क्या आपको याद है घर की एक दीवार पर, पंखे की हवा से लहराता वो कैलेंडर।हाँ वही, जो बचपन में चित्रों में हमारी रूचि जगाता था। हर महीने एक नया चित्र, और कुछ-कुछ में तो चित्र से सम्बंधित दो पंक्तियाँ भी। वास्तव में, समय के साथ कैलेंडरों में भी काफी बदलाव आये हैं और आज ये केवल एक उपयोगिता की वस्तु नहीं बल्कि एक कलात्मक वस्तु बन चुके हैं जो कि इन्हें लटकाने वाले के मिजाज़ के बारे में भी कुछ कह जाते हैं। तो आइये आज फिर एक बार अतीत का सफ़र करते हैं, कैलेंडर के माध्यम से।
शुरूआती कैलेंडर अधिकतर हिन्दू देवी देवताओं से प्रेरित थे। कैलेंडर के पुराने हो जाने के बाद भी लोग उसे फेंकते नहीं थे क्योंकि उसमें छपे चित्र से उनकी एक आस्था जुड़ी होती थी। तथा इस प्रकार के कैलेंडर काफी लोकप्रिय थे तथा आज तक भी बनाये जा रहे हैं।
1940 और 1950 के दशक में सभी देशवासियों के बीच देश प्रेम की भी एक लहर दौड़ रही थी। ऐसा हो ही नहीं सकता था कि कैलेंडरों में इस भावना को नहीं व्यक्त किया जाता तथा कई कैलेंडर पाए जाते थे जिनमें गांधी, नेहरु, बोस आदि के चित्र मिल जाते थे।
1960 के दशक में एक नए प्रकार से कैलेंडरों का प्रयोग एक बड़े पैमाने पर होने लगा, विज्ञापन। कंपनियों ने इस बात पर ध्यान दिया कि एक व्यक्ति दिन में कम से कम एक बार कैलेंडर की ओर तो ज़रूर देखता है और एक महीने तक वह एक ही पन्ना रोज़ देखता है। तो यदि उस एक पन्ने पर अपने उत्पादों के चित्र लगा दिए जाएँ तो वे ज़रूर एक बड़ी मात्रा में लोगों के दिमाग में बैठ जाएगा। कई भिन्न प्रकार के विज्ञापन ऐसे कैलेंडरों में देखने को मिल जाते थे, जैसे साईकिल, बीड़ी, वाशिंग पाउडर, चलचित्र (फिल्म) आदि।
समय के साथ ग्राहकों में भी एक जागरूकता आई कि यदि वे एक चित्र को महीने भर तक देखने वाले हैं तो यही बेहतर है कि वह चित्र उनका चित्त प्रसन्न भी करे। और इस तरह अब कई कैलेंडर में कलाकृतियाँ भी छपने लगीं तथा इनसे इन्हें खरीदने वाले के व्यक्तित्व के बारे में भी कई चीज़ें जानने को मिलती हैं।
संदर्भ:
1. http://www.tribuneindia.com/2004/20040104/spectrum/main1.htm
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