मेरठ शहर ने अपने इतिहास में कई संस्कृतियों के उत्थान और पतन को देखा है। मेरठ के निकट स्थित, आलमगीरपुर नामक गाँव में हुई पुरातात्विक खुदाई में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं। लेकिन आज के इस लेख में, हम "विंध्य नवपाषाण” " (Vindhya Neolithic) नामक एक अलग संस्कृति के बारे में चर्चा करेंगे। इसी क्रम में, हम विंध्य और गंगा नवपाषाण संस्कृतियों के बीच के अंतर को भी समझेंगे। इसके बाद, हम कुछ महत्वपूर्ण विंध्य नवपाषाण स्थलों पर नज़र डालेंगे। अंत में, हम नवपाषाण युग के दौरान, उत्तरी विंध्य में लोगों की जीवनशैली पर चर्चा करेंगे, जिसमें उनकी कला, शिल्प, बसावट के तरीके, वास्तुकला और खान-पान की आदतें शामिल होंगी।
गंगा घाटी के दक्षिण में स्थित पहाड़ियों में कई जगहें हैं जो "विंध्य नवपाषाण" काल से जुड़ी हैं। इनमें से एक प्रमुख स्थान कोल्डिहवा (Koldihwa) है, जो लगभग 7,000 साल ईसा पूर्व का है। यहां पर गोलाकार झोपड़ियों के अवशेष पाए गए हैं, जो लकड़ी के खंभों और छप्पर से बनी होती थीं। इन स्थानों पर मिले औज़ारों और बर्तनों में पत्थर के ब्लेड, पिसे हुए पत्थर की कुल्हाड़ियां, हड्डी के औजार और सरल हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन शामिल हैं। यहाँ खोजे गए कुछ मिट्टी के बर्तनों पर रस्सियों या टोकरियों के निशान भी पाए गए हैं, जिससे उनका निर्माण तरीका समझ में आता है।
इस क्षेत्र में एक छोटा मवेशी बाड़ा और चावल की भूसी के निशान भी मिले हैं, जो उस समय की खेती और पशुपालन के संकेत देते हैं। इन स्थलों की सटीक समय-सीमा पर अभी भी बहस जारी है! लेकिन कुछ रेडियोकार्बन (radiocarbon) तिथियों के अनुसार, यह दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से पहले के भी हो सकते हैं। इन स्थलों का अध्ययन करने से हमें विंध्य नवपाषाण समाज की जीवनशैली और संस्कृति से जुड़ी बहुमूल्य जानकारी मिल सकती है।
आइए, अब एक नज़र विंध्य-गंगा घाटी के नवपाषाण स्थलों और इनकी विशेषताओं पर भी डालते हैं:
A. बेलन नदी घाटी (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश): बेलन नदी घाटी, भारत के सबसे प्राचीन नवपाषाण स्थलों में से एक है। यहां पर मानव सभ्यता ने भोजन संग्रहण से उत्पादन की ओर बड़ा बदलाव देखा।
B. चोपानी मंडो, कोल्डिहवा, और लेहुरादेवा (उत्तर प्रदेश में): इन स्थलों पर घास और मिट्टी से बने आवास, छोटे पत्थर के औजार, पीसने वाले पत्थर, मूसल और हाथ से बने मिट्टी के बर्तन मिले हैं। मिट्टी के बर्तनों में "कॉर्डेड वेयर" (corded ware) का प्रकार प्रमुख है, जिसमें कटोरे और भंडारण जार शामिल हैं। इन स्थानों के लोग खेती और पशुपालन करते थे | यहां पर मवेशियों, भेड़ों, बकरियों, हिरणों, कछुओं और मछलियों की हड्डियां पाई गई हैं। महागरा में पालतू चावल के प्रमाण भी मिले हैं।
C. चिरांद, चेचर, सेनुवार और ताराडीह (बिहार में):
सेनुवार: यहां चावल, जौ, मटर, मसूर, और बाजरा जैसी फ़सलों के प्रमाण मिले हैं।
चिरांद: यहां मिट्टी के फर्श, मिट्टी के बर्तन, छोटे पत्थर के औज़ार, पॉलिश किए गए पत्थर की कुल्हाड़ियां, और मानव आकृतियों की टेराकोटा मूर्तियां मिली हैं। साथ ही, हड्डी के औज़ार भी पाए गए हैं।
इन सभी स्थानों पर मिले अवशेष उस समय की कृषि, पशुपालन, और हस्तशिल्प के विकास को समझने में मदद करते हैं।
विंध्य और गंगा नवपाषाण संस्कृतियों में अंतर:
गंगा और विंध्य (बेलन घाटी) नवपाषाण स्थलों में तुलना से पता चलता है कि विंध्य स्थल गंगा के स्थलों से अधिक पुराने हैं। दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि विंध्य क्षेत्र के लोगों ने मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए धीमे पहिये का इस्तेमाल नहीं किया, जबकि गंगा क्षेत्र के नवपाषाण समाज में इस तकनीक का उपयोग होता था। गंगा नवपाषाण काल के अंत में, लोग ताम्रपाषाण परंपरा अपनाने लगे थे, जबकि यह बदलाव, विंध्य क्षेत्र में स्पष्ट नहीं है। कोल्डिहवा और महागरा जैसे स्थलों में चावल और जौ की खेती के शुरुआती प्रमाण मिले हैं, जो भारत में दोहरी फ़सल प्रणाली का सबसे पहला संकेत है।
नवपाषाण युग में उत्तरी विंध्य की जीवनशैली
भौतिक संस्कृति: उत्तरी विंध्य के नवपाषाण युग में जीवन कैसा था, इसका अंदाज़ा हम पुरातात्विक स्थलों पर मिली वस्तुओं को देखने से लगा सकते हैं। इन जगहों पर झोपड़ियों के फ़र्श से मिली कलाकृतियां और औज़ारों से पता चलता है कि कुछ लोग खास तरह के शिल्प में माहिर थे। खेती और शिकार में सहायक उपकरणों के रूप में उनके पास पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, अनाज पीसने के पत्थर, छोटे धारदार औज़ार, हड्डी से बने उपकरण, और मिट्टी के बर्तन हुआ करते थे। यहां के सिरेमिक (मिट्टी के बर्तन बनाने) उद्योग ने भी नवपाषाण संस्कृति में एक खास पहचान बनाई।
बस्ती का पैटर्न: नवपाषाण युग की बस्तियाँ आमतौर पर नदियों या नालों के करीब बसी होती थीं, खासकर वहां, जहाँ बाढ़ का पानी आ सकता था। ये बाढ़ के मैदान खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी देते थे, जिससे बिना हल चलाए और सिंचाई के भी फसलें उगाना आसान हो जाता था। ये बस्तियाँ स्थायी थीं और अकसर प्राकृतिक ऊँचाइयों से घिरे, कटोरे की तरह गहरे क्षेत्रों में बसी होती थीं।
संरचनाएँ: महागरा में खुदाई के दौरान, झोपड़ियों के फ़र्श और मवेशियों के बाड़ों के अवशेष मिले हैं, जो हमें उनकी रिहायश की झलक दिखाते हैं। अन्य स्थलों पर खुदाई सीमित रही है, इसलिए हमें भी ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती। फिर भी, इन जगहों पर बुनी हुई चीज़ों के निशान और जली हुई मिट्टी की गांठें मिली हैं, जो बताती हैं कि झोपड़ियाँ बांस और लकड़ी के खंभों से बनी थीं, जिनकी दीवारों पर मिट्टी का प्लास्टर चढ़ा होता था।
नवपाषाण युग में लोग अपने भोजन के लिए पौधों और जानवरों दोनों पर निर्भर रहते थे। उन्होंने कुछ जानवरों को पालतू बना लिया था, जबकि शिकार और वन-संग्रह भी उनका एक हिस्सा था। खेती के सबूतों में मिट्टी के बर्तनों में पाए गए चावल की भूसी और जले हुए दाने शामिल हैं, जो बताते हैं कि उस समय पालतू चावल की खेती हो रही थी।
इन पहलुओं से हमें उत्तरी विंध्य के नवपाषाण युग के लोगों की ज़िंदगी की एक संजीदा झलक मिलती है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2yjh475n
https://tinyurl.com/2yfeo4f3
https://tinyurl.com/2xhyfaej
https://tinyurl.com/2xkmnz2n
चित्र संदर्भ
1. आदमगढ़, होशंगाबाद ज़िला, मध्य प्रदेश में नवपाषाण काल (neolithic period) के एक शैल चित्र (rock painting) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. भीमबेटका से विंध्य पर्वतमाला के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. प्रागैतिहासिक काल (pre historic period) की एक शैलाश्रय पेंटिंग (rock shelter painting) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. एक नदी के किनारे झोपड़ियों को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)