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क्या आप जानते हैं कि, एक अंग्रेज विद्वान ने हमारे देश में उत्पन्न हुई, ब्राह्मी लिपि को पढ़ने का संकल्प किया था। और, केवल इसी के परिणामस्वरुप, भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा गया। आइए आज जानते हैं कि, भारत की सबसे पुरानी भारतीय लिपि का, इस अंग्रेज विद्वान – जेम्स प्रिंसेप के साथ क्या संबंध है तथा इसका परिणाम क्या रहा। साथ ही, यह भी जानते हैं कि, गूढ़ाक्षरों को स्पष्ट की जा सकने वाली लिपियों और स्पष्ट नहीं की जा सकने वाली लिपियों के बीच क्या अंतर है।
प्राचीन लिपियों को, ‘समझने’ या उसके ‘गूढ़ाक्षरों को स्पष्ट करने’ का अर्थ अलग-अलग विद्वानों के लिए अलग-अलग होता है। एक तरफ, हर कोई इस बात से सहमत है कि, ‘मिस्र की चित्रलिपि’ को समझ लिया गया है, क्योंकि, प्रत्येक प्रशिक्षित मिस्रविज्ञानी किसी दिए गए चित्रलिपि शिलालेख के लगभग हर शब्द का एक ही अर्थ निकालता है। हालांकि, उनके व्यक्तिगत अनुवाद तब भी भिन्न हो सकते हैं, जैसा कि सभी स्वतंत्र अनुवाद करते हैं। दूसरी ओर, लगभग हर कोई इस बात से सहमत है कि, सिंधु घाटी सभ्यता और ईस्टर द्वीप (Easter Island) की लिपियां आज भी अनिर्धारित हैं। क्योंकि, कोई भी विद्वान अन्य विशेषज्ञों के बहुमत की संतुष्टि के लिए, उनके शिलालेखों का अर्थ नहीं समझ सकता है। इन चरम सीमाओं के बीच, विचारों का एक विशाल क्रम निहित है।
दरअसल, किसी भी लिपि का गूढ़वाचन करने हेतु, तीन चरणों की आवश्यकता है। एक, सभी उपलब्ध शिलालेखों में संकेतों, शब्दों और संदर्भों का एक विस्तृत विश्लेषण; दूसरा, वर्तनी प्रणाली, अर्थ और भाषा संरचना के बारे में हर संभव सुराग निकालना; और तीन, ध्वन्यात्मक मूल्यों का एक प्रयोगात्मक प्रतिस्थापन देने के लिए किसी ज्ञात या प्रचलित भाषा में संभावित शब्द और विभक्तियां स्पष्ट करना।
जबकि, किसी भी अज्ञात लिपि के दो तत्व आमतौर पर अपने रहस्य प्रकट कर देते हैं। पहला तत्व है कि, लिखने की दिशा: बाएँ से दाएँ या दाएँ से बाएँ; ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर; कैसी है।
दूसरा तत्व गिनती की प्रणाली यह है। अंक अक्सर चित्रात्मक रूप से बाकी पाठ से अलग दिखते हैं, खासकर यदि उनका उपयोग गणना के लिए किया जाता है।
दूसरी ओर, एक अन्य 2000 साल पुरानी भारतीय ब्राह्मी लिपि का एक अंग्रेज द्वारा, गूढ़वाचन किया गया, और इस कारण, भारतीय इतिहास में एक नया आकर्षक अध्याय जोड़ा गया। दरअसल, ब्राह्मी लिपि के अध्ययन से हमें सम्राट अशोक के बारे में पता चला, जो भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले सबसे महान राजाओं में से एक थे। इस गूढ़वाचन से हमें प्राचीन राजा की कहानी पता चली है, जिसने पूरे भारत में चट्टानों और पत्थर के खंभों पर अपनी राजाज्ञाएं वर्णित की थी। इस अध्ययन को पूरा करने वाले अंग्रेज विद्वान, जेम्स प्रिंसेप(James Prinsep) नामक थे। वह इन प्राचीन शिलालेखों में कही गई बातों को पढ़ने के लिए कृतसंकल्प थे। इस प्रकार, सबसे पुरानी पठनीय भारतीय लिपि और अधिकांश आधुनिक भारतीय लिपियों की मातृ लिपि – ब्राह्मी के गूढ़वाचन से हमें हमारे इतिहास के बारे में पता चला है।
एक दिन, प्रिंसेप ने दिल्ली स्थित फ़िरोज़ शाह कोटला के स्तंभ को देखा, और वह उससे प्रभावित हुए। उस स्तंभ के शिलालेखों में कौन से रहस्य छिपे थे, यह कोई नहीं जानता था। इसलिए, प्रिंसेप ने उन सभी शिलालेखों की सावधानीपूर्वक जांच करना शुरू किया। धीरे-धीरे प्रिंसेप ने उस शिलालेख की लिपि में एक पैटर्न ढूंढा। उन्होंने पाया कि, एक शब्द कई शिलालेखों में दोहराया गया है। वह शब्द था ‘दानम्’, जिसका अर्थ ‘दान’ था। तब प्रिंसेप को एहसास हुआ कि, इन शिलालेखों में एक राजा के बारे में बताया गया है, जो दानशूर था। और, एक बार जब उसे यह शब्द समझ में आ गया, तो उसने शेष लिपि को भी धीरे-धीरे समझ लिया।और इस तरह, भारत को ब्राह्मी वर्णमाला का ज्ञान हुआ। दरअसल, उन शिलालेखों में राजा को “देवानामपिया पियादसी” कहा गया है। इस नाम के अनुसार, प्रिंसेप ने सोचा कि, वह श्रीलंका का एक राजा था। जबकि, बाद में प्रिंसेप को पता चला कि, श्रीलंका के लोग अशोक नामक एक महान भारतीय राजा को जानते थे, जिसे “देवानामपिया पियादासी” की उपाधि से जाना जाता था। और, इस प्रकार हमें सम्राट अशोक के बारे में पता चला।
इसी विद्वान का संबंध कोलकाता और हमारे राज्य के धार्मिक शहर – वाराणसी से भी है। प्रिंसेप घाट कोलकाता की सबसे रोमांचक जगहों में से एक है। खूबसूरत हुगली नदी के किनारे पर स्थित यह स्मारक, जेम्स प्रिंसेप की याद में बनाया गया था। इसके ऊपर बना विद्यासागर सेतु इसके आकर्षण को और भी बढ़ा देता है। प्रिंसेप घाट हुगली नदी के किनारे फोर्ट विलियम(Fort William) के वॉटर गेट और सेंट जॉर्ज गेट के बीच स्थित है। यह स्मारक कोलकाता में औपनिवेशिक वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।
जेम्स प्रिंसेप को कलकत्ता टकसाल में ‘सहायक परख मास्टर(Assistant Assay Master)’ नियुक्त किया गया था, और वह 15 सितंबर 1819 को शहर पहुंचे थे। जेम्स प्रिंसेप ने विज्ञान पढ़ा था, और उन्होंने वास्तुकला और रसायन विज्ञान का अध्ययन किया था। बाद में वर्ष 1820 में, वह बनारस की ओर स्थानीय रूप से ‘बजरा’ के नाम से प्रसिद्ध ‘बुडगेरो(Budgerow)’ (केबिन वाला एक बजरा) का कामकाज संभालने लगे। तब उन्होंने अपने उपकरण और किताबें दूसरी नाव पर लाद दिए थे। बाद में वह बनारस में टकसाल के परख मास्टर बन गए। वहां उनका काम सिक्कों में प्रयुक्त धातुओं के अनुपात और गुणवत्ता का परीक्षण करना था। टकसाल में अपने नियमित कर्तव्यों के अलावा, उन्होंने काफी निःशुल्क कार्य भी किया।
वर्ष 1822 में उन्होंने बनारस(वर्तमान वाराणसी) शहर के दो सटीक मानचित्र बनाए थे। एक मानचित्र प्रशासन के लिए रोमन लिपि में था, और दूसरा स्थानीय लोगों के लिए देवनागरी लिपि में था। उन्होंने बनारस की सभी महत्वपूर्ण इमारतों को इस मानचित्र पर अंकित किया था। वह शहर के आधुनिक बुनियादी ढांचे के अग्रदूत थे। उन्होंने आलमगीर मस्जिद की मीनारों की मरम्मत भी करवाई थी। जेम्स ने खरोष्ठी लिपि को भी पढ़ा था, जो आधुनिक पाकिस्तान और अफगानिस्तान के क्षेत्रों के सिक्कों में दिखाई देती थी।
संदर्भ
https://tinyurl.com/mwr5t4v3
https://tinyurl.com/2p9zysbv
https://tinyurl.com/4en8raj6
चित्र संदर्भ
1. जेम्स प्रिंसेप और ब्राह्मी लिपि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. जानवरों के साथ सिंधु लिपि के पात्रों वाली तीन स्टांप सीलों को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
3. दिल्ली-टोपरा स्तंभ पर अलग-अलग समय में लिखे गए दो शिलालेख हैं। पहले को सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। दूसरे शिलालेख को 16वीं सदी के दौरान देवनागरी लिपि में लिखा गया है, जिसे इब्राहिम लोदी ने लिखवाया था। इन दोनों शिलालेखों में लगभग 1800 वर्षों का अंतराल हैं, को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
4. जेम्स प्रिंसे द्वारा बनारस के दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
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