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नमी वाले क्षेत्र जहां सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुंच पाता है या बरसात के मौसम में जगह जगह काई लग जाती है, जिसमें अक्सर हम गिर भी जाते हैं। जिसे हम एक समस्या के रूप में ही देखते हैं, किंतु यह काई या शैवाल भी हमारे पर्यावरण का अभिन्न अंग है। शैवाल प्रमुखतः प्रॉटिस्टा (Protista) जगत के जलीय प्रकाश संश्लेषक पौधे हैं, जो सूक्ष्म (माइक्रोमोनस (Micromonas) प्रजाती) से लगभग 60 मीटर दीर्घ (केल्प्स (kelps)) के हो सकते हैं। शैवाल प्रकाश संश्लेषक वर्णक की तुलना में अधिक भिन्न होते हैं, तथा इनकी कोशिकाऐं पौधे और जीवों के समान नहीं होती है। शैवाल ऑक्सीजन उत्पादन के साथ साथ जलीय जीवन के भोजन का आधार हैं यदि व्यवसायिक दृष्टि से देखा जाये तो यह कच्चे तेल उत्पादन का एक अच्छा स्त्रोत हैं तथा कई दवाई और औद्योगिक उत्पादों में भी इनका प्रयोग किया जाता है।
शैवाल विज्ञान एक ऐसा विषय है जिसमें तीव्रता से परिवर्तन देखने को मिल रहा है। 1830 में शैवाल को रंगों (जैसे-लाल, भूरे, हरे रंग) के आधार पर वर्गीकृत किया गया था। रंग विभिन्न क्लोरोप्लास्ट वर्णक, जैसे क्लोरोफिल (chlorophylls), कैरोटीनोइड (carotenoids), और फाइकोबिलिप्रोटीन्स (phycobiliproteins) का प्रतिबिंब होते हैं। अधिकांश शैवाल तालाबों में, रुके हुए जलाशयों तथा समुद्रों में पाए जाते हैं। कुछ शैवाल पादपों के तनों पर, अथवा पत्थर की शिलाओं के ऊपर, हरी परत के रूप में उग जाते हैं। मीठे पानी के शैवाल को अलवण जलशैवाल तथा लवणीय जल की शैवाल को सामुद्रिक शैवाल के रूप में जाना जाता है। शैवाल में उपस्थित हरित लवक साइनोबैक्टीरिया (cyanobacteria) के समान होते हैं।
शैवाल कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide), पानी और सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से कार्बनिक खाद्य पदार्थ को बनाते है। यह लगभग सभी महासागरों में उपस्थित होते है और समुद्री जीवन का एक बड़ा हिस्सा है जिसपे व्हेल (whale), मछलियों की कई प्रजाति, कछुए, केकड़े, ऑक्टोपस (octopus), स्टारफिश (starfish), और कीड़े आदि शैवाल पर निर्भर है। यहां तक की मानव और अन्य स्थलीय जानवरों के श्वसन के लिए उपलब्ध शुद्ध वैश्विक ऑक्सीजन का लगभग 30 से 50 प्रतिशत उत्पादन शैवाल के द्वारा किया जाता है।
माना जाता है कि प्रकृति में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार प्राचीन शैवाल के प्रकाश संश्लेषक उत्पादों के अवशेष हैं, जिन्हें बाद में बैक्टीरिया (Bacteria) द्वारा संशोधित किया गया था, तथा यह भी कहा जाता है कि उत्तर सागर के तेल भंडार कोकोलिथोफोर (coccolithophore) नामक शैवाल से निर्मित है। जहां यह झील की सतह पर इतना तेल उत्पादित करता है कि इसे एक विशेष स्किमिंग (skimming) उपकरण के साथ एकत्र किया जा सकता है और यह जीवाश्म ईंधन के लिए एक विकल्प है। इनका प्रयोग भोजन के रूप में, औषधि निर्माण में, विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक कार्यों आदि में किया जाता है। लाल शैवाल के नोरि या लावर (पोरफाइरा), सबसे महत्वपूर्ण खाने वाले शैवाल हैं। अकेले जापान में ही समुद्र में लगभग 100,000 हेक्टेयर (247,000 एकड़) में खाने योग्य शैवाल की खेती की जाती है। ‘अगर’(Agar) नामक पदार्थ लाल शैवालों से प्राप्त किया जाता है, जो प्रयोगशालाओं में पौधों, बैक्टीरिया, कवक आदि के संवर्धन में प्रयुक्त होता है।
भारत में मौजूद विभिन्न ताजे पानी और समुद्री शैवाल की मदद से भारत शैवाल की खेती कर इस क्षेत्र में व्यापक वृद्धि कर सकता है। भारत में छोटे पैमाने पर कुटीर उद्योग के रूप में शैवाल की खेती की जा सकती है। वर्तमान में शैवाल की मदद से रसायन के अलावा दवाइयों और न्यूट्रास्यूटिकल (nutraceutical) उत्पादों की एक श्रृंखला को भी विकसित किया जा रहा है। वहीं भारत में सूक्ष्म शैवाल जैसे स्पाइरुलिना (spirulina) (जिसे अब दवा उत्पाद के रूप में दिया जाता है) के व्यापार में वृद्धि हो रही है।
संदर्भ :
1. https://www.britannica.com/science/algae