हम सभी बचपन से पढ़ते और सूनते हुए आ रहे हैं, इस जीव जगत में मात्र पेड़ पौधे ही स्वपोषी जीव हैं, जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। किंतु आपने कभी ऐसे पौधे के विषय में सूना है जो कीट पतंगों से अपना भोजन करते हैं। हम बात कर रहे हैं घटपर्णी पौधे की, यह एक कीटभक्षी पौधा है। इन पौधों की संरचना अन्य पौधों से थोड़ा विचित्र होती है अर्थात इन पौधों के कुछ पत्ते पहले सामान्य पत्तों के समान दिखते हैं, जिनके सिरे पर एक तंतु विकसित होता है और अंत में इस तंतु के सिरे पर एक विचित्र घड़ा विकसित होता है, जिसके ऊपर एक ढक्कन बना होता है, जो शैश्वावस्था में इस घड़े के मुंह को बंद रखता है। इस घट की आंतरिक सतह पर एक मोम की कोटिंग पायी जाती है, जिससे फिसलकर कीट इसे घटक में गिर जाते हैं। यह पौधे अपने पराग कण के माध्यम से कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, कीड़े इनके शीर्ष पर बने घट पर गिरकर मर जाते हैं तथा इन्हें पाचक द्रव द्वारा पचा लिया जाता है।
यह पौधे मुख्यतः नेपेंथेसी (Nepenthaceae) और सरकेनियासी (Sarraceniaceae) कुल के सदस्य हैं। किंतु इस प्रजाति के समान कुछ प्रतिरूप सेफलोटेशिया (Cephalotaceae) और ब्रोमेलिएसी (Bromeliaceae) वंश में भी उत्पन्न होते हैं। नेपेंथेसी में एक ही जीन, नेपेंथेस होता है, इनकी 100 से अधिक प्रजातियां हैं जिनमें कई संकर और कुछ कृषिजोपजाति हैं। यह भूमि तथा वृक्ष दोनों पर पाये जाते हैं। सरकेनियासी में तीन वंश शामिल होते हैं, यह जमीन पर रहने वाली शाक हैं, इनके घड़े एक अनुप्रस्थ प्रकंद से उत्पन्न होते हैं। नेपेंथेसी में लता घट का निर्माण करती है, जबकि सरकेनियासी में पत्ती घट का निर्माण करती है। सेफलेटेसिया एक प्रतिरूपी वंश का है, जिसका एक वंश और एक प्रजाति (सेफलोटस फोलिक्युलिस) होती है। इस प्रजाति में एक छोटा (2-5 सेंटीमीटर) सा घड़ा होता है, जो कि नेपेंथेस के समान होता है। यह मात्र दक्षिण-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में ही होता है। ब्रोमेलियाड्स पोधों की कुछ प्रजातियां (जैसे-ब्रोचिनिया रिडक्टा और कैटोप्सिस बेर्टेरोन्या) मांसाहारी हैं या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। यह एक बीजपत्री पौधे हैं।
यह भारतीय मूल की एकमात्र नेपेंथेसी प्रजाति है, मेघालय की खासी पहाड़ियों पर पायी जाती है। यह पौधा स्थानीय स्तर तक सीमित है साथ ही गंभीर रूप से संकटग्रस्त है। खासी में इन्हें तीव-राकोट (अर्थात दानव-फूल या भक्षण-पौधा) के नाम से जाना जाता है। यह नीले प्रकाश के माध्यम से शिकार को आकर्षित करते हैं। घटपर्णी की कुछ अन्य ज्ञात प्रजातियां गारो, खासी, जयंतिया की पहाडि़यों एवं असम में पायी जाती हैं। जयंतिया के लोग इसे कसेत फारे (ढक्कनदार मक्खी), गारो में इसे मेमांग-कोकसी (शैतान की टोकरी) और असम की बायेट जनजाति इसे जुग-पार (घटपर्णी पौधा) रूप में जानते हैं।
यह मांसाहारी पौधा शिकार को लुभाने के लिए विभन्न तकनीकों जैसे पराग, गंध, रंग और पराबैंगनी पुष्पन का उपयोग करते हैं। लेकिन अभी, जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक इस बात की पुष्टि की है कि कुछ मांसाहारी पौधे कीड़ों और चींटियों को आकर्षित करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का उपयोग करते हैं। नेपेंथेस वंश के मांसाहारी पौधे अपने पत्ते तथा घड़े के माध्यम से कीटों को पकड़कर कर अपने पोषक तत्वों की कमी को पूरा करते हैं, इनका घड़ा एक जैविक जाल के रूप में कार्य करते हैं। CO2 एक संवेदी संकेतक है और अधिकांश कीटों में पूर्णतः विकसित अभिग्राहक होते हैं जो उन्हें मुख्य स्रोतों से उत्पन्न होने वाले पिच्छक के रूप में CO2 के सूक्ष्म विचरण का प्रतिउत्तर देने में मदद करते हैं।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Pitcher_plant
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Nepenthes_khasiana
3. http://www.flowersofindia.net/catalog/slides/Indian%20Pitcher%20Plant.html
4. https://bit.ly/2Uc6ay7
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