न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो भयात्॥
भावार्थ: व्यायाम करने वाले मनुष्य से उसके शत्रु सर्वदा डरते हैं और उसे दुःख नहीं देते।
हमारे मेरठ में रिवाइवल फ़ार्मेसी (Revival Pharmacy) और बायो वैक डिस्ट्रिब्यूटर्स (Bio Vac Distributors) जैसी कुछ प्रसिद्ध फ़ार्मेसीज़ हैं। फ़ार्मेसी की गुणवत्ता से अस्पतालों की अर्थव्यवस्था और मरीज़ों की सेहत सीधे तौर पर जुड़ी होती है। भारत में इनका सफ़र भी बेहद रोमांचक रहा है। प्रोफ़ेसर महादेव लाल श्रॉफ़ को भारत में फ़ार्मेसी के संस्थापक के रूप में देखा जाता है। आज विश्व फ़ार्मेसिस्ट दिवस (World Pharmacist Day) है | इसलिए, आज के इस लेख में हम फ़ार्मेसी की असल परिभाषा, इसके प्रकारों एवं भारत में इसके ऐतिहासिक सफ़र पर चलेंगे। साथ ही हम भारत में फ़ार्मेसी के संस्थापक प्रोफ़ेसर महादेव लाल श्रॉफ़ और उनकी उपलब्धियों पर भी नज़र डालेंगे। अंत में, हम भारत में फ़ार्मास्यूटिकल शिक्षा की वर्तमान स्थिति की जाँच करेंगे।
"दवाइयों को तैयार करने और वितरित करने के विज्ञान तथा तकनीक को " फ़ार्मेसी " कहा जाता है।” इनके तहत ही अतिरिक्त नैदानिक सेवाएँ भी प्रदान की जाती हैं। इन सेवाओं में टीकाकरण, स्वास्थ्य जाँच और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर सलाह हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, फ़ार्मासिस्ट लोगों को धूम्रपान छोड़ने या मधुमेह और अस्थमा जैसी समस्याओं को दूर करने या उनका प्रबंधन करने में रोगियों की मदद करते हैं। फ़ार्मेसी एक ऐसा पेशा है, जो स्वास्थ्य विज्ञान (Health Science) को फ़ार्मास्युटिकल विज्ञान (Pharmaceutical Science) से जोड़ता है।
फ़ार्मेसी के कई प्रकार होते हैं और इन सभी प्रकारों का अपना-अपना महत्व होता है।
इसके प्रकारों में शामिल है:
• अस्पताल फ़ार्मेसी (Hospital Pharmacy): अस्पताल फ़ार्मेसी उस स्थान को कहा जाता है, जहां अस्पताल, मेडिकल क्लिनिक (Medical Clinic) या नर्सिंग होम (Nursing Home) की दवाओं का प्रबंधन किया जाता है। अस्पताल के फ़ार्मासिस्ट डॉक्टरों और नर्सों के साथ मिलकर काम करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रत्येक रोगी को उसकी विशिष्ट ज़रूरतों के लिए सही दवाएँ मिलें।
• क्लिनिकल फ़ार्मेसी (Clinical Pharmacy): क्लिनिकल फ़ार्मेसियाँ, अस्पतालों और नर्सिंग होम जैसी जगहों पर पाई जा सकती हैं। इनका मुख्य लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि दवाओं का उपयोग सुरक्षित और प्रभावी ढंग से किया जाए। क्लिनिकल फ़ार्मासिस्ट, मरीज़ों को दवाओं के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करते हैं। दवाओं की हानिकारक प्रतिक्रिया को रोकने के लिए रोगियों की निरंतर निगरानी करते हैं। इसके अलावा वे रोगियों को किसी भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया से बचने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
• औद्योगिक फ़ार्मेसी (Industrial Pharmacy): औद्योगिक फ़ार्मेसी में फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग शामिल है। इसमें दवाओं से जुड़े अनुसंधान और उत्पादन से लेकर पैकेजिंग, गुणवत्ता नियंत्रण, विपणन और दवाओं की बिक्री तक सब कुछ शामिल है। इस क्षेत्र के फ़ार्मासिस्ट किसी विशिष्ट दवा कंपनी के लिए काम कर सकते हैं। वह उनके उत्पादों का प्रचार कर सकते हैं और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को उनके लाभों और उपयोगों के बारे में शिक्षित कर सकते हैं।
• एम्बुलेटरी केयर फ़ार्मेसी (Ambulatory Care Pharmacy): एम्बुलेटरी केयर फ़ार्मेसी, रोगियों को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करती हैं। ये फ़ार्मासिस्ट उन बुज़ुर्ग और असहाय रोगियों के इलाज में मदद करते हैं, जिन्हें दवा-संबंधी समस्याओं या जटिलताओं का उच्च जोख़िम होता है। चूँकि एम्बुलेटरी केयर एक तरह की मोबाइल सेवा होती है। इसलिए ये फ़ार्मासिस्ट रोगियों से उनके सहज स्थान पर जाकर मिल सकते हैं। इस सेवा की बदौलत रोगियों को बार-बार अस्पताल के चक्कर नहीं काटने पड़ते।
• नियामक फ़ार्मेसी (Regulatory Pharmacy): नियामक फ़ार्मेसी को सरकारी फ़ार्मेसी के रूप में भी जाना जाता है। यह दवाओं के सुरक्षित उपयोग के लिए नियम और विनियम बनाने के लिए ज़िम्मेदार है। इस क्षेत्र के फ़ार्मासिस्ट, सार्वजनिक स्वास्थ्य और विनियामक स्वास्थ्य बोर्डों जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका में खाद्य और औषधि प्रशासन (FDA) में काम करते हैं।
भारत में फ़ार्मेसी का इतिहास, बेहद दिलचस्प रहा है। प्रो. महादेव लाल श्रॉफ़ को भारत में फ़ार्मेसी शिक्षा के जनक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने फ़ार्मेसी पेशे को आकार देने और फ़ार्मासिस्टों की अनगिनत पीढ़ियों को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालाँकि उनके पास फ़ार्मासिस्ट की कोई औपचारिक योग्यता नहीं थी। लेकिन इस क्षेत्र में उनके कई योगदानों ने भविष्य के पेशेवरों के लिए आधार तैयार किया। अपने पूरे करियर के दौरान, उन्हें कई चुनौतियों और बाधाओं का सामना करना पड़ा। लेकिन फिर भी वे फ़ार्मेसी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ रहे।
उनकी उल्लेखनीय विरासत को मान्यता देते हुए, भारतीय फ़ार्मास्युटिकल एसोसिएशन (IPA) द्वारा प्रतिष्ठित प्रो. एम.एल. श्रॉफ़ मेडल (Prof. M.L. Shroff Medal) की स्थापना की गई। यह पुरस्कार उन छात्रों को सम्मानित करता है जो भारत के सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अपने अंतिम वर्ष की बी. फ़ार्मा परीक्षाओं में सर्वोच्च ग्रेड प्राप्त करते हैं। इस सम्मान के प्राप्तकर्ताओं को एक योग्यता प्रमाणपत्र, एक पदक और ₹1,000 का नकद पुरस्कार दिया जाता है।
प्रो. श्रॉफ़ ने दिसंबर 1935 में यूनाइटेड प्रोविंस फ़ार्मा एसोसिएशन (United Provinces Pharma Association) की स्थापना की। 1939 तक यह भारतीय फ़ार्मास्युटिकल एसोसिएशन के रूप में विकसित हो गई। इसने पूरे देश में अपनी पहुंच का विस्तार किया। उन्होंने इंडियन जर्नल ऑफ़ फ़ार्मेसी (Indian Journal of Pharmacy) के संपादक के रूप में भी काम किया। इसे जनवरी 1939 में लॉन्च किया गया था।
1964 में, प्रो. श्रॉफ़ जाधवपुर विश्वविद्यालय में शिक्षा जगत में लौट आए। वह भारत के नव स्थापित फ़ार्मेसी विभाग के प्रमुख बने। इस क्षेत्र में उन्होंने लगभग चार दशकों (1932 से 1968 तक) तक अपनी समर्पित सेवा प्रदान की। इसके बाद जनवरी 1968 में उन्होंने प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इस दौरान 1965 से 1971 में अपने निधन तक उन्होंने इंडियन जर्नल ऑफ़ फ़ार्मास्युटिकल एजुकेशन (Indian Journal of Pharmaceutical Education) की स्थापना और संपादन भी किया।
प्रो. श्रॉफ़ के विजन ने कई महत्वपूर्ण संस्थानों और प्रकाशनों का निर्माण किया, जो आज भी फ़ार्मेसी पेशे को प्रभावित करते हैं।
इनमें शामिल हैं:- इंडियन फ़ार्मास्युटिकल एसोसिएशन (Indian Pharmaceutical Association) (मूल रूप से 1935 में यू.पी. फ़ार्मा एसोसिएशन के रूप में स्थापित और 1939 में रीब्रांडेड)
- 1945 में स्थापित इंडियन जर्नल ऑफ़ फ़ार्मासिस्ट (Indian Journal of Pharmacists)
- भैषज पत्रिका (Bhaishaj Patrika) (1980 में शुरू किया गया एक हिंदी प्रकाशन)
- 1968 में स्थापित भेषजयन (Bhesajayan)
- 1968 में शुरू की गई इंडियन फ़ार्मास्युटिकल कांग्रेस (Indian Pharmaceutical Congress)
इसके अलावा उन्होंने बंगाल और बिहार सहित विभिन्न राज्यों के फ़ार्मासिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 1954 से 1959 तक उन्होंने फ़ार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया (Pharmacy Council of India) के अध्यक्ष का पद संभाला। प्रो. महादेव लाल श्रॉफ़ की स्थायी विरासत आज भी भारत में फार्मेसी शिक्षा और अभ्यास को प्रेरित कर रही है।
भारत में फ़ार्मेसी की यात्रा, 1811 में शुरू हुई जब स्कॉच बाथगेट द्वारा कलकत्ता में देश का पहला फ़ार्मेसी व्यवसाय खोला गया। इस क्षेत्र में 1841 में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब सरकार ने कलकत्ता में बिशप कॉलेज प्रेस (Bishop College Press) में बंगाल डिस्पेंसरी और फ़ार्माकोपिया (Bengal Dispensary and Pharmacopoeia) के प्रकाशन का आदेश दिया। इसके बाद, 1868 में वारिंग (Waring) द्वारा संपादित फ़ार्माकोपिया ऑफ़ इंडिया (Pharmacopoeia of India) का विमोचन किया गया। 1869 में, मोहिदीन शरीफ़ (Mohideen Sheriff) ने भारतीय औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों के लिए स्थानीय नामों की एक महत्वपूर्ण सूची तैयार की।
भारत में फ़ार्मेसी पेशे ने 1870 में एक बड़ा कदम आगे बढ़ाया। उस वर्ष केमिस्ट और ड्रगिस्ट के लिए पहली परीक्षा आयोजित की गई थी। बंगाल में कंपाउंडरों के लिए संगठित प्रशिक्षण 1881 में शुरू हुआ। इसने व्यावसायिक शिक्षा की बढ़ती आवश्यकता को दर्शाया। 1901 और 1930 के बीच, आम बीमारियों के इलाज के लिए अलग-अलग उपचार विधियों का इस्तेमाल किया गया। इन विधियों में आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथी भी शामिल थीं।
1901 में, आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे (Acharya Prafulla Chandra Ray) ने बंगाल केमिकल एंड फ़ार्मास्युटिकल वर्क्स (Bengal Chemical and Pharmaceutical Works) की स्थापना की। इसे कलकत्ता में भारत की पहली दवा कंपनी की शुरुआत माना जाता है। इसके ठीक दो साल बाद, 1903 में, प्रो. टी.के. ठक्कर (Prof. T.K. Thakkar) ने मुंबई के परेल में एक छोटी दवा इकाई स्थापित की। 1907 तक, पूरे देश में फ़ार्मेसियाँ खुलने लगीं। उस समय के उल्लेखनीय प्रतिष्ठानों में मद्रास में स्पेंसर एंड कंपनी (Spencer and Company), बॉम्बे में मैडॉन एंड कंपनी (Madon and Company) और केम्प एंड कंपनी (Kemp and Company) और कलकत्ता में वाइटहॉल फ़ार्मेसी (Whitehall Pharmacy) शामिल थीं।
1947 में जब भारत को स्वतंत्रता के साथ ही ब्रिटिश शासन से एक अव्यवस्थित फ़ार्मेसी प्रणाली भी विरासत में मिली। उस समय, फ़ार्मेसी अभ्यास के लिए कोई कानूनी ढाँचा नहीं था। इस मुद्दे को ठीक करने के लिए, 1948 में फ़ार्मेसी अधिनियम (Pharmacy Act) बनाया गया। इस अधिनियम के तहत फ़ार्मेसी पेशे के लिए न्यूनतम शैक्षिक आवश्यकताएँ निर्धारित कीं गई। इस अधिनियम के प्रावधानों की देखरेख फ़ार्मेसी काउंसिल ऑफ़ इंडिया (Pharmacy Council of India) करती है। प्रत्येक राज्य को फ़ार्मेसिस्टों को विनियमित और पंजीकृत करने के लिए अपनी स्वयं की फ़ार्मेसी परिषद बनानी ज़रूरी है। भारतीय खुदरा औषधि विक्रेता और रसायनज्ञ संघ (Indian Retail Drug Sellers and Chemists Association) के अनुसार, 1978 तक, पूरे भारत में लगभग, 10,000 वितरण फ़ार्मेसियाँ और लगभग 125,000 खुदरा फ़ार्मेसियाँ संचालित हो चुकी थीं। यदि हम वर्तमान में लौटें तो आज फ़ार्मेसी पेशे में अपार वृद्धि हो गई है। आज देश भर में लगभग 800,000 से ज़्यादा पंजीकृत फ़ार्मासिस्ट स्वास्थ्य सेवा में योगदान दे रहे हैं।
यह विकास न केवल एक पेशे के रूप में फ़ार्मेसी के विकास को दर्शाता है, बल्कि भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को भी दर्शाता है।
पिछले एक दशक में ही भारत में फ़ार्मास्युटिकल शिक्षा का काफ़ी विकास हो चुका है। इच्छुक फ़ार्मासिस्टों के लिए अब कई विषय उपलब्ध हैं।
भारत में फ़ार्मेसी के तहत पेश किए जाने वाले मुख्य पाठ्यक्रमों में शामिल हैं:- डी फ़ार्म ( फ़ार्मेसी में डिप्लोमा)
- बी फ़ार्म ( फ़ार्मेसी में स्नातक)
- एम फ़ार्म ( फ़ार्मेसी में मास्टर)
- एम एस फ़ार्म ( फ़ार्मेसी में मास्टर ऑफ साइंस (Master of Science in Pharmacy)
- पी एच डी ( फ़ार्मेसी में डॉक्टर ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी (Doctor of Philosophy in Pharmacy)
डी फ़ार्म कार्यक्रम देश भर में लगभग 1,000 संस्थानों द्वारा पेश किया जाता है। इस दो वर्षीय पाठ्यक्रम के तहत आवश्यक फ़ार्मेसी विषयों का परिचय दिया जाता है। इन विषयों में फ़ार्मास्यूटिक्स (Pharmaceutics), फ़ार्माकोलॉजी (Pharmacology), फ़ार्मास्युटिकल केमिस्ट्री (Pharmaceutical Chemistry) और फ़ार्माकोग्नॉसी (Pharmacognosy) शामिल हैं। छात्रों के लिए सरकारी अस्पताल या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 500 घंटे का व्यावहारिक प्रशिक्षण भी पूरा करना ज़रूरी है। डी फ़ार्म कार्यक्रम में दाखिला लेने के लिए उम्मीदवारों को 10+2 शिक्षा पूरी करनी ज़रूरी है।
बी फ़ार्म कार्यक्रम, एक चार वर्षीय पाठ्यक्रम है, जिसके तहत फ़ार्मेसी के सभी क्षेत्रों को अधिक विस्तार से कवर किया जाता है। इस डिग्री को पूरा करने के बाद, छात्रों को उद्योग में दो महीने का व्यावहारिक प्रशिक्षण लेना पड़ता है। बी फ़ार्म की डिग्री वाले स्नातक ही एम फ़ार्म (M.Pharm) की डिग्री प्राप्त कर सकते हैं, जिसे पूरा करने में अतिरिक्त दो साल लगते हैं। एम फ़ार्म कार्यक्रम का दूसरा वर्ष अनुसंधान पर केंद्रित है।
हाल ही में एम फ़ार्म के अंतर्गत नई विशेषज्ञताएँ उभरी हैं, जिनमें औद्योगिक फ़ार्मेसी (Industrial Pharmacy), गुणवत्ता आश्वासन (Quality Assurance) और फ़ार्मास्युटिकल बायोटेक्नोलॉजी (Pharmaceutical Biotechnology) शामिल हैं।
भारत में फ़ार्मास्युटिकल शिक्षा को दो मुख्य निकायों द्वारा नियंत्रित किया जाता है:- फ़ार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया (Pharmacy Council of India) (PCI)
- अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council for Technical Education) (AICTE)
PCI मुख्य रूप से फार्मेसी का अभ्यास करने के लिए लाइसेंस प्राप्त करने के लिए आवश्यक न्यूनतम शैक्षिक आवश्यकताओं को निर्धारित करने के लिए ज़िम्मेदार है। यह डी फ़ार्म कार्यक्रम की देखरेख करता है और बी फ़ार्म डिग्री प्रदान करने वाले संस्थानों को मान्यता देता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/24f65895
https://tinyurl.com/2ba3ouss
https://tinyurl.com/2yzs7a9b
https://tinyurl.com/268rbsgk
https://tinyurl.com/2y9lntr6
चित्र संदर्भ
1. 1921 में लिवरपूल विश्वविद्यालय के फ़ार्मेसी के छात्रों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. दवाइयों का विकल्प देते फ़ार्मेसिस्ट को संदर्भित करता एक चित्रण (pexels)
3. फ़ार्मेसी संस्थान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. एक भारतीय फ़ार्मेसी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. एक पुस्तकालय को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)