जब मानव सभ्यता की शुरुआत हुयी थी तब मिट्टी के बर्तन ही एक मात्र ऐसे जरिये थे जिनपर खाना बनाया व खाया जाता था। अनाज रखने से लेकर सजावट का कार्य मिट्टी के बर्तनों से किया जाता था। वर्तमान काल में पुरातत्वविद इन्हीं बर्तनों के आधार पर प्राचीन काल के विभिन्न पड़ावों का निर्धारण करते हैं।
मिट्टी के बर्तन इतने महत्वपूर्ण होते थे कि मानव इनपर चित्रकारी आदि भी बनाया करता था जो कि हमें विभिन्न खुदाइयों से प्राप्त हो जाते हैं। मध्यकाल में भी मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता था, हालाँकि तब तक धातु के बर्तन भी आ गये थे। परन्तु ज्यादातर कार्य मिट्टी के ही बर्तनों से किया जाता था। आज से करीब 10 वर्ष पहले तक मेरठ के गाँवों में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता था पर अब यह बहुत कम हो गया है।
किसी-किसी घर में इसका प्रयोग हमें दिख जाता है अन्यथा मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग अब ज्यादातर पूजा आदि के लिए ही किया जाता है। मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग पर्यावरण के लिए उपयोगी होता है क्यूंकि इससे किसी भी प्रकार का कोई प्रदूषण नहीं होता है। उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर मिट्टी के बर्तन बनाने वाली कार्यशालाओं को सरकार अपने नवीन स्थापित माटी कला बोर्ड के द्वारा प्रोत्साहन दे रही है।
मेरठ से करीब 90 किलो मीटर दूर खुर्जा में मिट्टी के बर्तनों को बनाने की कार्यशाला उपलब्ध है जो कि कुल्ल्हड़ आदि का निर्माण करती है। इसका मूल मकसद है प्लास्टिक को पीछे छोड़ना क्यूंकि प्लास्टिक के गिलास आदि से बड़ी संख्या में प्रदूषण होता है। उत्तर प्रदेश में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग विभिन्न खानों को रखने या खाने के लिए किया जाता है जिनमें अचार, सिरका आदि को रखने के लिए मिट्टी के घड़ों का प्रयोग किया जाता है।
छोटे घड़ों का प्रयोग चावल आदि बनाने के लिए भी किया जाता है हालाँकि अब यह काफी कम हो चुका है, परन्तु कहीं-कहीं पर यह देखने को मिल जाता है। बुंदेलखंड के क्षेत्र में आज भी यह परंपरा देखने को मिलती है। चाय पीने के लिए मिट्टी के कुल्ल्हड़ का प्रयोग यहाँ पर किया जाता है। इनके अलावा कुल्फी आदि खाने के लिए किया जाता है।
अब पूरे भारत के परिपेक्ष्य में यदि देखें तो तमिल नाडू में खाना बनाने के लिए, पारंपरिक तौर पर, मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। उनका मनना है कि मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से खाने में एक अलग स्वाद आता है। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाना पारंपरिक भोजन बनाने की पद्धति में आता है, और पानै कारा, पानै पून्डू, सत्ती वेंगाया सांबर ऐसे कुछ पकवान हैं।
राजस्थान भारत के सबसे गर्म प्रदेशों में शिखर पर आता है। यहाँ पर मिट्टी के घड़ों का प्रयोग ज़माने से होते आ रहा है। यहाँ पर वर्तमान काल में आधुनिकता को नज़र में रखकर मिट्टी की बनी ढक्कनदार पानी की बोतलों का भी निर्माण किया है। जैसा कि मिट्टी के बर्तन में पानी ठंडा रहता है तो ये बोतल प्लास्टिक की बोतलों को हटाने का कार्य कर रही हैं। बंगाल की एक विशिष्ट मिठाई जिसे मिष्टी दोई कहा जाता है (मीठी दही), उसको भी मिट्टी के बर्तन में ही बनाया व परोसा जाता है।
हैदराबाद की प्रमुख बिरयानी भी मिट्टी के ही बर्तन में बनायी और परोसी जाती है जिससे इस बिरयानी में एक अलग ही स्वाद आता है। इस प्रकार से हम देख सकते हैं कि पूरे भारत भर में किस प्रकार से मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग खाना खाने व रखने के लिए किया जाता है। मिट्टी पर्यावरण के लिए भी सही होती है तथा इससे किसी प्रकार का कोई प्रदूषण नहीं फैलता अतः मेरठ में इसके प्रयोग को बढ़ावा मिलना चाहिए।
संदर्भ:
1.https://timesofindia.indiatimes.com/city/lucknow/after-plastic-ban-up-to-promote-use-of-kulhads/articleshow/65017363.cms
2.https://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/mud-pot-cooking-comes-alive/article6706601.ece
3.https://www.ohmyrajasthan.com/earthen-bottles
4.https://saffronstreaks.com/recipes/bengali-mishti-doi-sweet-yogurt/
5.https://www.youtube.com/watch?v=0-cztG2eK7s
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