रविवार कविता: फुल्का और चपाती

मेरठ

 08-07-2018 11:34 AM
ध्वनि 2- भाषायें

प्रस्तुत कविता मशहूर कवि शाहबाज़ अमरोहवी द्वारा लिखी गयी है जिसका शीर्षक है 'फुल्का और चपाती':

इक रोज़ कहीं मिल गया जो गोशा-ए-खिलवत,
इस तौर से कहने लगी फुल्के से चपाती;
ऐ दोस्त अगर समझे ना तू इसको शिकाइत,
इक तल्ख़ हकीक़त हूँ तुझे आज सुनाती।
यकसां ही है हम दोनों का दुनिया में कबीला,
यकसां ही है संसार में हम दोनों की जाति;
यकसां ही अनासर से है हम दोनों की तरतीब,
यकसां ही कभी रखते थे हम रूह-ए-नबाती।
यकसां ही विटामिन से है हम दोनों का रिश्ता,
यकसां ही प्रोटीन हैं हम दोनों के नाती;
यकसां ही है हम दोनों की तखलीक का मक्सिद,
यकसां ही इता हम को हुए जौहर-ए-ज़ाति।
जब असल में और नसल में हम एक हैं दोनों,
फिर मेरी समझ में ये पहेली नहीं आती।
सूरत से मेरी करता है तू किसलिए नफरत,
सुहबत मेरी किस वास्ते तुझको नहीं भाती!

फुल्के ने कहा सुन के चपाती की ये फ़रियाद,
बस बस के फटी जाती है ग़म से मेरी छाती।
हर चंद गिला तेरा दरुस्त और बजा है,
लेकिन तेरे कुर्बान, ऐ मेरी चपाती।
लिल्ला ये इलज़ाम ना रख तू मेरे सर पर,
वल्लाह खता इस में नहीं कुछ मेरी ज़ाति।
ये अहल-ए-सयासत की सयासत है मेरी जान,
आपस में तुझे और मुझे जो है लड़ाती,
ढाते हैं ज़माने पे क़यामत जो ये सफ्फाक,
मुझ से तो कथा उनकी सुनाई नहीं जाती।
कहने के लिए उनके मुज़ालिम का फ़साना,
पत्थर का जिगर चाहिए, फौलाद की छाती।
इंसान को इंसान से किस वक़्त लड़ाएं,
हर वक़्त इसी घात में रहते हैं ये घाती।
रखते हैं छड़ी झाड़ू कि ऐसी ये मदारी,
इंसान को तिगनी का है जो नाच नचाती।

है सब ये इसी कौम के करतब का करिश्मा,
इक जंग-ए-मुसलसल है जो हर सू नज़र आती।
अलकिस्सा ज़माने में ये नेताओं की टोली,
नेताई के अपनी वो करिश्मे है दिखाती।
अखलाक भी होता है जिन्हें देख के महजूब,
तहजीब भी है शर्म से मुँह अपना छुपाती।
मुझको तो नज़र आते हैं जब उनके ये करतूत,
मेरी तो ज़बान पर यही फ़रियाद है आति:
जिन लोगों ने हम दोनों में डाली है ये तफरीक,
जिन लोगों को हम दोनों की सुहबत नहीं भाती।
भगवान रखे उनको ना इस दुनिया में आज़ाद,
अल्लाह करे उनको ना उक़बा में निजाती।
कह कर ये सुखन फूल गया जोश में फुल्का,
सुन कर ये बयान सूख गयी ग़म से चपाती।

संदर्भ:
1. मास्टरपीसेज़ ऑफ़ ह्यूमरस उर्दू पोएट्री, के.सी. नंदा

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