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आधुनिक समय में हमारे शहर, मेरठ को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र माना जाता है, जो अपनी हथकरघा कृतियों के लिए प्रसिद्ध है। चलिए आज भारतीय वस्त्रों के शुरुआती विकास से लेकर, हथकरघा उद्योग के भारत में रोजगार का एक प्रमुख स्रोत बनने तक के सफ़र को जानते हैं।
2500-2000 ईसा पूर्व में सिंधु घाटी सभ्यता, कपड़ा उत्पादन का केंद्र हुआ करती थी। यह सभ्यता मोहनजोदड़ो और हड़प्पा शहरों के आसपास केंद्रित थी। शोधकर्ताओं को उत्खनन से स्पिंडल व्होर्ल (Spindle Whorls), तांबे की सिलाई सुई और बुने हुए कपड़े की छाप जैसी कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं, जो 5000 ईसा पूर्व में भी कपास की खेती और बुनाई के परिष्कृत स्तर का संकेत देती हैं।
भारत का कपड़ा उद्योग हमारी समृद्ध सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण है। औपनिवेशिक युग से बहुत पहले भी भारतीय वस्त्र, विश्व स्तर पर प्रसिद्ध थे। पश्चिम में रेशम और कपास का आयात भारत से ही किया जाता था। 15वीं शताब्दी में वास्को डी गामा (Vasco Da Gama) द्वारा भारत तक समुद्री मार्ग की खोज कर ली गई, जिसके बाद भारत के वस्त्र बाजार का बहुत अधिक विस्तार हो गया। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के आगमन से भारतीय वस्त्रों का व्यापार तथा उत्पादन और भी तेज़ हो गया। हालांकि औद्योगिक क्रांति के दौरान मशीनों के आगमन से जन्मीं औद्योगिक क्रांति के कारण पारंपरिक भारतीय वस्त्रों की मांग में भारी गिरावट आई। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, ब्रिटिश मिलों में निर्मित कपड़ों के बहिष्कार और खादी को बढ़ावा देने के बाद भारत के वस्त्र उद्योग के अच्छे दिन एक बार फिर से शुरू हो गए।
भारत का कपड़ा और परिधान क्षेत्र, फाइबर जैसे कच्चे माल से लेकर तैयार कपड़ों तक, संपूर्ण उत्पादन श्रृंखला में आत्मनिर्भर माना जाता है। यह उद्योग उल्लेखनीय रूप से विविध है, जहां पर सदियों पुराने हथकरघा शिल्प, ऊनी और रेशम के सामान के साथ-साथ एक आधुनिक, संगठित क्षेत्र भी स्थापित है।
कपास, सदियों से भारत के कपड़ा उद्योग की आधारशिला बनी हुई है। भारत को विश्व में कपास और जूट वस्त्रों का प्रमुख उत्पादक माना जाता है। वैश्विक निर्यात बाजारों में चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करने के बावजूद, भारतीय कपड़ा क्षेत्र ने 2020-21 में मंदी के बाद वापसी करते हुए उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है।
मुगल काल में बुनकरों को शाही संरक्षण मिला, जिससे ‘मलमल', ‘बनारसी ब्रोकेड' और ‘जामावर' जैसे उत्कृष्ट वस्त्रों का निर्माण हुआ। 17वीं शताब्दी तक, इस क्षेत्र में भारत एक महाशक्ति बन चुका था, जो वैश्विक बाजार में 25% योगदान देता था। आपको जानकर हैरानी होगी कि यूरोप की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिकांश कपड़ा और रेशम अकेले बंगाल से निर्यात किया जाता था।
भारत में आर्यों के आगमन के बाद रंगाई और कढ़ाई में प्रगति के साथ-साथ कपास और ऊन की बुनाई तकनीकों में भी सुधार देखा गया। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने हथकरघा क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए नीतियां बनाईं, जिसमें 1953 का खादी और हथकरघा उद्योग विकास अधिनियम (Khadi And Handloom Industry Development Act) तथा 1955 में अखिल भारतीय हथकरघा कपड़ा विपणन सहकारी समिति (All India Handloom Textile Marketing Cooperative Society) की स्थापना भी शामिल थी। सुरैया हसन बोस, पुपुल जयकर जैसे दूरदर्शी लोगों ने भारत के हथकरघा पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन लोगों का समर्थन रितु कुमार, सब्यसाची और संजय गर्ग जैसे समकालीन डिजाइनरों ने भी किया था, जिनके साथ मिलकर भारत की पारंपरिक बुनाई की ओर पूरी दुनियां का ध्यान खींचा गया।
आज, भारतीय हथकरघा उद्योग एक महत्वपूर्ण नियोक्ता बन गया है, और लगभग 4.5 मिलियन से अधिक लोगों को रोजगार देता है। इसे कृषि के बाद रोजगार का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। देश भर में लगभग 2.4 मिलियन करघों के साथ, भारत का हथकरघा निर्यात 2019 में 343.69 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था। हमारे लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ही सबसे बड़ा बाजार है, और उसके बाद यूके, इटली और जर्मनी आते हैं। हथकरघा उत्पाद भारत के कुल कपड़ा उत्पादन का लगभग 15% प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया के 95% हाथ से बुने हुए वस्त्रों का उत्पादन भारत में ही होता है।
भारत में पानीपत के हथकरघा उद्योग को, कई ब्रांडों के लिए उत्पादित कालीन और वस्त्रों की विस्तृत श्रृंखला के लिए जाना जाता है। बेहतरीन गुणवत्ता वाले कालीन और कंबल की पेशकश के लिए जाना जाने वाला, पानीपत देश का सबसे प्रमुख और सफल हथकरघा केंद्र बन गया है। यह शहर असाधारण रूप से किफायती और उच्च गुणवत्ता वाले कंबल तैयार करने में सबसे आगे है। अपने बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रसिद्ध, पानीपत के हथकरघा उत्पाद, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में अपनी खास जगह बनाते हैं। पानीपत के हथकरघा क्षेत्र में कंबल, कालीन, गलीचे, रजाई, बच्चों के कंबल, चादरें, पर्दे, सूती दरियां और विभिन्न प्रकार की चटाइयों जैसे विविध उत्पाद बनाने के लिए पुनर्नवीनीकरण धागे का उपयोग किया जाता है। चंडीगढ़ के उद्योग निदेशालय की औद्योगिक रिपोर्ट में पानीपत के निर्यात योगदान में लगातार वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है, जिसके अनुसार पानीपत का निर्यात योगदान 1992 में 84.04% से बढ़कर 2008 में 94.28% हो गया। पानीपत का विशाल हथकरघा क्षेत्र आज रोजगार सृजन के लिए आधारशिला के रूप में काम कर रहा है, जिससे न केवल स्थानीय लोगों को बल्कि विभिन्न राज्यों के लोगों को भी लाभ मिलता है। दैनिक भुगतान के अतिरिक्त लाभ के साथ-साथ, यहां श्रमिकों को अन्य क्षेत्रों में दी जाने वाली मजदूरी से अधिक वेतन मिलता है। यह उद्योग साल दर साल अपने कार्यबल में लगातार वृद्धि देख रहा है। पानीपत में उद्योग की समृद्ध उपस्थिति का श्रेय शहर के मजबूत बुनियादी ढांचे को दिया जा सकता है, जिसमें रेलवे, सड़क मार्ग और पर्याप्त कंटेनर भंडारण सुविधाएं शामिल हैं। ये सभी तत्व उत्पादों के भंडारण और निर्यात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
संदर्भ
Https://Tinyurl.Com/Ye2atkj3
Https://Tinyurl.Com/4vv2vsnc
Https://Tinyurl.Com/Yecj5749
चित्र संदर्भ
1. बुनाई का काम करती महिला को संदर्भित करता एक चित्रण (getarchive)
2. सिंधु घाटी सभ्यता की पोशाक पहने "पुजारी राजा" की मूर्ति को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. प्राचीन ग्रीस में खोजी गई स्पिनिंग स्टिक और स्पिंडल व्होर्ल्स को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान ब्रिटिश और भारतीय परिधानों
को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
5. मलमल के कपड़ों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. पारंपरिक हथकरघा का उपयोग कर रही असमिया महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. पारंपरिक वस्त्र निर्माण इकाई में काम कर रही महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
8. एक भारतीय बुनकर को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
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