दोषों की विषमता ही रोग है और दोषों का साम्य आरोग्य

मेरठ

 15-06-2019 11:01 AM
व्यवहारिक

वायु पित्‍तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः।

प्रत्‍येक मानवीय शरीर की रचना पंचतत्‍वों (आकाश, जल, वायु, अग्नि, पृथ्‍वी) से मिलकर हुयी है। किंतु फिर भी इनमें प्रकृति या स्‍वभाव की भिन्‍नता देखने को मिलती है। आयुर्वेद में इसका मूल कारण त्रिदोष (वात, पित्‍त, कफ) को बताया गया है। यह दोष मानवीय शरीर और मन में पायी जाने वाली जैविक ऊर्जा हैं। जो समस्‍त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं तथा प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपनी एक व्‍यक्तिगत भिन्‍नता प्रदान करते हैं। दोषों की उत्‍पत्ति पंचतत्‍वों एवं उनसे संबंधित गुणों के माध्‍यम से होती है। वात आकाश और वायु, पित्‍त अग्नि और जल तथा कफ पृथ्‍वी और जल से मिलकर बना है।

दोष गतिशील ऊर्जा हैं जो हमारे कार्यों, विचारों, भावनाओं, तथा हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन, मौसम और अन्‍य संवेदनशील निविष्‍टों के अनुरूप निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं, तथा हमारे मन और शरीर को पाषित करते हैं। जब हम अपनी प्रकृति के अनुरूप भोजन और जीवनशैली को अपनाते हैं, तो दोषों में संतुलन बना रहता है। किंतु इसके विपरीत यदि हम अपनी आंतरिक प्रकृति के विरूद्ध जीवन शैली और भोजन को ग्रहण करते हैं, तो दोषों में विकार उत्‍पन्‍न हो जाता है, जो शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण बनता है। भारतीय आयुर्वेद की प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘चरक संहिता’ में दोषों का विस्‍तृत वर्णन किया गया है।

1. वात
शरीर में वात के मुख्य स्थान बृहदान्त्र, जांघें, हड्डियाँ, जोड़, कान, त्वचा, मस्तिष्क और तंत्रिका ऊतक हैं। शुष्क, शीत, प्रकाश, और गति आदि वात के प्रमुख गुण हैं। वात शरीर में होने वाली सभी प्रकार की गतियों को नियंत्रित करता है, इसलिए इसे दोषों में सबसे श्रेष्‍ठ दोष माना जाता है। असंतुलित और अनियमित भोजन, मदपान, धुम्रपान, अनियमित दिनचर्या वात को असंतुलित करता है। परिणामस्‍वरूप पेट फूलना, गठिया, आमवात, शुष्क त्वचा और कब्ज़ आदि रोग होने लगते हैं।
वात को संतुलित रखने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण में वात-संतुलन वाला आहार लें। आरोग्यजनक और मननशील गतिविधियों में संलग्न रहें। रोजाना नियमित दिनचर्या का पालन करें, जिसमें रोज ध्‍यान लगाना, कठोर व्‍यायाम करना और समय पर सोना शामिल है।

2. पित्‍त
यह शरीर में पाचन और चयापचय की ऊर्जा है जो वाहक पदार्थों जैसे कि कार्बनिक (Carbonic) अम्ल, हार्मोन (Hormones), एंज़ाइम (Enzymes) और पित्तरस के माध्यम से कार्य करता है। ऊष्‍मा, नमी, तरलता, तीखापन और खट्टापन इसके गुण हैं। ऊष्‍मा इसका प्रमुख गुण है। शरीर में पित्त के मुख्य स्थान छोटी आंत, पेट, यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, रक्त, आंखें और पसीना हैं। पित्त जटिल खाद्य अणुओं के टूटने के माध्यम से शरीर को गर्मी और ऊर्जा प्रदान करता है तथा शारीरिक और मानसिक रूपांतरण और परिवर्तन से संबंधित सभी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। पित्‍त के असंतुलित होने पर शरीर में संक्रमण, सूजन, चकत्ते, अल्सर (Ulcer), असंतोष और बुखार होने लगता है।

पित्‍त को असंतुलित करने वाले कारक
1. पित्‍त उत्‍तेजक भोजन करना।
2. क्रोधावस्‍था में भोजन करना।
3. कॉफी (Coffee), काली चाय और शराब का आवश्‍यकता से अधिक सेवन।
4. सिगरेट (Cigarette) पीना।
5. आवश्‍यकता से अधिक काम करना।
6. अत्‍यधिक प्रतिस्‍पर्धी बनना।

पित्‍त को संतुलित करने वाले कारक
1. पित्त संतुलित आहार लें।
2. शांतिपूर्ण वातावरण में भोजन करें।
3. कृत्रिम उत्‍तेजक पदार्थों का सेवन न करें।
4. शांत गतिविधियों में संलग्न रहें।
5. ध्‍यान लगाना, योग करना, तैरना, चलना इत्‍यादि को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएं।

3. कफ
कफ तरल पदार्थ है, जो शरीर में भारीपन, शीतलता, नरमी, कोमलता, मंदता, चिकनाई और पोषक तत्वों के वाहक के रूप में कार्य करता है। शरीर में कफ के मुख्य स्थान छाती, गला, फेफड़े, सिर, लसीका, वसायुक्त ऊतक, संयोजी ऊतक, स्नायुबंधन और नस हैं। शारीरिक रूप से कफ हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन को नमी प्रदान करता है, ऊतकों का विस्‍तार करता है, जोड़ों को चिकनाई देता है, ऊर्जा को संग्रहित करता है तथा शरीर को तरलता प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक रूप से, कफ स्‍नेह, धैर्य, क्षमा, लालच, लगाव और मानसिक जड़ता को नियंत्रित करता है। कफ के असंतुलन की स्थिति में वज़न घटना या मोटापा बढ़ना, रक्त-संकुलन जैसे विकार उत्‍पन्‍न हो जाते हैं।

कफ को असंतुलित करने वाले कारक
1. कफ उत्‍तेजक भोजन करना।
2. आवश्‍यकता से अधिक भोजन करना।
3. शांत, नम जलवायु में बहुत अधिक समय बिताना
4. शारीरिक गतिविधि में संलग्न न होना
5. अधिकांश समय घर के अंदर बिताना
6. बौद्धिक चुनौतियों से बचना

कफ को संतुलित करने वाले कारक
1. आनंददायी वातावरण में भोजन करें।
2. आनंदपूर्ण आरामदायी जीवन जीएं।
3. दैनिक जीवन में अनासक्ति पर ध्यान दें।
4. ध्यान और लेखन की तरह आत्मनिरीक्षण गतिविधियों के लिए समय दें।
5. अच्छा बनने और बेवकूफ बनने के मध्‍य अंतर करें।
6. जल्‍दी सोएं तथा प्रातः जल्‍दी उठें।

दोषा पुनस्‍त्रयो वात् पित्‍त श्‍लेष्‍माणः।।
ते प्रकृति भूताः शरीरोपकारका भवन्ति।।
विकृतिमापन्‍नास्‍तु खलु नानाविधैविकारिः शरीरमुपतापयन्ति।

अपनी प्राकृतावस्‍था में दोष शरीर के लिए लाभदायक होते हैं, जबकि इनकी विकृति मानव शरीर में रोगोत्‍पत्ति का कारण बनती है अर्थात इनकी साम्‍यवस्‍था ही स्‍वास्‍थ्‍य का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण है।

दोषों के पांच भेद:

संदर्भ:
1.http://www.eattasteheal.com/ayurveda101/eth_bodytypes.htm
2.https://chopra.com/articles/what-is-a-dosha
3.https://bit.ly/2IGqgvI
4.https://en.wikipedia.org/wiki/Dosha
5.https://en.wikipedia.org/wiki/Charaka

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