जैन धर्मग्रंथों के अनुसार, 343[[राजूस]] की मात्रा वाले सामान्य मानव-आकार के कब्जे वाले ब्रह्मांड है जो आदरणीय सर्वज्ञों द्वारा अनंत-व्यापक गैर-कब्जे वाले ब्रह्मांड या गैर-ब्रह्मांड अंतरिक्ष के प्रमुख मध्य भाग में है । जैन दर्शन के अनुसार, ब्रह्मांड छह अनन्त पदार्थों से बना है:-
1. जीव
2. पुद्गल
3. धर्म
4. अधर्म
5. आकाश
6. काल
इसमें से आकाश द्रव्य के २ भेद हैं :-
1 - लोक/लोकाकाश
2 - अलोक/अलोकाकाश
ब्रह्मांड की चौड़ाई
ब्रह्मांड की चौड़ाई इसके आधार में (निचला हिस्सा) सात [[राजस]] है। यह केंद्रीय या मध्य ब्रह्मांड में एक रज्जू है, जो अपने आधार से क्रमिक गिरावट के साथ है। बाद में, मध्यम ब्रह्मांड से पाँचवें स्वर्ग तक चौड़ाई धीरे-धीरे पाँच [[राजजस]] तक बढ़ जाती है और फिर, यह ब्रह्मांड के सिरे पर एक [[राजजस]] तक घट जाती है।ब्रह्मांड के तीन हिस्सों के केंद्र में त्रैसा-नालू है जो एक [[राजजस]] चौड़ा, एक [[राजजस]] मोटा और 13 [[राजजस]] की तुलना से थोड़ा कम है। जीवित प्राणियों के वर्ग (ट्रास) केवल इस प्रणाली में पाए जाते हैं।तीनलोक का आयतन(volume) 343 घन राजू है।
1 – अधोलोक
लोक का निचला भाग अधोलोक कहलाता है। यह 10 भाग में बटा हुआ है। इसकी ऊंचाई - 7 राजू , मोटाई - 7 राजू और चौड़ाई -नीचे 7 और ऊपर 1 राजू है।पहली पृथ्वी रत्न प्रभा(धम्मा) है और यहाँ से तीन भागों में विभाजित किया गया है:-खार, पंक और अब्बाहुल। पहला नरक अब्बाहुल भाग में स्थित है। इसके नीचे शार्कर प्रभा(वंशा) नाम की दूसरी पृथ्वी है। इसके बाद तीसरी पृथ्वी का नाम बलुकाप्रभा(मेधा), चौथी पृथ्वी पंक प्रभा(अंजना), पांचवी पृथ्वी धूम प्रभा(अरिष्टा), छठी पृथ्वी ताम्र प्रभा(मधवी) है और सातवीं पृथ्वी महातम प्रभा(माधवी) के नाम से है। अंत में निगोद का दसवां विभाजन है।
पहली "रत्नप्रभा (धम्मा)" पृथ्वी है, इसके 3 भाग हैं :-
1 - खर भाग - 16,000 योजन मोटा है, इसमें 9 प्रकार के भवनवासी देव और 7 प्रकार के व्यंतर देव रहते।
2 - पंक भाग - 84,000 योजन मोटा है, इसमें बाकी के असुरकुमार (भवनवासी देव) और राक्षस (व्यंतर देव) रहते हैं।
3 - अब्बाहुल। भाग - 80,000 योजन मोटा, अब्बाहुल। भाग है, इसमें प्रथम नरक है । इसमें नारकी रहते हैं।
इस प्रकार पहली पृथ्वी की मोटाई 1,80,000 योजन होती है । फिर बीच में तीन वातवलय हैं, उसके नीचे दूसरी शर्कराप्रभा और इसी प्रकार बाकी के छह नरक हैं ।
मध्य लोक
ऊपरी और निचले लोक के बीच में मध्य लोक है। जहाँ हम और आप रहते हैं । यह सुमेरु पर्वत यानी1 लाख 4 योजन के बराबर है।इसकी उचाई- 100040 योजन है, मोटाई 7 राजू और चौड़ाई 12 राजू है । मध्य-लोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं । मध्य लोक के बिल्कुल बीचों-बीच थाली के आकार का 1,00,000 योजन विस्तार वाला पहला द्वीप "जम्बू-द्वीप" है ।यह चूड़ी के आकार का है । इसके बाद इसे चारों तरफ से घेरे हुए पहला समुद्र लवण-समुद्र है, जो कि इस(जम्बू-द्वीप) से दूने विस्तार वाला है।
मध्य लोक के कुछ द्वीप, उनके समुद्र और उनके विस्तार :-
1 - जम्बूद्वीप - एक लाख योजनइस क्रम में "आंठवा द्वीप ‘नंदीश्वर द्वीप’ है । तेरहवां द्वीप "रुचकवर द्वीप" है, इस द्वीप तक ही अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इसी प्रकार असंख्यात द्वीप और समुद्र मध्य-लोक में हैं । अंतिम द्वीप = स्वयंभूरमणद्वीप है और अंतिम समुद्र = स्वयंभूरमण समुद्र है ।
इस मध्य ब्रह्मांड में, 790 योजन की ऊंचाई पर सूक्ष्म देवताओं के निवास हैं। ये सूक्ष्म देवता हैं- सूर्य, चंद्रमा , ग्रह (ग्राह), नक्षत्र (नक्षत्र) और सितारे (तारे) है । क्योंकि इन सूक्ष्म देवताओं के प्रत्येक निवास में एक जैन मंदिर है।
उर्ध्व लोक
मध्य-लोक के ऊपर लोक के अंत तक उर्ध्व-लोक है । मध्य-लोक में शोभायमान "सुमेरु-पर्वत" की चूलिका (चोटी) से "एक बाल" के अंतर/फासले से शुरू होकर लोक के अंत तक के भाग को "उर्ध्व-लोक" कहा है । सो, भूमितल से 99,040 योजन ऊपर जाने पर उर्ध्व लोक शुरू होता है। ऊधर्व लोक का आकार ढोलक जेसा है इसकी ऊंचाई - 1,00,040 योजन कम 7 राजू है । मोटाई - 7 राजू और चौड़ाई - नीचे 1 राजू, बीच में 5 और ऊपर 1 राजू है । उर्ध्व लोक में "वैमानिक-देवों" के आवास हैं। जहाँ इंद्र आदि दस भेदों की कल्पना होती है, उन "सोलह स्वर्गों" में जन्म लेने वाले देवों को "कल्पवासी देव" कहते हैं ।
सोलह स्वर्ग
ऊपर आमने-सामने 8 युगल/जोड़े के रूप में 16 स्वर्ग, फिर 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश और 5 अनुत्तर क्रम से आगे-आगे हैं
सौधर्म - ऐशान - सुमेरु-पर्वत के तल से डेढ़-राजू में
सानतकुमार - माहेन्द्र - उसके ऊपर डेढ़-राजू में
ब्रह्म - ब्रह्मोत्तर - १/२ राजू में
लानत्व - कापिष्ट - १/२ राजू में
शुक्र - महाशुक्र - १/२ राजू में
सतार - सहस्त्रार - १/२ राजू में
आनत - प्राणत - १/२ राजू में
आरण - अच्युत - १/२ राजू में
निष्कर्ष
अधोलोक के खर और पंक भाग में भवनवासी और व्यंतर देवों के असंख्यात भवन हैं, मध्य लोक में भी व्यंतर और ज्योतिष देवों के असंख्यात भवन हैं, प्रत्येक में एक-एक अकृत्रिम चैत्यालय है । इनकी संख्या असंख्यात है । लेकिन जिन अकृत्रिम चैत्यालयों कि गिनती कि जाती है उनकी संख्या 8,56,97,481 है । जिसमे से 458 मध्य-लोक में हैं । मध्य-लोक को उर्ध्व लोक का ही निचला हिस्सा कहीं कहीं माना गया है, क्यूंकि राजू कि तुलना में कुछ लाख योजन कुछ भी नहीं । अंत में लोक को पढ़ने के बाद यही भाव आना चाहिए कि अब तक अज्ञानवश मैं इस लोक के हर क्षेत्र में(संसार-रूप क्षेत्र) अनन्तों बार जन्म ले कर मर चुका ... अब इस संसार चक्र से मुक्ति मिले उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
सन्दर्भ:
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