि पैटर्न और काशीदा कढ़ाई दोनों तरफ दिखाई देती है।
• वात चिकन :- यह एक काज की सिलाई है जिसका उपयोग कपड़े के बड़े हिस्से को ढकने के लिए किया जाता है। इसमें मुख्यतः परिदृश्य और भीड़ के दृश्यों को चित्रित किया जाता है।
• दो रूखा :- यह एक दोहरा कार्य है जहाँ कपड़े के दोनों ओर प्रतिबिंबित चित्र होते हैं।
• अमली :- यह कानी या जामेवार शॉल में एक नवीनीकरण है। कानी के बारीक लेआउट (Layout) को बढ़ाने के लिए सभी पैटर्न में विस्तृत रंग के धागे का उपयोग करके सिलाई की मदद से भरा जाता है।

कई दस्तावेजों से यह पता चलता है कि कश्मीरी शॉल 11वीं शताब्दी से ही प्रचलित और इस्तेमाल की जाती थी, जबकि उस समय यह एक छोटा कुटीर उद्योग था। मुगल, अफगान, सिख और डोगरा जैसे विभिन्न शासकों द्वारा सदियों से कश्मीर पर शासन किया गया। इसी के साथ प्रत्येक शासक ने शॉल उद्योग को फलने-फूलने दिया और अपने स्वयं के शैलीगत परिवर्तनों को लागू किया।

15वीं शताब्दी में सुल्तान ज़ैन-उल-आबिदीन कशीदकारी की कला के संरक्षक बने और शॉल बनाने के तरीके में कुछ परिवर्तन लाए। उनके शाही संरक्षण के तहत, बुनकरों को बुनाई और तकनीकों की विभिन्न शैलियों को पेश करने के लिए आसपास के क्षेत्रों से लाया गया था और उन शैलियों का उपयोग वर्तमान में भी शॉल निर्माण में किया जाता है। 17वीं शताब्दी के अंत तक, शॉल को न केवल कश्मीर और एशियाई उपमहाद्वीप में बल्कि यूरोप और पूर्व एशिया में भी अच्छी तरह से मान्यता प्राप्त हो गई थी।

मुगलों के बाद अफगानों ने कश्मीर में शासन किया और उनके द्वारा पारंपरिक शॉल में काफी संशोधन किया गया। उनके शासन में उन्होंने वर्ग या चंद्रमा शॉल को पेश किया जिसमें मुगल युग से काफी अलग विभिन्न रंग और पैटर्न शामिल किए गए थे। काफी दुर्लभ होने के कारण यह शॉल अभी भी अत्यधिक बेशकीमती और मूल्यवान है। वहीं सिखों ने अफगानों का अनुसरण किया और इन शॉल की बहुमुखी प्रतिभा को भांपते हुए उसकी सजावट को ना केवल पहनने के वस्त्रों में उपयोग किया, बल्कि सजावटी उद्देश्यों के लिए और परदों में इस्तेमाल किया। अंत में डोगरों ने कश्मीर के सिखों के बाद शासन किया और शॉल के कशीदाकारी पहलू में भारी योगदान दिया। उन्होंने तकनीक, डिज़ाइन (Design) और रंगों में सुधार किया, जिसके परिणाम स्वरूप दो-रूखा शॉल उत्पन्न हुई।

संदर्भ :-
1.https://asiainch.org/craft/crewel-embroidery-of-kashmir/
2.https://blog.utsavfashion.com/crafts/kashida-embroidery
3.http://www.kashmirithreads.com/history
4.https://bit.ly/2MRS3P6

RECENT POST

  • आइए देखें, अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अनूठी कहानी, 'लाइफ़ ऑफ़ पाई' को
    द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य

     24-11-2024 09:17 AM


  • आर्थिक व ऐतिहासिक तौर पर, खास है, पुणे की खड़की छावनी
    उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

     23-11-2024 09:26 AM


  • आइए जानें, देवउठनी एकादशी के अवसर पर, दिल्ली में 50000 शादियां क्यों हुईं
    विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)

     22-11-2024 09:23 AM


  • अपने युग से कहीं आगे थी विंध्य नवपाषाण संस्कृति
    सभ्यताः 10000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व

     21-11-2024 09:28 AM


  • चोपता में देखने को मिलती है प्राकृतिक सुंदरता एवं आध्यात्मिकता का अनोखा समावेश
    पर्वत, चोटी व पठार

     20-11-2024 09:29 AM


  • आइए जानें, क़ुतुब मीनार में पाए जाने वाले विभिन्न भाषाओं के शिलालेखों के बारे में
    वास्तुकला 1 वाह्य भवन

     19-11-2024 09:22 AM


  • जानें, बेतवा और यमुना नदियों के संगम पर स्थित, हमीरपुर शहर के बारे में
    आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक

     18-11-2024 09:31 AM


  • आइए, अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस के मौके पर दौरा करें, हार्वर्ड विश्वविद्यालय का
    वास्तुकला 1 वाह्य भवन

     17-11-2024 09:30 AM


  • जानिए, कौन से जानवर, अपने बच्चों के लिए, बनते हैं बेहतरीन शिक्षक
    व्यवहारिक

     16-11-2024 09:17 AM


  • आइए जानें, उदासियों के ज़रिए, कैसे फैलाया, गुरु नानक ने प्रेम, करुणा और सच्चाई का संदेश
    विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)

     15-11-2024 09:27 AM






  • © - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.

    login_user_id