“मेरठ छावनी” जहां से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी भड़की थी, उसके इतिहास का एक अध्याय अधिकांश लोगों द्वारा भूला दिया गया है। हम उस समय की बात कर रहे है जब मेरठ छावनी “भारतीय सेना सिग्नल” में कुशल और प्रशिक्षित थी। संकेत देने का यह प्रशिक्षण मेरठ छावनी में 1901 में हुआ था और इसके 10 साल बाद औपचारिक रूप से सेना के "भारतीय सेना सिग्नल कोर" डिवीजन को स्थापित किया गया था।
एक समय था जब संकेतन की कला को पूरी ब्रिटिश सेना द्वारा आत्मसात किया गया था। इसके बीस से अधिक वर्षों के बाद संकेतन की कला को ब्रिटिश सैनिकों के साथ साथ भारतीय सैन्य दल को सिखाना भी प्रारंभ हुआ और इसके लिये नियमित स्कूलों की स्थापना की गई। 1878-80 में कई भारतीय रेजिमेंट थी जिनमें संकेतन की कला सिखाई जाती थी। उस समय में मेरठ, इलाहाबाद, रावल पिंडी, बॉम्बे और सिकंदराबाद सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में से एक थे। वे सैनिक जिन्होंने यहां से संकेत देने की कला को सीखा था उन्होंने अफगान अभियान में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और ये प्रशिक्षण उन वर्षों में भारतीय सैनिकों को ज्यादा से ज्यादा सिखाया जाने लगा।
इस प्रशिक्षण हेतु प्रत्येक रेजिमेंट में निर्देश के एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए गैर-कमीशन अधिकारियों का चयन होता है। इस चयन के लिये उन्हें कुछ कसौटीयों पर खरा उतरना होता था, यदि वे अपने कर्तव्यों के इन आवश्यक भागों में कुशल पाए जाते थे, तो वे 42 कार्यदिवसों के स्कूल पाठ्यक्रम को समाप्त कर लेते थे। उस समय में संकेतन की कला को सीखने के लिये अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक था क्योंकि इसी भाषा में संकेतो को पढ़ा और भेजा जाता था। आप इस लिंक (https://bit.ly/2V8QtHY) में 1897 के मेरठ की एक तस्वीर भी देख सकते है जहां आपको भारत में ब्रिटिश ध्वज नजर आयेगा।
संकेतन के लिये अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना जरूरी था, चुने गए सैनिक अंग्रेजी पढ़ और लिख सकते थे और अच्छी तरह से समझ भी सकते थे। उन्हें हेलीओग्राफ, ध्वज, लैम्प, सेमाफोर और साउंडर के विभिन्न तरीकों के माध्यम से अंग्रेजी में एक मिनट में लगभग दस शब्दों की औसत दर से संदेश प्रसारित करने में सक्षम होना पड़ता था। उस समय पूरे भारत के रेजिमेंटल स्कूलों में अंग्रेजी भाषा सिखाई जाती थी। यहां तक कि मद्रास प्रेसीडेंसी में, कई सैनिक ऐसे भी थे जिन्हें बचपन से अंग्रेजी पढ़ने और लिखने के लिए लाया गया था। संकेतन को सिखने के लिये सैनिकों में विकसित मांसपेशियों के साथ-साथ उच्च बुद्धिमत्ता का होना भी आवश्यक था और ये दोनों योग्यताएं लेफ्टिनेंट डब्ल्यू.एच वेबर (तीसरे बंगाल अश्व सेना के प्रमुख्, जो केंद्र में अधिकारी थे) के तहत मेरठ के सैन्य दल में मौजूद थी।
हालांकि मेरठ के सैनिक संकेतन की प्रक्रिया को पहले ही सीख गये थे, परंतु एक अलग इकाई के रूप में भारतीय सेना के सिग्नल कोर का गठन दस साल बाद 15 फरवरी 1911 को लेफ्टिनेंट कर्नल एस एच पावेल के तहत किया गया था। इस कोर ने प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2SkCqx2
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Indian_Army_Corps_of_Signals
3. https://bit.ly/2U3PXLg
4. 246/192811355880hash=item2ce473cee8:g:odQAAOSwlY1ZHNOj:rk:3:pf:1&frcectupt=true
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