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अनोखी है मेरठ के बिजौली गांव की होली, जानें 500 वर्ष पुरानी तख्त यात्रा परंपरा

मेरठ

 25-03-2024 09:18 AM
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)

देशभर में होली का त्यौहार अलग अलग अनोखी मान्यताओं एवं परम्पराओं के साथ मनाया जाता है। हमारे मेरठ शहर के बिजौली गांव में भी होली के त्यौहार को मनाने के लिए विशिष्ट आयोजन होता है। यहाँ होली के दिन गांव में एक अनोखी तख्त यात्रा निकाली जाती है। इस तख्त यात्रा का इतिहास 500 साल से भी ज्यादा पुराना है। तो आइए, आज इस अनोखी और ऐतिहासिक परंपरा के बारे, में जानते हैं। इसके साथ ही होली मनाने के पीछे के विज्ञान को भी समझने का प्रयास करते हैं कि होली का त्यौहार रंगों और पानी के साथ क्यों मनाया जाता है?
हालांकि होली खुशियों एवं हर्षोल्लास का त्यौहार है, लेकिन मेरठ-हापुड़ रोड पर मेरठ से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित लगभग 5,000 निवासियों के गांव बिजौली में, होली को शोकपूर्ण अनुष्ठानों, झंडे और शरीर को चिह्नित करने जैसी कार्यों के साथ मनाया जाता है। इसके पीछे ग्रामीणों का मानना ​​है कि रंगों के त्यौहार के दौरान खुद को पीड़ा पहुंचाकर, वे अपने गांव को परेशान करने वाले 500 साल पुराने अभिशाप से छुटकारा पा सकेंगे। अब प्रश्न उठता है कि यह विश्वास कैसे अस्तित्व में आया? गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि लगभग 500 वर्ष पहले होली के दिन इस गांव में एक फ़क़ीर आए थे। लेकिन होली का त्यौहार होने के कारण गांव वालों ने उन पर अधिक ध्यान नहीं दिया, जिससे वे क्रोधित हो गए और उन्होंने गांव को श्राप दे दिया, कि गांव में होली के बाद तैयार होने वाली फसलें बर्बाद हो जाएंगी। और फसलें वास्तव में बर्बाद हुई भी। जिसके बाद ग्रामीणों ने फ़क़ीर से क्षमा मांगी और तब फ़क़ीर ने स्पष्ट रूप से उनसे कहा कि यदि वे प्रत्येक होली पर दर्द सहन करेंगे, तो फसलें फिर से लहलहाएंगी। और इस प्रकार इस श्राप को दूर रखने के लिए ग्रामवासियों द्वारा प्रतिवर्ष दर्द सहन किया जाता है। होली के दिन यहाँ जुलूस निकाले जाते हैं, जिनमें युवा अपने शरीर पर केवल एक रेशमी धोती लपेटते हैं। इन युवा 'स्वयंसेवकों' के शरीर में 'बलिदान शरीर छेदन' समारोह में सैकड़ों सुइयां चुभाई जाती हैं। प्रत्येक सुई की चुभन के साथ, एकत्रित भीड़ उत्साहपूर्वक जयकार करती है और स्वयंसेवकों को उन्मादी नृत्य करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके दौरान वे खुद को ध्वजांकित करते हैं। क्या आप जानते हैं कि बिजौली गांव के समान ही देश के प्रत्येक हिस्से में होली की प्रत्येक परंपरा के पीछे एक विज्ञान या कोई तथ्य छिपा होता है। रंगों का त्यौहार होली फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन भारत के अधिकांश हिस्सों में मनाई जाती है। 'होली' वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है। वसंत ऋतु सर्दियों की समाप्ति और गर्मियों के आगमन के बीच की अवधि है। पुराने समय में या अब भी, जो लोग सर्दियों के दौरान नियमित रूप से स्नान नहीं करते हैं, उनमें अक्सर त्वचा पर कुछ दाने निकल आते हैं, जिससे गंभीर संक्रमण तक हो जाता है। साथ ही मानव शरीर पर अवांछित कण जमा हो जाते हैं। इसलिए होली पर हल्दी जैसे प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके शरीर को शुद्ध और त्वचा पर अवांछित जमाव को दूर किया जाता है। दूसरी ओर, वसंत में नए जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए सूखी और व्यर्थ वस्तुओं को जलाने के प्रतीक के रूप में होलिका दहन किया जाता है। जब लोग होलिका के चारों ओर परिक्रमा करते हैं, तो अलाव से निकलने वाली गर्मी से शरीर में बैक्टीरिया समाप्त हो जाते हैं। देश के कुछ हिस्सों में, होलिका दहन के बाद लोग अपने माथे पर इसकी राख भी लगाते हैं और इसमें आम के पेड़ की नई पत्तियों और फूलों के साथ चंदन की लकड़ी का बुरादा भी मिलाते हैं और इस विश्वास के साथ सेवन करते हैं कि इससे उनको स्वास्थ्य लाभ होगा। इसके अलावा इन लोगों को इस दौरान वातावरण में ठंड से गर्मी की ओर मौसम में बदलाव के कारण शरीर में आलस्य का अनुभव होना काफी स्वाभाविक है। इस आलस्य को दूर करने के लिए लोग ढोल, मंजीरा और अन्य पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ गीत (फाग, जोगीरा आदि) गाते हैं। यह मानव शरीर को फिर से जीवंत करने में मदद करता है। रंगों से खेलते समय शारीरिक गतिविधि से भी शरीर पुनः स्फूर्ति से भर जाता है। परंपरागत रूप से, होली के रंग प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त होते थे। प्राचीन काल में लोगों द्वारा उपयोग किए जाने वाले रंग नीम, हल्दी, बिल्व, पलाश आदि जैसे पौधों से बनाए जाते थे। इन प्राकृतिक स्रोतों से बने रंगीन पाउडरों को चंचलतापूर्वक डालने और फेंकने से मानव शरीर पर उपचारात्मक प्रभाव पड़ता है। इनमें शरीर में आयनों को मजबूत करने की शक्ति होती है और साथ ही इनसे स्वास्थ्य और सौंदर्य को बढ़ावा मिलता है। हिरण्यकश्यप और प्रहलाद की होली की कहानी के विषय में तो हम सभी जानते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि होली मनाने का दूसरा सबसे लोकप्रिय कारण श्री कृष्ण और राधा की प्रेम कहानी है। चूंकि मूल रूप से कृष्ण नीले रंग के थे और जब राधा बेहद गोरी। अतः जब भी वे राधा के सामने आते थे तो वे उनसे बात नहीं करते थे। क्योंकि कृष्ण को डर था कि दोनों के रंग में अंतर के कारण राधा उनसे बात नहीं करेंगी। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी माता यशोदा के कहने पर राधा पर रंग डाल दिया, जिससे वे उनके ही जैसे रंग की हो गईं। और तब से होली का त्यौहार रंगों के साथ मनाया जाने लगा। मूल रूप से होली गुलाल अर्थात लाल रंग के साथ मनाई जाती थी। बाद में समय के साथ होली के रंगों में अन्य रंगों के साथ पानी का समावेश हुआ। कृष्ण और राधा की प्रेम कहानी के कारण, होली को जोड़ों के लिए रंगीन प्रेम के दिन के रूप में भी मनाया जाता है। होली देश में एक भव्य त्यौहार है और इसे सदैव पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। कश्मीर से केरल तक और गुजरात से असम तक, पूरे देश में होली विविध तरीकों से मनाई जाती है। लाल रंग उर्वरता को दर्शाता है, नीला कृष्ण का रंग है, पीला हल्दी का रंग है, और हरा वसंत की शुरुआत और कुछ नया करने का प्रतीक है। इसके अलावा, होली गुलाब, डेज़ी, सूरजमुखी और यहां तक ​​कि गेंदे जैसे फूलों की पंखुड़ियों से भी खेली जाती है। ब्रज की लट्ठमार होली के विषय में तो आपने सुना ही होगा।
आइए इस होली को एक नए वर्ष की शुरुआत के प्रतीक के रूप में मनाएं।
आप सभी को होली की शुभकामनाएं।


संदर्भ
https://tinyurl.com/bdu9226r
https://tinyurl.com/4h25r79b
https://tinyurl.com/5c3h9zm6

चित्र संदर्भ
1. मेरठ के बिजौली गांव की होली को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
2. मेरठ के बिजौली गांव की होली के प्रतीकों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
3. बिजौली गांव की होली के एक दौरान चल रही तलवारों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
4. होलिका दहन को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. हिरण्यकश्यप और प्रहलाद की कहानी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. होली के रोमांच को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)

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