वर्तमान में समय का पता करना हो तो हम आसानी से घड़ी या मोबाइल फोन में देखकर समय जान जाते है। यहां तक कि हम इन उपकरणों से सेकंड तक का भी हिसाब रख लेते है। लेकिन क्या आपको पता है प्राचीन काल में समय किस प्रकार देखा जाता था? इस बात से शायद सभी अंजान है, प्राचीन काल में समय का पता लगाने के लिये विभिन्न तरीको का उपयोग किया जाता था यहां तक की पानी के इस्तेमाल से भी समय का पता लगाया जाता था। तो चलिये आज आपको बताते हैं पानी के माध्यम से समय का बोध किस प्रकार किया जाता था।
प्राचीन सभ्यताओं में समय जानने के लिये सूर्य घड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य घड़ी ही समय की गणना करने वाला पहला आविष्कार माना जाता है। लेकिन यह घड़ी उस समय विफल हो जाती है जब सूर्य के सामने बादल छा जाए, और इस तरीके में कई खामियां भी थीं। इन कमियों की भरपाई के लिए, पानी की घड़ी का आविष्कार किया गया था। हालांकि निश्चित तौर पर ये ज्ञात नहीं है कि पहली पानी की घड़ी कब या कहाँ बनाई गई थी परंतु भौतिक साक्ष्य 1417-1379 ईसा पूर्व के मिलते हैं। पानी की घड़ी का उपयोग इस सदी में भी उत्तरी अफ्रीका में जारी था।
इसका एक सबसे पुराना ज्ञात साक्ष्य 1500 ईसा पूर्व का है जोकि मिस्र के फेरो अमेनहोटेप की कब्र से मिला है। प्राचीन काल में, पानी की घड़ियों से समय ज्ञात करने के लिये दो तरीकों का इस्तेमाल किया जाता था: पहला बहिर्वाह जल घड़ी था जिसमें समय मापन के लिये जल के नियंत्रित प्रवाह का सहारा लिया जाता था। इसमें एक खाली पात्र को जल से भरे पात्र के नीचे रखा जाता था और स्थिर गति से जल को बहने दिया जाता था, जल से भरे पात्र के जल स्तर में बदलाव से प्रेक्षक द्वारा समय बताया जाता था। वहीं इसके दूसरे तरीके अन्तर्वाह में इस आधार पर समय की गणना की जाती थी कि खाली पात्र में जल स्तर कितना है।
लगभग 325 ईसा पूर्व में, ये पानी की घड़ियां यूनानियों द्वारा भी इस्तेमाल की जाने लगी, जिन्होंने इस उपकरण को क्लेप्सीड्रा (clepsydra) नाम दिया (जिसका अर्थ “वाटर थीफ” (water thief) यानी कि पानी का चोर था) । ग्रीस में पानी की घड़ी का उपयोग विशेष रूप से एथेंस की अदालतों में वक्तृता के लिये समय निर्धारित करने के लिए किया जाता था। हालांकि, इस घड़ी में भी कई कमियां थी सबसे पहले तो ये की पानी के प्रवाह को स्थिर दर से प्रवाहित होने के लिए पानी में निरंतर दबाव की आवश्यकता थी। इस समस्या को हल करने के लिए, एक बड़े जलाशय के पानी के साथ घड़ी की आपूर्ति की गई थी जिसमें पानी एक स्थिर स्तर पर रखा गया था। इसका एक उदाहरण टॉवर ऑफ द विंड्स (Tower of the Winds) के नाम से जाना जाने वाला पहला घड़ी टावर है। यह पहली शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान एथेंस में ग्रीक खगोलशास्त्री एंड्रोनिकोस द्वारा बनाया गया था और यह आज भी खड़ा है। यह एक अष्टकोणीय संगमरमर की संरचना है जो 42 फीट (12.8 मीटर) ऊंची और 26 फीट (7.9 मीटर) व्यास की है।
परंतु इतना ही नहीं पानी की घड़ी के साथ एक और समस्या यह थी कि साल में अलग अलग मौसमों में दिन और रात की लंबाई भिन्न होती है, इसलिये इन घड़ियों को हर महीने ठीक करना आवश्यक था। इस समस्या के समाधान के लिये कई समाधानों पर काम किया गया। उदाहरण के लिए, उस पानी के प्रवाह को विनियमित करने के लिए अलग-अलग आकार के 365 छेदों वाली एक डिस्क का उपयोग किया गया था। ये छेद वर्ष के दिनों के अनुरूप थे, और प्रत्येक दिन के अंत में एक छेद को दूसरे छेद से बदल दिया जाता था। परंतु पानी के प्रवाह की दर को सही ढंग से नियंत्रित करना बहुत मुश्किल था, इसलिए जल प्रवाह पर आधारित ये घड़ियां कभी भी उत्कृष्ट सटीकता प्राप्त नहीं कर पाई।
पानी की घड़ी के रचनाकारों के कई नाम इतिहास द्वारा संरक्षित नहीं किए गए हैं। ये घड़ी न केवल यूरोप में बल्कि चीन और भारत में भी निर्मित की गई थी। एन. कामेश्वर राव बताते हैं कि भारत में मोहन जोदड़ो की खुदाई से प्राप्त बर्तनों को शायद पानी की घड़ियों के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। ये बर्तन तल पर पतले हैं और इनके किनारे पर एक छेद होता है। ये बर्तन शिवलिंग पर अभिषेक करने के लिए उपयोग किए जाने वाले बर्तन के समान हैं। वहीं एन. नरहरी अचर और सुभाष काक ने बताया कि प्राचीन भारत में पानी की घड़ी का उपयोग दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से अथर्ववेद में वर्णित है। ज्योतिषी वराह मिहिर की पंचसिद्धांतिका (505) में भी एक पानी की घड़ी का वर्णन सूर्यसिद्धांत में दिए गए विवरण में मिलता है और गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने अपने कार्य ब्रह्मगुप्त सिद्धांत में जो वर्णन दिया है, वह सूर्यसिद्धांत में दिए गए से मेल खाता है। खगोलविद लल्लाचार्य ने भी इस यंत्र का विस्तार से वर्णन किया है।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2HqqlVm
2. https://bit.ly/2J4XzvK
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Water_clock
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