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एक समय था जब दिव्यांग व्यक्तियों को समाज पर बोझ समझा जाता था। इसलिए उनकी बड़े पैमाने पर उपेक्षा की जाती थी। स्वतंत्रता से पूर्व ऐसे व्यक्तियों को केवल दूसरों पर निर्भर होने के कारण दया के पात्र के रूप में देखा जाता था। इसलिए उनके द्वारा समाज में स्थान बनाने अथवा शिक्षा प्राप्त करने के बजाय केवल घर पर ही उनकी देखभाल की जाती थी। हालांकि स्वतंत्रता के बाद, वैज्ञानिक प्रगति और आधुनिक शिक्षा की शुरुआत के बाद, इस परिदृश्य और सोच में आमूल-चूल परिवर्तन आया। इस बात की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि समाज और परिवार द्वारा उपयुक्त शिक्षा प्रदान करके मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्तियों की सामाजिक और संज्ञानात्मक दक्षता में सुधार किया जा सकता है।
इसलिए मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्तियों के लिए कई कानूनी एवं शैक्षिक प्रावधानों की शुरुआत की गई जिसके तहत इन व्यक्तियों की शिक्षा को घर से बाहर विद्यालयों में प्रबंधित किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 41 और 45 में भी यह प्रावधान शामिल किया गया कि 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को विकलांगों सहित मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। भारत में नीति निर्माण में मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्तियों के प्रति "समावेशी दृष्टिकोण" अपनाया गया है। इन व्यक्तियों को शैक्षिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए 1941 में मुंबई में मानसिक मंदता से पीड़ित एक बच्चे के माता-पिता द्वारा पहला विशेष विद्यालय शुरू किया गया था। 1987 में मानसिक मंदता वाले छात्रों को नियमित विद्यालयों में शिक्षा प्रदान करने के लिए एकीकृत शिक्षा योजना शुरू की गई। 1995 में विकलांग व्यक्ति अधिनियम' (समान अवसर, अधिकारों की सुरक्षा और पूर्ण भागीदारी) की शुरूआत के साथ भारत में उनके अधिकारों की कानूनी रूप से रक्षा के लिए पहली बार अन्य विकलांगताओं के साथ मानसिक मंदता श्रेणी को शामिल किया गया। 2002 में शैक्षिक प्रावधानों के "निर्देशक सिद्धांत" से "मौलिक अधिकार" में उन्नयन और, 2009 में "शिक्षा का अधिकार अधिनियम" की शुरुआत के साथ विकलांगों को समाज में रोजगार देने के लिए आईटीआई (ITI) क्षेत्र में भी रोजगार और प्रशिक्षण सहायता शुरू की गई।
देश की आजादी के बाद से मानसिक मंदता वाले व्यक्तियों के लिए विशेष शिक्षा ने विद्यालयों में प्रवेश से लेकर एकीकृत समावेशी विद्यालयों तक एक लंबा सफर तय किया है। हालांकि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि एकीकृत समावेशी विद्यालयों में इन बच्चों के सामने अन्य बच्चों की तुलना में कम शैक्षणिक चुनौतियां प्रस्तुत की जाती हैं। यहाँ इस तथ्य का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि शिक्षकों को एकीकृत समावेशी वातावरण में सामान्य बच्चों के साथ मानसिक रूप से मंद बच्चों को एक साथ लाने के लिए शिक्षाशास्त्र और रणनीतियों को अनुकूलित करने की आवश्यकता है।
इसके लिए निर्देशात्मक कार्यरचना और मूल्यांकन के लिए विशिष्ट मानदंडों को समावेशी शिक्षण मानदंडों में बदलने की आवश्यकता है। निर्देशन पद्धति को पारस्परिक रूप से सामान्य एवं मंदबुद्धि छात्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालकर वैयक्तिकृत पद्धति पर ज़ोर देने की आवश्यकता है। हालांकि यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बौद्धिक विकलांगता वाले छात्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप चुनी गई रणनीतियों को सामान्य छात्रों के लिए आवश्यक रणनीतियों से अलग नहीं किया जाना चाहिए, न ही विशेष बच्चों के लिए अतिरिक्त रियायती सुविधाएं लागू की जानी चाहिए ताकि विशेष बच्चों को अन्य बच्चों से अलग महसूस न हो। हालांकि समावेशी अनुदेशात्मक शिक्षण पद्धति से शिक्षकों के लिए चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। यह ध्यान में रखते हुए कि बौद्धिक विकलांगता वाले छात्र अनुभवात्मक स्थितियों में सबसे अच्छा सीखते हैं, एक शिक्षक ठोस सामग्रियों का उपयोग करके व्यावहारिक कौशल प्रदर्शन के माध्यम से सीखने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसलिए पाठ्यक्रम को पूरी तरह कार्यात्मक और गतिविधि उन्मुख करने की और शिक्षकों द्वारा अतिरिक्त समय निवेश एवं प्रयास करने की आवश्यकता है।
हालांकि, मानसिक रूप से मंद बच्चों के लिए किस प्रकार की शिक्षण कार्य प्रणाली का चयन किया जाना चाहिए इसका निर्धारण मानसिक मंदता की गंभीरता के आधार पर किया जाना चाहिए। मानसिक मंदता का स्तर कम, मध्यम, गंभीर से लेकर अति गंभीर तक भिन्न- भिन्न हो सकता है। इसलिए प्रशिक्षण कार्य प्रणाली का चयन मानसिक मंदता के स्तर, बच्चे की आयु, अनुकूलनशीलता का स्तर और बच्चे की वर्तमान स्थिति पर निर्भर करता है।
प्रशिक्षण कार्य प्रणाली निर्धारित करते समय एक बच्चे में निम्नलिखित विशिष्ट विशेषताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए:
i. धीमी प्रतिक्रिया
ii. समझने और सीखने की कम गति।
iii. एकाग्रता का अभाव
iv. क्रोध एवं चिड़चिड़ापन।
v. कमजोर स्मृति
vi. समन्वय की कमी
vii. वाणी विकास में धीमापन
हमारे देश भारत में विशेष शिक्षा आवश्यकताओं वाले या दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षण केंद्र के रूप में विशेष विद्यालय होते हैं। हालांकि बच्चों के माता पिता अपने बच्चों की आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुरूप उपयुक्त विद्यालयों का चयन कर सकते हैं, लेकिन मानसिक मंदता के अधिकांश मामलों में हल्के से कभी-कभी मध्यम मंदता वाले बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में ही पढ़ाया जाता है; केवल मध्यम से गंभीर मंदता वाले बच्चे ही विशेष विद्यालयों में भेजे जाते हैं। ज्यादातर मामलों में, विशेष विद्यालय बच्चों के माता पिता की पहली पसंद नहीं होते हैं।
जब मानसिक रूप से मंद बच्चा सामान्य बच्चों के साथ मुख्यधारा के विद्यालय में एक साथ चलने एवं चुनौतियों का सामना करने में सक्षम नहीं होता है या उसे परिणामी चुनौतियों के कारण प्रवेश से वंचित कर दिया जाता है, केवल तभी माता-पिता विशेष विद्यालयों पर विचार करते हैं। विशेष विद्यालयों में शारीरिक एवं मानसिक रूप से मंद बच्चों के अनुरूप पर्यावरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों में परिवर्तन किया जाता है। हालांकि ये परिवर्तन एक विशेष विद्यालय के लिए सामान्य होते हैं, लेकिन मुख्यधारा के विद्यालयों में अतिरिक्त माना जाता है। हालांकि मुख्यधारा के विद्यालयों को अधिक समावेशी बनाने पर ये अतिरिक्त तत्व भी आवश्यक हो जाते हैं। अंततः विद्यालय सीखने के लिए एक स्थान है और बच्चों को उन्हीं विद्यालयों में जाना चाहिए जो सीखने के लिए अधिकतम जुड़ाव प्रदान करते हैं।
भारत में, 2009 के शिक्षा के अधिकार अधिनियम (Right to Education Act (RTE) में कहा गया है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को उनके स्थानीय समुदाय में मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों और दिव्यांग बच्चों के लिए प्रत्येक कक्षा में 25% सीटों का आवंटन और अप्रभावी भाषाओं और धर्मों वाली सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए समान पहुंच शामिल है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि सभी शिक्षा कार्य भेदभाव से मुक्त, प्रासंगिक और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हो और छात्र आवश्यकताओं, सामाजिक परिवर्तनों और सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुरूप लचीले एवं समायोज्य हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार (Rights of Persons with Disabilities (RPwD) अधिनियम, 2016 को अधिनियमित किया गया है। उक्त अधिनियम सरकार और स्थानीय अधिकारियों को दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा प्रदान करने के लिए उपाय करने का आदेश देता है। इसके अलावा, अधिनियम उपयुक्त सरकार और स्थानीय अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का भी आदेश देता है कि 40% या अधिक की विकलांगता वाले प्रत्येक बच्चे को 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक उचित वातावरण में मुफ्त शिक्षा प्राप्त हो। केंद्र प्रायोजित समग्र शिक्षा के तहत, विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा के माध्यम से शैक्षिक आवश्यकताओं के लिए विभिन्न प्रावधान उपलब्ध कराए जाते हैं जैसे, पहचान और मूल्यांकन शिविर, शैक्षिक सहायता, सहायक उपकरणों का प्रावधान , शिक्षण अधिगम सामग्री।
मानसिक रूप से मंद बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास के लिए हमारे शहर मेरठ में भी 1994 में मेरठ बाल कल्याण ट्रस्ट (Meerut Children Welfare Trust) की स्थापना की गई थी। अपनी स्थापना के बाद से ही ट्रस्ट के द्वारा मानसिक रूप से मंद बच्चों के लिए एक विशेष विद्यालय का संचालन किया जा रहा है। ट्रस्ट द्वारा यह भी महसूस किया गया कि देश में ऐसे पेशावरों की कमी है जो इन बच्चों को प्रभावी ढंग से पढ़ा सकें। इसलिए ऐसे शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से, जो मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों को संपूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें, 2008 में ‘मेरठ इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल एजुकेशन’ (Meerut Institute of Special Education) की स्थापना की गई जहाँ 'बौद्धिक विकलांगता में विशेष शिक्षा’ में डिप्लोमा के साथ D.Ed., S.E. और 2016 में शुरू किया गया B.Ed पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं।
संदर्भ
https://shorturl.at/afuEX
https://shorturl.at/EIJP7
https://shorturl.at/kqO39
https://shorturl.at/owAZ1
चित्र संदर्भ
1. मानसिक मंदता से पीड़ित एक बच्ची को उसकी माँ के साथ संदर्भित करता एक चित्रण (Rawpixel)
2. टीका लगवाती बच्ची को संदर्भित करता एक चित्रण (Rawpixel)
3. स्कूल में पढ़ते बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. दो भाई बहनों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. दिव्यांग बच्चों को संदर्भित करता एक चित्रण (
Clipper Round The World Race)
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