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भारत की देन है शून्य की अवधारणा, इसके प्रमाण मौजूद हैं ग्वालियर के चतुर्भुज मंदिर में

मेरठ

 08-07-2024 09:31 AM
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा

क्या आप शून्य के बिना विश्व की कल्पना कर सकते हैं? हमारी दैनिक दिनचर्या को संचालित करने वाले कंप्यूटर सिस्टम से लेकर हमारे वित्तीय निर्णयों को निर्देशित करने वाले बैंक बैलेंस तक, शून्य एक ऐसी सरल गणितीय अवधारणा है, जो मानव इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से एक है। आज, शून्य के बिना गणित की कल्पना करना नामुमकिन है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। आधुनिक गणित का एक अनिवार्य तत्व बनने से पहले, शून्य की अवधारणा एक लंबी और जटिल यात्रा से होकर गुज़री है। शून्य, जो कि प्रतीक "0" द्वारा दर्शाया जाता है, गणित, विज्ञान, दर्शन और संस्कृति में गहरा महत्व रखता है। तो आइए आज इसे और अधिक गहराई से समझने के लिए, शून्य की उत्पत्ति पर एक नजर डालते हैं, इसके साथ ही यह भी समझते हैं कि आर्यभट्ट की शून्य की अवधारणा क्या है और ग्वालियर का चतुर्भुज मंदिर शून्य से कैसे जुड़ा है और इसके पीछे का इतिहास क्या है। शून्य की अवधारणा की उत्पत्ति प्राचीन भारत में संख्यात्मक अंकन में परोक्ष रूप में हुई थी। इस बात पर भी लंबे समय से बहस की जाती रही है कि शून्य की खोज में किसका अहम योगदान था आर्यभट्ट का या ब्रह्मगुप्त का। हालांकि, अब यह माना जाता है कि इसके विकास में दोनों की ही महत्वपूर्ण भूमिका थी। आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली का आविष्कार किया और शून्य को परोक्ष रूप में इस्तेमाल किया, जबकि ब्रह्मगुप्त ने शून्य और ऋणात्मक संख्याओं के साथ अंकगणितीय संचालन के नियम विकसित किए। उनके काम ने गणित और विज्ञान पर गहरा प्रभाव डाला है। 7वीं शताब्दी के 'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' जैसे प्राचीन ग्रंथों से स्पष्ट है कि भारतीय गणितज्ञों ने शून्य की अवधारणा को आगे बढ़ाया एवं इसके अर्थ और अनुप्रयोगों को परिष्कृत किया। उन्होंने शून्य को एक अंक के रूप में मान्यता दी और शून्य के साथ अंकगणितीय संक्रियाओं के लिए स्पष्ट नियम विकसित किए। 'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' शून्य के विकास में भारतीय गणितज्ञों की गहरी समझ और योगदान को दर्शाता है।
प्राचीन भारत में, शून्य को एक बिंदु द्वारा दर्शाया जाता था, जो बाद में एक वृत्त में विकसित हुआ और फिर "0" प्रतीक में बदल गया, जिसे आज हम जानते हैं। इस्लामी स्वर्ण युग में भारतीय अंक प्रणाली को अपनाया गया और शून्य के महत्व को मान्यता दी गई, जिससे इसका पूरे यूरोप (Europe) में प्रसार हुआ। अंको की गणना और बीजगणित सहित उन्नत गणितीय क्षेत्रों में शून्य मूल बिंदु के रूप में विकसित हुआ। प्रकाश की गति की गणना करने और कंप्यूटर एल्गोरिदम को डिजाइन करने जैसी वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी नवाचारों में इसके उपयोग ने इसे आधुनिक गणित और विज्ञान की आधारशिला बना दिया है। आर्यभट्ट को भारतीय खगोल विज्ञान और गणित के शास्त्रीय युग से संबंधित प्रमुख गणितज्ञ-खगोलविदों में से एक माना जाता है। अपनी प्रसिद्ध रचना 'आर्यभटीय' में उन्होंने बीजगणित, त्रिकोणमिति और अंकगणित, निरंतर भिन्न, घात श्रृंखला का योग, द्विघात समीकरण और चिन्ह तालिकाओं जैसे विषयों पर कार्य किया है। उन्होंने 'पाई' के एक सन्निकटन मान की भी खोज की, जिसके बारे में उनके द्वारा आर्यभटीय में वर्णन किया गया है।
इसके बारे में बताते हुए वे लिखते हैं:
“100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें, और फिर 62,000 जोड़ें। इस नियम से 20,000 व्यास वाले वृत्त की परिधि तक पहुंचा जा सकता है।” इसकी गणना 3.1416 के रूप में प्राप्त की गई है जो 'पाई' के वास्तविक मान (3.14159) के बेहद निकट है। आर्यभट्ट द्वारा शून्य के आविष्कार से पहले भारतीयों द्वारा शून्य संख्या के विकास पर कार्य किया जा रहा था। संस्कृत विद्वान और भारतीय गणितज्ञ आचार्य पिंगला ने सबसे पहले संस्कृत शब्द 'सून्य' का इस्तेमाल किया था, जिसे आज हम शून्य कहते हैं। 'सून्य' शब्द का अर्थ शून्य अर्थात रिक्त या कुछ नहीं है। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले जैन पाठ या ब्रह्मांड विज्ञान में 'लोकविभाग' नामक पाठ में 'दशमलव स्थान मान प्रणाली' (शून्य शामिल) का उपयोग किया गया था, जिसमें शून्य शामिल था। यहीं पर 'सून्य' शब्द का प्रयोग हुआ।
गणित में 'दशमलव स्थान मान प्रणाली' नामक एक अवधारणा है जिसे स्थिति संकेतन भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि किसी संख्या का मान अंक की स्थिति से निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए तीन समान अंकों वाली संख्या 999 को शब्दों में संख्या नौ सौ निन्यानबे लिखा जाता है। यहां सैकड़ा, दहाई और इकाई का निर्धारण अंकों की स्थिति से किया जाता है, अर्थात पहले स्थान का अंक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है, दूसरे स्थान का अंक दहाई का और तीसरे स्थान का अंक सैकड़े का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार आगे के स्थानों पर अंकों का मान बढ़ता जाता है। स्थानीय मान प्रणाली की यह अवधारणा पहली बार 'बक्शाली पांडुलिपि' में उपयोग की गई थी। 'बक्शाली पांडुलिपि' जिसे व्यापारियों के लिए एक अंकगणितीय नियम पुस्तिका माना जाता है, में शून्य का प्रतीक दर्ज है। यह एक बिंदु जैसी संरचना है, जिसमें एक खोखली संरचना होती है जिसका अर्थ शून्य या कुछ भी नहीं है। 2017 में इन पांडुलिपियों की रेडियोकार्बन डेटिंग (radiocarbon dating) करने पर ये पांडुलिपियां 224-383 ईसवी, 680-779 ईसवी और 885-993 ईसवी के बीच की दर्ज की गईं। यह शून्य के प्रतीक के प्रयोग का विश्व का सबसे पुराना रिकॉर्ड है।
हालाँकि आर्यभट्ट के काम में यह अवधारणा एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है, लेकिन शून्य के प्रतीक का प्रयोग सबसे पहले आर्यभट्ट ने नहीं किया था। शून्य का 'अंक' के रूप में प्रयोग सबसे पहले भारत में गुप्तकाल में हुआ था। यद्यपि 'अंक' के रूप में शून्य की अवधारणा और समझ सबसे पहले आर्यभट्ट ने अपनी स्थानीय मान प्रणाली में विकसित की थी, क्योंकि अंकों की गिनती प्रणाली स्थानीय मान प्रणाली या शून्य के बिना संभव नहीं है। इसके अलावा आर्यभट्ट द्वारा वर्ग और घनमूलों पर की गई गणना तब तक नहीं की जा सकती, जब तक संख्याओं को स्थानीय मान प्रणाली या शून्य के अनुसार व्यवस्थित नहीं किया जाता। शून्य की यह अवधारणा भारतीय गणित की सर्वोत्तम और महानतम उपलब्धियों में से एक मानी जाती है। क्या आप जानते हैं कि ग्वालियर मंदिर का शिलालेख दुनिया में शून्य के सबसे पुराने जीवित प्रतीकों में से एक है। ग्वालियर किले के हाथी गेट की ओर, भगवान विष्णु को समर्पित एक चतुर्भुज मंदिर है, जहां 875 ईसवी की एक प्राचीन पट्टिका पर एक वृत्त अंकित है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह दुनिया में 'शून्य' के सबसे शुरुआती प्रतीकों में से एक है। मंदिर की दीवार पर लगी पट्टिका में फूलों के बगीचे के लिए 270 हस्त के भूमि अनुदान के साथ-साथ 50 फूलों की मालाओं के दैनिक अनुदान का उल्लेख भी मिलता है। जिस गोलाकार प्रतीक को हम शून्य के रूप में जानते हैं वह '270' के साथ-साथ '50' में भी दिखाई देता है। यह भारत में शून्य का सबसे पुराना ज्ञात शिलालेख है और शायद दुनिया में दूसरा सबसे पुराना। दुनिया भर से गणित के शौकीन लोग वर्षों से इस मंदिर में आते रहे हैं। 1931 तक ग्वालियर के इस शिलालेख को दुनिया में शून्य का सबसे पुराना ज्ञात शिलालेख माना जाता था।
हालाँकि, कंबोडिया में एक खोज के बाद यह धारणा बदल गई। उसी वर्ष, 1931 में, फ्रांसीसी पुरातत्वविद् जॉर्जेस कॉडेस (Georges Cœdès) ने साम्बोर नामक स्थान पर 7वीं शताब्दी ईसवी के एक मंदिर के खंडहरों में मिली एक पट्टिका के अर्थ पर अध्ययन करके यह खोज की। यह पट्टिका वर्ष 683 ईसवी की थी और ग्वालियर मंदिर में अंकित शून्य से लगभग 192 वर्ष प्राचीन थी। वास्तव में ग्वालियर के मंदिर में अंकित शून्य भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/7knbwxuc
https://tinyurl.com/yx68c4r7
https://tinyurl.com/2wvvykr7

चित्र संदर्भ
1. ग्वालियर के चतुर्भुज मंदिर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. शून्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. आर्यभट्ट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. बख्शाली पाण्डुलिपि में प्रयोग किये गये अंकों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. 682-3 ई. का एक शिलालेख जिसमें शून्य का पहला ज्ञात ग्राफिक प्रतिनिधित्व है। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. ग्वालियर के चतुर्भुज मंदिर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)

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