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आज हम आदरणीय बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को "दलित और पिछड़े वर्ग के मसीहा के रूप में देखते हैं।" आमतौर पर माना जाता है कि उन्होंने ही सबसे पहले जातिगत भेदभाव की ओर लोगों का ध्यान खींचते हुए इसका विरोध किया था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बाबासाहेब से भी लगभग 500 वर्ष पूर्व, संत कबीर हुआ करते थे, जिन्होंने पहली बार यह कहने की हिम्मत की कि "मनुष्यों को जातियों में विभाजित करने से किसी का भला नहीं होता और ब्राह्मणों के लिए जीवन के सभी रूप अशुद्ध हैं।" यहां तक की कबीर इंसानों के बजाय जानवरों को अधिक उन्नत और बेहतर मानते थे। चलिए आज अंबेडकर जयंती के मौके पर समझते हैं कि जातिवाद को लेकर कबीर और अंबेडकर की विचारधारा क्या थी, और दोनों में कितनी समानताएं थी।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर भारत के इतिहास में एक अतुलनीय और अद्वितीय शख्सियत माने जाते हैं। वह एक न्यायविद्, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक और राजनीतिक नेता जैसी बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी थे। उन्होंने विशेष रूप से, भारत के स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। डॉ. अंबेडकर को दलितों के अधिकारों की वकालत करने और सामाजिक सुधार तथा संवैधानिक न्याय के प्रतीक के रूप में सम्मानित किया जाता है।
बी. आर. अंबेडकर अपने माता पिता के 14 बच्चों में सबसे छोटे बेटे थे। उनके पिता, रामजी मालोजी सकपाल, भारतीय सेना में सूबेदार थे, और उनकी माँ, भीमाबाई सकपाल, एक गृहिणी थीं।
जब अंबेडकर केवल दो वर्ष के थे तब उनके पिता सेवानिवृत्त हो गये और जब वे छह वर्ष के थे तो उनकी माँ का निधन हो गया। दलित जाति का होने के कारण उन्हें अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता था। लेकिन इसके बावजूद, अंबेडकर ने बंबई में शिक्षा प्राप्त की। मैट्रिकुलेशन (matriculation) के बाद उन्होंने शादी कर ली। इसके बाद भी उन्होंने कई बार छुआछूत की कठोर वास्तविकताओं को झेला।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर की शैक्षिक यात्रा वास्तव में उल्लेखनीय है। उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज (Elphinstone College) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की, जहां उन्होंने 1915 में एम.ए. और पीएच.डी. प्राप्त की। ज्ञान की उनकी खोज उन्हें लंदन ले गई, जहां उन्होंने ग्रेज़ इन से बार-एट-लॉ (Bar-at-Law degree) और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (London School of Economics) से डी.एससी (D.Sc.) की डिग्री हासिल की। इसके अतिरिक्त, उन्होंने जर्मनी में बॉन विश्वविद्यालय (University of Bonn in Germany) में समय बिताया, जिससे उनका शैक्षणिक अनुभव और अधिक समृद्ध हुआ।
भारत लौटने के बाद उन्होंने संविधान सभा की बहस के दौरान, भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त, उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के अधीन स्वतंत्र भारत के मंत्रिमंडल में पहले कानून और न्याय मंत्री के रूप में कार्य किया। कानूनी और राजनीतिक दायरे से परे जाकर उन्होंने हिंदू धर्म त्यागने के बाद दलित बौद्ध आंदोलन को भी प्रेरित किया था।
शुरुआत में उन्होंने एक अर्थशास्त्री, प्रोफेसर और वकील के रूप में काम किया लेकिन इसके बाद वह सक्रीय रूप से राजनीति से जुड़ गए। उन्होंने विभाजन और छुआछूत के विरुद्ध अभियान चलाया, दलितों के लिए राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की।
1924 में, अंबेडकर ने दलित वर्ग के कल्याण के लिए समर्पित एक संघ की स्थापना की। इसके मिशन में शिक्षा का प्रसार, शिकायतों का प्रतिनिधित्व करना और आर्थिक स्थितियों में सुधार करना शामिल था। उन्होंने सामाजिक सुधारों के माध्यम से दलित वर्ग के हितों की वकालत करते हुए 1927 में 'बहिष्कृत भारत' नामक समाचार पत्र भी लॉन्च किया। बाद में, उन्होंने दलित समुदाय की चिंताओं की ओर ध्यान खींचने के लिए मूक नायक (1920) और जनता (1928) जैसे समाचार पत्रों की स्थापना की।
1938 में, अंबेडकर ने एक प्रांतीय सम्मेलन में एक साहसिक बयान दिया: "मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ था, लेकिन मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा।" इस घोषणा के बाद उन्होंने हिंदू धर्म को त्याग दिया। उनके इस निर्णय का उनके अनुयायियों ने भी समर्थन किया। 15 अगस्त, 1936 को उन्होंने दलित वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करते हुए इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (Independent Labor Party) के गठन की घोषणा की।
जिस प्रकार डॉ अंबेडकर अपने समय के दौरान प्रचलित मानदंडों के विरोध में जाकर अपनी नई विचारधारा लेकर आए, ठीक इसी प्रकार की विचारधारा, उनसे कई दशक पहले भारत की भूमि में जन्में “संत कबीर” की भी थी, जिन्हें आज हम कबीर दास के नाम से जानते हैं।
कबीर दास 15वीं सदी के श्रद्धेय भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे, जिन्हें हिंदू सामाजिक संरचना की कड़ी आलोचना के लिए जाना जाता है। एक मुस्लिम बुनकर परिवार में जन्मे, कबीर दास बाद में हिंदू तपस्वी "रामानंद" के अनुयायी बन गए। उन्होंने अवधी और ब्रज जैसी हिंदी बोलियों में कविताएँ या दोहे भी लिखे हैं, जो भक्तिपरक भी थी, और इनमें धार्मिक प्रथाओं की आलोचना भी की गई थी।
कबीर के सरल पद, भक्ति, रहस्यवाद और अनुशासन के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। उनका मानना था कि धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम की सीमाओं से परे है। उन्होंने कई मौकों पर दोनों धर्मों की आलोचना की और मूर्ति पूजा तथा बुद्ध जैसे अवतारों की प्रार्थना करने जैसी प्रथाओं का भी विरोध किया। कबीर ने तर्क दिया कि इन प्रथाओं से बुराई समाप्त नहीं होती। इसके बजाय, उन्होंने लोगों से एक-दूसरे को ईश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में देखने और धार्मिक पाखंड से दूर रहने का आग्रह किया।
कबीर की रचनाएँ आत्म-चिंतन और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी हुई थी, जिसने उनके काम में एक अनूठा आकर्षण जोड़ा। उन्होंने सूफियों की तरह ही सादे जीवन की वकालत की। डॉ अंबेडकर की भांति कबीर भी जाति व्यवस्था के कट्टर आलोचक माने जाते हैं और उन्होंने ब्राह्मणवादी पदानुक्रम और प्रथाओं पर सवाल उठाया था, जो उनके समय में बहुत बड़ी बात थी।
उन्होंने लिखा है:
"गधा ब्राह्मण से कहीं बेहतर है,
एक कुत्ता अन्य जातियों से बढ़कर है,
मुर्गा, मुल्ला से भी बड़ा है,
क्योंकि वे अपनी पुकार से लोगों को जगाता है।"
बाबासाहेब से भी पहले, कबीर ने लोगों को जातियों में विभाजित करने की निरर्थकता पर प्रकाश डाला और तर्क दिया कि ब्राह्मणों के लिए तो जीवन के सभी रूप अशुद्ध थे। वह इस हद तक आगे बढ़ गए कि वह जानवरों को इंसानों से बेहतर मानने लगे।
दिलचस्प बात यह है कि कबीर और बाबासाहेब अंबेडकर के बीच लगभग 500 वर्षों का अंतराल होने के बावजूद, धर्म की उनकी समझ में एक उल्लेखनीय समानता थी। दोनों ने ही अपने समय के प्रचलित मानदंडों और रीति-रिवाजों की आलोचना की तथा अधिक रहस्यमय, प्राकृतिक और धर्मनिरपेक्ष मार्ग चुना। वे जाति-विरोधी आख्यान को आकार देने, आदर्शों पर सवाल उठाने और प्रथाओं को उखाड़ फेंकने में समर्थ थे। कबीर और बाबासाहेब दोनों ने अपने अनूठे तरीकों से अत्यधिक भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के रीति-रिवाजों और नियमों को चुनौती दी।
बाबासाहेब न केवल कबीर के दर्शन, बल्कि उनके समान सामाजिक और धार्मिक वातावरण के लिए भी उनकी ओर आकर्षित हुए थे। कई विद्वान कबीर के कार्यों को दलित साहित्य का हिस्सा मानते हैं।
अंबेडकर और कबीर, दोनों ब्राह्मणवाद के प्रबल आलोचक थे। उन्होंने वंचितों के हितों की वकालत की और स्वयं अपने जीवन में भी इसी तरह की चुनौतियों का सामना किया। कबीर, अंबेडकर पर प्रमुख प्रभाव डालने वाले उनके तीन गुरुओं में से एक थे। ऐसा हो सकता है कि अंबेडकर, कबीर के दार्शनिक पक्ष से "वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर (One Hundred Poems of Kabir)" के माध्यम से परिचित हुए हों, जिसका अंग्रेजी में रवींद्रनाथ टैगोर ने अनुवाद किया था।
अपने समय के समान सामाजिक और धार्मिक माहौल ने अंबेडकर को कबीर की ओर आकर्षित किया, जिससे अंबेडकर के नेतृत्व कौशल में वृद्धि हुई।
कार्ल मार्क्स (karl marx) की तरह कबीर ने भी माना कि शासक वर्ग के पास भौतिक और बौद्धिक दोनों शक्तियाँ होती हैं। उन्होंने "देखना ही विश्वास करना है।" के सिद्धांत पर आधारित एक नई बौद्धिक धारा की आवश्यकता को समझा। मुल्लाओं और पंडितों के साथ कबीर के संवाद ने उन्हें लोगों को क्रांतिकारी नेतृत्व प्रदान करते हुए "न हिंदू, न मुसलमान" के सिद्धांत पर पहुँचाया। उन्होंने कुरान और वेदों और पुराणों के विश्वदृष्टिकोण के विपरीत, अपना स्वयं का सौंदर्यशास्त्र और धर्म और समाज को देखने का तरीका विकसित किया। कबीर की "निर्गुण" की क्रांतिकारी अवधारणा ने वर्ण व्यवस्था और परलोक में विश्वास करने की धारणा को भी चुनौती दे दी। कबीर के विचार के इसी पहलू ने डॉ. अंबेडकर को भी प्रभावित किया, जिन्हें 20वीं सदी में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 500 साल के अंतराल के बावजूद, भारत में 15वीं और 20वीं सदी की स्थितियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि इतिहास ने खुद को दोहराया हो।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2z7tk254
https://tinyurl.com/bhb3jzdw
https://tinyurl.com/3zd4wwtx
चित्र संदर्भ
1. डॉ. अंबेडकर एवं संत कबीर को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl,wikimedia)
2. बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. 31 जून, 1952 को हवाई जहाज़ से मुंबई छोड़ते समय बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की तस्वीर को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
5. डॉ. भीमराव अंबेडकर के अभिभाषण को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
6. संत कबीर को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
7. जुलाहे के तौर पर संत कबीर को दर्शाता एक चित्रण (Store norske leksikon)
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