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अकबर इलाहाबादी का एक प्रसिद्ध शेर है कि " खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो " यह शेर अकबर इलाहाबादी ने तब लिखा था जब ब्रिटिश शासन में क्रूरता अपने चरम पर थी। कहा जाता है कि भारतीय स्वतंत्रता के महासंग्राम में प्रेस ने भी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बराबर का योगदान दिया है। वहीं ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ प्रत्येक वर्ष 3 मई को मनाया जाता है। तो आइए आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में प्रेस की भूमिका और स्वतंत्रता आंदोलन में इसके प्रभाव पर नज़र डालते हैं। इसके साथ ही महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए समाचार पत्र व पत्रिकाओं और इनके योगदान के बारे में भी जानते हैं।
आधुनिक विश्व के अधिकांश जितने भी देशों में क्रांतियाँ हुई है उनकी मज़बूत नींव में क्रांतिकारियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के साहस एवं बलिदान के साथ-साथ प्रेस रूपी पत्थर का भी अहम योगदान रहा है। इस अर्थ में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन दूसरों से भिन्न नहीं था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रेस नेताओं की आवाज़, सूचना साझा करने का माध्यम और मौजूदा सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना का एक उपकरण थी। भारत में प्रेस का इतिहास 1550 में पुर्तगाली लोगों के आगमन के साथ शुरू हुआ था। देश में पहली पुस्तक 1557 में गोवा के जेसुइट्स (Jesuits of Goa) द्वारा प्रकाशित की गई थी। 1684 में 'ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी' (British East India Company) द्वारा बंबई (वर्तमान मुंबई) में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित की गई थी। लेकिन इस प्रेस द्वारा एक सदी की अवधि तक कंपनी के क्षेत्र में कोई समाचार पत्र प्रकाशित नहीं किया गया। भारत में समाचार पत्र प्रकाशित करने का पहली बार प्रयास विलियम बोल्ट (William Bolt) द्वारा किया गया, हालांकि वे इसमें असफल रहे। इसके बाद वर्ष 1780 में, भारत में पहला समाचार पत्र जेम्स ऑगस्टस हिक्की (James Augustus Hickey) द्वारा "द बंगाल गजट' (The Bengal Gazette) शीर्षक के नाम से प्रकाशित किया गया, जिसे कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर (Calcutta General Advertiser) के नाम से भी जाना जाता है। इसी कारण हिक्की को 'भारतीय प्रेस का पिता' (Father of Indian Press) भी कहा जाता है। इसके बाद गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा बंगाल गजट का अंग्रेजी संस्करण निकाला गया, इस प्रकार वह समाचार पत्र प्रकाशित करने वाले पहले भारतीय बने। लेकिन ब्रिटिश भारत में समाचार पत्रों का उद्भव एवं विकास ब्रिटिश सत्ता के लिए अनुकूल सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि इन समाचार पत्रों के द्वारा भारत में सेवारत ब्रिटिश अधिकारियों की दमनकारी नीतियां एवं अत्याचार यूरोपीय संघ के सामने उजागर होने लगे थे। इसके साथ ही शिक्षित भारतीयों द्वारा विभिन्न प्रकाशनों के माध्यम से अंग्रेजों की नीतियों पर लगातार हमला किया जा रहा था। राजा राममोहन राय को भारतीय पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। उन्होंने 1822 में ‘संवाद कौमुदी’ और फ़ारसी साप्ताहिक ‘मिरात-उल-अख़बार’ शुरू किया था। इसलिए ब्रिटिश सरकार द्वारा विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के प्रकाशन को मंज़ूरी देने, नियंत्रित करने और जांच करने के लिए नीतियां एवं अधिनियम बनाए जाने लगे।
भारत में प्रेस के विकास को मोटे तौर पर तीन अलग-अलग चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले
- 1857 से 1914, प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ तक
- 1914 से 1947, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के लागू होने तक
1. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले:
इस चरण के दौरान अंग्रेजों ने विभिन्न अधिनियमों के माध्यम से भारतीय प्रेस पर नियंत्रण बनाए रखा।
इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नियम एवं अधिनियम निम्नलिखित हैं:
प्रेस प्रतिबंधन अधिनियम, (Censorship of Press Act, 1799): लॉर्ड वेलेज़ली (Lord Wellesley) ने ब्रिटिश भारत पर फ्रांसीसी आक्रमण की आशंका जताई और प्री-सेंसरशिप के माध्यम से उस समय के प्रकाशनों पर विभिन्न प्रतिबंध लगाए।
लाइसेंसिंग विनियम, 1823 (Licensing Regulations, 1823): इस अधिनियम के माध्यम से भारत में प्रेस को स्थापित करने या उपयोग करने के लिए लाइसेंस को आवश्यक कर दिया गया। यह मुख्य रूप से भारतीय भाषा के प्रकाशनों की ओर निर्देशित था क्योंकि इनके द्वारा निरंतर ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की जा रही थी। इस अधिनियम को एडम्स विनियम (Adams’ Regulations) भी कहा जाता है।
प्रेस अधिनियम या मेटकाफ अधिनियम, (Press Act or Metcalfe Act, 1835): 'भारतीय प्रेस के मुक्तिदाता' के नाम से विख्यात, चार्ल्स मेटकाफ (Charles Metcalfe) ने एडम्स विनियमों को समाप्त कर दिया। मेटकाफ के उदारवादी दृष्टिकोण के कारण भारत में प्रेस का तेज़ी से विकास हुआ।
लाइसेंसिंग अधिनियम, (Licensing Act, 1857): 1857 के सिपाही विद्रोह के कारण उत्पन्न स्थिति ने सरकार को प्रेस पर फिर से प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य कर दिया। सरकार ने जब भी उचित समझा, किसी भी प्रकाशन को मुद्रण या प्रसार से निलंबित करने का अधिकार सुरक्षित रखा।
2. 1857 से 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत तक:
1857 से पहले के चरण के दौरान ब्रिटिश सरकार का मुख्य ध्यान अपनी छवि बनाए रखने के लिए प्रकाशित होने वाली सामग्रियों को विनियमित करने पर था। हालाँकि, 1857 का विद्रोह अंग्रेजों के लिए एक झटका था। दोबारा इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन को रोकने के लिए अंग्रेजों द्वारा दमनात्मक नीतियां अपनाई जाने लगीं। लेकिन अंग्रेजों की प्रतिक्रियावादी नीतियों के कारण भारतीयों के शिक्षित वर्ग द्वारा विभिन्न प्रकाशनों के माध्यम से सरकार की खुली आलोचना की गई। जिसके कारण ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रथम विश्व युद्ध तक भारत में प्रेस का गंभीर दमन किया।
प्रेस को कमज़ोर करने के लिए उनके द्वारा उठाए गए विभिन्न कदम थे:
वर्नाक्युलर प्रेस अधिनियम, (Vernacular Press Act, 1878): तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन (Lord Lytton) की अत्यधिक साम्राज्यवादी नीतियों के कारण भारतीय नेताओं द्वारा उनकी तीखी आलोचना की जाने लगी। जिसके कारण प्रेस पर वर्नाक्यूलर अधिनियम लगाया गया। इस अधिनियम के अनुसार, स्थानीय समाचार पत्रों को यह निर्देश दिया गया कि वे ऐसा कोई भी लेख प्रकाशित न करें जिससे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असंतोष की भावनाएं भड़कें। उपरोक्त मानदंड के अनुसार, मजिस्ट्रेट की कार्रवाई को अंतिम माना गया, जिसके विरुद्ध अदालत में कोई अपील नहीं की जा सकती थी। इस अधिनियम की कठोर प्रकृति के कारण, इसे गैगिंग अधिनियम (Gagging Act) के रूप में जाना जाता था। यह अधिनियम 1882 में निरस्त कर दिया गया।
समाचार पत्र अधिनियम, (Newspaper Act, 1908): इस अधिनियम ने मजिस्ट्रेटों को समाचार पत्रों की प्रिंटिंग प्रेस, उनसे जुड़ी संपत्ति को जब्त करने का अधिकार दिया। स्थानीय सरकार को आपत्तिजनक समाचार पत्रों के मुद्रक और प्रकाशक द्वारा की गई किसी भी घोषणा को रद्द करने का अधिकार दिया गया। इस घृणित अधिनियम के तहत, सरकार द्वारा 9 समाचार पत्रों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाया और सात प्रेस को जब्त कर लिया गया।
भारतीय प्रेस अधिनियम, (Indian Press Act, 1910): यह अधिनियम 1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम के समान था। इस अधिनियम के माध्यम से, ब्रिटिश सरकार ने स्थानीय समाचार पत्रों पर नियंत्रण को और मज़बूत करने की कोशिश की। अधिनियम के अनुसार, स्थानीय सरकार को पंजीकरण के समय कम से कम 500 रुपए और अधिक से अधिक 2,000 रुपए की सुरक्षा की मांग करने का अधिकार दिया गया था। इस अधिनियम के तहत 991 प्रिंटिंग प्रेस और समाचार पत्र के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई।
3. 1914 से भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के लागू होने तक:
इस दौरान अंग्रेज़ों द्वारा लगाए गए विभिन्न अधिनियम थे:
- भारत रक्षा नियम, (Defence of India Rules, 1914): युद्ध के दौरान ग़लत सूचना पर अंकुश लगाने की आड़ में अंग्रेज़ोंने प्रेस के माध्यम से हो रही अपनी आलोचना को समाप्त करने के लिए उसका गला घोंट दिया।
- भारतीय प्रेस अधिनियम, (Indian Press Act, 1931): यह अधिनियम दांडी मार्च की पृष्ठभूमि में लागू किया गया था। लगभग एक दशक तक सरकार और प्रेस के बीच जो शांति कायम थी वह समाप्त हो गई। प्रेस का भयंकर दमन हुआ जिसका प्रभाव पूरे देश में प्रेस पर पड़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान: उथल-पुथल से भरे देश के राजनीतिक माहौल के अनुरूप भारतीय प्रेस अधिनियम, 1931 और भारत रक्षा अधिनियम 1915 जैसे विभिन्न अधिनियमों में संशोधन किया गया। उस समय कांग्रेस से संबंधित किसी भी प्रकाशन को अवैध घोषित कर दिया गया था।
अंतरिम सरकार के दौरान: अंतरिम सरकार ने व्यावहारिक रूप से तो प्रेस को ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त कर दिया। लेकिन, देश में सांप्रदायिक दंगों के कारण सरकार को अध्यादेश का रास्ता अपनाना पड़ा। और उसे दौरान भी प्रेस पर नियंत्रण रखा गया और इसे पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी गई।
अब प्रश्न उठता है कि स्वतंत्रता से पहले प्रेस की ऐसी क्या भूमिका रही जिसने ब्रिटिश राज को इतने अधिक अधिनियम बनाने के लिए मजबूर कर दिया। सबसे पहले 1780 में भारत के पहले मुद्रित समाचार पत्र, और आयरिशमैन जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा चलाई जाने वाले बंगाल गजट में व्यंग्यपूर्ण लहजे में ब्रिटिश राज का उपहास उड़ाने का कार्य किया गया। जिसके कारण यह अख़बार अंग्रेज़ों के बीच बेहद कुख्यात था। और इसी कारण, 1782 में इसे बंद करवा दिया गया। इसी बीच कई अख़बारों द्वारा राष्ट्रव्यापी स्तर पर विद्रोह के किसी भी वास्तविक प्रयास से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए अंग्रेज़ों की बांटो और राज करो की रणनीति पर ध्यान दिया जाने लगा। 1857 में, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, अख़बार पयाम-ए-आज़ादी ने यह संदेश फैलाना शुरू किया कि अंग्रेज़ बांटो और राज करो जारी रखेंगे और लोगों को इसके ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा। इसके साथ ही, तीन समाचार पत्रों 'समाचार सुधावर्षण', 'दूरबीन' और 'सुल्तान-उल-अख़बार' को राज के प्रति उनके आलोचनात्मक दृष्टिकोण के कारण दबा दिया गया था। 1800 के दशक की शुरुआत में नियंत्रण उपायों ने लोगों के मन में राजद्रोह को उत्पन्न करने का कार्य किया। जिसके लिए अंग्रेज़ों ने 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम की स्थापना की, जिसका उद्देश्य गैर- अंग्रेज़ी अख़बारों को राज की आलोचना करने से रोकना था। लेकिन भारतीय अख़बारों ने भी चुप रहने के आदेशों और जेल जाने की धमकियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। राजद्रोह धारा के तहत बाल गंगाधर तिलक पर तीन बार मुकदमा चला कर उन्हें दोषी ठहराया गया। 1900 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद राष्ट्रवादी आंदोलन ने गति पकड़ी, जिसकी पहली बैठक में कई प्रमुख समाचार पत्र संपादक और प्रमुख नेता थे। अतः ब्रिटिश राज द्वारा 1908 का आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1910 का प्रेस अधिनियम, और 1911 का देशद्रोही बैठक निवारण अधिनियम पारित करके प्रेस पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए बड़ी कार्रवाई की गई। जब सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था और महात्मा गांधी ने नमक मार्च निकाला था, तो इस दौरान 1931 में प्रेस (आपातकालीन शक्तियाँ) अधिनियम पारित किया गया और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इसे और अधिक मज़बूत किया गया। इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकारों को अवज्ञा आंदोलन के प्रचार को दबाने की शक्ति दी और बाद में कांग्रेस की सभी बातों पर प्रतिबंध लगाने के लिए इसे एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। विश्व युद्ध की शुरुआत होने पर भारत में प्रेस ने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के उद्देश्य से अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन का गठन किया। हालाँकि ब्रिटिश राज के अंत तक प्रेस पर नियंत्रण जारी रहा। यह 1943 के बंगाल अकाल के दौरान सबसे अधिक स्पष्ट था, जिसे ‘अमृता बाजार’ पत्रिका ने विशेष रूप से रिपोर्ट किया था। लेकिन ब्रिटिश राज द्वारा प्रेस को देश को यह बताने से भी प्रतिबंधित कर दिया कि उसे अकाल के बारे में बात करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था । ताकि संभवतः इस बात को छुपाया जा सके कि चर्चिल की भारतीयों के प्रति शत्रुता के कारण उन्होंने अनुदान देने से इनकार कर दिया था, या लुई माउंटबेटन की अपील के बावजूद क्षेत्र में खाद्य आपूर्ति कम कर दी गई है। लेकिन प्रेस द्वारा भी भूमिगत काग़ज़ात, रेडियो, कला और भित्तिचित्रों का उपयोग करके अपना प्रतिरोध जारी रखा गया। और यह तब तक जारी रहा जब तक अंग्रेज़ अंततः भारत से चले नहीं गए।
पत्रकारिता के विषय में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है और एक पत्रकार के रूप में उनका योगदान भी उल्लेखनीय है। पत्रकारिता के विषय में गांधी जी का कहना था: “मेरी विनम्र राय में, अख़बार को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में उपयोग करना ग़लत है। कार्य के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो इतने परिणाम वाले हैं और सार्वजनिक कल्याण पर इतना प्रभाव डालते हैं कि किसी के द्वारा आजीविका कमाने के लिए उन्हें अपनाना उनके पीछे के प्राथमिक उद्देश्य को विफल कर देगा।”
एक पत्रकार के रूप में गांधीजी छह पत्रिकाओं से जुड़े थे, जिनमें से दो के वे संपादक थे। अपने पहले अख़बार के रूप में गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में 1904 में इंडियन ओपिनियन (Indian Opinion) का संपादन संभाला और इसे अंग्रेज़ी, तमिल और गुजराती में प्रकाशित किया। अपने विचारों को व्यक्त करने और जनता को सत्याग्रह के बारे में शिक्षित करने के लिए उन्होंने दो पत्रिकाओं यंग इंडिया (Young India) और ‘नवजीवन’ का उपयोग किया। गांधी जी के अनुसार अख़बार का एक उद्देश्य लोकप्रिय भावना को समझना और उसे अभिव्यक्ति देना है। 1933 में गांधीजी ने अंग्रेज़ी , गुजराती और हिंदी में क्रमशः हरिजन, हरिजनबंधु, हरिजनसेवक की शुरुआत की। ये समाचार पत्र ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पृश्यता और ग़रीबी के ख़िलाफ़ उनके अभियान के माध्यम थे। उनका मानना था कि “समाचार पत्र मुख्य रूप से लोगों को शिक्षित करने के लिए हैं। यह कोई मामूली ज़िम्मेदारी का काम नहीं है, हालाँकि, यह सच है कि पाठक हमेशा समाचार पत्रों पर भरोसा नहीं कर सकते। अक्सर तथ्य बताए गए से बिल्कुल विपरीत पाए जाते हैं। यदि समाचार पत्रों को यह एहसास होता कि लोगों को शिक्षित करना उनका कर्तव्य है, तो वे किसी रिपोर्ट को प्रकाशित करने से पहले उसकी जाँच करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे।“
संदर्भ
https://rb.gy/j52dkc
https://rb.gy/je146q
https://rb.gy/gjxfqe
चित्र संदर्भ
1. भारत की स्वतंत्रता की खबर प्रकाशित करते एक अख़बार को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. 'द बंगाल गजट' अख़बार के एक पन्ने को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारतीय पत्रकारिता का अग्रदूत माने जाने वाले राजा राममोहन राय जी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. अमृता बाजार पत्रिका को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. 30 जुलाई, 1921 के दिन द बॉम्बे क्रॉनिकल नामक समाचार पत्र में गांधीजी द्वारा ब्रिटिश उत्पादों के बहिष्कार के आग्रह को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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