मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












ईद उल अज़हा विशेष: पैगंबर इब्राहिम का विभिन्न धर्मों में महत्व
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-06-2025 09:04 AM
Meerut-Hindi

इब्राहिम और ब्रह्मा, भले ही अलग-अलग परंपराओं से आते हों, लेकिन वे कुछ समानताएं साझा करते हैं। दोनों को धार्मिक प्रणेताओं के रूप में देखा जाता हैं। इब्राहिम को तीन प्रमुख धर्म – यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रणेता के रूप में एवं ब्रह्मा को हिंदू धर्म में सृष्टिकर्ता के रूप में जाना जाता है। दोनों को दिव्य ग्रंथों, सृजनात्मक कहानियों और वंशावली से संबंधित माना जाता हैं। इसके अलावा, दोनों के नामों में समान ध्वनियां – “ब्राह” और “हम” हैं, जो एक ध्वनिप्रधान समानता का सुझाव देती है।आज ईद उल अज़हा के अवसर पर, सभी मुसलमान, पैगंबर इब्राहिम में अटूट विश्वास और उनकी भक्ति का सम्मान करते हैं।चलिए, आज यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में पैगंबर इब्राहिम के बारे में मौजूद,मतों के बारे में विस्तार से बात करते हैं। उसके बाद, हम इब्राहिम एवं ब्रह्मा के बीच मौजूद समानताओं का पता लगाएंगे।
पैगंबर इब्राहिम के बारे में यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में व्याप्त अंतर:
मुसलमानों के लिए, इब्राहिम, इस्लाम धर्म के संस्थापक नहीं हैं। मुस्लिम लोग,एडम(Adam) को पहले मुस्लिम व्यक्ति मानते हैं। इस प्रकार, जिस पहले आदमी को परमेश्वर ने बनाया था,वह मुस्लिम था; और उन्होंने इस्लाम का प्रचार किया। उनके पास इसका प्रचार करने के लिए, अधिक जनता नहीं थी, लेकिन वे इस्लाम का प्रचार करते रहे। बाद में उनके पश्चात, नूह और इब्राहिम ने इस धर्म का प्रचार किया।
यहूदी धर्म में भी, इब्राहिम की निश्चित रूप से एक प्रमुख भूमिका है। लेकिन, यह ज़रूरी नहीं है कि,वे यहूदी धर्म के संस्थापक के रूप में, या फिर एकेश्वरवाद के संस्थापक हो। यहूदी लोग, दरअसल, इब्राहिम को नहीं, बल्कि उनके पोते – जैकब(Jacob) को पूज्य मानते हैं। उनके अनुसार, जैकब, इज़राइल(Israel) के लोगों के संस्थापक है।
एक तरफ़, रोमन लोग(Romans), इब्राहिम को एक ईसाई धार्मिक तरीके से एवं “विश्वास” के मिसाल के रूप में देखते हैं। इब्राहिम को, विश्वास की नीति से उचित माना गया था, क्योंकि भगवान ने उन्हें एक वादा दिया था, जो अविश्वसनीय था। इब्राहिम उस वादे पर विश्वास करते थे, और अतः उनके विश्वास को सच्चाई के रूप में गिना गया था।
इब्राहिम एवं भगवान ब्रह्म के बीच कुछ समानताएं:
इब्राहिम और ब्रह्मा के नामों के बीच मौजूद समानताएं, कई लोगों का ध्यान खींचती हैं। हम अब जानते ही हैं कि, इब्राहिम को ‘यहूदियों के प्रणेता’ कहा जाता है, और ब्रह्मा को अक्सर ही सभी हिन्दुओं द्वारा ‘मानव जाति के प्रणेता’ के रूप में देखा जाता है।
इब्राहिम का नाम दो सेमिटिक शब्दों(Semitic words) से लिया गया है। इब्राहिम नाम में मौजूद ‘अब(ab)’शब्द का अर्थ – ‘पिता’ है,जबकि,‘राम/रहम(Raam/Raham)’ शब्द का अर्थ – ‘महान’ है।हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि, भगवान ब्रह्म की बेटी –देवी सरस्वती का नाम, इब्राहिम की पत्नी –‘सारा(Sarah)’ के साथ प्रतिध्वनित होता है।
इसके अलावा, हमारे देश भारत में सरस्वती नदी की एक सहायक नदी, घग्गर है। यहूदी परंपरा के अनुसार, ‘हगर’ सारा की नौकरानी थी। साथ ही, ब्राह्मण और यहूदी लोग, खुद को ‘भगवान के लोगों’ के रूप में देखते हैं।
इब्राहिम और भगवान ब्रह्मा के बीच, अन्य समानताएं क्या हैं?
1.)ब्रह्मा और इब्राहिम का दिव्य शाश्वत वंश:
•ब्रह्मा सभी के पिता है, जबकि, इब्राहिम कई देशों के प्रणेता है।
•ब्रह्मा, ब्रह्मांड के निर्माता हैं, जबकि इब्राहिम के वंशजों को आकाश के सितारों के रूप में जाना जाता हैं।
•ब्राह्मण आकाशगंगा, गाय या डॉल्फिन जैसी है। इसके दाईं ओर 14 नक्षत्र और बाईं ओर 14 नक्षत्र हैं। जबकि, इब्राहिम के सितारे जैसे वंशज, इब्राहिम से लेकर राजा डेविड(King David) तक 14 पीढ़ी की संख्या दर्शाते हैं। राजा डेविड से बेबीलोन के निर्वासन(Babylonian exile) तक 14 सितारे, एवं बेबीलोन से यीशु तक, 14 सितारे इन्हें दर्शाते हैं।
2.)ब्रह्मा और इब्राहिम के पुत्रों का बलिदान:
•ब्रह्मा के पोते – दक्ष का, सभी देवताओं के समक्ष बलिदान दिया जाता है। जबकि, इब्राहिम, अपने बेटे – इस्माइल को अर्पित करते है।
•अपने पिता बृहस्पति की अपील के कारण, दक्ष को एक भेड़ के सिर के साथ पुनर्जीवित किया जाता है। जबकि, इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल के स्थान पर, झाड़ी में पकड़े गए भेड़ का बलिदान करते है।
3.)प्रकाश के भगवान के रूप में ब्रह्मा और प्रकाश के शहर – उर(Ur) से इब्राहिम:
•ब्रह्मदेव, ब्राह्मण की चमक को बढ़ाते है। समान रूप से, अपने स्वयं के प्रिय बेटे –आइज़ेक(Issac)को अर्पित करके, इब्राहिम ने भी, प्रकाश हासिल किया था।
4.)न्याय के संग्राहक के रूप में, ब्रह्म और इब्राहिम:
ब्रह्मा युद्ध के वरदान के स्वामी है, और वरदान का प्रसाद ब्रह्मा की दुनिया में भेजा जाता है।एक तरफ़, इब्राहिम ने चार राजाओं को हराया था, और युद्ध के वरदान को पुनर्प्राप्त किया। लेकिन, फिर वे इसे मना कर देते है, और उन पांच राजाओं को वापस लौटाते है, जिनसे वह संबंधित था। तब वे,केवल भगवान में ही विश्वास रखते है।
5.)पाताल लोक के नेता के रूप में, ब्रह्म और इब्राहिम:
ब्रह्मा पवित्र गायों को पुनः प्राप्त करने एवं राक्षसों को मारने के लिए, पाताल लोक में जाते है। तब वे, फिर से प्रकाश को पाते है, एवं स्वर्ग और पृथ्वी के बीच शांति लाते है। जबकि इब्राहिम ने एक कुआं खोदकर, देशों के बीच शांति लाने के लिए, उसमें भेड़ और बैलों की पेशकश की थी।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
आनुवंशिकी: मानव जीवन की बनावट और चिकित्सा विज्ञान की वैज्ञानिक कुंजी
डीएनए
By DNA
06-06-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

आनुवंशिकी एक ऐसा विज्ञान है जो यह स्पष्ट करता है कि हमारे शरीर के लक्षण, व्यवहार और बीमारियाँ किस प्रकार हमारे माता-पिता से हमें प्राप्त होती हैं। यह विज्ञान यह जानने में मदद करता है कि क्यों कुछ विशेषताएँ – जैसे आँखों का रंग, बालों की बनावट या किसी रोग की प्रवृत्ति – पीढ़ी दर पीढ़ी एक जैसी बनी रहती हैं। आज के समय में आनुवंशिकी केवल जैविक जानकारी तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि इसका उपयोग रोग पहचान, चिकित्सा अनुसंधान और व्यक्तिगत स्वास्थ्य योजनाओं में भी किया जाने लगा है।इस लेख में हम आनुवंशिकता की परिभाषा, जीन और उनकी क्रिया, डीएनए की संरचना, आनुवंशिक बीमारियों के उदाहरण, पर्यावरणीय प्रभाव, परीक्षण की प्रक्रिया और रोगों की रोकथाम जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को सरल भाषा में विस्तार से समझेंगे।

आनुवंशिकता की परिभाषा और इसके सिद्धांत
आनुवंशिकता उस जैविक प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसके माध्यम से माता-पिता के लक्षण और गुण अगली पीढ़ियों को स्थानांतरित होते हैं। यह स्थानांतरण एक सुव्यवस्थित ढंग से होता है, जिसमें प्रमुख भूमिका जीन की होती है, जो कोशिकाओं में मौजूद गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं। ग्रेगर मेंडेल ने 19वीं सदी में मटर के पौधों पर प्रयोग कर आनुवंशिकता के नियमों की नींव रखी, जिनमें प्रमुख हैं प्रभुत्व का सिद्धांत (Law of Dominance), पृथक्करण का सिद्धांत (Law of Segregation), और स्वतंत्र संयोजन का सिद्धांत (Law of Independent Assortment)। इन नियमों ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक व्यक्ति को दो जीन मिलते हैं – एक माता से और एक पिता से – और ये जीन मिलकर किसी लक्षण की अभिव्यक्ति निर्धारित करते हैं। ये सिद्धांत आज के आधुनिक जेनेटिक रिसर्च, जैसे कि मोलिक्यूलर जेनेटिक्स और पर्सनलाइज्ड मेडिसिन, की नींव बन चुके हैं।

जीन, जीनोटाइप और फेनोटाइप
जीन वह बायोलॉजिकल इकाई है जिसमें किसी विशेष लक्षण के निर्माण की पूरी जानकारी होती है। ये जीन डीएनए की संरचना में विशिष्ट स्थानों पर होते हैं और आवश्यक प्रोटीन बनाने के लिए कोशिकाओं को निर्देश देते हैं। किसी जीव का जीनोटाइप वह विशिष्ट जीन संयोजन होता है जो उसके अंदर छिपे गुणों को दर्शाता है, जबकि उसका फेनोटाइप वे बाहरी लक्षण होते हैं जो दिखाई देते हैं – जैसे त्वचा का रंग, आँखों की बनावट, या व्यवहारिक प्रवृत्तियाँ। एक ही जीनोटाइप के व्यक्ति, यदि अलग-अलग पर्यावरण में पले-बढ़ें, तो उनके फेनोटाइप में भिन्नता आ सकती है। इसीलिए जुड़वा बच्चों के अध्ययन आनुवंशिक और पर्यावरणीय प्रभावों को समझने में उपयोगी माने जाते हैं। जीनोटाइप और फेनोटाइप के बीच यह अंतर हमें यह समझने में मदद करता है कि जीन किस प्रकार व्यवहार और रोग संभावनाओं को प्रभावित करते हैं।

जीनोम और डीएनए की संरचना
जीनोम एक जीव के पूरे आनुवंशिक कोड का संपूर्ण मानचित्र होता है, जिसमें सभी जीन, गैर-कोडिंग अनुक्रम और विनियामक क्षेत्र सम्मिलित होते हैं। यह कोड डीएनए नामक रसायन से बना होता है जिसकी डबल हेलिक्स संरचना को वॉटसन और क्रिक ने 1953 में प्रतिपादित किया था। डीएनए में चार मुख्य न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं – एडेनिन (A), थायमिन (T), साइटोसिन (C), और गुआनिन (G) – जो विशिष्ट जोड़ों में जुड़ते हैं और एक अद्भुत जटिल संरचना बनाते हैं। मानव जीनोम में लगभग 3 अरब न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं और 20,000 से अधिक कार्यात्मक जीन होते हैं। ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट जैसे विशाल वैश्विक प्रयासों ने डीएनए को पढ़ने, समझने और उस पर कार्य करने के रास्ते खोले हैं, जिससे आज आनुवंशिक चिकित्सा, रोग पूर्वानुमान और बायोटेक्नोलॉजी में क्रांति आ चुकी है।
आनुवंशिक रोगों के प्रकार और उदाहरण
आनुवंशिक रोग तब उत्पन्न होते हैं जब किसी व्यक्ति के जीन में परिवर्तन या उत्परिवर्तन (mutation) हो जाता है। ये रोग मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं – एकल जीन विकार, जैसे थैलेसीमिया या हंटिंगटन रोग; गुणसूत्रीय विकार, जैसे टर्नर सिंड्रोम या क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम; और बहु-कारक रोग, जैसे हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर, जो कई जीनों और पर्यावरणीय प्रभावों के कारण होते हैं। एकल जीन विकार अधिकतर वंशानुगत होते हैं और उनमें रोग का पूर्वानुमान सटीक रूप से लगाया जा सकता है। इन रोगों के अध्ययन से वैज्ञानिकों को यह भी ज्ञात हुआ है कि कौन से जीन किस रोग से संबंधित होते हैं, जिससे जीन थैरेपी और स्टेम सेल अनुसंधान की दिशा में नई संभावनाएँ खुल रही हैं।
पर्यावरणीय कारकों की भूमिका
आनुवंशिकी केवल जीन के आधार पर ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के प्रभाव से भी संचालित होती है। यह सिद्धांत एपिजेनेटिक्स के अंतर्गत आता है, जिसमें जीन की अभिव्यक्ति (gene expression) बाहरी कारकों जैसे आहार, तनाव, प्रदूषण, नींद की गुणवत्ता और व्यायाम से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति में मोटापे के लिए जिम्मेदार जीन मौजूद हैं, तो वह व्यक्ति स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर मोटापे से बच सकता है। इसके विपरीत, अस्वस्थ जीवनशैली इस जीन को सक्रिय कर सकती है। गर्भावस्था के दौरान माताओं की जीवनशैली भी शिशु के जीन की अभिव्यक्ति को दीर्घकालिक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार, पर्यावरणीय कारकों को नजरअंदाज करना किसी भी आनुवंशिक विश्लेषण को अधूरा बना देता है।
आनुवंशिक रोगों की पहचान और परीक्षण
वर्तमान समय में चिकित्सा विज्ञान ने आनुवंशिक परीक्षण के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। अब जन्मपूर्व (prenatal), नवजात (newborn), और वयस्क स्तर पर भी डीएनए परीक्षण किए जा सकते हैं। संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण (Whole Genome Sequencing), नेक्स्ट-जेनेरेशन सीक्वेंसिंग (Next-Generation Sequencing (NGS)), और कैरियर स्क्रीनिंग (Carrier Screening) जैसी तकनीकों ने न केवल दुर्लभ रोगों की पहचान को संभव बनाया है, बल्कि व्यक्ति के जीन प्रोफाइल के आधार पर व्यक्तिगत उपचार योजना (personalized medicine) तैयार करना भी आसान हो गया है। इससे डॉक्टर यह जान सकते हैं कि कौन-सी दवा किस व्यक्ति के लिए उपयुक्त है और किसके लिए नहीं। भविष्य में इन परीक्षणों का उपयोग कैंसर, अल्जाइमर और ऑटोइम्यून रोगों की भविष्यवाणी में भी व्यापक रूप से किया जाएगा।
आनुवंशिक रोगों की रोकथाम
भविष्य में आनुवंशिक रोगों की रोकथाम मुख्यतः समयपूर्व पहचान, जीवनशैली सुधार और जीन-संपादन तकनीकों पर निर्भर करेगी। जीन काउंसलिंग एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें संभावित माता-पिता को उनके आनुवंशिक जोखिमों की जानकारी दी जाती है, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसके अलावा, प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस (Preimplantation Genetic Diagnosis (PGD)) जैसे उपायों से भ्रूण स्तर पर ही रोगग्रस्त जीन की पहचान कर स्वस्थ भ्रूण का चयन किया जा सकता है। साथ ही, CRISPR-Cas9 तकनीक अब प्रयोगशाला से निकलकर वास्तविक चिकित्सा उपचारों में प्रयुक्त होने लगी है, जिससे आनुवंशिक रोगों को जड़ से समाप्त करने की संभावना बन रही है। यदि वैज्ञानिक, चिकित्सक और समाज मिलकर इन तकनीकों का उचित उपयोग करें, तो आनुवंशिक रोगों का बोझ भविष्य में काफी हद तक कम किया जा सकता है।
हज़ारों करोड़ रुपए खर्च करके, मेरठ जैसे शहरों के लोगों को आकर्षित कर रही हैं, बड़ी कंपनियां
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
05-06-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठ में अब विज्ञापन केवल होर्डिंग या बैनर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वॉट्सऐप स्टेटस, इंस्टाग्राम रील (Instagram Reel) और यूट्यूब शॉर्ट्स के माध्यम से भी पहुँच बना रहे हैं—जहाँ आम लोग और स्थानीय प्रवृत्तियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। 2024 में, भारत का विज्ञापन बाज़ार ₹908.6 अरब तक पहुँच गया था। आई एम ए आर सी समूह (IMARC Group) के अनुसार, इस बाज़ार की 2033 तक ₹2,118.8 अरब तक पहुँचने की संभावना है, जिसकी वार्षिक संयुक्त वृद्धि दर (Compound Annual Growth Rate - CAGR) 9.37% है। इस समय, विज्ञापन क्षेत्र में डिजिटल मीडिया (Digital Media) की हिस्सेदारी 49%, टेलीविज़न की 28% और मुद्रित मीडिया (Print Media) की 17% है। प्रमुख विज्ञापन खर्च करने वाले क्षेत्र हैं: तेज़ी से उपभोग होने वाले उत्पाद (Fast Moving Consumer Goods - FMCG), ई-वाणिज्य (E-Commerce), टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएँ (Consumer Durables), स्वचालित वाहन (Automobile) और सरकारी क्षेत्र (Government Sector)।
डेंटसु इंडिया द्वारा प्रकाशित एक विज्ञापन रिपोर्ट (Dentsu e4m Digital Report 2025 ) के अनुसार, 2025 के अंत तक इसका आकार ₹1.1 खरब तक पहुँचने का अनुमान है! इसमें डिजिटल विज्ञापनों की भूमिका सबसे अहम होगी।
मौजूदा समय में, डिजिटल मीडिया विज्ञापन खर्च के मामले में सबसे आगे निकल चुका है। भारतीय विज्ञापन बाज़ार का लगभग आधा हिस्सा (करीब ₹49,251 करोड़) डिजिटल विज्ञापनों पर खर्च होता है। इसके बाद टीवी का स्थान है, जिसकी हिस्सेदारी 28% (₹28,062 करोड़) है, और फिर 17% (₹17,529 करोड़) हिस्सेदारी के साथ प्रिंट मीडिया (अखबार और पत्रिकाएँ) आता है।
इस वृद्धि को गति प्रदान करने में कई मुख्य कारकों ने अपना योगदान दिया है! इन कारकों में रियलिटी शोज़ की लोकप्रियता, टीवी और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर खेल प्रसारण, और प्रभावशाली बड़े प्रिंट विज्ञापन शामिल हैं। ई-कॉमर्स, ऑटोमोबाइल और खुदरा जैसे प्रमुख सेक्टर डिजिटल और पारंपरिक, दोनों माध्यमों पर सक्रिय रूप से विज्ञापन कर रहे हैं।
आउट-ऑफ़-होम (OOH) विज्ञापन के क्षेत्र में भी नवाचार देखने को मिल रहा है, जिसमें डिजिटल स्क्रीन, एयरपोर्ट मीडिया और डिजिटल ओओएच OOH (DOOH) का बढ़ता उपयोग शामिल है। 2023 में ओ.ओ.एच पर लगभग ₹3,800 करोड़ का खर्च यह दर्शाता है कि विज्ञापनदाता इसे कितना प्रभावी मान रहे हैं।
हालाँकि, पारंपरिक मीडिया की हिस्सेदारी घट रही है। 2025 में टीवी का शेयर 2024 के 28% से कम होकर 24% होने की संभावना है। इसी तरह, प्रिंट मीडिया का शेयर भी 17% से घटकर 15% तक जा सकता है। रेडियो की हिस्सेदारी भी 2% से 1% तक कम होने का अनुमान है। ये रुझान विज्ञापन परिदृश्य में हो रहे महत्वपूर्ण बदलावों को स्पष्ट रूप से हमारे सामने रख रहे हैं।
आज के दौर में हर बिज़नेस, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने ग्राहकों तक अपनी आवाज़ और अपने उत्पादों को पहुँचाना चाहता है। इसके लिए वे कई अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं, जिन्हें हम आम भाषा में 'विज्ञापन' कहते हैं। भारत में विज्ञापन के कई तरीके लोकप्रिय हैं।
आइए, इन पर एक नज़र डालते हैं।
- टेलीविज़न : टेलीविज़न विज्ञापन, प्रचार प्रसार के सबसे जाने-पहचाने तरीकों में से एक है। टी वी पर दिखाई और सुनाई देने वाले ये विज्ञापन, खासकर जब कहानियों या दिलचस्प नज़ारों के साथ पेश किए जाते हैं, तो लोगों के दिमाग में आसानी से बस जाते हैं और ब्रांड को एक नई पहचान देते हैं।
- रेडियो : रेडियो विज्ञापन, उन लोगों तक पहुँचने का बेहतरीन ज़रिया है जो गाड़ी चलाते या काम करते हुए रेडियो सुनते हैं। आवाज़ के ज़रिए जानकारी आसानी से मिल जाती है, और यह ख़ास इलाकों या पसंद वाले लोगों तक पहुँचने का एक किफ़ायती तरीका भी है।
- प्रिंट विज्ञापन: अखबारों, मैगज़ीन और पर्चों में छपे विज्ञापन, जाने पहचाने और भरोसेमंद माध्यम होते हैं। ये विज्ञापन पढ़ने के शौकीन लोगों के बिलकुल आदर्श होते हैं।
- बाह्य विज्ञापन: आउटडोर विज्ञापन आज की दुनिया में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं। सड़कों पर लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स या बसों-ट्रेनों पर चिपके विज्ञापन भी इसी श्रेणी में आते हैं। जब लोग घर से बाहर निकलते हैं, तो इनकी नज़र इन पर पड़ती है, जिससे ये बड़ी संख्या में अलग-अलग तरह के लोगों तक पहुँच पाते हैं।
- डायरेक्ट मेल: डायरेक्ट मेल में पोस्टकार्ड, कैटलॉग या चिट्ठियाँ ,सीधे लोगों के पते पर भेजी जाती हैं। यह उन संभावित ग्राहकों से सीधे और व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का एक माध्यम है, जिनकी किसी ख़ास उत्पाद या सेवा में रुचि हो सकती है। इस तरह, भारत में विज्ञापन के ये विविध तरीके कंपनियों को अपने ग्राहकों से जुड़ने में मदद करते हैं। हर माध्यम की अपनी खूबी है, और कंपनियां अपनी ज़रूरत और बजट को ध्यान में रखकर इनका चुनाव करती हैं।
- डिजिटल विज्ञापन: आज के डिजिटल युग में डिजिटल विज्ञापन का ही बोलबाला है। इंटरनेट के ज़रिए, सोशल मीडिया (जैसे फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम), गूगल सर्च, वेबसाइट, ईमेल और मोबाइल ऐप्स पर दिखने वाले ये विज्ञापन बेहद ख़ास होते हैं। आम लोगों तक सीधे पहुच, इनकी सबसे बड़ी ताकत है! यानी आप उन्हीं को विज्ञापन दिखा सकते हैं जो शायद आपकी चीज़ों में दिलचस्पी रखते हों। ये दुनिया भर में लोगों से जुड़ने का एक शक्तिशाली ज़रिया है।
भारत में डिजिटल विज्ञापन की दुनिया ने बड़ी ही तेज़ी के साथ करवट बदली है। आज के समय में लगभग हर किसी के हाथ में मोबाइल है, इसलिए मोबाइल पर दिखने वाले विज्ञापनों की बाढ़ सी आ गई है। कंपनियाँ भी अब खास तौर पर ऐसे विज्ञापन तैयार कर रही हैं जो मोबाइल स्क्रीन पर न सिर्फ़ अच्छे लगें, बल्कि तुरंत लोड हों और लोगों का ध्यान खींचें।
फ़ेसबुक , इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म आज लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुके हैं। यही वजह है कि कंपनियाँ इन मंचों का भरपूर इस्तेमाल करके सीधे ग्राहकों तक अपनी बात पहुँचा रही हैं। 'इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग'', इसी कड़ी में एक नया तरीका है। इसमें, सोशल मीडिया पर लोकप्रिय चेहरे अपने फॉलोअर्स को कंपनियों के उत्पादों या सेवाओं से रूबरू कराते हैं। यह तरीका इसलिए सफल है क्योंकि लोग इन जाने-पहचाने चेहरों की बातों पर अक्सर भरोसा करते हैं।
साथ ही, अब लोग पारंपरिक टी वी के बजाय इंटरनेट पर फिल्में और शो देखना ज़्यादा पसंद कर रहे हैं। नेटफ़्लिक्स, अमेज़न प्राइम वीडियो और हॉटस्टार जैसे प्लेटफ़ॉर्म घर-घर में लोकप्रिय हो चुके हैं। इसलिए, यह स्वाभाविक ही है कि विज्ञापन भी अब इन 'ओवर-द-टॉप' (ओ टी टी) और 'कनेक्टेड टी वी' (सी टी वी) पर नज़र आने लगे हैं।
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (ए आई), यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता भी डिजिटल विज्ञापन के क्षेत्र में एक और बड़ा बदलाव ला रही है। एआई की मदद से कंपनियाँ न केवल अपने विज्ञापन खरीदने की प्रक्रिया को स्वचालित कर सकती हैं, बल्कि यह भी बेहतर ढंग से समझ सकती हैं कि कौन सा विज्ञापन सबसे ज़्यादा असरदार साबित होगा। मशीन लर्निंग जैसी तकनीकें भारी मात्रा में डेटा का विश्लेषण करके यह पता लगा लेती हैं कि लोगों को किस तरह के विज्ञापन पसंद आते हैं। इससे कंपनियों को पहले से कहीं ज़्यादा समझदारी और सटीकता के साथ विज्ञापन करने में मदद मिल रही है।
क्या आप जानना चाहते हैं कि भारत में कौन सी कंपनियाँ विज्ञापनों पर सबसे ज़्यादा खर्च करती हैं?
आइए, मिलते हैं इन टॉप 5 खिलाड़ियों से:
- हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ( Hindustan Unilever Limited): रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें बनाने वाली ये दिग्गज कंपनी, विज्ञापनों पर खर्च करने में सबसे आगे है। साल 2019 के आँकड़ों के अनुसार, एच यू एल ने विज्ञापनों पर करीब 3200 से 3500 करोड़ रुपये लगाए! आप इनके विज्ञापन पॉन्ड्स, लैक्मे, क्लिनिक प्लस, क्लोज़अप , ताज महल चाय, 3 रोजेज चाय, किसान, डव, लक्स, रिन, सर्फ़ एक्सेल और सनसिल्क जैसे अनगिनत जाने-माने ब्रांड्स के लिए देखते हैं।
- अमेज़न ऑनलाइन इंडिया (Amazon Online India): इस लिस्ट में दूसरे नंबर पर है अमेज़न, जिसने 2019 में विज्ञापनों पर लगभग 900 से 1000 करोड़ रुपये खर्च किए। अमेज़न केवल अखबार या टी वी ही नहीं, बल्कि तमाम वेबसाइटों पर भी अपने विज्ञापन दिखाता है। माना जाता है कि इन्हीं विज्ञापनों को देखकर बड़ी संख्या में ग्राहक उनकी वेबसाइट तक पहुँचते हैं, जिससे उनकी बिक्री और ग्राहकों की संख्या में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है।
- ड्रीम 11 फ़ैंटसी: लिस्ट में यह एक नया नाम है, जिसने कई पुरानी कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है। ड्रीम 11 एक ऑनलाइन फ़ैंटसी स्पोर्ट्स प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ आप अपनी टीम बनाकर पैसे जीत सकते हैं। इन्होंने अपने विज्ञापनों के लिए मशहूर क्रिकेटर एम.एस. धोनी को चेहरा बनाया और ऐसा करके 2019 में करीब 700 से 800 करोड़ रुपये खर्च किए।
- रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (Reliance Industries LImited) : चौथे स्थान पर रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टॉप 5 में अपनी जगह पक्की की है। रिलायंस अपने कई अलग-अलग ब्रांड्स और बिज़नेस, जैसे रिलायंस स्मार्ट, रिलायंस फ़्रेश, रिलायंस डिजिटल, जियो, अजियो ( फ़ैशन), टीमस्पिरिट (स्पोर्ट्सवियर), ट्रेंड्स फ़ुटवेयर, डी एन एम एक्स, परफॉर्मैक्स और एल वाई मोबाइल्स के विज्ञापनों पर सालाना 700 से 800 करोड़ रुपये करता है
- मारुति सुजुकी इंडिया (Maruti Suzuki India) : भारत की यह सबसे बड़ी कार कंपनी लगभग हर साल बाज़ार में नई गाड़ियाँ उतारती है, और उनके विज्ञापन लोगों को कार खरीदने के लिए आकर्षित करते हैं। मारुति सुजुकी ने भी विज्ञापनों पर करीब 700 से 800 करोड़ रुपये खर्च किए, जिनमें विटारा ब्रेज़ा और अर्टिगा जैसी गाड़ियों के विज्ञापनों पर खासा ज़ोर रहा।
संदर्भ
मुख्य चित्र में कोका कोला के विज्ञापन का स्रोत : Wikimedia ; Attribution: cnnri
मेरठ एवं आसपास के क्षेत्रों में हो रही वर्तमान पशुधन गणना, पहले से किस प्रकार बेहतर है ?
स्तनधारी
Mammals
04-06-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

जबकि वर्तमान समय में इक्कीसवीं पशुधन गणना (21st Livestock Census) जारी है, 2019 में आयोजित बीसवीं पशुधन गणना (20th Livestock Census) के अनुसार, हमारे राज्य उत्तर प्रदेश में कुल 18.8 मिलियन मवेशी (cattle) आबादी थी। इसी गणना के अनुसार, हमारे मेरठ ज़िले में बकरियों की कुल संख्या 43470 थी, तथा कुल मवेशी आबादी 244585 पाई गई थी। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश राज्य की उन्नीसवीं पशुधन गणना (19th Livestock Census) से पता चला है कि, मेरठ ज़िले में भैंसों, बकरियों और भेड़ों की संयुक्त आबादी, 894070 थी। इसलिए, आज आइए देखें कि, पशुधन गणना क्या होती है, और यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए क्यों महत्वपूर्ण है। फिर, हम भारत में इस तरह की गणना को आयोजित करने के पीछे मौजूद, मुख्य उद्देश्यों पर कुछ प्रकाश डालेंगे। उसके बाद, हम मेरठ ज़िले में, बीसवीं पशुधन गणना में पशुधन और मवेशियों से संबंधित दर्ज किए गए, कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों का पता लगाएंगे। इसके बाद, हम इस गणना से कुछ प्रमुख विवरणों का विश्लेषण करेंगे, ताकि इस क्षेत्र में व्यापक रुझानों को समझा जा सके। इसके अलावा, हम आगामी इक्कीसवीं पशुधन गणना के दायरे का पता लगाएंगे, और जांच करेंगे कि डेटा संग्रह, प्रौद्योगिकी और नीतिगत ध्यान के संदर्भ में, यह पिछली गणनाओं से कैसे अलग होगी।
पशुधन गणना क्या होती है?
कोई ‘पशुधन गणना’, किसी देश या क्षेत्र में पशुधन और पोल्ट्री की पूरी गिनती होती है। आमतौर पर हर पांच वर्षों में, इसे नियमित अंतराल पर आयोजित किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य, पशुधन की संख्या, प्रकार और स्थान पर डेटा एकत्र करना होता है। इस डेटा का उपयोग, पशुधन क्षेत्र हो रहे विकास पर नज़र रखने और नीतिगत निर्णयों को सूचित करने के लिए किया जाता है।
पशुधन गणना के मुख्य उद्देश्य:
1.देश में पशुधन आबादी के बारे में सटीक जानकारी एकत्र करना।
2.समय के साथ पशुधन की आबादी में हो रहे बदलाव को ट्रैक करना एवं पशुधन विकास से संबंधित नीतियों और योजनाओं की योजना तथा कार्यान्वयन में मदद करना।
3.पशुधन जनसंख्या डेटा का ज़िला-वार और ग्रामीण-शहरी विश्लेषण प्राप्त करना तथा पशुधन विकास के लिए धन और संसाधनों के उचित आवंटन हेतु मदद प्राप्त करना।
4.पशुधन की विभिन्न नस्लों के बारे में जानकारी एकत्र करके, उनके संरक्षण और सुधार को बढ़ोतरी देने में मदद करना।
5.पोल्ट्री आबादी और कृषि मशीनरी के बारे में डेटा प्राप्त करना, जिससे कृषि प्रभावित होती है।
बीसवीं पशुधन गणना के अनुसार, मेरठ ज़िले में पशुधन और मवेशियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े:
1.विदेशी मवेशी संख्या: 198215
2.स्वदेशी मवेशी संख्या: 46370
3.भैंसों की संख्या: 515704
4.बकरियों की संख्या: 43470
बीसवीं पशुधन गणना से प्रमुख विवरणों का विश्लेषण:
1.देश में कुल पशुधन आबादी 535.78 मिलियन थी, जो पशुधन गणना, 2012 की तुलना में 4.6% वृद्धि दर्शाती है।
2.पश्चिम बंगाल में 23% की उच्चतम वृद्धि दर्ज की गई , जिसके बाद तेलंगाना(22%) का स्थान आता है।
3.देश में मवेशियों की कुल संख्या ने, 0.8% की वृद्धि देखी ।
4.कुल विदेशी या संकर मवेशियों की संख्या में, 27% की वृद्धि हुई ।
5.हालांकि, कुल स्वदेशी मवेशी आबादी में 6% की गिरावट देखी गई ।
6. देश में कुल मवेशियों की जनसंख्या में लगभग 75% मादाएं थीं। दूध उत्पादक मवेशियों के लिए डेयरी किसानों की पसंद का, यह एक स्पष्ट संकेत है।
इक्कीसवीं पशुधन गणना के दायरे की खोज:
1.एन्यूमरेटर टास्क फ़ोर्स (Enumerator Task Force):
लगभग 87,000 एन्यूमरेटर या गणनाकार, आवासीय क्षेत्रों, गौशालाओं (मवेशी आश्रय), डेयरी फ़ार्म, पोल्ट्री फ़ार्म, पशु चिकित्सा संस्थानों और रक्षा प्रतिष्ठानों सहित, लगभग 30 करोड़ घरों और प्रतिष्ठानों को कवर करेंगे।
2.पशु श्रेणियां:
यह जनगणना, 16 पशु प्रजातियों की गणना के लिए ज़िम्मेदार होगी, जिसमें मवेशी, भैंस, मिथुन, याक, भेड़, बकरियां, सूअर, ऊंट, घोड़े, टट्टू, खच्चर, गधे, कुत्ते, खरगोश और हाथी शामिल हैं। जबकि, पोल्ट्री प्रकार में फ़ाउल, चिकन, बत्तख, टर्की, गीज़, बटेर, शुतुरमुर्ग, और ईमू आदि शामिल हैं।
3.नस्लों की जानकारी:
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (National Bureau of Animal Genetic Resources (ICAR-NBAGR)) द्वारा मान्यता प्राप्त, 219 स्वदेशी पशु नस्लों की जानकारी इसमें एकत्रित की जाएगी।
इक्कीसवीं पशुधन गणना, पिछली समान गणनाओं से कैसे अलग है?
1.2019 की तुलना में, यह गणना पूरी तरह से डिजिटल है । इसमें ऑनलाइन डेटा संग्रह के लिए, एक मोबाइल एप्लिकेशन (Mobile application) का उपयोग करना, और डिजिटल डैशबोर्ड (Digital dashboard) के माध्यम से निगरानी करना शामिल है।
2.यह गणना, पहली बार देहाती लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ पशुधन क्षेत्र में उनके योगदान पर डेटा एकत्र कर रही है।
3.यह गणना उन घरों (लोगों) के अनुपात का पता लगा रही है, जिनकी प्रमुख आय, पशुधन क्षेत्र से आती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
मेरठ में एक सेहतमंद जीवन के लिए, खानपान और न्यूट्रास्युटिकल्स बन गए हैं काफ़ी महत्वपूर्ण
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
03-06-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठ में अब जब लोग जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों के बारे में ज़्यादा जानने लगे हैं, तो “खाना ही दवा है” की सोच भी तेज़ी से फैल रही है। यह सोच लोगों को पोषण से भरपूर खाना खाने के लिए प्रेरित कर रही है, ताकि इम्यूनिटी यानी रोगों से लड़ने की ताक़त बढ़े और लंबे समय तक सेहतमंद रहा जा सके। इस सोच का मतलब है कि पोषण हमारे शरीर के लिए कितना ज़रूरी है। यह बीमारियों को रोकने, संभालने और कभी-कभी ठीक करने में भी मदद करता है। सेहत के लिए अच्छा खाना मिलना हर किसी के लिए बहुत ज़रूरी है।
इसी से जुड़ा एक और शब्द है — फ़ंक्शनल फूड्स (Functional Foods)। ये ऐसे खाने होते हैं जो सिर्फ भूख नहीं मिटाते, बल्कि सेहत को भी फ़ायदा पहुँचाते हैं। ये या तो प्राकृतिक रूप में होते हैं या इनमें पोषण और गुणों को बढ़ाया गया होता है। भारत में कुछ आम कार्यात्मक खाद्य पदार्थ या फ़ंक्शनल फूड्स हैं — दही, टमाटर, सहजन (Moringa), सरसों के बीज, हल्दी, ग्रीन टी और आँवला। वहीं दूसरी ओर, न्यूट्रास्युटिकल्स (Nutraceuticals) ऐसे प्रोडक्ट्स होते हैं जो खाने की चीज़ों से बनाए जाते हैं। इनमें विटामिन, खनिज, जड़ी-बूटियाँ और कुछ ज़रूरी तत्व मौजूद होते हैं, जो सेहत को सुधारने में मदद करते हैं।
तो आज, आइए शुरुआत करते हैं “खाना ही दवा है” की सोच से और समझते हैं कि इसका असली मतलब क्या है। फिर जानेंगे कि इस सोच को अपनाने से हमें क्या फ़ायदे हो सकते हैं। उसके बाद, भारत में सबसे ज़्यादा खाए जाने वाले कुछ कार्यात्मक खाद्य पदार्थों और उनके फ़ायदे देखेंगे। और आख़िर में समझेंगे कि न्यूट्रास्युटिकल्स (Nutraceuticals) क्या होते हैं, ये दवाइयों से कैसे अलग होते हैं, और ये दोनों मिलकर कैसे हमारी सेहत का ख़्याल रखते हैं।
“खाना ही दवा है” की अवधारणा:
यह अवधारणा मुख्य रूप से उन खाद्य पदार्थों पर ध्यान केंद्रित करती है जो प्राकृतिक, कम प्रसंस्कृत और पौधों पर आधारित होते हैं। इसमें चीनी, तेल और नमक से भरपूर अत्यधिक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के सेवन को सीमित किया जाता है। जो खाद्य पदार्थ सेहत के लिए फायदेमंद माने जाते हैं, उन्हें अक्सर फ़ंक्शनल फूड्स कहा जाता है। इनका दावा होता है कि इनमें विशेष माइक्रोन्यूट्रिएंट्स (micronutrient) या जैविक अणुओं (biomolecule) की उच्च मात्रा होती है, जो सेहत के लिए लाभकारी होती है।
“खाना ही दवा है” का तरीका पारंपरिक चिकित्सा के तरीके को चुनौती देता है, जो मुख्य रूप से चिकित्सा में तकनीकी उन्नति और फ़ार्मास्युटिकल दवाओं (pharmaceutical drugs) पर निर्भर करता है। इस दृष्टिकोण में, भोजन को दवा के रूप में देखा जाता है, जो बीमारी को रोकने और इलाज करने में मदद कर सकता है।
खाना ही दवा है अवधारणा में स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित लाभ
बीमारी का प्रबंधन: मेडिकल न्यूट्रिशन थैरेपी (Medical Nutrition Therapy) एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है, जिसमें भोजन और आहार का उपयोग बीमारियों के इलाज में मदद करने के लिए किया जाता है। यह दिखाता है कि आहार और भोजन का रोल रोगों को नियंत्रित करने में कितना ज़रूरी है। उदाहरण के तौर पर, अगर किसी व्यक्ति के शरीर में पर्याप्त फाइबर होता है, तो इससे उनके रक्त में शुगर का स्तर कम रहता है। यह पूर्व मधुमेह (pre-diabetes) या मधुमेह (diabetes) वाले लोगों के लिए फायदेमंद है, क्योंकि यह नसों और रक्त वाहिकाओं को होने वाले नुकसान को कम करता है, जो ज़्यादा शुगर की वजह से होता है।
लागत में कमी: अब पूरी दुनिया में पुरानी बीमारियाँ ज़्यादा फैल रही हैं, और इनके इलाज पर खर्च भी बढ़ता जा रहा है। 2010 में, अमेरिका में करीब 86% यानी 400 बिलियन डॉलर से ज़्यादा खर्च सिर्फ़ पुरानी बीमारियों के इलाज पर हुआ था। इन खर्चों को सरकार और मरीज दोनों मिलकर उठाते हैं। “खाना ही दवा है” का तरीका अपनाने से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों में कमी आ सकती है। यह बीमारी की गंभीरता को कम कर सकता है, जिससे बेहतर जांच, कम दवाइयाँ और कम हॉस्पिटल में भर्ती की ज़रूरत पड़ेगी।
भारत में कुछ महत्वपूर्ण फ़ंक्शनल फूड्स के स्वास्थ्य लाभ
1.) सहजन: यह विटामिन A, C और E, साथ ही कैल्शियम, आयरन, पोटेशियम और जिंक जैसे ज़रूरी मिनरल्स से भरपूर होता है। यह पोषक तत्वों से भरपूर खाना शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट (Antioxidants)और सूजन को कम करने वाले (Anti-Inflammatory) गुणों से भरा हुआ है।
2.) हल्दी: इसमें कर्क्यूमिन (curcumin) नामक तत्व होता है, जो शक्तिशाली एंटी-इन्फ्लेमेटरी, एंटी-कैंसर और एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर है। यह पाचन में मदद करता है और आंतों की सेहत को सुधारता है।
3.) लहसुन: लहसुन एक शक्तिशाली फ़ंक्शनल फूड है, जिसमें एलिसिन (allicin) जैसे फ़ाइटोकेमिकल्स (phytochemicals) होते हैं। यह इम्यून फ़ंक्शन (immune function), दिल की सेहत, और पाचन को सपोर्ट करता है, साथ ही एंटी- इंफ़्लेमेट्री (anti-inflammatory), एंटीबैक्टीरियल (antibacterial) और एंटीवायरल (antiviral) जैसे लाभ भी देता है।
4.) करी पत्ते: ये विटामिन्स, मिनरल्स, एंटीऑक्सीडेंट्स और आवश्यक तेलों से भरपूर होते हैं। यह न केवल पाचन स्वास्थ्य को बढ़ावा देते हैं, सूजन को कम करते हैं, और इम्यून फ़ंक्शन को मज़बूत करते हैं, बल्कि आंखों की सेहत, त्वचा और बालों की वृद्धि में भी मदद करते हैं और पुरानी बीमारियों और न्यूरोडिजेनेरेटिव (neurodegenerative) स्थितियों के खतरे को कम करने में मदद कर सकते हैं।
5.) सरसों के बीज: सरसों के बीज ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड्स, प्रोटीन और फाइबर से भरपूर होते हैं, जो दिल की सेहत को बढ़ावा देते हैं, पाचन को सपोर्ट करते हैं, और रक्त शर्करा (Sugar) को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।
न्यूट्रास्युटिकल्स क्या हैं?
न्यूट्रास्युटिकल्स ऐसे खाद्य पदार्थ या खाद्य घटक होते हैं, जो सिर्फ़ सामान्य पोषण से ज़्यादा स्वास्थ्य के लाभ देते हैं। इन्हें सबसे पहले 1989 में स्टीफन डि-फेलिस (Stephen DeFelice) ने बताया था। “न्यूट्रास्यूटिकल (nutraceutical)” शब्द “पोषण/न्यूट्रिशन” (Nutrition) और “दवा/ फ़ार्मास्युटिकल” (pharmaceutical) का मेल है, जिसका मतलब है कि ये उत्पाद भोजन और दवा के बीच का अंतर कम करते हैं। न्यूट्रास्युटिकल्स अलग-अलग रूपों में पाए जा सकते हैं, जैसे कैप्सूल, टैबलेट्स, ड्रिंक्स और जो पोषण से भरपूर होते हैं (fortified foods)। इनमें अक्सर विटामिन, खनिज, जड़ी-बूटियाँ, अमीनो एसिड्स या अन्य प्राकृतिक पदार्थ होते हैं, जो सेहत के लिए फायदेमंद साबित हुए हैं। न्यूट्रास्युटिकल्स के उदाहरणों में ओमेगा-3 फैटी एसिड्स, प्रोबायोटिक्स और एंटीऑक्सीडेंट्स शामिल हैं। न्यूट्रास्युटिकल्स को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में मदद करने के रूप में बेचा जाता है, लेकिन इन्हें इस्तेमाल करने से पहले डॉक्टर से सलाह लेना ज़रूरी है।
न्यूट्रास्युटिकल्स और फार्मास्यूटिकल्स में अंतर
न्यूट्रास्युटिकल्स, जो अक्सर खाद्य स्रोतों से बनाए जाते हैं, ऐसे होते हैं जो सामान्य पोषण से अधिक स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। वहीं, फार्मास्यूटिकल्स दवाएँ होती हैं, जिन्हें वैज्ञानिक तरीके से तैयार किया जाता है और यह बीमारियों का निदान, इलाज या रोकथाम करने के लिए सख्ती से परीक्षण की जाती हैं। फ़ार्मास्युटिकल्स को आमतौर पर सरकारी एजेंसियाँ जैसे सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (Central Drugs Control Organization) द्वारा मंज़ूरी मिलती है और इन्हें लेने के लिए डॉक्टर की पर्ची की ज़रूरत होती है।
न्यूट्रास्युटिकल्स और फार्मास्यूटिकल्स एक-दूसरे को कैसे मदद करते हैं?
रोकथाम बनाम इलाज: फार्मास्यूटिकल्स मुख्य रूप से पहले से मौजूद बीमारियों का इलाज करने के लिए बनाई जाती हैं, जबकि न्यूट्रास्युटिकल्स सेहत की समस्याओं को होने से रोकने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जैसे, स्टैटिन (statins) दवाएँ दिल की बीमारी वाले लोगों में कोलेस्ट्रॉल कम करने में मदद करती हैं, जबकि न्यूट्रास्युटिकल्स जैसे प्लांट स्टेरॉल्स (plant sterols) और ओमेगा-3 हृदय समस्याओं के खतरे को कम करने में मदद कर सकते हैं।
पुरानी बीमारियों का प्रबंधन: न्यूट्रास्युटिकल्स को अब पुरानी बीमारियों जैसे आर्थराइटिस (Arthritis), मधुमेह (Diabetes) और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में शामिल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, कर्क्यूमिन (curcumin), क्रोमियम (chromium) और ओमेगा-3 (omega-3) सेहत के लिए फ़ायदेमंद होते हैं। फार्मास्यूटिकल्स आमतौर पर लक्षणों का इलाज करती हैं, जबकि न्यूट्रास्युटिकल्स पूरे स्वास्थ्य के लिए लंबी अवधि तक सपोर्ट प्रदान कर सकते हैं।
फ़ार्मास्युटिकल्स पर निर्भरता कम करना: कुछ लोगों के लिए, न्यूट्रास्युटिकल्स दवाओं की आवश्यकता को कम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, मैग्नीशियम सप्लिमेंट्स (Magnesium Supplements) हल्के उच्च रक्तचाप (Hypertension) को नियंत्रित करने में मदद कर सकते हैं, जिससे एंटीहाइपरटेंसिव (Anti-Hypersensitive) दवाओं की आवश्यकता कम हो सकती है। हालांकि, यह हमेशा हेल्थकेयर प्रोफेशनल की सलाह से ही करना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की गलत प्रतिक्रिया से बचा जा सके।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
मेरठ जानें, क्यों खतरे में है अजंता गुफ़ाओं की चित्रकला और कैसे बचाया जा सकता है इसे
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
02-06-2025 09:25 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि हमारा देश प्राचीन गुफ़ा कला की एक समृद्ध विरासत का घर है, जिसमें अजंता और एलोरा गुफ़ाएं जैसे उल्लेखनीय स्थल प्रागैतिहासिक चित्रों के साथ-साथ उत्कृष्ट बौद्ध, हिंदू और जैन शिलाश्रय वास्तुकला (Rock-cut architecture) और भित्ति चित्र प्रदर्शित करते हैं। हालाँकि, हाल के वर्षों में, प्राकृतिक क्षरण, जलवायु परिवर्तन, मानव हस्तक्षेप और जैविक तत्वों की उपस्थिति जैसे कारकों के कारण इन स्थलों में इस प्राचीन गुफ़ा कला को क्षति पहुंच रही है। तो आइए, आज विस्तार से जानते हैं कि अजंता गुफ़ाओं की कला को क्यों और कैसे क्षति पहुंच रही है। फिर, हम अजंता गुफ़ाओं में की दीवारों पर पाई गई चित्रकला के रासायनिक संरक्षण पर कुछ प्रकाश डालेंगे। इसके साथ ही, हम उन विभिन्न तकनीकों के बारे में जानेंगे जिनके माध्यम से भारत में प्राचीन दीवार चित्रकलाएं बनाई गई थीं। अंत में, हम पुर्तगाल के एवोरा (Evora) में इनक्विजिशन पैलेस (Inquistion Palace) के बगीचे में स्थित कासा पिंतादा नामक एक भित्ति चित्र के संरक्षण में उपयोग किए गए रसायनों के बारे में महत्वपूर्ण विवरण उजागर करेंगे।
अजंता की गुफ़ाकला क्यों नष्ट हो रही है ?
अजंता की गुफ़ाएं, विभिन्न जैविकवैविध्य तत्वों की बहुलता वाले एक जंगली प्राकृतिक परिदृश्य में स्थित हैं। इस क्षेत्र में हुई एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि हजारों साल पहले पुजारियों द्वारा जगह छोड़ने के बाद अजंता की गुफ़ाओं में गंदा पानी घुस गया था। तब से बारिश और वाघुरा नदी का कीचड़ भरा पानी लगातार गुफ़ाओं में प्रवेश कर रहा है जिससे गुफ़ाओं के वातावरण में नमी पैदा हो रही है और शैवाल, कवक और विभिन्न प्रकार के कीड़ों और रोगाणुओं में वृद्धि हो रही है।
इन गुफ़ाओं में पानी के प्रवाह के कारण, इनके सभी पत्थर के कटे हुए स्तंभों को भारी नुकसान हुआ था। बताया जाता है कि अजंता की एक चौथाई चित्रकलाएं शैवाल, कवक, कीड़ों और कीटों से हुई क्षति के कारण नष्ट हो गईं हैं। इसके अलावा, कई मानवजनित गतिविधियों ने भी शैवाल, कवक, रोगाणुओं और कीड़ों जैसे जैविक एजेंटों को आकर्षित किया है, जिसके परिणामस्वरूप गुफ़ा चित्रों के साथ-साथ मूर्तियों और पत्थर की नक्काशी का भी क्षरण हुआ है। इन गुफ़ाओं की छतों पर वनस्पति की जड़ों के प्रवेश के परिणामस्वरूप दरारें बन गई हैं, धारा और वर्षा जल के प्रवेश से सूक्ष्म जीव, शैवाल, कवक और कीड़े प्रवेश कर गए हैं। हालांकि, एलोरा गुफ़ाओं में चित्रों और नक्काशी को संरक्षित करने के लिए भांग, मिट्टी और चूने के प्लास्टर के मिश्रण किया गया था, जिसे काफ़ी प्रभावी माना जाता है। बताया गया है कि एलोरा में चूने का प्लास्टर और भांग नमी को नियंत्रित करते हैं और कीड़ों को नियंत्रित करते हैं, जबकि, अजंता की गुफ़ाओं में भांग का उपयोग नहीं किया गया है और संभवतः शैवाल, कवक और कीड़ों की उपस्थिति के कारण चित्रकलाओं और यहाँ की गुफ़ाओं की दीवारों की हालत खराब हो गई है।
अजंता की गुफ़ाओं में दीवार पर बनी चित्रकला का रासायनिक संरक्षण:
वर्ष 1985 में, गुफ़ा संख्या 2 की दाहिनी ओर की दीवार पर 1 वर्ग फ़ुट क्षेत्र में 26 कीड़ों के बिल दर्ज किए गए थे। विशेषज्ञ समिति ने तब निर्णय लिया कि कीट गतिविधि को खत्म करने के लिए केवल कीटनाशकों का छिड़काव पर्याप्त नहीं था। इसलिए, पहली बार, 1985 में भारत के कीट नियंत्रण द्वारा गुफ़ा संख्या 2 को एथॉक्साइड गैस (Ethoxide gas) से धूमित किया गया, लेकिन इसके परिणाम संतोषजनक नहीं थे। इस विफ़लता का कारण राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली की गुफ़ाओं के भीतर प्रति 1000 घन फ़ीट जगह पर 3.6 पाउंड दबाव की सिफ़ारिश थी। उन परिणामों के आधार पर, भारतीय कीट नियंत्रण ने 36 घंटे के धुएं के साथ, प्रति 1000 क्यूबिक फ़ीट दबाव में 10-75 पाउंड की सिफ़ारिश की। हालाँकि, बाद में, 70 ग्राम ई.ओ.टी. (End of Tubing) प्रति घन मीटर मात्रा में गैस को मानक मान के रूप में लिया गया और बाद के सभी धूमन कार्य 36 घंटे के धुएं के साथ इसी दबाव पर किए गए।
भारत में प्राचीन दीवार चित्रकलाओं के निर्माण में प्रयुक्त तकनीकें:
दीवार चित्रकला के निष्पादन में उपयोग की जाने वाली तकनीकों के आधार पर, उन्हें निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है:
फ़्रेस्को-बुओनो (Fresco-buono): फ़्रेस्को का तात्पर्य, ताज़ा चूने के नम प्लास्टर पर बनाई गई चित्रकला से है। पानी के साथ मिश्रित रंगद्रव्य को ' इंटोनाको' (Intonaco) नामक ज़मीन की परत पर ब्रश किया जाता है।
फ़्रेस्को-सेको (Fresco-secco:): फ़्रेस्को-सेको चूने से चित्रकला करने की एक तकनीक है जिसमें चिपकन को बढ़ावा देने के लिए पहले से गीली हुई सूखी जमीन पर चूने के दूध या चूने के पानी के साथ मिश्रित रंगद्रव्य लगाया जाता है। चूना, जिसके साथ रंगद्रव्य मिलाया गया है, इस चित्रकला तकनीक में एक बांधने की मशीन के रूप में कार्य करता है। ये तकनीक, कुछ हद तक आसान है लेकिन इसमें ' बुओनो ' की स्थायित्व और चमक का अभाव है।
अला-गीला (Ala-gila): यह दीवार चित्रकला के निर्माण की एक स्वदेशी भारतीय तकनीक है जिसे आमतौर पर गीला फ़्रेस्को कहा जाता है। चित्रकला को कार्बनिक बाइंडर या बंधनकारी माध्यम के साथ मिश्रित रंगद्रव्य के साथ ताजे चूने के प्लास्टर पर लगाया जाता है। यद्यपि रंगद्रव्य को गीले प्लास्टर की सतह पर लगाया जाता है, भित्तिचित्रों के विपरीत, इस तकनीक में रंगद्रव्य को बंधनकारी सामग्री के साथ मिलाया जाता है।
टेम्पेरा (Tempera): टेम्पेरा तकनीक में सूखे प्लास्टर पर निष्पादन किया जाता है। रंगों को एक माध्यम में मिलाया जाता है। उपयोग किए जाने वाले मुख्य टेम्परा बाइंडर अंडा, पशु गोंद और कुछ वनस्पति गोंद हैं। भारत में अधिकांश दीवार चित्रकला टेम्परा तकनीक का उपयोग करके बनाई जाती हैं।
कासा पिंतादा में भित्ति चित्रों के संरक्षण में प्रयुक्त रसायन:
इन भित्ति चित्रों में मौजूद व्यापक सूक्ष्मजीव विविधता के कारण उनके प्रसार को कुशलतापूर्वक रोकने के लिए बायोसाइड्स (Biocides) के संयुक्त अनुप्रयोग को विकसित किया गया। इन चित्रों के उपचार के लिए संरक्षण टीम द्वारा कवक के खिलाफ़ प्रीवेंटोल पीएन® और पैनासाइड® के फ़ॉर्मूलेशन का उपयोग किया गया, जो सबसे अधिक प्रभावशाली था।
हालांकि, जैव अवक्रमण प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल सूक्ष्मजीवों के विकास को कुशलतापूर्वक खत्म करने और नियंत्रित करने के लिए संरक्षण-पुनर्स्थापना हस्तक्षेप से पहले क्षय प्रक्रियाओं और उपचार समाधानों का गहरा ज्ञान होना महत्वपूर्ण है, और दूसरी ओर, कलाकृति की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निवारक निगरानी कार्यक्रम विकसित करना महत्वपूर्ण है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अजंता गुफ़ाओं की चित्रकला का स्रोत : Wikimedia
आइए, खरीदारी का लुत्फ़ उठाएं, मेरठ के प्रसिद्ध अबू लेन, सेंट्रल मार्केट और सदर बाज़ार में
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
01-06-2025 09:04 PM
Meerut-Hindi

मेरठ के लोग इस बात से सहमत हैं कि खरीदारी, हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये सिर्फ़ एक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक अनुभव है, जिसके लिए यहाँ के लोग सदैव उत्साहित रहते हैं। यहाँ के बाज़ार, पारंपरिक परिधानों, गहनों, खेल उपकरणों और घरेलू ज़रूरतों से लेकर स्ट्रीट फ़ूड तक की विविधता से सजे रहते हैं और यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। मेरठ के सबसे लोकप्रिय और जीवंत बाज़ारों में अबू लेन, सेंट्रल मार्केट, सदर बाज़ार, वैली बाज़ार और बुढ़ाना गेट शामिल हैं। इनमें अबू लेन बाज़ार को मेरठ का “मिनी सी पी” भी कहा जाता है। यह बाज़ार, स्थानीय लोगों के लिए खरीदारी के लिए पहली पसंद है। यहाँ हाई-एंड शोरूम, ब्रांडेड और लोकल ज्वेलरी स्टोर, कपड़ों की दुकानें और कई गुणवत्ता वाले उत्पाद मिलते हैं। इस बाज़ार में में खाने-पीने के भी भरपूर विकल्प हैं।यहाँ गोलगप्पे, पापड़ी चाट, दही भल्ला, आलू टिक्की जैसे पारंपरिक व्यंजनों के साथ-साथ मोमोज़, बर्गर, फ्रैंकी, समोसे, कचौरी, जलेबी और कुल्फ़ी जैसे फ़ास्ट फ़ूड भी खूब पसंद किए जाते हैं। यह बाजार परंपरा और आधुनिकता का सुंदर मिश्रण है, जहाँ कपड़े, जूते, आभूषण, घरेलू सामान, खिलौने, गिफ़्ट आइटम सब कुछ उपलब्ध है। अबू लेन की खास बात यह है कि इस बाज़ार तक शहर के हर कोने से आसानी से पहुंचा जा सकता है, साथ ही यह सदर और पैठ बाज़ार के भी करीब है। वास्तव में, अपनी रौनक और विविधता के कारण, यह केवल एक बाज़ार नहीं, बल्कि मेरठ के लोगों की जीवनशैली का हिस्सा है। तो आइए, आज हम, कुछ चलचित्रों के माध्यम से मेरठ के कुछ प्रसिद्ध बाज़ारों जैसे अबू लेन, सेंट्रल मार्केट और सदर बाज़ार का दौरा करते हैं। हम, एक वीडियो क्लिप की सहायता से ये भी जानेंगे कि अबू लेन बाज़ार को अक्सर मेरठ का "मिनी सीपी" क्यों कहा जाता है और यह खरीदारी के लिए सभी स्थानीय लोगों की शीर्ष पसंद क्यों बन गया है। इसके बाद, हम शास्त्री नगर में स्थित सेंट्रल मार्केट से संबंधित एक दृश्य पर नज़र डालेंगे। अंत में हम, सदर बाज़ार की सैर करेंगे।
संदर्भ:
व्यापारिक तर्ज में आधुनिक मेरठ का प्रतिबिंब था, मुजिरिस बंदरगाह
समुद्र
Oceans
31-05-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

गंगा और यमुना नदियों के बीच में स्थित मेरठ शहर हमेशा से ही मानवीय गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। आज इस शहर को अपने हथकरघा, कैंची उद्योग और खासकर खेल सामग्री के निर्माण के लिए जाना जाता है। क्या आप जानते हैं कि मेरठ में लगभग 23,471 औद्योगिक इकाइयाँ हैं, जिनमें सभी तरह के छोटे-बड़े सभी तरह के उद्योग शामिल हैं? और तो और, मेरठ का खेल सामग्री उद्योग तो पूरी दुनिया में मशहूर है! यहाँ बने क्रिकेट बैट और दूसरे खेल के सामान का निर्यात पूरी दुनिया में किया जाता है। मेरठ शहर का व्यापारिक महत्व हमें "मुजिरिस बंदरगाह (Muziris Port)" की याद दिला देता है! वैश्विक व्यापार में इस शहर का भी कुछ ऐसा ही महत्वपूर्ण स्थान था। आज के इस लेख में हम मुजिरिस बंदरगाह के बारे में विस्तार से जानेंगे। आगे हम जानेंगे कि कैसे काली मिर्च ने मुजिरिस को एक प्रमुख वैश्विक व्यापार केंद्र बना दिया। साथ ही हम यह भी देखेंगे कि दुनिया के साथ इसके व्यापारिक संबंध कैसे थे! अंत में, यह भी समझेंगे कि मुजिरिस बंदरगाह का पतन क्यों हुआ।
आज के भारतीय राज्य केरल में स्थित मुजिरिस, एक प्राचीन बंदरगाह शहर था। लगभग 2,000 साल पहले, इसे दुनिया के सबसे अहम व्यापारिक बंदरगाहों में गिना जाता था। पहली सदी ईसा पूर्व में स्थापित, इस बंदरगाह ने इस इलाके को फ़ारसियों, फ़ोनीशियनों, असीरियनों, यूनानियों, मिस्रियों और रोमन साम्राज्य से जोड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यहाँ से मुख्य रूप से मसाले, खासकर काली मिर्च, को विदेशों में भेजा जाता था। इनके अलावा यहाँ से अर्ध-कीमती पत्थर, हीरे, हाथी दांत और मोती जैसी चीज़ें भी निर्यात की जाती थीं। इतिहासकारों का कहना है कि मुजिरिस में 30 से भी ज़्यादा देशों से माल आता था, जिसमें अक्सर कपड़े, शराब, गेहूं और सोने के सिक्के हुआ करते थे।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि व्यापारी मुजिरिस की तरफ़ केवल सोने या हीरे के लिए नहीं खिंचे आते थे। वो वास्तव में यहाँ के "काले सोने" यानी काली मिर्च की ओर आकर्षित थे! आज भले ही यह मसाला, हमारे लिए एक आम चीज़ है, लेकिन उस ज़माने में यह इतना बेशकीमती था कि इसे सोने के भाव में तोला जा सकता था। मुजिरिस बंदरगाह को अक्सर "काली मिर्च का साम्राज्य" “Pepper Kingdom” कहकर पुकारा जाता था। यह एक ऐसा गुलज़ार व्यापारिक अड्डा था जहाँ दुनिया भर के सौदागर इकट्ठा होते थे। वे मुजिरिस की मशहूर काली मिर्च और सोने के बदले में मछली की चटनी, चीनी मिट्टी के बर्तन और घोड़ों जैसी ढेरों चीज़ों का लेन-देन करते थे! रोमन दार्शनिक प्लिनी द एल्डर (Pliny the Elder) ने भी ज़िक्र किया है कि रोमन लोग पूर्वी देशों के साथ व्यापार में सालाना 50 से 100 मिलियन सेस्टर्स (रोमन मुद्रा) लगाते थे, और इस भारी रकम का एक बड़ा हिस्सा खास तौर पर मुजिरिस की काली मिर्च खरीदने के लिए ही आवंटित होता था।
अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण इसे एक विशेष रणनीतिक लाभ मिलता था, क्योंकि यह मध्य और पूर्वी भारत के कई महत्वपूर्ण शहरों से जुड़ा हुआ था। मुजिरिस ने मसालों, खासकर काली मिर्च के व्यापार के लिए बड़ी प्रसिद्धि हासिल की थी, जिसकी यूरोप में बहुत ज़्यादा माँग थी। मसाला मार्ग पर स्थित होने की वजह से यह शहर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का एक अहम केंद्र बन गया। यहाँ भूमध्य सागर, लाल सागर और अरब प्रायद्वीप से आने वाले जहाज़ लंगर डालते थे, जिससे विभिन्न लोग, उत्पाद और सभ्यताएँ एक साथ मिलती थीं।
मुजिरिस मसालों के अलावा रेशम, मोती, हाथीदाँत और बहुमूल्य रत्नों के निर्यात के लिए भी जाना जाता था। भारतीय व्यापारी, रोमन व्यापारियों द्वारा लाए गए सोने के सिक्कों का खुले दिल से स्वागत करते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस फले-फूले व्यापार के कारण बहुत सारा धन भारत आ रहा था, जिससे रोमन साम्राज्य को कथित तौर पर व्यापार घाटा हो रहा था। संगम युग के कवि इलांगो आदिगल ने भी तमिल के प्राचीनतम महाकाव्यों में से एक, 'शिलप्पादिकारम' (Cilappatikaram) में इस विदेशी बंदरगाह का सुंदर वर्णन किया है।
आज मुजिरिस विरासत स्थल का क्षेत्र एर्नाकुलम जिले के कुछ हिस्सों से लेकर त्रिशूर जिले के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ है। माना जाता है कि 14वीं शताब्दी में पेरियार नदी में आई एक भयंकर बाढ़ के कारण यह ऐतिहासिक बंदरगाह नष्ट हो गया। इस विनाशकारी बाढ़ ने बंदरगाह तक पहुँचने वाले पानी के रास्ते को रोक दिया और वहाँ की पूरी भौगोलिक रूपरेखा को ही बदलकर रख दिया। आज उस प्राचीन गौरवशाली अतीत के केवल कुछ अवशेष ही बाकी रह गए हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में मुजिरिस किले और मुजिरिस से प्राप्त अवशेषों का स्रोत : Wikimedia
तत्काल संरक्षण की आवश्यकता है, दुनिया की सबसे दुर्लभ मीठे पानी की सिंधु नदी डॉल्फ़िन की
स्तनधारी
Mammals
30-05-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि सिंधु नदी डॉल्फ़िन (Indus River Dolphin) दुनिया की सबसे दुर्लभ मीठे पानी की डॉल्फ़िन में से एक है, जो मुख्य रूप से भारत में सिंधु नदी और ब्यास नदी के कुछ हिस्सों में पाई जाती है। ये डॉल्फ़िन लगभग अंधी होती हैं और ध्वनि के माध्यम से दिशा और शिकार का पता लगाती हैं, इनकी यह विशेषता उन्हें वास्तव में अद्वितीय बनाती है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि प्रदूषण, मछली पकड़ने के जाल और प्राकृतिक निवास स्थान के नुकसान के कारण इनकी संख्या बहुत तेज़ी से कम हो रही है। उन्हें अब लुप्तप्राय माना जाता है जिसके कारण तत्काल प्रभावी रूप से उनके संरक्षण की आवश्यकता है। संरक्षण प्रयासों, नदियों के पानी को स्वच्छ करके और जागरूकता बढ़ाकर इस विशेष प्रजाति को बचाया जा सकता है। तो आइए, आज सिंधु नदी डॉल्फ़िन के बारे में जानते हुए, इसकी जैविक विशेषताओं, आहार व्यवहार और प्रजनन पैटर्न पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम इसके अस्तित्व के लिए प्रमुख खतरों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम इसके संरक्षण की स्थिति और इस उल्लेखनीय प्रजाति की रक्षा और पुनर्जीवित करने के लिए उठाए जा रहे कदमों और पहलों पर गौर करेंगे।
सिंधु नदी डॉल्फ़िन का परिचय:
सिंधु नदी डॉल्फ़िन जिसका वैज्ञानिक नाम प्लैटनिस्टा माइनर (Platanista minor) है, मीठे पानी की डॉल्फ़िन की एक प्रजाति है। 1970 से 1998 के बीच, गंगा नदी डॉल्फ़िन और सिंधु डॉल्फ़िन को अलग प्रजाति माना जाता था; हालाँकि, 1998 में, उनका वर्गीकरण दो अलग-अलग प्रजातियों से बदलकर एक ही प्रजाति की उप-प्रजाति में कर दिया गया। माना जाता है कि सिंधु नदी डॉल्फ़िन की उत्पत्ति प्राचीन टेथिस सागर में हुई थी। जब लगभग 50 मिलियन वर्ष पहले समुद्र सूख गया, तो डॉल्फ़िन को अपने एकमात्र शेष निवास स्थान 'नदियों' के अनुकूल होने के लिए मज़बूर होना पड़ा। आज, वे केवल पाकिस्तान में सिंधु नदी के निचले हिस्सों और भारत के पंजाब में सिंधु नदी की सहायक ब्यास नदी में पाई जा सकती हैं। पाकिस्तान में, सिंचाई प्रणाली के निर्माण के बाद उनकी संख्या में नाटकीय रूप से गिरावट आई है, और अधिकांश डॉल्फ़िन नदी के 750 मील के दायरे तक ही सीमित हैं और छह बैराजों द्वारा अलग-अलग आबादी में विभाजित हैं। वे कीचड़ भरी नदी में जीवन जीने के लिए अनुकूलित हो गई हैं। वे झींगा, कैटफ़िश और कार्प जैसे अपने शिकार को ढूंढने, संचार करने और शिकार करने के लिए प्रतिध्वनिनिर्धारण का उपयोग करती हैं।
सिंधु नदी डॉल्फ़िन की भौतिक विशेषताएं:
सिंधु नदी डॉल्फ़िन की चोंच लम्बी एवं नुकीली और आंखें छोटी होती हैं जो उनके लिए नदी के कीचड़ भरे गंदे पानी में नेविगेट (navigate) करने के लिए आदर्श रूप से उपयुक्त हैं। प्रतिध्वनिनिर्धारण के कारण वे नदी के प्रदूषित वातावरण में यात्रा करने और शिकार करने में सक्षम होती हैं।
आहार व्यवहार:
मछलियाँ और कड़े खोल वाले जीव सिंधु नदी डॉल्फ़िन के आहार का मूल हिस्सा हैं। नदी की गहराई में शिकार का पता लगाने के लिए उनका प्रतिध्वनिनिर्धारण कौशल आवश्यक है।
प्रजनन पैटर्न:
सिंधु नदी डॉल्फ़िन की प्रजनन दर आमतौर पर कम होती है। मादाएं लगभग 9 से 10 महीने की गर्भधारण अवधि के बाद एक शिशु को जन्म देती हैं। शिशु सर्दियों के अंत या शुरुआती वसंत में पैदा होते हैं। इस दौरान आम तौर पर एकांतवासी सिंधु नदी डॉल्फ़िन को कभी-कभी अस्थायी समूहों में देखा जा सकता है। वे सतर्क और शर्मीले होने के लिए जानी जाती हैं। इन डॉल्फ़िनों के प्रजनन पैटर्न को समझना संरक्षण पहल के लिए महत्वपूर्ण है। उनका जीवनकाल और उनकी दीर्घायु को प्रभावित करने वाले कारक उनके निरंतर अस्तित्व के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।
सिंधु नदी की डॉल्फ़िन के लिए ख़तरा:
इस प्रजाति को 1986 से 'प्रकृति संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ' (International Union for Conservation of Nature (IUCN) द्वारा लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। दुनिया में 2000 से भी कम परिपक्व डॉल्फ़िन के बचे होने के साथ, सिंधु नदी डॉल्फ़िन की आबादी गंभीर रूप से ख़तरे में है और परिपक्व आबादी में निरंतर गिरावट आ रही है, जिससे संरक्षण के प्रयास महत्वपूर्ण हो गए हैं। सिंधु नदी डॉल्फ़िन को कई प्रमुख खतरों का सामना करना पड़ता है, जिनमें शामिल हैं:
- पर्यावास का क्षरण: बांध निर्माण और जल मोड़ परियोजनाओं के कारण सिंधु नदी के प्रवाह और गुणवत्ता में परिवर्तन आया है, जिससे डॉल्फ़िन के प्राकृतिक आवास पर असर पड़ा है।
- जल प्रदूषण: औद्योगिक, कृषि और घरेलू प्रदूषण के कारण पानी की गुणवत्ता खराब हो गई है, जिससे डॉल्फ़िन के स्वास्थ्य और भोजन स्रोत प्रभावित हो रहे हैं।
- जाल में फंसना: डॉल्फ़िन अनजाने में मछली पकड़ने की प्रथाओं का शिकार बन जाती हैं और गिलनेट एवं मछली पकड़ने के अन्य जाल में फंस जाती हैं।
- जलवायु परिवर्तन: बदलते मौसम और तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण डॉल्फ़िन के लिए शिकार की उपलब्धता और गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है।
- मानवीय गतिविधियाँ: नाव यातायात और आवास विनाश सहित मानवीय हस्तक्षेप से डॉल्फ़िन के मूल व्यवहार में बाधा आती है।
- अवैध शिकार: डॉल्फ़िन का उनके मांस और चर्बी के लिए अवैध शिकार किया जाता है, और मछली पकड़ने के चारे के रूप में उपयोग करने के लिए तेल निकाला जाता है।
- भौतिकी: उनकी ख़राब दृष्टि और धीमी तैराकी गति के कारण नदी डॉल्फ़िन विशेष रूप से नावों और अन्य बाधाओं से टकराने के लिए प्रवण होती हैं। इसके साथ ही उनका धीमा प्रजनन चक्र भी एक बाधा है।
संरक्षण की स्थिति:
- सिंधु नदी डॉल्फ़िन को 'भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972' की अनुसूची I में, 'वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन' (CITES) के परिशिष्ट I में, प्रवासी प्रजातियों पर कन्वेंशन (CMS) के परिशिष्ट II में शामिल किया गया है।
- सिंधु नदी डॉल्फ़िन को 2019 में पंजाब का राज्य जलीय जीव घोषित किया गया था। राज्य स्तर पर पंजाब सरकार ने डॉल्फ़िन और उनके आवास के संरक्षण के लिए पहल की है।
- मीठे पानी की डॉल्फ़िन की गणना केंद्र सरकार की राष्ट्रव्यापी परियोजना 'प्रोजेक्ट डॉल्फ़िन' के तहत की जा रही है, जिसे संरक्षण प्रयास की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
- यह एक बहु-आयामी रणनीति पर केंद्रित है, जिसमें आवास प्रबंधन, अनुसंधान, निगरानी, वकालत और पर्यावरण शिक्षा शामिल है। इसके तहत समर्पित व्यक्तियों के एक समूह को विकसित करने के लिए विस्तार कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे, जिन्हें ब्यास नदी के 'ब्यास-डॉल्फ़िन मित्र' [मित्र और संरक्षक] कहा जाता है।
संदर्भ
मृत सिंधु नदी की डॉल्फ़िन का स्रोत : Wikimedia
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन: प्राकृतिक वनस्पति का महत्वपूर्ण हिस्सा, इनका संरक्षण है आवश्यक
जंगल
Forests
29-05-2025 09:29 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन भारत की प्राकृतिक वनस्पति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भारत में ये वन मुख्य रूप से पश्चिमी घाट, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं, जो अरब सागर, प्रायद्वीपीय भारत के समुद्र तट और उत्तर पूर्व में बड़े असम क्षेत्र की सीमा पर स्थित हैं। ये वन अद्वितीय पौधों, जानवरों और पक्षियों का घर हैं, और हमारे पर्यावरण को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन इन वनों की निरंतर कटाई और प्रदूषण के कारण हमारे जंगल खतरे में हैं। इसलिए बेहतर भविष्य के लिए वनों के संरक्षण में मदद करना हम सभी के लिए महत्वपूर्ण है। तो आइए आज, उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों के बारे में जानते हुए, इन वनों की अनूठी विशेषताओं पर चर्चा करें। इसके साथ ही, हम भारत के उष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगलों में पाए जाने वाले विविध वन्य जीवन पर नज़र डालेंगे। अंत में हम भारत में सदाबहार वनों के संरक्षण प्रयासों पर चर्चा करेंगे।
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (Tropical evergreen Forest):
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों को उष्णकटिबंधीय वर्षावन के नाम से भी जाना जाता है। ये वन आर्द्र, गर्म क्षेत्र में बढ़ते हैं और जटिल, विविध पारिस्थितिक तंत्र बनाते हैं। ये वन अपनी लगातार उच्च वर्षा, हरे पौधों की प्रचुरता और पौधों और जानवरों की प्रजातियों की विविधता के लिए उल्लेखनीय हैं। इन वनों में उगने वाले पेड़ बहुत ऊँचे होते हैं जो मिलकर एक घनी छतरी बनाते हैं और सूरज की रोशनी को धरती पर पहुंचने से रोकते हैं, जिससे नीचे एक अद्वितीय सूक्ष्मजलवायु क्षेत्र बनाते हैं। अपने अद्वितीय पारिस्थितिक मूल्य के अलावा, ये वन दुनिया की जलवायु के संतुलन को बनाए रखने, विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के लिए आवास प्रदान करने और आस-पास के समुदायों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक हैं। उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों को व्यापक रूप से पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण और लुभावने पारिस्थितिक तंत्रों में से एक माना जाता है।
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन की विशेषताएं:
- उच्च वर्षा: उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों में हर साल लगभग 2000 मिलीमीटर बारिश होती है, जिससे पेड़ों को लंबा और स्वस्थ होने में मदद मिलती है।
- घनी वनस्पति: ये जंगल बहुत घने होते हैं, इनमें पेड़ एक-दूसरे से सटे हुए होते हैं, जिससे एक छतरी बनती है, जो सूरज की रोशनी को धरती पर पहुंचने रोकती है और क्षेत्र को आर्द्र और छायादार बनाती है।
- पौधों और पशु जीवन की विस्तृत विविधता: उष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगलों में विविध पौधों और पशुओं की प्रजातियां रहती हैं, जिनमें पेड़, झाड़ियाँ, जड़ी-बूटियाँ, फर्न (Fern), कीड़े, पक्षी, स्तनधारी और सरीसृप शामिल हैं।
- बहुस्तरीय संरचना: इन वनों में विभिन्न परतें होती हैं। सबसे ऊँचे पेड़ सबसे ऊपरी परत या छत्र बनाते हैं। इसके नीचे छोटे पेड़ और झाड़ियाँ होती हैं, फिर जड़ी-बूटियाँ और फ़र्न, और अंत में पत्तियों और शाखाओं से ढकी ज़मीन की परत होती है।
- प्रचुर अधिपादप: अधिपादप ऐसे पौधे हैं जो अन्य पौधों से पोषक तत्व लिए बिना उन पर उगते हैं। इन जंगलों में ऑर्किड (orchid), फर्न (Fern) और मॉस (moss) जैसे कई अधिपादप उगते हैं।
- गर्म और आर्द्र जलवायु: उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों में जलवायु गर्म और आर्द्र होती है, जिसमें पूरे वर्ष तापमान आमतौर पर 25°C और 30°C के बीच रहता है।
भारत में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियां:
इन वनों में पाई जाने वाली कुछ महत्वपूर्ण वनस्पतियों में शीशम, महोगनी, ऐनी, आबनूस आदि शामिल हैं। केरल के वनों में पाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण प्रजाति मेसा है, जिनमें सफ़ेद देवदार, जामुन और बेंत आदि के पेड़ शामिल हैं। असम के जंगलों में गुर्जन, जामुन, अगर, बांस, आदि की बहुत ही सामान्य प्रजाति पाई जाती है।
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों में पाई जाने वाली पशु प्रजातियां:
उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों में कई अलग-अलग प्रकार स्तनधारी जैसे हाथी, बाघ, तेंदुआ, बंदर, वानर, गैंडा, हिरण, जंगली सूअर, चमगादड़, पक्षी जैसे टौकेन, तोते, मकोय, हॉर्नबिल, हमिंगबर्ड, तीतर, सरीसृप जैसे साँप, छिपकली, मगरमच्छ और कछुए, उभयचर जैसे मेंढक, टोड और विभिन्न कीट जैसे तितलियाँ, भृंग, चींटियाँ, दीमक आदि पाए जाते हैं।

भारत में सदाबहार वनों के संरक्षण के प्रयास:
भारत में सदाबहार वनों की रक्षा के लिए कई संगठन कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य वनों की कटाई को कम करना, जलवायु परिवर्तन से लड़ना और अवैध शिकार और भूमि पर आक्रमण को रोकना है। भारत में सदाबहार वनों के संरक्षण के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रयास इस प्रकार हैं:
- संरक्षित क्षेत्र: भारत सरकार द्वारा सदाबहार वनों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य और जैवमंडल रिजर्व स्थापित किए गए हैं। ये क्षेत्र वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करते हैं और वनों की कटाई को रोकने में मदद करते हैं।
- संयुक्त वन प्रबंधन: संयुक्त वन प्रबंधन (Joint forest management (JFM) के तहत वनों की देखभाल में स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। इस कार्यक्रम के तहत वनों की कटाई को कम करने और स्थानीय लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद मिली है।
- वनीकरण और पुनर्वनीकरण: सरकार द्वारा वन आवरण बढ़ाने के लिए क्षतिग्रस्त जंगलों और बंजर भूमि पर वृक्षारोपण किया जा रहा है।
- सतत वन प्रबंधन: सरकार द्वारा चयनात्मक कटाई और गैर-लकड़ी उत्पादों की कटाई जैसी स्थायी प्रथाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि भविष्य के लाभों के लिए वनों का बुद्धिमानी से उपयोग किया जाए।
- जलवायु परिवर्तन अनुकूलन: सरकार सूखा प्रतिरोधी पेड़ लगाकर और क्षतिग्रस्त क्षेत्रों को बहाल करके जंगलों को जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने में भी मदद कर रही है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
वायरलेस चार्जिंग है मेरठवासियों के लिए आधुनिक युग का एक सुविधाजनक आविष्कार
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
28-05-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठ वासियों, आज के दौर में वायरलेस चार्जिंग (Wireless charging) हमारे दैनिक जीवन का एक आम हिस्सा बनती जा रही है, जिससे अव्यवस्थित केबलों के बिना बिजली उपकरणों की चार्जिंग, आसान हो जाती है। स्मार्टफ़ोन तथा स्मार्टवॉच के लिए अब कई लोग घरों और कार्यालयों में वायरलेस चार्जर्स का उपयोग कर रहे हैं। हमारे शहर के कुछ शॉपिंग मॉल और कैफ़े भी वायरलेस चार्जिंग स्पॉट की सुविधा देने लगे हैं, जिससे ग्राहकों को बाहर रहते हुए भी, अपने उपकरणों को आसानी से चार्ज करने की सुविधा मिलती है। यह तकनीक, ऊर्जा को स्थानांतरित करने के लिए विद्युत चुंबकीय शक्ति का उपयोग करती है। इससे चार्जिंग पोर्ट (charging port) अधिक टिकाऊ बनते हैं और जल्दी खराब नहीं होते हैं। पोर्ट्रोनिक्स(Portronics), एम्ब्रेन(Ambrane), और पी ट्रॉन(PTron) जैसे भारतीय ब्रांडों ने, देश में वायरलेस चार्जिंग समाधानों के विकास में योगदान दिया है। पोर्ट्रोनिक्स और एम्ब्रेन अपनी सामर्थ्य और तेज़ चार्जिंग क्षमताओं के लिए प्रख्यात, वायरलेस चार्जर्स की एक श्रृंखला प्रदान करते हैं।
आज, हम यह पता लगाएंगे कि, वायरलेस चार्जिंग कैसे काम करती है, तथा इसके पीछे क्या तकनीक इस्तेमाल होती है। फिर, हम विभिन्न प्रकार की वायरलेस चार्जिंग विधियों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम वायरलेस चार्जिंग के फ़ायदों व नुकसानों पर चर्चा करेंगे।
वायरलेस चार्जिंग कैसे काम करती है?
वायरलेस चार्जर, विद्युत चुंबकीय इंडक्शन(Electromagnetic induction) के माध्यम से, किसी वायर या केबल का उपयोग किए बिना, ऊर्जा को प्रसारित करने के लिए एक चार्जिंग पैड(Charging pad) का उपयोग करता है। यह इस प्रकार काम कर सकता है, क्योंकि वायरलेस इंडक्टिव चार्जिंग स्टेशन, वायु तरंगों के माध्यम से विद्युत प्रवाह को प्रसारित करने के लिए, चार्जर और उपकरण के बीच एक विद्युत चुंबकीय क्षेत्र बनाता है।
इन तरंगों को आपके फ़ोन जैसे किसी भी उपकरण के पीछे स्थित, एक रिसीवर कॉइल(Receiver coil) या तार द्वारा प्राप्त किया जाता है, जो विद्युत चुंबकीय तरंगों को उपयोग करने योग्य बिजली/ऊर्जा में बदल देता है। इस विद्युत प्रवाह का उपयोग, स्मार्टफ़ोन को चार्ज करने और फ़ोन की बैटरी में इसे स्टोर करने के लिए किया जाता है।
चुंकि, चुंबकीय क्षेत्र सीमित होता है, इसलिए फ़ोन को वायरलेस चार्जिंग स्टैंड के करीब रखा जाना चाहिए। अर्थात, चार्जिंग पैड पर ही उपकरण को रखा जाना चाहिए। चार्जिंग पैड पर आम तौर पर एक वृत्त या अन्य मार्कर होता है, जो इसके केंद्र को इंगित करता है। जब आप अपने उपकरण को एक वायरलेस चार्जिंग पैड या मैग्नेटिक पावर बैंक(Magnetic power bank) पर रखते हैं, तो आपका उपकरण प्रदर्शित करेगा कि, वह चार्ज हो रहा है।
वायरलेस चार्जिंग के प्रकार-
•इंडक्टिव वायरलेस चार्जिंग(Inductive Wireless Charging)
यह विधि, समीपता वाली वायरलेस चार्जिंग विधियों में से एक है। यह विद्युत चुंबकीय इंडक्शन के सिद्धांत पर काम करती है, जिसमें चार्जर इंसुलेटेड तांबा वायर कॉइल(Insulated copper wire coil) का उपयोग करके, वैकल्पिक ध्रुवीयता के साथ, विद्युत चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। एक समान कॉइल को उपकरण के अंदर रखा जाता है, जो बैटरी को चार्ज करने हेतु विद्युत चुंबकीय क्षेत्र को विद्युत प्रवाह में परिवर्तित करता है।
उदाहरण: एम पी 3 प्लेयर(MP3 players), इलेक्ट्रिक टूथब्रश(Electric toothbrush), वाटरप्रूफ़ वाइब्रेटिंग रेज़र्स(Waterproof Vibrating Razors), पर्सनल डिजिटल असिस्टेंट(Personal digital assistants), आदि।
•रेज़ोनेंस चार्जिंग(Resonance Charging)
इस प्रकार का वायरलेस चार्जर, "प्रति लहर" की घटना पर काम करता है, जो किसी निश्चित आवृत्ति की ऊर्जा प्राप्त होने पर किसी चीज़ में कंपन उत्पन्न करता है। इसमें, दो तांबे के कॉइल का उपयोग किया जाता है, जिनमें से एक ट्रांसमीटर (Transmitter) और दूसरा रिसीवर(Receiver) से जुड़ा होता है। दोनों कॉइल एक ही विद्युत चुंबकीय आवृत्ति के लिए व्यवस्थित किए जाते हैं। जब हम इन कॉइल्स (Coils) को एक दूसरे के पास रखते हैं, तो बिजली स्थानांतरित होती है और उपकरण चार्ज हो जाता है।
उदाहरण: रोबोट(Robot), कंप्यूटर, वैक्यूम क्लीनर(Vaccum cleaner), आदि।
वायरलेस चार्जिंग के फ़ायदे-
•वायरलेस चार्जिंग, दैनिक गतिविधियों में हमारे उपकरणों को चार्ज करने हेतु, सहज समन्वय की अनुमति देता है, क्योंकि आप अपने उपकरण को चार्जिंग पैड पर रख सकते हैं, और जब आप कहीं जाने के लिए तैयार होते हैं, तो इसे उठा सकते हैं।
•यह केबलों से निपटने की परेशानी और उनके बार-बार उपयोग से जुड़ी खराबी को समाप्त करता है।
•वायरलेस चार्जिंग स्टेशन भी, आज सार्वजनिक स्थानों पर अधिक आम हो रहे हैं, जिससे चलते-फिरते हुए उपकरणों को चार्ज करना आसान हो जाता है।
•इसके अतिरिक्त, कुछ वायरलेस चार्जिंग तकनीकों की सार्वभौमिक प्रकृति का मतलब है कि, आप कई उपकरणों के लिए एक ही चार्जर का उपयोग कर सकते हैं। इससे आप अव्यवस्था को कम कर सकते हैं, और कई केबलों की आवश्यकता को कम कर सकते हैं।
•यह तकनीक एक साफ़ वातावरण को भी बढ़ावा देती है, और स्मार्ट, अधिक एकीकृत घर और कार्यालय स्थानों के विकास का समर्थन करती है।
वायरलेस चार्जिंग के नुकसान-
•यह आमतौर पर वायर चार्जिंग विधियों की तुलना में, धीमी चार्जिंग प्रदान करता है। यह उन उपयोगकर्ताओं के लिए असुविधाजनक हो सकता है, जिन्हें अपने उपकरणों को जल्दी से चार्ज करने की आवश्यकता होती है।
•वायरलेस चार्जिंग पैड को सटीक संरेखण की आवश्यकता होती है। एक मामूली गलत संरेखण के परिणामस्वरूप, अक्षम चार्जिंग या शून्य चार्जिंग भी हो सकती है।
•उष्णता उत्पादन की चिंता भी इसमें है। वायरलेस चार्जिंग, अधिक गर्मी का उत्पादन कर सकती है, जो समय के साथ बैटरी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है।
•इसके अलावा, सभी उपकरण वायरलेस चार्जिंग के अनुकूल नहीं होते हैं। अतः यह चार्जिंग विधि, कुछ उपभोक्ताओं के लिए इसकी उपयोगिता को सीमित करती हैं।
•वायरलेस चार्जर, अतिरिक्त बिजली का उपभोग करते हैं, और अक्सर गैर-पुनरावर्तनीय सामग्रियों से बने होते हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक कचरे में योगदान करते हैं।
उपरोक्त कारक, वायरलेस चार्जिंग तकनीक को अपनाने के लिए उपभोक्ताओं के निर्णय को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में चार्ज होते आईफ़ोन का स्रोत : pexels
सैकड़ों किलोमीटर दूर होकर भी एक दूसरे पर निर्भर हैं, मेरठ और कोरल रीफ़
समुद्री संसाधन
Marine Resources
27-05-2025 09:23 AM
Meerut-Hindi

गंगा और यमुना नदियों के दोआब में बसा मेरठ शहर, भले ही समुद्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर हो, लेकिन इसकी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य कहीं न कहीं समुद्र की गहराइयों में छिपा हुआ है। यह सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन यह संबंध जुड़ा है प्रवाल भित्तियों से, जिन्हें पृथ्वी के सबसे समृद्ध और नाजुक पारिस्थितिक तंत्रों में गिना जाता है।
भारत में प्रवाल भित्तियाँ मुख्य रूप से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप और मन्नार की खाड़ी जैसे क्षेत्रों में पाई जाती हैं। ये चट्टानें सिर्फ़ समुद्री जीवों के लिए घर नहीं हैं, बल्कि देश की समुद्री अर्थव्यवस्था, मत्स्य उद्योग और तटीय सुरक्षा की मज़बूत आधारशिला भी हैं। प्रवाल भित्तियाँ (Coral Reefs) समुद्री पारिस्थितिकी को संतुलित रखने का काम करती हैं, जिसका प्रभाव पूरे वैश्विक पर्यावरण पर पड़ता है। लेकिन दुख की बात यह है कि आज ये प्रवाल भित्तियाँ गंभीर संकटों का सामना कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन, समुद्र के बढ़ते तापमान, प्रदूषण और मानवीय हस्तक्षेप के कारण इनका प्राकृतिक स्वरूप तेज़ी से नष्ट हो रहा है। समुद्र अधिक अम्लीय होते जा रहे हैं, जिससे प्रवाल विरंजन की घटनाएं बढ़ रही हैं और साथ ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा हो रहा है। यह सिर्फ़ समुद्र तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके प्रभाव धरती के भीतर तक महसूस किए जा रहे हैं।
मेरठ जैसे आंतरिक शहर भी अब इन वैश्विक पारिस्थितिक संकटों से अछूते नहीं हैं। यहां के मौसम में असामान्यता, वर्षा के चक्र में अस्थिरता और खेती की उत्पादकता में गिरावट जैसे बदलाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। इन परिवर्तनों को नियंत्रित करने में प्रवाल भित्तियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये जलवायु संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं।
इसलिए जब हम सतत विकास की बात करते हैं, तो यह केवल अपने आस-पास सफ़ाई रखने या पेड़ लगाने तक सीमित नहीं रह जाता। मेरठ के नागरिकों को यह समझने की आवश्यकता है कि उनकी रोज़मर्रा की आदतें, जैसे प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करना, जल संरक्षण को अपनाना, और पर्यावरणीय नीतियों का समर्थन करना आदि सीधे तौर पर उन प्रवाल भित्तियों को बचाने में मदद कर सकती हैं जो हमारी पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर बनाए रखती हैं।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले प्रवाल भित्तियों के बारे में विस्तार से जानेंगे। साथ ही यह समझेंगे कि भारत में इनका पारिस्थितिक महत्व क्या है, ये किन-किन खतरों का सामना कर रही हैं! आगे हम यह भी जानेंगे कि इनकी रक्षा के लिए हम व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से क्या प्रयास कर सकते हैं।
कोरल रीफ़ (प्रवाल भित्तियाँ) भारत के सबसे पुराने और जीवंत पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक मानी जाती हैं। ये रीफ़ मुख्य रूप से गर्म और उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले हिंद महासागर के क्षेत्रों में पाई जाती हैं। भारत के समुद्री क्षेत्र में कोरल रीफ़ की एक विस्तृत और सक्रिय प्रणाली विकसित हुई है।
भारत में चार प्रमुख स्थानों पर कोरल रीफ़ पाई जाती हैं:
- मन्नार की खाड़ी (तमिलनाडु)
- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह
- लक्षद्वीप द्वीप समूह
- कच्छ की खाड़ी (गुजरात)
इनके अतिरिक्त, मालवन क्षेत्र (महाराष्ट्र) में भी कोरल रीफ़ की उपस्थिति देखी गई है।
हालांकि भारत की तटरेखा लगभग 7,517 किलोमीटर लंबी है, फिर भी देश में कोरल रीफ़ का विस्तार बहुत सीमित है। इसका मुख्य कारण भारत की उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है, जो कोरल रीफ़ के विकास के लिए हर स्थान पर अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं प्रदान करती।
कोरल रीफ़ पृथ्वी के सबसे जैविक रूप से समृद्ध और उत्पादक पारिस्थितिकी तंत्रों में गिने जाते हैं। ये न केवल समुद्री जैव विविधता को आश्रय प्रदान करते हैं, बल्कि तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों की आजीविका और जीवन शैली के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
इनका संरक्षण न केवल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए, बल्कि पूरे पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।
कोरल रीफ़ से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए:
- इन्हें भोजन और आय का एक प्रमुख स्रोत माना जाता है।
- इनके निकट कई वाणिज्यिक मछलियों के प्रजनन और विकास के लिए सुरक्षित स्थान मिलता है।
- ये पर्यटकों, विशेषकर गोताखोरी और स्नॉर्कलिंग में रुचि रखने वाले लोगों को आकर्षित करते हैं।
- ये समुद्र तटों पर रेत के निर्माण में योगदान करते हैं।
- साथ ही, तूफानों के दौरान तटरेखाओं की रक्षा करते हैं और उन्हें क्षति से बचाते हैं।
हालांकि, वर्तमान में कोरल रीफ़ कई गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं। इनमें अत्यधिक मछली पकड़ना, तटीय क्षेत्रों का अनियंत्रित विकास, कृषि से बहने वाला रासायनिक अपवाह और जहाजरानी से जुड़ी गतिविधियाँ शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन भी एक गंभीर और उभरता हुआ खतरा बन चुका है, जो पहले से मौजूद समस्याओं को और अधिक गंभीर बना देता है। विशेष रूप से समुद्री तापमान में वृद्धि से कोरल रीफ़ को भारी नुकसान हुआ है। अधिक तापमान के कारण कोरल "ब्लीचिंग" नामक प्रक्रिया से गुज़रते हैं, जिसमें वे अपने सहजीवी शैवाल (zooxanthellae) को खो देते हैं। ये शैवाल न केवल कोरल को उसका रंग प्रदान करते हैं, बल्कि उसकी ऊर्जा का मुख्य स्रोत भी होते हैं। जब ये शैवाल खत्म हो जाते हैं, तो कोरल का सफ़ेद कंकाल दिखाई देने लगता है और समय के साथ वे मर सकते हैं।
इसके अलावा, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) गैस के बढ़ते उत्सर्जन से दुनिया के महासागर धीरे-धीरे ज्यादा खारे और अम्लीय होते जा रहे हैं। इससे कोरल का वृद्धि दर धीमी हो जाता है और उनके ढांचे का पुनर्निर्माण मुश्किल हो जाता है।
इन सभी खतरों को देखते हुए, कोरल रीफ़ के सतत संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता अब पहले से कहीं अधिक हो गई है। यदि समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो समुद्री जैव विविधता और मानव समुदायों के लिए इनका मूल्यवान पारिस्थितिक योगदान संकट में पड़ सकता है।
इसलिए आज के समय में कोरल रीफ़ (प्रवाल भित्तियों) के संरक्षण की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इसका कारण यह है कि ये न सिर्फ़ समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, बल्कि मानव जीवन और आजीविका के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं।
प्रवाल भित्तियाँ समुद्र के भीतर जीवन के लिए एक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करती हैं। ये:
- तटीय क्षेत्रों को लहरों की तीव्रता से बचाती हैं!
- समुद्री जीवों को आवास व संरक्षण देती हैं!
- जैव विविधता का आश्चर्यजनक उदाहरण पेश करती हैं।
उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ़ में 400 से अधिक प्रवाल प्रजातियाँ, 1,500 प्रकार की मछलियाँ और 4,000 से अधिक मोलस्क प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ विश्व की सात में से छह समुद्री कछुओं की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।
दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित कोरल ट्राएंगल, जो इंडोनेशिया, मलेशिया, फ़िलीपींस और पापुआ न्यू गिनी तक फैला है, को पृथ्वी का सबसे जैविक रूप से समृद्ध समुद्री क्षेत्र माना जाता है। यह क्षेत्र प्रवालों और उनसे जुड़े जीवन रूपों के संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रवाल भित्तियों का आर्थिक और सामाजिक महत्व भी बहुत ज़्यादा है! प्रवाल भित्तियों का अनुमानित वैश्विक आर्थिक मूल्य प्रति वर्ष लगभग £6 ट्रिलियन है। इससे मछली पकड़ने, पर्यटन उद्योग और तटीय सुरक्षा में इनके योगदान का पता चलता है। दुनिया भर में 50 करोड़ से अधिक लोग भोजन, रोजगार और सुरक्षा के लिए इन पर निर्भर हैं।
ये भित्तियाँ समुद्री लहरों की 97% तक ऊर्जा को कम कर सकती हैं, जिससे तटीय इलाकों को सुनामी जैसे खतरों से सुरक्षा मिलती है।
पारिस्थितिकी तंत्र में प्रवाल भित्तियाँ:
- मैंग्रोव वनों और समुद्री घास के मैदानों की रक्षा करती हैं।
- समुद्री जीवों के लिए नर्सरी का काम करती हैं।
- और तटीय समुदायों को भी संरक्षण प्रदान करती हैं।
कोरल रीफ़, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग हैं, जिनकी रक्षा और पुनरुद्धार के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। यह दृष्टिकोण स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तरों पर समन्वित प्रयासों पर आधारित होता है।
इस दिशा में चार प्रमुख रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं:
1. कोरल आवास की गुणवत्ता में सुधार: कोरल रीफ़ के लिए उपयुक्त वातावरण सुनिश्चित करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य किए जाते हैं। इसका उद्देश्य उन आक्रामक प्रजातियों को नियंत्रित करना है जो कोरल से स्थान और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इन गतिविधियों से कोरल के लिए एक सुरक्षित और अनुकूल निवास स्थान तैयार होता है।
2. कोरल और उनके आवास की रक्षा: संवेदनशील और जोखिमग्रस्त क्षेत्रों की पहचान कर कोरल रीफ़ को क्षति से बचाने के उपाय किए जाते हैं। आपातकालीन परिस्थितियों में तुरंत प्रतिक्रिया दी जाती है, और दुर्घटनाओं (जैसे जहाज़ों की टक्कर) से हुए नुकसान की भरपाई के उपाय किए जाते हैं। ये सभी प्रयास, कोरल रीफ़ को दीर्घकालिक क्षति से बचाते हैं।
3. कोरल की सहनशीलता और लचीलापन बढ़ाना: कोरल प्रजातियों को जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय खतरों के प्रति अधिक सहनशील बनाने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। कोरल लार्वा की मृत्यु दर को कम करने और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पुनर्स्थापन (restoration) के लिए स्थानीय व अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों की स्थापना की जा रही है।
4. कोरल का स्वास्थ्य और जीवन क्षमता सुधारना: कोरल रोगों को फैलने से रोकने और इन्हें खाने वाले जीवों के प्रभाव को कम करने के लिए नवीन तकनीकों का विकास किया जा रहा है। इन उपायों से कोरल की जीवन दर में वृद्धि होती है और प्रमुख रीफ़ क्षेत्रों में उनका संरक्षण सुनिश्चित होता है।
इन संयुक्त प्रयासों के माध्यम से कोरल रीफ़ को न केवल वर्तमान खतरों से बचाया जा सकता है, बल्कि उन्हें आने वाले समय में और भी अधिक मज़बूत और टिकाऊ बनाया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अंडमान द्वीप समूह में कोरल रीफ का स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 2031
प्रकृति 720