मॉरिशस में भारतीय दासों की स्थिति

मेरठ

 21-05-2019 10:30 AM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

मॉरिशस अपनी अलौकिक सुन्‍दरता के कारण आज भी कई लोगों के सपनों का देश है। किंतु इस खूबसूरत राष्‍ट्र का इतिहास मानवीय दृष्टिकोण से काफी दयनीय रह चुका है। यदि आप मॉरिशस के इतिहास के पृष्‍ठों को खोलकर देखें तो आपको उसमें अप्रवासन, दमन, गुलामी, शोषण, गिरमिटिया मजदूरी इत्‍यादि जैसी अमानवीय घटनाओं की लंबी श्रृंखला नज़र आ जाएगी। जिसकी शुरूआत यूरोपियों द्वारा की गयी थी।

इस द्वीपीय देश में आने वाले पुर्तगाली (16 वीं शताब्दी में) यहाँ आने वाले पहले यूरोपीय थे। किंतु इन्होनें यहां विशेष रूचि नहीं ली, इसके बाद यहां डचों का आगमन हुआ और हॉलैंड के राजकुमार मौरिस वैन नासाउ के सम्मान में इस द्वीप का नाम मौरिस डी नासाउ या मॉरिशस रखा गया। डचों द्वारा यहां के मूल्‍यवान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के साथ-साथ गन्ना, सूअर और हिरण इत्‍यादि को इस द्वीप में लाया गया। ये अपना काम करवाने के लिए मेडागास्कर से दासों को यहां लाए। 1710 में सूखे के बाद पश्चिमी लोगों ने इस द्वीप को छोड़ दिया, इसके साथ ही महामारी और चक्रवात ने यहां के जीवन को और अधिक कठिन बना दिया। 1715 में, फ्रांसिसीयों ने इस द्वीप पर नियंत्रण स्‍थापित कर इसका नाम आय्ल डे फ्रांस (Isle de France) रखा। प्रारंभ में इन्हें यहां डचों के समान अवरोधों का सामना करना पड़ा।

1735 तक, इस द्वीप में मात्र 838 लोग निवास करते थे, जिनमें से 648 गुलाम थे। गुलामों को यहां वस्‍तुओं के समान माना जाता था, जिनका लेन-देन या क्रय-विक्रय मोतियों, कपड़ों, हथियारों इत्‍यादि के बदले में किया जाता था। इसने यूरोप और अफ्रीका के बीच एक नए प्रकार के व्‍यापार की शुरूआत की। दिसंबर 1723 में, राजा लुइस XV ने एक अध्‍यादेश जारी किया, जिसे इतिहास में ब्लैक कोड (Black Code) के नाम से जाना जाता है। इसके अन्‍तर्गत दासों के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। वे अपने मालिक की सहमति पर ही विवाह कर सकते थे, साथ ही यह प्रावधान भी शुरू किया गया कि दासों के बच्‍चे भी दास ही बनेंगे। दासों को चल-अचल संपत्ति माना जा रहा था।

1810 तक, जब ब्रिटिशों का एक बेड़ा भारतीयों के साथ द्वीप में पहुंचा, तब यहां दासों की आबादी लगभग 60,000 थी। ब्रिटिशों ने द्वीप का नाम बदलकर मॉरीशस कर दिया तथा 1814 की पेरिस संधि के बाद यह अंग्रेजी शासन के नियंत्रण में आ गया। ब्रिटिश बड़ी संख्‍या में यहां दासों को लाए, वे दासों को एक संधिपत्र के अधिनियम पर हस्‍ताक्षर कर यहां लाए थे, जिसमें लिखा गया था कि उनके नियमों, रीति-रिवाजों और धर्मों को संरक्षित रखा जाएगा।

दासों ने चीनी उद्योगों में काम किया, चीनी और पेय का उत्पादन किया। इसके साथ ही चीनी उत्‍पादन में बढ़ोतरी हुयी और यहां चीनी उत्‍पादकों और व्यापारियों का एक नया सामाजिक वर्ग बना। यहां सड़कों का निर्माण कराया गया, चीनी शुल्क घटाया गया और आधुनिक कृषि तकनीकों को लागू किया गया, जिसने 1817 से 1827 के बीच पैदावार को तीन गुना कर दिया।

1834 में मॉरीशस में पहली बार 39 भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को लाया गया था। 2 नवंबर, 1834 को, दूसरा भारतीय गिरमिटिया मजदूरों का समूह मॉरिशस आया, जिसमें अधिकांश बिहार से थे। गिरमिटिया का अर्थ था समझौते के आधार पर लाए गये मजदूर। गिरमिटिया मजदूरों को यहां लाने का प्रमुख उद्देश्‍य मॉरिशस को एक कृषि प्रधान देश के रूप में विकसित करना था। गन्‍ने की खेती का यहां तीव्रता से विस्तार किया गया था क्योंकि चीनी उत्पादन और इससे प्राप्त राजस्व में तेजी से वृद्धि हुई थी। औपनिवेशिक सरकार ने सस्ते और विनम्र श्रमिकों की संख्‍या में वृद्धि करने के लिए, यहां बुनियादी ढांचे जैसे बंदरगाह, सड़क और रेल इत्‍यादि सुविधाओं का विस्‍तार किया।

1 फरवरी, 1835 को मॉरीशस में दासता को समाप्त कर दिया गया था। अब गन्ने के खेत और कारखानों के लिए अंग्रेजों को मजदूरों की सख्त आवश्‍यकता महसूस होने लगी। अतः चीनी उद्योग में विस्‍तार के लिए अंग्रेजों ने भारत की ओर रूख किया। दासता उन्मूलन और अंग्रेजों द्वारा गन्ना कारखानों और खेतों के लिए श्रमिकों की भर्ती ने यहां पलायन में वृद्ध‍ि की। 1834 से 1924 के मध्‍य भारत के निम्‍न तबके के लोग एक बेहतर जीवन की तलाश में गिरमिटिया मजदूर के रूप में अंग्रेजों के साथ मॉरिशस आने को तैयार हो गए। इनका अंग्रेजों के साथ पांच साल का एक अनुबंध हुआ जिसके अनुसार इन्‍हें गन्ने के खेतों या कारखानों में काम करना था। किंतु यहां इनका जीवन इनकी अकांक्षाओं के बिल्कुल विपरित था।

यहां इन्‍हें वेतन के रूप में 5 रूपय प्रति माह तथा राशन के नाम पर दो पाउंड चावल, आधा पाउंड 'दाल', 56.6 ग्राम नारियल तेल, 56.6 ग्राम सरसों का तेल दिया गया। महिलाओं और बच्चों के लिए राशन कुछ हद तक कम कर दिया गया था। वर्ष के अंत में, मजदूरों के नियोक्ता उन्हें कुछ वस्‍त्र भी देते थे। इन मजदूरों को सप्ताह में सात दिन 10 घंटे तक काम करना पड़ता था, साथ ही इनके काम की स्थिति बहुत खराब थी।

1863 के बाद, चुकंदर से चीनी का उत्‍पादन प्रारंभ हुआ जिसने विश्व बाजार में गन्ना उद्योग को कड़ी प्रतिस्‍पर्धा दी। इसके परिणामस्‍वरूप गिरमिटिया मजदूरों का जीवन और भी कठिन हो गया। हैजा मलेरिया जैसी बिमारियों ने इनका जीवन और अधिक दुष्‍कर बना दिया। 1866 से 1868 के बीच सिर्फ मलेरिया से लगभग 50,000 मौतें हुईं। गरीबों की संख्‍या में भी तीव्रता से वृद्धि हुयी।

मॉरिशस आए सभी भारतीय अप्रवासी मज़दूर नहीं थे। ब्रिटिश कब्‍जे के बाद मॉरीशस में भारतीय हिंदू और मुस्लिम दोनों व्यापारियों का एक छोटा लेकिन समृद्ध समुदाय भी मौजूद था। चीनी के आयात-निर्यात में वृद्धि ने भारतीयों के लिए यहां व्यापार हेतु अधिक अवसर बढ़ाए। यहां आने वाले अधिकांश व्यापारी गुजराती थे। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई कारक प्रचलित हुए, जिन्होंने कुछ मजदूरों के वंशजों को अपने लिए भूमि खरीदने हेतु सक्षम बनाया। इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आया। आज भी मॉरिशस में भारतीय संस्‍कृति की झलक देखने को मिल जाती है।

संदर्भ:
1. https://bit.ly/2Hs9b9o
2. https://bit.ly/2HrKR7x
3. https://eisa.org.za/wep/mauoverview5.htm
4. https://www.mauritius-holidays-discovery.com/aapravasi-ghat.html

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