देवनागरी लिपि आज वर्तमान की सबसे ज्यादा प्रयोग में ली जाने वाली लिपि है। हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं को लिखने में देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। यदि देवनागरी की प्राचीनता की बात की जाये तो यह एकदम साफ है कि यह लिपि ब्राह्मी लिपि के विकास से ही बनी है। इसका सीधा-सीधा उदाहरण ब्राह्मी के अक्षरों और देवनागरी के अक्षरों से हो जाता है। यदि देवनागरी के इतिहास की बात की जाये तो डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना का कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। उनके अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800ई.) के शिलालेख में मिलता है।
आठवीं शताब्दी में चित्रकूट से भी देवनागरी के साक्ष्य प्राप्त होते हैं, वहीं नवीं शताब्दी में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे। देवनागरी लिपि के लेखन व इसकी वैज्ञानिकता की बात की जाये तो यह लिपि दुनिया की कई लिपियों से कहीं ज्यादा विकसित दिखाई देती है। अक्षरों के बैठाव को यदि देखा जाये तो रोमन और उर्दू लिपियों के स्वर-व्यंजन मिले-जुले रूप में रखे गए हैं, जैसे- अलिफ़, बे; ए, बी, सी, डी, ई, एफ आदि। परन्तु देवनागरी में अक्षरों व स्वर-व्यंजनों को अलग कर रखा गया है- स्वरों के हृस्व-दीर्घ युग्म साथ-साथ रहते हैं, जैसे- अ-आ, इ-ई,उ-ऊ। इन स्वरों के बाद संयुक्त स्वरों की बात करें तो इनको भी इस लिपि में अलग से रखा जाता है, जैसे- ए,ऐ,ओ,औ,। देवनागरी के व्यंजनों की विशेषता इस लिपि को और वैज्ञानिक बनाती है, जिसके फलस्वरूप क,च,ट,त,प, वर्ग के स्थान पर आधारित हैं।
उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग करीब 10 वीं शताब्दी से बड़े पैमाने पर पाया जाता है। देवनागरी लिपि के अनेकों अभिलेख इस काल तक देखने को मिलने लगते हैं। देवनागरी, नागरी की दसवीं शताब्दी से आज तक की विकास यात्रा पर डॉ0 गौरी शंकर हीराचन्द ओझा जी ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके अनुसार- दसवीं शताब्दी ईसवी की उत्तरी भारत की नागरी लिपि में कुटिल लिपि की नाई अ, आ, प, म, य, श् औ स् का सिर दो अंशों में विभाजित मिलता है, किन्तु ग्यारहवीं शताब्दी मे यह दोनों अंश मिलकर सिर की लकीरें बन जाती हैं और प्रत्येक अक्षर का सिर उतना लम्बा रहता है जितनी कि अक्षर की चौड़ाई होती है। ग्यारहवीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी लिपि से मिलती-जुलती है और बारहवीं शताब्दी से लगाातार आज तक नागरी लिपि बहुधा एक ही रूप में चली आती है। तब से लेकर आज तक यह लिपि एक बड़े पैमाने पर प्रसारित हुई।
वर्णमालाओं के उद्भव के सम्बन्ध में प्रचलित धारणा के अनुसार शिव के डमरू से वर्णों का जन्म हुआ, इसे माहेश्वर सूत्र के नाम से भी जाना जाता है अतः इनकी संख्या 14 होती है: अइउण्, ॠॡक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल्। देवनागरी लिपि में भी उपरोक्त दिये वर्णों का प्रयोग होता है।
संदर्भ:
1. पाण्डेय राजबली – भारतीय पुरालिपि (2004) लोकभारती प्रकाशन 25-A, महात्मा गांधी मार्ग,इलाहाबाद -1
2. मुले गुणाकर- भारतीय लिपियों की कहानी (1974) राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
3. मुले गुणाकर – अक्षर बोलते हैं , (2005) यात्री प्रकाशन दिल्ली – 110094
4. भारतीय प्राचीन लिपि माला पृष्ठ संख्या- 69-70
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