पंज प्यारे वे पाँच वीर और निर्भय व्यक्ति थे, जिनसे सिखों के अंतिम और दसवें गुरु, गुरु गोविन्द सिंह ने बलिदान स्वरूप उनका शीश माँगा था। वे वीर भाई साहिब सिंह, भाई धरम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई दया सिंह थे। गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिखों को धर्म की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए प्रेरणा प्रदान की थी। उनके द्वारा जनभावना को परखने के लिए 14 अप्रैल 1699 को बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय के लोगों को आमंत्रित किया गया। उनके एक आह्वान से हजारों की संख्या में सिख इकट्ठे हो गए थे। फिर उन्होंने समस्त लोगों के सामने शीश की माँग की और जिन पाँच लोगों ने उनके लिए अपने शीश का बलिदान किया, वे 'पंज प्यारे' के नाम से विख्यात हुए।
'पंज प्यारे' में से एक 'भाई धरम सिंह' जी गंगा के दाहिने किनारे पर बसे एक प्राचीन शहर, हस्तिनापुर के सैफपुर करमचंद गांव के निवासी थे। भाई संतराम और माई साभो के इस वीर पुत्र का जन्म 1666 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धर्म दास था। ये 1698 में गुरु गोविन्द सिंह की शरण में पहुचे थे। कुछ महीने बाद वो ऐतिहासिक बैसाखी मण्डली में पहुचे जहां वे गुरू गोविंद सिंह के लिये शहीद होने के लिये भी तैयार हो गये थे। इस प्रकार उन्होंने भरी सभा में त्याग और बलिदान का उदाहरण पेश किया और गुरू जी के प्यारे बन गए। गुरु गोविंद सिंह जी के साथ उन्होंने आनंदपुर की लड़ाई में हिस्सा लिया था। वह भाई दया सिंह के साथ गुरु गोविंद सिंह के पत्र और ज़ाफरनामा को लेकर सम्राट औरंगजाब को देने के लिए दक्षिण में भी गए थे।
सन 1708 में उनका देहांत गुरुद्वारा नानदेव साहिब में हो गया था। उनके देहांत के बाद उनके पुश्तैनी घर पर गुरुद्वारा स्थापित कर दिया गया। सैफपुर करमचंद गांव में स्थित यह गुरुद्वारा सिख धर्म के लोगों के लिए धार्मिक स्थल के समान है। भाई धरम सिंह की तरह ही एक-एक कर चार और अन्य अनुयायी आगे आए और फिर वही पंच प्यारे कहलाए।
शायद यह एक संयोग नहीं था कि जब औरंगजेब के बढ़ते आतंक को देखते हुए गुरु गोविन्द सिंह ने सिखों की परीक्षा लेते हुए हाथ में नंगी तलवार को लेकर ऐलान किया- “मुझे एक आदमी का सिर चाहिए” और पहला व्यक्ति सामने आया उनका नाम भाई दया सिंह था जो लाहौर निवासी थे, जिनका नाम ये दर्शाता है कि किसी भी धर्म की शुरुआत दया (करुणा) के साथ ही होती है। भाई दया सिंह के बाद जो अगला व्यक्ति सामने आया वे भाई धरम सिंह थे जो मेरठ में हस्तिनापुर के निवासी थे। इनका नाम इस तथ्य को मजबूत करता है कि जहां दया होती है वहां धर्म भी होता है। तीसरे व्यक्ति जगन्नाथ पुरी के हिम्मत सिंह खड़े हुए जो इस तथ्य को दर्शाते हैं कि जहां दया और धर्म मौजूद होते हैं वहां हिम्मत (साहस, वीरता) अनुपस्थित नहीं हो सकती है।
इनके बाद द्वारका के मोहकम सिंह आगे आए जिनका नाम इस तथ्य को दर्शाता है कि जब दया, धर्म और हिम्मत मिलते हैं, तो वे एक साथ मोहकम बन जाते हैं (यह एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ बहुत मजबूत होता है)। इसी तरह पांचवी बार में बीदर निवासी भाई साहिब सिंह आगे आये, जिन्होंने इस तथ्य को मजबूत किया कि जिनमें दया, धर्म, हिम्मत और मोहकम होता है उनमें साहिब अर्थात गुरू या वाहेगुरु होते हैं। इस प्रकार सिख धर्म को पंज प्यारे मिल गए। जिन्होंने बाद में निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ को जन्म दिया और अन्याय तथा उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करके प्रेरणा का स्रोत बने।
संदर्भ:
1.http://www.sikh-history.com/sikhhist/gurus/pdharams.html
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Panj_Pyare
3.https://birinder.wordpress.com/2012/10/17/panj-pyare-names-significance/
4.https://www.jagran.com/uttar-pradesh/meerut-city-bhai-dharam-singh-became-the-hero-of-selfsacrifice-guru-govind-singh-chr39-s-beloved-17826871.html
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