भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या 1857 की क्रांति की बात की जाए तो तुरंत इसके प्रमुख नायक नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह, बहादुर शाह जफ़र, मंगल पाण्डेय आदि के नाम ज़हन में आने लगते हैं। किंतु इन सबके पीछे एक वर्ग ऐसा भी है, जिनके नाम तो इतिहास के पन्नों में अंकित नहीं हैं, लेकिन इनके बीना यह क्रांति शायद संभव ना हो पाती। वह है "आम आदमी " विशेष रूप से मेरठ और उसके निकटवर्ती गांव के लोग। मेरठ के निकट स्थित बड़ौत गांव के लोगों ने बीना किसी युद्ध प्रशिक्षण तथा अपने सीमित साधनों (जैसे-भाले, तलवारों) से अंग्रेजों की राइफलों और तोपों का बहादुरी से सामना किया। 10 मई 1857 को क्रांति का बिगुल बजते ही, मेरठ और उसके आसपास के लोग सक्रिय हो गये उन्होंने तुरंत ब्रिटिश छावनी पर हमला बोल दिया। साथ ही इनकी जेल में कैद लोगों को भी वहां से छुड़वा लिया। 11 मई को इन्होंने सरधना (मेरठ) की तहसील पर धावा बोल दिया। देखते ही देखते विद्रोह आस पास के सभी गावों में फैल गयी। जिसका प्रमुख केन्द्र बड़ौत और बागपत थे तथा मुख्य विद्रोही किसान थे, जिन्होंने ब्रिटिशों के नाक में दम कर दिया। यहां तक कि ब्रिटिशों को इन आम नागरिकों से लड़ने के लिए एक विशेष थलसेना को तोप और बंदूकों के साथ भेजा गया।
इस युद्ध का नेतृत्व करने वाले नायकों की मृत्यु के बाद भी इन लोगों ने अपनी उम्मीद नहीं छोड़ी और दृढ़तापूर्वक अंग्रेजों के आगे डटे रहे। स्वतंत्रता की इस लड़ाई में अनगिनत लोग मारे गये और ना जाने कितने गांव अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिये गये, इसके कोई स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। क्रांतिकारियों द्वारा जब दिल्ली पर कब्जा कर लिया गया तो उनके रसद की आपूर्ति दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र मेरठ और बड़ौत के लोगों द्वारा की गयी। 1857 की इन विकट परिस्थितियों में यहां के ग्रामीणों ने अपने उत्तरदायित्व को पूरी निष्ठा से निभाया और अंग्रेजों के पूर्णतः विरोध के बाद भी इन्होंने रसदापूर्ति को सुचारू रखा। दिल्ली के क्रांतिकारियों की सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति में भी इन ग्रामीण लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मेरठ की ब्रिटिश छावनी को दिल्ली से जोड़ने के लिए बागपत में यमुना नदी पर नाव पुल बनाया गया था। इसका उपयोग ब्रिटिश सेना द्वारा सामरिक उद्देश्यों के लिए किया जाता था साथ ही यह दिल्ली और मेरठ के ब्रिटिश मुख्यालय के मध्य संपर्क का एकमात्र साधन था। 30 और 31 मई 1857 को दिल्ली के क्रांतिकारियों से हिंडन ब्रिज पर हुए युद्ध के बाद आर्केडेल विल्सन की सेना 6 जून 1857 को बागपत में बने नाव के पुल के माध्यम से ही ब्रिटिश सेना से मिली। ब्रिटिश सेना के इस अभिन्न अंग (पुल) को क्रांतिकारी शाहमल ने दिल्ली के विद्रोही सैनिकों के साथ मिलकर तोड़ दिया, जिससे कंपनी का दिल्ली से संपर्क टूट गया।
60 वर्ष के शाहमल ने ब्रिटिश सेना के विरूद्ध 3500 किसानों की सेना तैयार की जिसमें पैदल सेना, कुछ घुड़सवार सेना शामिल थी, उन्होनें शाहमल के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से प्राचीन बंदूकों, भालों, तलवारों के साथ ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्ध लड़ा। शाहमल की सेना और अंग्रेजों के मध्य मुठ भेड़ के दौरान ए. टोनोची द्वारा बाबा शाहमल मारे गये, किंतु भी फिर भी इनकी सेना का हौसला न टूटा वे पूरे साहस के साथ ब्रिटिश सेना का मुकाबला करते रहे तथा इनके भाले के प्रहार से ए. टोनोची भी जख्मी हो गया। 19 जुलाई को इन ग्रामीणों ने पुनः ब्रिटिश सेना पर हमला करने की योजना बनाई, इस योजना को सभी ग्रामीण विशेषकर जाटों ने जमकर सामना किया। ब्रिटिश सेना तो इन ग्रामीण किसानों के मन में भय पैदा करने में सफल नहीं हो पायी किंतु ग्रामीण किसान सेना का भय उनके मन में जरूर उत्पन्न हो गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश सेना नायक मेजर विलियम ने मेरठ के किसानों के भय से हिण्डन मार्ग को पार करने के लिए मेरठ स्टेशन से अतिरिक्त सेना की मांग की।
ग्रामीणों के बढ़ते हमलों और साहस से बोखलाई ब्रिटिश सेना ने 22 जुलाई को गांव में जाकर नरसंहार प्रारंभ कर दिया। नरसंहार जैसे अन्य कई अभियानों के बाद भी ब्रिटिश सेना मेरठ और उसके आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों में लम्बे समय तक नियंत्रण नहीं कर पायी। इन ग्रामीणों की सेना अभी भी ब्रिटिश सेना के विरूद्ध लड़ने को तैयार थी। इन गांव वालों का ब्रिटिश उपनिवेशों से स्वतंत्रता के लिए दिया गया योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
संदर्भ :
1. http://www.ijesrr.org/publication/22/IJESRR%20V-2-4-9.pdf© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.