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भारत विश्व की तीव्रता से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों में से है, जिसकी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आज भी कृषि से आता है। एक कृषि प्रधान राष्ट्र होने के बावजूद भी भारत आज कृषि के क्षेत्र में पश्चिमी देशों से पिछड़ा हुआ है। भारतीय कृषि प्रणाली और पश्चिमी कृषि प्रणाली में सबसे बड़ा अंतर आधारभूत संरचना का है। पश्चिमी देश में कृषि को एक व्यवसाय के रूप में लिया जाता है तथा इसमें व्यापक रूप से प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाता है। तो वहीं भारत में आज भी कई किसान अपनी आजिविका मात्र के लिए कृषि पर निर्भर हैं, जिसके लिए वे पारंपरिक साधनों का ही उपयोग कर रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव इनकी उत्पादक क्षमता पर पड़ता है तथा उत्पादन के बाद भी फसल के उचित दाम मिलने की कोई गारंटी (Guarantee) नहीं होती है। परिणामस्वरूप किसानों की लागत आय से ज्यादा हो रही है।
इस कारण भारतीय किसान क़र्ज़ के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार 1997 के बाद से 3,00,000 से अधिक भारतीय किसानों ने अपनी जान दे दी तथा प्रतिवर्ष इनकी संख्या में वृद्धि हो रही है। देश में किसान की आय दोगुना करने की बात तो की जा रही है, किंतु इसके लिए कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। भारतीय कृषि क्षेत्र को विकसित करने और किसानों की हालत में सुधार लाने हेतु इसमें बड़े नीतिगत बदलावों की आवश्यकता है। भारतीय कृषि क्षेत्र स्वतंत्रता के कुछ दशकों बाद से ही संघर्ष की स्थिति में आ गया था, इसके ऊपर कई विद्वानों ने पुस्तकें भी लिखीं तथा इसमें सम्भावित सुधार हेतु अपने विचार प्रकट किए। तेलुगु विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी टी. नागी रेड्डी जी ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया मॉर्गेज्ड’ (India Mortgaged) में किसानों के भूमि-स्वामित्व के मुद्दों तथा उनकी समस्या को उजागर किया। इनकी यह पुस्तक 1980 के दशक में आपातकाल के दौरान प्रकाशित हुयी। उन्होंने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह किया जो एक जमींदार थे और अपनी 1000 एकड़ से अधिक भूमि को भूमिहीन मजदूरों को दान में दे दिया। यह एक सक्रिय राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गरीब किसानों के अधिकारों के लिए व्यापक संघर्ष किया। भारत में उमड़ रहे इस खतरे की भविष्यवाणी भी 1978 में रेड्डी जी ने अपनी पुस्तक में कर दी थी। जिसके लिए इन्होंने अपने जीवन का एक लम्बा समय जेल में भी बिताया।
भारत में वर्तमान समय में भूमि एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। भूमि का उपयोग बड़ी मात्रा में औद्योगिक और सार्वजनिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। विदेशी पूंजी का रूझान भी द्वितीयक क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। इन सब का प्रत्यक्ष प्रभाव कृषि क्षेत्र में पड़ रहा है। जिस कारण लाखों लघु-सीमांत और सीमांत किसान आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं क्योंकि कृषि क्षेत्र को जानबूझकर उनके लिए वित्तीय रूप से अलाभकारी बना दिया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों का विकास के नाम पर शहरीकरण किया जा रहा है जिसमें बड़ी मात्रा में कृषि योग्य भूमि का ह्रास हो रहा है।
अमेरिका में कृषि के व्यवसायीकरण के बाद इस क्षेत्र में उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में सब्सिडी (Subsidy) दी गयी, जिससे उत्पादक क्षमता में वृद्धि हुयी। अति उत्पादन के बाद अब इनको आवश्यकता थी एक बाज़ार की तो इन्होंने भारत जैसे देशों पर, जहां कृषि संकट की स्थिति से गुजर रही थी, अपना खाद्य समान कम दाम पर निर्यात करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार के सस्ते खाद्य उत्पादों ने हमारे देश के किसानों के जीवन को और अधिक कष्टदायी बना दिया। अमेरिकी मॉडल (Model) कृषि व्यवसाय निगमों और बड़े पैमाने पर खुदरा विक्रेताओं की ज़रूरतों को पूरा करता है, न कि किसानों, जनता और पर्यावरण की आवश्यकताओं को।
यदि बात की जाए इन खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की, तो इसमें इसका अभाव देखने को मिलता है क्योंकि उत्पाद को बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में रसायनिक उत्पादों, कीटनाशकों, और सिंथेटिक एडिटिव्स (Synthetic additives) इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। जिसमें उत्पादन तो बढ़ जाता है किंतु खाद्य पदार्थों में मौजूद आवश्यक खनिज और पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। इसके उपभोग से लोगों को अनेक भयावह बिमारियों जैसे कैंसर (Cancer), मधूमेह और हृदयघात का सामना करना पड़ रहा है तथा देश में प्रतिवर्ष इन बिमारियों से होने वाली मृत्यु की संख्या भी तीव्रता से बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार 2030 तक, भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या बढ़कर दस करोड़ से भी ऊपर हो जाएगी। इसके साथ ही देश में जंक फूड (Junk Food) का प्रचलन भी बढ़ रहा है, जो मूलतः पश्चिमी दुनिया की परंपरा है। इस प्रकार के खाद्य पदार्थ हमारे शरीर में विभिन्न शारीरिक विकार उत्पन्न कर रहे हैं। खेतों में प्रयोग होने वाले रसायन खाद्य पदार्थों के माध्यम से बच्चों के शरीर में प्रवेश कर रहे हैं, जो उनके शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित कर रहे हैं।
पश्चिमी कृषि व्यवसाय, खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां और फुटकर का भारत में व्यापक रूप से प्रवेश चिंता का विषय बन रहा है। इन्होंने भारतीय कृषि और खाद्य क्षेत्रों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया है। भारत में उमड़ रहे इस खतरे की भविष्यवाणी 1978 में रेड्डी जी ने अपनी पुस्तक में कर दी थी। वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारत को शीघ्र अपनी नीतियों में परिर्वन करने की आवश्यकता है। भारत को खाद्य आपूर्ति के लिए आयात पर निर्भर रहने की बजाए देश की कृषि प्रणाली को विकसित कर आत्मनिर्भर बनने की आवश्यकता है। जिसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों से पहल करनी होगी तथा जैविक कृषि को बढ़ावा देना होगा। किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु ऐसी नीतियां लाने की आवश्यकता है, जिससे उन्हें अपनी लागत के अनुरूप फसल के मूल्य प्राप्त हो जाएं तथा वे आत्मनिर्भर बन सकें।
संदर्भ :
1. https://off-guardian.org/2019/03/14/indias-agrarian-crisis-dismantling-development/
2. https://bit.ly/2wPJTMq
3. https://countercurrents.org/2016/07/tarimela-nagi-reddy-remembered
4. https://en.wikipedia.org/wiki/T._Nagi_Reddy