मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ की खादी: आज़ादी की बुनाई से लेकर वैश्विक मंच तक की पहचान
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
06-08-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब कभी आप अपने दादाजी की पुरानी अलमारी से खादी का एक झब्बा, कुर्ता या धोती निकालते हैं, तो क्या आपने महसूस किया है कि ये केवल कपड़े नहीं हैं, ये हमारी आज़ादी की सुगंध, संघर्ष की गवाही और आत्मनिर्भरता की प्रतिध्वनि हैं? मेरठ की खादी यात्रा एक आंदोलन से लेकर एक उद्योग और फिर एक वैश्विक पहचान तक पहुंची है। इसने स्वराज की कल्पना से लेकर आज के उद्यमशील भारत तक का सफर तय किया है। हर कदम पर सामाजिक चेतना, आर्थिक स्वावलंबन और सांस्कृतिक गौरव को साथ लेकर। आज जब दुनिया पर्यावरण, टिकाऊपन और सांस्कृतिक प्रामाणिकता की बात करती है, तो खादी और मेरठ दोनों का महत्व और भी बढ़ जाता है। ऐसे में हम सभी मेरठवासियों की जिम्मेदारी है कि हम इस धरोहर को केवल पहनें नहीं, बल्कि गर्व और समझ के साथ आगे बढ़ाएं, ताकि अगली पीढ़ी जान सके कि एक सूत की डोरी कैसे पूरे राष्ट्र की आत्मा को जोड़ सकती है। यहां की गलियों में घूमते चरखे, देवनागरी स्कूल की दीवारों पर लगी खादी की प्रदर्शनी, और बाजारों में विदेशी कपड़ों की होली, ये सब एक जनचेतना का प्रतीक बने।
इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे मेरठ की धरती पर खादी आंदोलन ने ऐतिहासिक रूप से अपनी जड़ें जमाईं और स्वदेशी चेतना को जन्म दिया। हम मेरठवासियों की उस भागीदारी को भी समझेंगे, जिसने समाज में आत्मनिर्भरता की भावना जगाई। इसके साथ ही आज के दौर में खादी उत्पादन का स्थानीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव है, इस पर भी विचार होगा। लेख में उत्तर प्रदेश की राष्ट्रीय खादी भागीदारी में मेरठ की भूमिका और अंत में वैश्विक मंच पर खादी की ब्रांडिंग (branding) में इस शहर के योगदान को भी विश्लेषित किया जाएगा।

मेरठ में खादी उद्योग की ऐतिहासिक जड़ें और स्वदेशी आंदोलन से संबंध
स्वदेशी आंदोलन के दौरान खादी केवल एक कपड़ा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, विरोध और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया था। मेरठ, जो पहले से ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रदूत रहा था, ने खादी आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। 1922 में जब महात्मा गांधी ने खादी को ‘स्वराज’ का प्रतीक बताया, तो मेरठ की 65% आबादी ने विदेशी वस्त्रों का त्याग कर खादी को अपनाने का साहसिक निर्णय लिया। देवनागरी स्कूल में छात्रों द्वारा लगाई गई खादी प्रदर्शनी ने न केवल स्कूल परिसर, बल्कि पूरे शहर में जागरूकता फैलाई। पार्वती देवी जैसी सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं ने घर-घर जाकर स्त्रियों को चरखा चलाने के लिए प्रेरित किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनने की राह दिखाई। यह वह दौर था जब असहयोग आंदोलन के बाद चरखे की गूंज मेरठ की गलियों में रोज़ सुनाई देती थी, एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति की साक्षात प्रतिध्वनि के रूप में।

मेरठ के खादी आंदोलन में जन भागीदारी और सामाजिक प्रभाव
खादी आंदोलन की आत्मा केवल राजनैतिक नारेबाज़ी में नहीं, बल्कि आम जनता की भागीदारी में बसती थी, और मेरठ इसका सजीव उदाहरण था। शहर और इसके आसपास के क्षेत्रों में ‘चरखा क्लब’ जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई जहाँ दैनिक कताई की जाती थी और सामूहिक रूप से चरखे चलाए जाते थे। सरधना, गढ़मुक्तेश्वर और अन्य ग्रामीण इलाकों में खादी प्रचार हेतु जागरूकता सभाएं, कताई प्रतियोगिताएं और प्रदर्शनियां आयोजित की जाती थीं। इन कार्यक्रमों में विदेशी वस्त्रों की होली जलाना केवल एक प्रतीकात्मक कार्य नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक विद्रोह बन चुका था। खादी को एक कपड़े से बढ़कर "स्वराज", आत्मगौरव और सामाजिक न्याय का माध्यम माना गया। मेरठ के जनमानस ने इसे केवल राजनीतिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि जीवनशैली के रूप में स्वीकार किया, जो हर वर्ग, हर उम्र और हर जाति के लिए समान रूप से प्रासंगिक था।
मेरठ में खादी उत्पादन की वर्तमान स्थिति और आर्थिक योगदान
आधुनिक मेरठ में खादी केवल इतिहास नहीं, बल्कि एक जीवंत आर्थिक प्रणाली है। शहर में लगभग 30,000 से अधिक पावरलूम (power loom) और हथकरघा यूनिट्स (handloom units) संचालित हो रहे हैं, जो न केवल खादी, बल्कि विविध वस्त्र उत्पादों का भी निर्माण करते हैं। यह समूह उत्तर भारत के प्रमुख वस्त्र केंद्रों में गिना जाता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुका है। चरखे और करघे आज भी करोड़ों रुपए का उत्पादन करते हैं और हज़ारों परिवारों की आजीविका का साधन हैं। विशेषकर महिलाओं, बुजुर्गों और पारंपरिक कारीगरों के लिए यह उद्योग रोजगार और गरिमा दोनों प्रदान करता है। नई पीढ़ी के डिज़ाइनर (designer) और उद्यमी भी अब खादी को एक समकालीन और पर्यावरण-संवेदनशील वस्त्र के रूप में पुनर्परिभाषित कर रहे हैं, जिससे इसका बाज़ार लगातार विस्तारित हो रहा है।

उत्तर प्रदेश और मेरठ की खादी में राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारी
राष्ट्रीय स्तर पर यदि उत्तर प्रदेश खादी के मानचित्र पर अग्रणी है, तो मेरठ उसकी केंद्रीय धुरी है। यूपी का खादी उत्पादन भारत में लगभग 84% तक का योगदान देता है, जिसमें अकेले मेरठ का हिस्सा बेहद महत्त्वपूर्ण है। राज्य के मध्य क्षेत्र में स्थित मेरठ की खादी संस्थाएं लगभग 60% हिस्सेदारी के साथ न केवल उत्पादन, बल्कि प्रशिक्षण, विपणन और नवाचार में भी देशभर में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। यहाँ उत्पादन केंद्रों से लेकर बिक्री केंद्रों तक एक सुव्यवस्थित नेटवर्क (network) है, जो योजनागत विकास का प्रमाण है। इस नेटवर्क में हजारों चरखे और करघे शामिल हैं, जिनका कार्य केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान का भी प्रतीक है। केंद्र और राज्य सरकार की खादी योजनाओं में मेरठ की सहभागिता और नीतिगत सक्रियता इसे एक आदर्श जिले के रूप में प्रस्तुत करती है।
वैश्विक स्तर पर खादी का निर्यात और ब्रांडिंग
अब खादी केवल भारत की धरोहर नहीं, बल्कि एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है, और इसमें मेरठ की भूमिका बेहद प्रभावशाली रही है। पारंपरिक रूप से "गरीबों का कपड़ा" मानी जाने वाली खादी आज "ग्लोबल फेब्रिक" (Global Fabric) की पहचान पा चुकी है। मेरठ की इकाइयाँ अब सूती, ऊनी और रेशमी खादी का निर्यात कर रही हैं, जो यूरोप (Europe), जापान, अमेरिका और खाड़ी देशों के बाज़ारों में जगह बना रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में मेरठ की खादी ने अपनी गुणवत्ता, शुद्धता और डिज़ाइन नवाचार से खूब सराहना पाई है। 'हाथ से बना, दिल से चुना' जैसे ब्रांडिंग अभियानों ने खादी को एक लग्ज़री (luxury) लेकिन नैतिक फैशन (fashion) विकल्प के रूप में स्थापित किया है। यह केवल आर्थिक अवसर नहीं, बल्कि भारत की सॉफ्ट पावर (soft power) को भी सशक्त करने का माध्यम बनता जा रहा है,और मेरठ इसका गर्वित प्रतिनिधि है।
संदर्भ-
जानवरों के शोक में छिपे भाव: मेरठवासियों, क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है?
व्यवहारिक
By Behaviour
05-08-2025 09:28 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, हमारा शहर जहाँ एक ओर अपनी खेलनगरी की पहचान, सैनिक परंपराओं की विरासत और जिंदादिली से भरपूर जीवनशैली के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर यहाँ के लोग भावनाओं और रिश्तों को भी उतनी ही गहराई से समझते हैं। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि सिर्फ हम इंसान ही नहीं, बल्कि अन्य जीव-जंतु भी बेहद भावुक होते हैं? वे भी अपने जीवनसाथी, बच्चे या साथी की मृत्यु पर दुख महसूस करते हैं, और कभी-कभी वह दुख उनके पूरे व्यवहार में झलकता है। यह कोई भावनात्मक कल्पना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया जा चुका एक सत्य है। जानवरों की आँखों की नमी, उनकी चुप्पी, उनके बदलते व्यवहार और साथी की खोज में की गई हलचलों में भी एक गहराई होती है, एक ऐसा मौन शोक, जो हम इंसानों को भी रिश्तों और संवेदनाओं की एक नई परिभाषा सिखा सकता है।
इस लेख में हम जानवरों के शोक प्रकट करने के व्यवहार को चार महत्वपूर्ण पहलुओं के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि हाथी अपने मृत साथियों के लिए किस प्रकार की शोक-प्रक्रियाएं अपनाते हैं और उनका यह व्यवहार कितना संवेदनशील होता है। इसके बाद, हम जानेंगे कि जब जानवर किसी प्रिय को खोते हैं तो उनके व्यवहार में किस तरह के परिवर्तन आते हैं। तीसरे हिस्से में, हम कुछ ऐसे प्रमुख जानवरों के उदाहरणों पर नज़र डालेंगे जो इंसानों की तरह ही शोक व्यक्त करते हैं। अंत में, हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह जानने का प्रयास करेंगे कि जानवरों में शोक की भावना कितनी गहराई लिए होती है और इसे कैसे अध्ययन किया जाता है।

हाथियों द्वारा अपने मृत साथियों के लिए निभाई जाने वाली शोक-प्रक्रियाएं
हाथी, केवल अपने विशाल शरीर के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी भावनात्मक संवेदनशीलता के लिए भी जाने जाते हैं। जब किसी झुंड का सदस्य मर जाता है, तो हाथी केवल उसे छोड़कर नहीं चले जाते। वे अक्सर कई घंटों, और कई बार तो दिनों तक, उस मृत हाथी के पास रहकर एक प्रकार की “अंतिम विदाई” अदा करते हैं। वे मृत शरीर को सूंड से धीरे-धीरे छूते हैं – जैसे कोई प्रियजन आखिरी बार अपने किसी अपने के चेहरे को सहला रहा हो। कुछ घटनाओं में यह भी देखा गया है कि हाथी मृत शरीर को मिट्टी, पत्तों या शाखाओं से ढकने का प्रयास करते हैं – यह व्यवहार एक प्रकार की “प्राकृतिक अंतिम क्रिया” जैसा प्रतीत होता है। यह केवल आदत नहीं, बल्कि एक सामाजिक और भावनात्मक क्रिया है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह जानवर भी जीवन और मृत्यु को हमारी ही तरह महसूस करते हैं?
कई चिड़ियाघरों में एक ऐसी ही मार्मिक घटना सामने आई थी, जब हाथियों की एक जोड़ी में से एक का निधन हुआ। बचे हुए हाथी ने कई दिनों तक खाना कम कर दिया, और बार-बार उसी स्थान पर जाकर रुकता, जहाँ उसका साथी आखिरी बार देखा गया था। उसके व्यवहार में एक गहरी उदासी और चुप्पी देखने को मिली। इस तरह की घटनाएं हमें याद दिलाती हैं कि जानवरों के पास भी भावनाओं की एक पूरी दुनिया है – बस वे शब्दों में नहीं कह पाते।
शोकग्रस्त जानवरों के व्यवहार में आने वाले आम परिवर्तन
जब जानवर शोक में होते हैं, तो उनकी दिनचर्या में ऐसे परिवर्तन आते हैं जो इंसानों के दुःख से मिलते-जुलते हैं। जैसे हम अपनों को खोने के बाद गुमसुम हो जाते हैं, वैसे ही जानवर भी मौन, अलगाव और रुचि की कमी के संकेत देते हैं। वे खाना छोड़ देते हैं, थके-थके रहते हैं और पहले की तरह सामाजिक नहीं रहते। बंदरों में तो यह साफ देखा गया है – जब उनका कोई प्रिय मर जाता है, तो वे शव के पास घंटों या दिनों तक बैठे रहते हैं, और दुःख से भरे स्वर में रोते हैं। पालतू कुत्ते, जो अपने मालिक या साथी जानवर से बहुत गहरा भावनात्मक रिश्ता बना लेते हैं, उनके लिए इस तरह की हानि बहुत भारी होती है। वे अक्सर उस जगह पर लौटते हैं जहाँ उन्हें आखिरी बार देखा था, और घंटों दरवाजे की ओर देखते रहते हैं, जैसे कि कोई लौट आएगा। कई पशु प्रेमियों ने साझा किया है कि उनके कुत्तों ने परिवार के किसी सदस्य के निधन के बाद खाना छोड़ दिया, रोने जैसी आवाज़ें निकालना शुरू कर दीं, और कई हफ्तों तक सुस्त बने रहे। एक पशु प्रेमी ने बताया कि उनका बिल्ली का बच्चा, अपने साथी की मृत्यु के बाद हर दिन बालकनी (balcony) में जाकर एक ही कोने में घंटों बैठा रहता था। ये संकेत बताते हैं कि जानवर भी हमारे जैसी भावनाएं महसूस करते हैं, बस वे उन्हें जताने का तरीका अलग रखते हैं।

इंसानों की तरह शोक जताने वाले प्रमुख जानवरों के उदाहरण
भावनाएं सिर्फ इंसानों की विशेषता नहीं हैं। कई जानवर ऐसे हैं जो अपने मृत परिजनों, दोस्तों या बच्चों के लिए वही भावनाएँ दर्शाते हैं जो हम अपने प्रियजनों के लिए महसूस करते हैं। डॉल्फ़िन्स (Dolphins) का उदाहरण लें – जब उनका बच्चा मर जाता है, तो वे उसे पानी की सतह पर तैराकर अपने साथ घंटों या दिनों तक रखती हैं। वे न केवल शरीर से चिपकी रहती हैं, बल्कि कभी-कभी उसे ऊपर लाने की कोशिश करती हैं, मानो उसे फिर से सांस दिलाना चाहती हों। चिंपैंज़ी (Chimpanzee) अपने मरे हुए बच्चे को गोद में लिए रहते हैं, कभी-कभी जब तक वह गल न जाए। वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। यह एक असहनीय दुःख है जिसे वे अपनी चुप्पी और अपने व्यवहार से प्रकट करते हैं। जिराफ़ों (Giraffe) में भी यह संवेदना देखी गई है – वे मृत शावक के पास खड़े रहते हैं, उसे सूंघते हैं, और गर्दन लपेटकर जैसे “गले लगाने” की कोशिश करते हैं। ऐसी ही एक घटना सामने आई, जहाँ एक गाय ने अपने मरे हुए बछड़े के पास तीन दिन तक बिना कुछ खाए-पिए समय बिताया। यह एक सजीव उदाहरण है कि भावनाएं केवल भाषा में नहीं होतीं – वे आचरण में, मौन में और आँखों में होती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जानवरों में शोक की भावना की समझ
जब विज्ञान इस विषय की पड़ताल करता है, तो हमें पता चलता है कि जानवरों के दिमाग में भी वही तंत्र काम करता है जो इंसानों के दुख और भावनाओं को नियंत्रित करता है। “लिम्बिक सिस्टम” (limbic system) और “अमिगडाला” (amygdala) – जो हमारे भावनात्मक अनुभवों के केंद्र हैं – जानवरों में भी सक्रिय पाए गए हैं। यही कारण है कि हाथी, चिंपैंज़ी, भेड़िए और कई सामाजिक प्रजातियाँ दुःख, प्रेम और लगाव जैसे जटिल भावों को गहराई से अनुभव करती हैं। सामाजिक संरचना इन भावनाओं को और मज़बूत करती है। जो जानवर झुंड में रहते हैं, वे एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। उनके जीवन में सामाजिक संपर्क, देखभाल, और रिश्तों की भूमिका उतनी ही अहम होती है जितनी इंसानों में। इसलिए जब ऐसा कोई रिश्ता टूटता है, तो वे शोक व्यक्त करते हैं। मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के पशु विज्ञान विभाग ने जानवरों में भावनात्मक व्यवहार पर कई प्रोजेक्ट्स (projects) शुरू किए हैं, जिनका उद्देश्य जानवरों को केवल “पालतू” या “जंगली” के रूप में नहीं, बल्कि “संवेदनशील प्राणी” के रूप में देखना है। यह शोध हमें इस बात की ओर ले जाता है कि हमें जानवरों के साथ हमारा व्यवहार मानवीय और करुणामय बनाना चाहिए।
संदर्भ-
मेरठ की चहचहाहट: गांधी बाग से हस्तिनापुर तक पक्षियों का जैविक संसार
पंछीयाँ
Birds
04-08-2025 09:25 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी सुबह की उस चहचहाहट पर ध्यान दिया है, जो आपके घर के आसमान में गूंजती है? या क्या आपने गांधी बाग में रंग-बिरंगे पक्षियों को खुले आसमान में उड़ान भरते हुए देखा है? आपका शहर न केवल ऐतिहासिक धरोहरों और औद्योगिक विकास के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की हरियाली और वन्यजीवों का एक अनोखा संसार भी है — विशेषकर पक्षियों का। गांधी बाग में होने वाले बर्ड वॉचिंग शो (Bird Watching Show) से लेकर हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य की जैव विविधता तक, मेरठ में पक्षियों को देखने और समझने के अवसर अद्वितीय हैं। ये न सिर्फ पर्यावरण के लिए, बल्कि आपके बच्चों की जागरूकता और शहर की सांस्कृतिक चेतना के लिए भी बेहद ज़रूरी हैं।
आज के इस लेख में हम पाँच महत्वपूर्ण उपविषयों पर चर्चा करेंगे। पहले हम मेरठ के बागों में पक्षी संरक्षण की भूमिका को देखेंगे, फिर हस्तिनापुर अभयारण्य की जैव विविधता को जानेंगे। तीसरे भाग में पक्षियों द्वारा पारिस्थितिक सेवाओं को समझेंगे, फिर विलुप्त हो रही पक्षी प्रजातियों पर संकट की स्थिति देखेंगे और अंत में मेरठ में किए जा रहे संरक्षण प्रयासों और जनजागरूकता कार्यक्रमों पर रोशनी डालेंगे।
मेरठ के बागों और अभयारण्यों की पक्षीविज्ञान में भूमिका
मेरठ शहर का गांधी बाग न केवल एक ऐतिहासिक और शांत स्थल है, बल्कि यह पक्षी प्रेमियों के लिए भी स्वर्ग समान है। यहाँ हर वर्ष आयोजित होने वाला बर्ड वॉचिंग शो शहरवासियों को देश-विदेश के विभिन्न पक्षियों से परिचित कराता है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि वन्यजीवों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता फैलाना है। इसमें विभिन्न विद्यालयों के छात्र, स्थानीय नागरिक, वन अधिकारी और पक्षी विशेषज्ञ भाग लेते हैं। कार्यक्रम के दौरान आयोजित फोटो प्रदर्शनी (Photo Exhibition) के माध्यम से लोगों को यह बताया जाता है कि कैसे पक्षी हमारी पारिस्थितिकी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसके अतिरिक्त कंपनी बाग जैसे हरित क्षेत्र शहर में शहरी जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करते हैं। आज जब नगरों में हरियाली घट रही है, ऐसे में इन बागों का महत्व और भी बढ़ गया है, जो स्थानीय और प्रवासी पक्षियों को एक सुरक्षित स्थान प्रदान करते हैं।

हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य: पक्षियों की विविधता का भंडार
मेरठ के पास स्थित हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य उत्तर भारत के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इसकी स्थापना 1986 में हुई थी और यह 2073 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। गंगा नदी के मैदानी क्षेत्र में स्थित यह अभयारण्य पक्षियों के लिए आदर्श आवास है। यहाँ 117 से अधिक पक्षी प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं, जिनमें गिद्ध, सारस क्रेन (Sarus Crane), ब्लैक आइबिस (Black Ibis), एशियन ओपन बिल्ड स्टॉर्क (Asian Open Billed Stork), और इंडियन पीफाउल (Indian Peafowl) जैसे पक्षी शामिल हैं। यहाँ पर प्रवासी पक्षियों का आना एक बड़ी पारिस्थितिक घटना मानी जाती है, जिससे यह क्षेत्र पक्षी प्रेमियों के लिए बेहद आकर्षक बन गया है। हस्तिनापुर अभयारण्य में न केवल पक्षी बल्कि दलदली हिरण, घड़ियाल, गंगा डॉल्फिन (Ganges Dolphine) जैसी प्रजातियाँ भी निवास करती हैं। इन सबके संरक्षण के लिए सरकार और स्थानीय समुदायों का सहयोग आवश्यक है।

पारिस्थितिकी तंत्र में पक्षियों की सेवाएं
पक्षी हमारे पारिस्थितिकी तंत्र की रीढ़ हैं। वे परागण, बीज फैलाव और कीट नियंत्रण जैसी महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ पक्षी पौधों के बीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हैं, जिससे पौधों का प्रजनन चक्र सुदृढ़ होता है। इसके अलावा, कई पक्षी हानिकारक कीटों को खाकर प्राकृतिक कीट नियंत्रण में मदद करते हैं, जिससे किसानों को कीटनाशकों पर निर्भरता घटती है।
पक्षियों की सांस्कृतिक भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है — ये लोककला, संगीत और धार्मिक प्रतीकों में सदियों से उपस्थित रहे हैं। इनके अंडे, पंख और कलात्मक चित्रण आज भी सौंदर्य और व्यापार का केंद्र हैं। इस प्रकार, पक्षी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं।
विलुप्त होती पक्षी प्रजातियाँ और जैव विविधता पर संकट
हाल के वर्षों में पक्षियों की कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। खासकर गिद्धों की संख्या में 38% से 53% तक गिरावट दर्ज की गई है। इसी तरह शिकारी पक्षियों और समुद्री पक्षियों की भी संख्या घट रही है। इस गिरावट का मुख्य कारण पर्यावरणीय प्रदूषण, शहरीकरण, रासायनिक कृषि और जलवायु परिवर्तन है। जब कोई पक्षी प्रजाति विलुप्त होती है, तो उसका असर पूरे पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ता है। परागण में कमी, बीज फैलाव में बाधा, कीट नियंत्रण का संकट — ये सब सीधे मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम समय रहते इन प्रजातियों का संरक्षण करें।

संरक्षण की दिशा में प्रयास: शो, प्रदर्शनी और जागरूकता
मेरठ शहर में वन विभाग, स्थानीय प्रशासन और जागरूक नागरिकों द्वारा पक्षी संरक्षण की दिशा में कई सकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं। गांधी बाग में बर्ड वॉचिंग शो के आयोजन से लेकर वन्यजीव फोटो प्रदर्शनी तक, यह प्रयास केवल शोभा नहीं, बल्कि शिक्षा और चेतना के माध्यम हैं। विद्यालयों के छात्रों को इन आयोजनों में भाग लेने का अवसर दिया जाता है, जिससे उनमें बचपन से ही पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता विकसित होती है। वन अधिकारी और विशेषज्ञ भी मौके पर बच्चों को पक्षियों के जीवन चक्र, उनके आवास और पारिस्थितिक योगदान के बारे में जानकारी देते हैं। इन प्रयासों से न केवल मौजूदा जैव विविधता को संरक्षित किया जा सकता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों में भी संरक्षण की भावना विकसित की जा सकती है।
संदर्भ-
मेरठ सिटी जंक्शन: शहर की धड़कन और रेल यातायात की रीढ़
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
03-08-2025 09:31 AM
Meerut-Hindi

मेरठ, उत्तर भारत का ऐतिहासिक और तेजी से विकसित होता शहर, सिर्फ अपने स्वतंत्रता संग्राम, खेल और शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपने रेल नेटवर्क (rail network) के लिए भी जाना जाता है। इस शहर की जीवनरेखा बन चुके दो प्रमुख स्टेशन — मेरठ सिटी जंक्शन (MTC) और मेरठ कैंट (MUT) — रोज़ाना लाखों यात्रियों की आवाजाही को सम्भालते हैं, और साथ ही शहर के औद्योगिक और सैन्य पक्ष को भी मज़बूती प्रदान करते हैं।
पहले वीडियो में हम मेरठ सिटी जंक्शन को देखेंगे और उसकी मुख्य विशेषताओं को जानेंगे।
मेरठ सिटी जंक्शन न केवल मेरठ का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है, बल्कि यह पूरे क्षेत्र की रेल यात्रा का केंद्रबिंदु भी बन चुका है। 1911 में ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित यह स्टेशन आज उत्तरी रेलवे ज़ोन के अधीन संचालित होता है और दिल्ली–सहारनपुर व मेरठ–खुर्जा रेल मार्गों को जोड़ने वाला अहम जंक्शन है।
प्रमुख विशेषताएँ:
• स्टेशन पर कुल 6 प्लेटफॉर्म (platform) और 13 ट्रैक (track) हैं, जो इलेक्ट्रिक डबल लाइन (electric double line) से सुसज्जित हैं, जिससे ट्रेनों की आवाजाही तेज़ और सुगम हो पाती है।
• 78 से अधिक ट्रेनों का नियमित ठहराव, जिनमें नौचंदी एक्सप्रेस (Express), संगम एक्सप्रेस, राज्य रानी एक्सप्रेस और अत्याधुनिक वंदे भारत एक्सप्रेस जैसी प्रमुख ट्रेनें शामिल हैं।
• यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशन पर कैटरिंग (catering), एटीएम (ATM), वेटिंग रूम (visiting room), डाकघर (पोस्ट ऑफिस) और एक रेलवे अस्पताल जैसी आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध हैं।
• वर्ष 2023 से स्टेशन पर आधुनिक रूट रिले इंटरलॉकिंग सिस्टम (Route Relay Interlocking System) और कोच केयर यार्ड (Coach Care Yard) जैसी उन्नत तकनीकी सुविधाएँ भी सक्रिय हैं।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से हम मेरठ सिटी जंक्श के बारे में जानेंगे, और इसके बाद भारत के कुछ सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशनों के बारे में जानेंगे।
मेरठ के खेतों में गूंजती मशीनों की आवाज़: गन्ना क्रांति में उपकरणों की भूमिका
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
02-08-2025 09:34 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब भी हमारे आसपास के खेतों में हरियाली लहराती है और गन्ने की पंक्तियाँ दूर-दूर तक फैली दिखाई देती हैं, तो यह नज़ारा न सिर्फ उपज की बात करता है, बल्कि उस मेहनत और तकनीक की कहानी भी कहता है, जो किसान के साथ मिलकर फसल को सफल बनाते हैं। मेरठ और उसके आस-पास के क्षेत्र, जैसे बागपत, मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर, उत्तर भारत के गन्ना उत्पादन में अग्रणी रहे हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस ऊँचे और मीठे फसल की इस सफलता के पीछे कौन-कौन से आधुनिक उपकरण और तकनीकी नवाचार शामिल हैं? आज की इस चर्चा में हम जानेंगे कि किस तरह आधुनिक कृषि उपकरणों ने मेरठ क्षेत्र के गन्ना उत्पादन को नई ऊँचाई दी है।
इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, खासकर मेरठ और उसके आसपास के क्षेत्रों में कृषि को किस तरह ऐतिहासिक और भौगोलिक विशेषताएँ लाभ पहुंचाती हैं। हम यह भी देखेंगे कि गन्ना उत्पादन में मेरठ की क्या खास भूमिका रही है और किस तरह आधुनिक कृषि उपकरणों ने इस खेती को और भी समृद्ध बनाया है। साथ ही, हम समझेंगे कि गन्ने की खेती में कौन-कौन से आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल होता है और कैसे ये उपकरण किसानों की मेहनत को कम करके उनकी आय और उत्पादन क्षमता में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी करते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि का ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व
पश्चिमी उत्तर प्रदेश सदियों से भारत की कृषि समृद्धि का केंद्र रहा है। विशेष रूप से गंगा और यमुना के दोआब में स्थित मेरठ, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर जैसे ज़िलों की भूमि इतनी उपजाऊ है कि यहां दालों से लेकर तिलहन तक और गेहूं से लेकर गन्ना तक हर फसल भरपूर होती है। इस क्षेत्र में सिंचाई की समृद्ध व्यवस्था भी कृषि को सहयोग देती है। गंगा नहर प्रणाली और स्थानीय ट्यूबवेल सिस्टम (tube well system) इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ब्रिटिश (British) काल से लेकर आज तक, मेरठ को एक प्रमुख कृषि मंडी के रूप में देखा गया है। राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर उर्वरक, बीज और बिजली की उपलब्धता को बेहतर बनाना भी कृषि की वृद्धि में सहायक रहा है। यहीं के किसान सबसे पहले हरित क्रांति की तकनीक को अपनाने वालों में थे, जिससे यह क्षेत्र उत्तर भारत के सबसे उन्नत कृषि क्षेत्र में बदल गया।
गन्ना उत्पादन में मेरठ और आस-पास के क्षेत्रों की विशेष भूमिका
गन्ना, मेरठ मंडल की पहचान बन चुका है। हालांकि बिजनौर और लखीमपुर खीरी जैसे ज़िले भी गन्ना उत्पादन में आगे हैं, परंतु मेरठ का योगदान कम नहीं आँका जा सकता। यहां की जलवायु, सिंचाई व्यवस्था और किसानों की मेहनत इस फसल को सफल बनाने में निर्णायक रही है। मेरठ और इसके आसपास लगभग हर गाँव में कोई न कोई किसान गन्ना जरूर उगाता है। राज्य की 119 चीनी मिलों में कई मेरठ मंडल में स्थित हैं, जो यहाँ की फसल को प्रोसेस (process) कर शक्कर, इथेनॉल (ethanol) और गुड़ में बदलती हैं। 2022-23 की फसल रिपोर्ट (Crop Report) के अनुसार, उत्तर प्रदेश में गन्ने की औसत उपज 70 टन प्रति हेक्टेयर (hectare) रही, जिसमें मेरठ क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ के किसानों ने मौसम की अनुकूलता के साथ-साथ वैज्ञानिक विधियों और उपकरणों के उपयोग से उत्पादन में निरंतर वृद्धि की है।
आधुनिक कृषि उपकरणों की परिभाषा और उनकी मूलभूत जरूरतें
आज की खेती बिना आधुनिक कृषि उपकरणों के अधूरी है। उपकरण जैसे ट्रैक्टर (Tractor), हार्वेस्टर (Harvester), सीड ड्रिल (Seed Drill), पावर टिलर (Power Tiller), स्प्रिंकलर (Sprinkler) आदि सिर्फ मेहनत कम नहीं करते, बल्कि उत्पादकता और समय दोनों की बचत करते हैं। परंपरागत तरीके जहाँ घंटों लगाते थे, वहीं आधुनिक मशीनें मिनटों में कार्य पूर्ण कर देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां पहले खेत की जुताई बैल और हल से होती थी, आज वही कार्य ट्रैक्टर और कल्टीवेटर (cultivator) से कुछ घंटों में संभव है। बीज बोने के लिए ‘सीड ड्रिल’ जैसी मशीनें सटीक और एकसमान बोवाई करती हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में सुधार आता है। सिंचाई में पंप (pump) और स्प्रिंकलर जैसी तकनीकों ने पानी की बचत और फसल के पूर्ण पोषण को सुनिश्चित किया है। इस प्रकार, उपकरणों ने मेरठ के किसानों को आत्मनिर्भर और अधिक व्यावसायिक बनाया है।
गन्ना उत्पादन में प्रयुक्त प्रमुख उपकरण और तकनीकी नवाचार
गन्ना एक श्रम-प्रधान फसल है, जिसके लिए खेत की गहरी जुताई, सटीक बोवाई, समय पर सिंचाई और प्रभावशाली कटाई आवश्यक होती है। इन सभी कार्यों को करने के लिए अब आधुनिक उपकरणों का सहारा लिया जा रहा है। गन्ने की कटाई के लिए 'सुगरकेन हार्वेस्टर' (sugarcane harvester) मशीनें बड़े पैमाने पर प्रयुक्त हो रही हैं। ये मशीनें एक ही बार में गन्ना काटने, पत्तियों को अलग करने और लोडिंग (loading) तक का कार्य करती हैं। बीजों की रोपाई के लिए 'प्लांटर' (planter) और मिट्टी तैयार करने के लिए 'रोटावेटर' (rotavator) जैसे उपकरण बहुत सहायक साबित हुए हैं। सिंचाई में 'ड्रिप इरिगेशन' (drip irrigation) प्रणाली ने जल संरक्षण के साथ-साथ गन्ने की गुणवत्ता को भी बेहतर बनाया है। मेरठ के किसान इन तकनीकों को तेजी से अपना रहे हैं और प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से नए उपकरणों का उपयोग सीख रहे हैं। इससे खेती की रफ्तार और लाभ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।

आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: लागत में कमी और किसानों की आय में वृद्धि
आधुनिक कृषि उपकरणों के आगमन से मेरठ के किसानों को जो सबसे बड़ा लाभ मिला है, वह है श्रम और समय में कमी और आय में बढ़ोतरी। पहले जो काम 10 मज़दूर करते थे, आज एक मशीन वही कार्य कुछ घंटों में कर देती है। इससे उत्पादन की लागत में भारी कटौती हुई है। साथ ही, गन्ने की अधिक उपज और गुणवत्ता के कारण किसान अब अपनी उपज बेहतर दाम पर बेच पा रहे हैं। सरकारी योजनाओं और अनुदान के चलते गरीब और मध्यम वर्ग के किसान भी इन उपकरणों को किराए पर लेकर उपयोग में ला पा रहे हैं। इससे सामाजिक स्तर पर भी एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। किसान तकनीक से जुड़कर नई सोच और नवाचार की ओर बढ़ रहे हैं, जिससे युवा वर्ग भी खेती को रोजगार का विकल्प मानने लगा है।
संदर्भ-
क्या मेरठ भी महसूस कर सकता है ट्यूलिप की वो रंगीन ख़ामोशी?
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-08-2025 09:38 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, फूलों की इस रंग-बिरंगी दुनिया में हर पुष्प अपनी एक अलग कहानी कहता है — कहीं गुलाब अपनी खुशबू से दिल जीतता है, कहीं सूरजमुखी सूरज की ओर मुस्कुराता है, और कहीं-कहीं एक ऐसा फूल भी खिलता है जो केवल सुंदर ही नहीं, बल्कि इतिहास में एक पूरे युग का प्रतीक बन चुका है। आपने शायद ट्यूलिप (Tulip) का नाम सुना हो, वह मोहक पुष्प जिसकी एक झलक ने कभी यूरोप (Europe) को दीवाना बना दिया था। यह सिर्फ एक फूल नहीं था, बल्कि प्रेम, वैभव और पागलपन का प्रतीक बन गया था। उसकी लालिमा और पीली रेखाओं वाली पंखुड़ियाँ जैसे किसी चित्रकार की कूंची से निकली हो। आज जब हम मेरठ के अपने पार्कों (parks) और उद्यानों की बात करते हैं, तो यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि फूलों की इस वैश्विक संस्कृति में ट्यूलिप जैसे पुष्प कैसे सौंदर्य, परंपरा और यहाँ तक कि आर्थिक इतिहास का भी हिस्सा बनते हैं। ऐसे में यह लेख ट्यूलिप की उसी मंत्रमुग्ध कर देने वाली यात्रा को आपके सामने लाने का प्रयास है।
इस लेख में हम ट्यूलिप पुष्प की उत्पत्ति और इसके मध्य एशिया से यूरोप तक के ऐतिहासिक सफ़र को जानेंगे। फिर इसकी प्रमुख विशेषताओं जैसे गंधहीनता, रंगों की विविधता और प्रजातियों की विविधता पर चर्चा करेंगे। इसके बाद भारत में विशेष रूप से उत्तराखंड और कश्मीर में इसकी खेती कैसे की जाती है और इसके लिए कैसी जलवायु चाहिए, यह समझेंगे। फिर हम ट्यूलिप मेनिया नामक ऐतिहासिक आर्थिक संकट की कहानी को भी जानेंगे। अंत में, आधुनिक समय में इसकी वैश्विक लोकप्रियता और भारत में इसकी सांस्कृतिक व पर्यटन से जुड़ी भूमिका पर बात करेंगे।
ट्यूलिप पुष्प की उत्पत्ति और ऐतिहासिक यात्रा
ट्यूलिप एक ऐसा पुष्प है जिसकी जड़ें केवल मिट्टी में नहीं, बल्कि इतिहास के पन्नों में भी गहराई से फैली हुई हैं। इसका जन्म मध्य एशिया के ठंडे और पर्वतीय इलाक़ों में हुआ, जहाँ यह एक जंगली फूल के रूप में उगता था। 11वीं सदी के आसपास तुर्कों ने सबसे पहले इसकी सजावटी खेती शुरू की, और इसके सौंदर्य ने देखते ही देखते समूचे साम्राज्य को मंत्रमुग्ध कर दिया। ‘ट्यूलिप’ नाम फारसी शब्द ‘तोलिबन’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है पगड़ी — क्योंकि जब इस पुष्प को उल्टा किया जाए तो इसका आकार पगड़ी जैसा प्रतीत होता है। 1554 में ट्यूलिप ने तुर्की से ऑस्ट्रिया (Austria) की ओर कूच किया, और 1571 में हॉलैंड (Holland) में इसकी उपस्थिति ने फूलों की दुनिया को एक नया आयाम दिया। 1577 में जब यह इंग्लैंड (England) पहुँचा, तब यूरोप के कुलीन वर्गों ने इसे ‘गौरव का प्रतीक’ बना लिया। इसके पहले उल्लेख स्विस वनस्पति विज्ञानी कोनराड गेसेनर (Conrad Gessner) के लेखों और चित्रों में 1559 में मिलते हैं, जिसके आधार पर इसका वानस्पतिक नाम ट्यूलिप गेस्नेरियाना (Tulipa gesneriana) पड़ा। इस फूल की लोकप्रियता केवल बगीचों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह कविता, चित्रकला और फैशन (fashion) का हिस्सा बन गया — और इसी ने इसे वैश्विक पहचान दिलाई।
ट्यूलिप पुष्प की प्रमुख विशेषताएँ और प्रजातियाँ
ट्यूलिप की सबसे खास बात यह है कि यह अपने रंग और रूप के कारण तो विशेष है ही, साथ ही इसका जैविक और दृश्य सौंदर्य भी अद्वितीय होता है। इसकी 100 से भी अधिक जानी-पहचानी प्रजातियाँ हैं, जिनसे दुनिया भर में लगभग 4000 से अधिक किस्में तैयार की जा चुकी हैं। इन किस्मों में हर एक का रंग, बनावट और आकार अलग होता है, जैसे लाल ट्यूलिप प्रेम का प्रतीक माने जाते हैं, पीले रंग वाले हर्ष और सुख का संकेत देते हैं, जबकि बैंगनी रंग राजसी गरिमा का द्योतक होता है। इन फूलों में एक अनोखी विशेषता यह है कि ये सभी गंधहीन होते हैं, यानी इनमें कोई महक नहीं होती और फिर भी इनका रंगीन आकर्षण ऐसा होता है कि हर किसी का ध्यान खींच लेता है। कुछ ट्यूलिप किस्में मिश्रित रंगों में भी आती हैं, जिनकी पंखुड़ियाँ किसी चित्रकार की कल्पना से कम नहीं लगतीं। ट्यूलिप पुष्प सामान्यतः छोटे होते हैं, लेकिन कुछ प्रजातियों की डंठल 760 मिमी (millimeter) तक लंबी हो सकती हैं। यही विशेषताएँ इन्हें दुनिया भर में हर मौसम और समारोह के लिए पसंदीदा फूल बनाती हैं। मेरठ के बाग़-बग़ीचों में शायद ये न मिलें, लेकिन यहाँ के फूलप्रेमी इनकी कलात्मकता और विविधता से अवश्य प्रेरणा ले सकते हैं।
भारत में ट्यूलिप की खेती और जलवायु आवश्यकताएँ
भारत जैसे विविध जलवायु वाले देश में ट्यूलिप केवल विशेष क्षेत्रों में ही फल-फूल सकता है। मुख्यतः यह उत्तर भारत के ऊँचाई वाले क्षेत्रों — विशेषकर कश्मीर और उत्तराखंड — में उगाया जाता है। यह फूल समुद्र तल से 1500 से 2500 मीटर की ऊँचाई पर अच्छी तरह विकसित होता है, जहाँ मौसम ठंडा, नमीयुक्त और तुलनात्मक रूप से शांत होता है। इसकी खेती अक्टूबर-नवंबर यानी दीपावली के आसपास की जाती है, जब वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी होती है और मिट्टी की जल-धारण क्षमता भी नियंत्रित हो जाती है। ट्यूलिप की बुवाई के लिए रेतीली और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। मिट्टी में पूरी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद डाली जाती है, जबकि कच्ची खाद का प्रयोग इसके बीजों के लिए हानिकारक माना जाता है। सिंचाई में भी सावधानी ज़रूरी है — मिट्टी में नमी बनी रहनी चाहिए, परंतु जलजमाव किसी भी सूरत में नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मैदानों में, विशेषकर मेरठ जैसे शहरों में इसकी खेती चुनौतीपूर्ण है। हालांकि, यहाँ के बागवानी प्रेमी ट्यूलिप को गमलों या ग्रीनहाउस (greenhouse) में सीमित स्तर पर उगाने का प्रयोग ज़रूर कर सकते हैं, जो कि एक नई बागवानी संस्कृति को जन्म दे सकता है।
ट्यूलिप मेनिया: एक आर्थिक संकट की कहानी
ट्यूलिप का इतिहास केवल सौंदर्य और कृषि तक सीमित नहीं है; इस फूल ने 17वीं सदी में यूरोप की अर्थव्यवस्था में ऐसी हलचल मचाई जो आज तक मिसाल बनी हुई है। जब समुद्री व्यापार ने रफ़्तार पकड़ी और अमीर व्यापारी वर्ग का उदय हुआ, तब ट्यूलिप एक विलासिता के प्रतीक के रूप में उभर आया। बाग़ों और उपहारों में इसकी माँग इतनी बढ़ी कि इसकी विशेष किस्मों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं।
इसी दौरान एक विशेष प्रकार का ट्यूलिप — जिसकी पंखुड़ियाँ जलती हुई आग की तरह प्रतीत होती थीं — एक वायरस के कारण बहुत दुर्लभ हो गया। सात वर्षों में एक बार खिलने वाला यह पुष्प इतना अनोखा था कि लोगों ने इसके लिए घर, ज़मीन और पूरी सम्पत्ति दाँव पर लगा दी। लेकिन जैसे ही माँग एकाएक घटी, ट्यूलिप की क़ीमतें भी ज़मीन पर आ गिरीं, और जिन लोगों ने इसे ऊँचे दामों में खरीदा था, वे कंगाल हो गए। इस घटना को इतिहास में “ट्यूलिप मेनिया” (Tulip Mania) के नाम से जाना जाता है — जो आज भी वित्तीय दुनिया में अत्यधिक सट्टा निवेश के ख़तरों की चेतावनी के रूप में देखा जाता है। यह कहानी मेरठ के उद्यमियों और निवेशकों के लिए भी एक सबक है कि किसी भी चीज़ में निवेश करते समय तात्कालिक आकर्षण से अधिक दीर्घकालिक विवेक ज़रूरी होता है।

आधुनिक समय में ट्यूलिप की वैश्विक और भारतीय उपस्थिति
आज ट्यूलिप वैश्विक पुष्प संस्कृति का एक मजबूत स्तंभ बन चुका है। इसकी खेती और बिक्री केवल वाणिज्यिक क्षेत्र तक सीमित नहीं, बल्कि यह फूल प्रेम, कला, समारोह और पर्यटन का एक सुंदर प्रतीक भी बन चुका है। शादी-ब्याह की सजावट, अंतरराष्ट्रीय उपहार, ग्रीनहाउस नर्सरी (greenhouse nursery) और यहां तक कि महंगे परफ्यूम ब्रांड्स (Perfume Brands) में भी इसकी पहचान है। भारत में इसका सबसे भव्य और प्रसिद्ध उदाहरण श्रीनगर स्थित इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्यूलिप गार्डन (Indira Gandhi Memorial Tulip Garden) है, जिसे पहले सिराज बाग़ के नाम से जाना जाता था। यहाँ हर साल वसंत ऋतु में लगभग 64 किस्मों के 15 लाख से अधिक ट्यूलिप खिलते हैं — और यह दृश्य किसी सपने जैसा लगता है। यह गार्डन न केवल कश्मीर की सुंदरता को दर्शाता है, बल्कि देशी और विदेशी पर्यटकों के लिए एक अद्वितीय आकर्षण भी है। मेरठ के प्रकृति प्रेमी और पर्यटक यदि कभी कश्मीर या उत्तराखंड की यात्रा करें, तो ट्यूलिप बाग़ों की सैर अवश्य करें। यह केवल एक फूल देखने का अनुभव नहीं होगा, बल्कि एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भावनात्मक यात्रा भी होगी — जो जीवन भर स्मृति में बसी रहेगी।
संदर्भ-
जहाँ कृष्ण बेटे जैसे हैं: मेरठ की भक्ति में ममता और प्रेम का संगम
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
31-07-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठ की मिट्टी सिर्फ़ इतिहास की कहानियाँ नहीं कहती, बल्कि इसमें भावनाओं, आस्थाओं और रिश्तों की मिठास भी घुली हुई है। इस शहर की धार्मिक संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है वात्सल्य रस, वह भावना जहाँ भक्त भगवान को संतान की तरह अपनाते हैं। यहाँ कृष्ण को केवल पूजा नहीं जाता, बल्कि उन्हें लड्डू गोपाल, बाल गोपाल, नंदलाल जैसे नामों से गोद में खिलाया जाता है, उन्हें झूले में झुलाया जाता है, उनके लिए वस्त्र सिलवाए जाते हैं, और हर दिन उन्हें भोग के रूप में अलग-अलग व्यंजन परोसे जाते हैं। मेरठ के मंदिरों और घरों में यह वात्सल्य रस केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक जीवंत संवेदना है।
ब्रज भूमि से भौगोलिक निकटता के कारण यह क्षेत्र कृष्ण भक्ति की उसी लय में बहता है, जहाँ माखनचोर बालक की शरारतें भी पूजा का हिस्सा हैं और माँ यशोदा की ममता भी भजन बन जाती है।
यहाँ के धार्मिक उत्सव, जैसे झूलन उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी या अन्नकूट, भगवान को एक परिवार के सदस्य की तरह मनाने के अवसर बनते हैं। यहाँ की महिलाओं के गीतों में, लोक कथाओं में, और यहां तक कि बच्चों के खेलों में भी कृष्ण को बेटा, भाई, या मित्र मानकर पुकारा जाता है। मेरठ की यह आध्यात्मिक आत्मीयता ही इसे एक ऐसा सांस्कृतिक केन्द्र बनाती है जहाँ भक्ति में भी माँ की ममता और पिता की चिंता महसूस की जा सकती है। वात्सल्य रस के इस जीवंत स्वरूप ने न केवल लोगों के धार्मिक जीवन को संवारा है, बल्कि यहाँ की कला, संगीत और लोक साहित्य को भी भावनात्मक ऊँचाइयाँ दी हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव मेरठ को न केवल भक्ति की भूमि बनाता है, बल्कि एक ऐसा स्थान भी जहाँ श्रद्धा, प्रेम और पारिवारिक आत्मीयता एक साथ झलकती है।
इस लेख में हम मेरठ की धार्मिक और सांस्कृतिक भावना में रचे-बसे वात्सल्य रस को पाँच प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझेंगे। इसमें वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप, सूरदास की भक्ति में इसकी भूमिका, कृष्ण और भक्तों के पारलौकिक संबंध, शास्त्रीय ग्रंथों में इसका सिद्धांत, और अंततः आत्मिक प्रेम के रूप में इसका आध्यात्मिक विस्तार शामिल है। यह रस केवल साहित्यिक भाव नहीं, बल्कि मेरठ की श्रद्धा और संवेदना का जीवंत प्रतीक है।

वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप
वात्सल्य रस, नवरसों में वह अनुपम रस है जिसमें प्रेम केवल आकर्षण या भावना नहीं, बल्कि गहराई से बहती एक निःस्वार्थ धारा है। यह वह भावना है जहाँ प्रेम करने वाला स्वयं को माता-पिता मानता है और प्रिय पात्र को संतान के रूप में देखता है, निरपेक्ष, निष्कलंक, और पूर्ण रूप से समर्पित। इस रस में स्वार्थ, अपेक्षा या अधिकार की कोई गुंजाइश नहीं होती, केवल ममता, चिंता, सेवा और संरक्षण की सहज लहरें होती हैं। जहाँ पारंपरिक परिवार प्रणाली अब भी जीवित है, वहाँ यह रस केवल भक्ति का विषय नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा बन चुका है। विशेषकर मवाना, हस्तिनापुर, परीक्षितगढ़ और खरखौदा जैसे इलाकों के मंदिरों में बालकृष्ण की जो पूजा होती है, वह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, वात्सल्य का जीवंत मंचन है। यहाँ की महिलाएँ बालकृष्ण को गोद में लेती हैं, उन्हें हाथों से झूला झुलाती हैं, सुबह-सुबह उठकर उनके वस्त्र बदलती हैं और उन्हें ताजे दूध से स्नान कराकर मक्खन-मिश्री का भोग लगाती हैं। इन सब क्रियाओं में न पूजा की औपचारिकता है, न ही भय—सिर्फ और सिर्फ एक माँ जैसा भाव है, जो भगवान को भी पुत्र के रूप में देखने में संकोच नहीं करता।
भक्ति साहित्य में वात्सल्य रस: सूरदास की दृष्टि
भक्ति साहित्य में अगर वात्सल्य रस को कोई स्वर मिला है तो वह सूरदास की बांसुरी से निकला है। सूरदास, जिनकी दृष्टि भले ही नेत्रों से रहित थी, लेकिन जिनका अंतरदृष्टि संसार के सबसे कोमल भावों को छूती थी, ने अपने काव्य में वात्सल्य रस को जो स्वरूप दिया, वह आज भी अमर है। उनके पदों में यशोदा और बालकृष्ण के बीच के प्रेम की अनुभूति इतनी गहरी है कि वह पढ़ने वाले को सिर्फ रस में नहीं, माँ की गोद में ले जाकर बैठा देती है। कभी कन्हैया माखन चुराते हैं, कभी यशोदा की डाँट से डरकर भागते हैं, तो कभी नन्हें हाथों से बंसी उठाने की कोशिश करते हैं। इन दृश्यों में ईश्वर नहीं, एक नटखट बच्चा नज़र आता है। मेरठ के भजन मंडलों में आज भी सूरदास के ये पद गाए जाते हैं, चैत्र और श्रावण के मेलों में, जन्माष्टमी की रातों में, या रामलीला में कृष्णलीला के मंचन में। सूरदास की कविता सिर्फ़ कविता नहीं, बल्कि मातृत्व की प्रार्थना बन जाती है, जहाँ हर गायक यशोदा की भावना से भरकर गाता है। मेरठ की स्त्रियाँ आज भी जब बाल गोपाल को पलने में झुलाती हैं, तो उनके शब्दों में सूरदास की आत्मा उतर आती है।
श्रीकृष्ण और भक्तों के संबंध में वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति
श्रीकृष्ण को केवल आराध्य देव नहीं, बल्कि एक बालक के रूप में देखने का भाव ही वात्सल्य रस की आत्मा है। इस रस में भक्त ईश्वर को अपने पुत्र के रूप में देखता है — उसे सुलाता है, जगाता है, खिलाता है, डाँटता भी है, और सबसे ज़्यादा, उसे प्रेम करता है। मेरठ के गाँवों और कस्बों में यह रस किसी दर्शनशास्त्र या ग्रंथ की बात नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में बहने वाली नदी की तरह है। जन्माष्टमी के समय यहाँ घर-घर में नंदलाल के लिए झूला सजता है। महिलाएँ लोरी गाती हैं, "सो जा लाला सो जा…"—और उनकी आँखों में एक माँ की वही चिंता झलकती है जो अपने बच्चे को रात में सोते देखती है। गली के मंदिरों में छोटे-छोटे झूले सजते हैं, जिनमें कृष्ण नहीं, पूरे मोहल्ले का लाडला बालक झूलता है। यह भावना न केवल स्त्रियों में बल्कि पुरुषों में भी होती है, बड़े-बुज़ुर्ग कृष्ण की आरती करते हुए उसी लगाव से भर उठते हैं जैसे कोई पिता अपने बच्चे के माथे पर हाथ फेरता है। यहाँ कृष्ण डर का देव नहीं, बल्कि अपने भक्तों की गोद में मुस्कराता पुत्र है।

शास्त्रीय ग्रंथों में वात्सल्य रस का उल्लेख और सिद्धांत
शास्त्रों में वात्सल्य रस को एक गंभीर और स्थायी भाव के रूप में स्वीकार किया गया है। भक्ति-रसामृत-सिंधु, जो भक्ति रस के सबसे प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है, उसमें वात्सल्य रति को उस अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानकर प्रेम करता है। यह रति, यानी प्रेम की स्थिति, सबसे शुद्ध मानी जाती है क्योंकि इसमें अपेक्षा नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का ऐसा विस्तार मिलता है, जो न केवल कथा का हिस्सा हैं, बल्कि एक गहरी भावनात्मक यात्रा भी हैं। यशोदा की ममता, नंद बाबा की चिंता, और गोपियों की देखभाल— एक ऐसा ईश्वर जो अपने भक्तों पर निर्भर है, और यही वात्सल्य की पराकाष्ठा है। मेरठ के धार्मिक शिक्षण केंद्रों, आश्रमों और कथा आयोजनों में इन शास्त्रों की व्याख्या आज भी होती है। वहाँ बैठकर जब कोई वृंदावन से आए संत वात्सल्य रति का पाठ करते हैं, तो वह केवल व्याख्यान नहीं होता, बल्कि आत्मा से आत्मा को जोड़ने वाली संप्रेषणीय ऊर्जा होती है।
पारलौकिक प्रेम की अवधारणा और इसका आध्यात्मिक स्वरूप
वात्सल्य रस अंततः केवल सांसारिक रिश्तों की नकल नहीं है, यह एक पारलौकिक प्रेम है, एक ऐसा प्रेम जो मृत्यु, शरीर, दूरी, समय, और भावना की सीमाओं से परे होता है। यह वह प्रेम है जिसमें ‘तू’ और ‘मैं’ का भेद मिट जाता है। यह प्रेम न संतान की प्राप्ति के लिए है, न कृपा की आशा में यह प्रेम केवल प्रेम के लिए होता है। मेरठ की भजन परंपरा में ऐसे भाव भरे गीत अक्सर गूंजते हैं। यह वह स्थिति है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानता है, पर वह पुत्र भी अब ईश्वर नहीं, उसका ही अंश बन जाता है। जब यह प्रेम होता है, तब कोई तर्क नहीं बचता, कोई डर नहीं बचता सिर्फ एक मौन, शांत, और दिव्य अनुभूति बचती है। यही वात्सल्य रस का सबसे ऊँचा, सबसे निर्मल और सबसे सच्चा रूप है।
संदर्भ-
भूख से लड़ते मेरठ: क्या हमारी खाद्य सुरक्षा योजनाएँ सच में काम कर रही हैं?
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
30-07-2025 09:31 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे देश में जहाँ अन्न भंडारण के लिए बड़े-बड़े गोदाम हैं, वहीं करोड़ों लोग आज भी भूख से तड़पते हैं? हमारा मेरठ, जो न केवल गंगा-यमुना दोआब की उपजाऊ भूमि पर स्थित है, बल्कि एक समृद्ध कृषि परंपरा का भी वाहक है — वहां भी गरीब परिवारों की थाली अक्सर अधूरी ही रह जाती है। सवाल ये है कि जब हमारे पास खेती, संसाधन और योजनाएं हैं, तब भी भूख क्यों है? इस लेख में हम इसी सवाल की तह तक जाएंगे।
इस लेख में आज हम जानेंगे भारत में खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति के बारे में, फिर भुखमरी और कुपोषण के आंकड़ों को समझेंगे। उसके बाद हम देखेंगे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और योजनाओं में क्या खामियाँ हैं, कृषि क्षेत्र की क्या समस्याएं हैं और अंत में जानेंगे कि भोजन की बर्बादी और सरकारी प्रयास इस पूरी लड़ाई को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।
भारत में खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां हर साल करोड़ों टन (ton) अनाज की पैदावार होती है, वहां भूखमरी का होना एक विडंबना है। खाद्य सुरक्षा का तात्पर्य सिर्फ भोजन की उपलब्धता से नहीं, बल्कि पोषण और पहुँच से भी है। मेरठ जैसे क्षेत्रों में जहाँ खेती मुख्य जीविका है, वहां भी गरीब तबके को समय पर पौष्टिक भोजन मिलना एक चुनौती बना हुआ है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख स्तंभ हैं — उत्पादन, पहुँच और पोषण। भारत ने उत्पादन में तो आत्मनिर्भरता हासिल की है, पर वितरण और पोषण के मोर्चे पर अभी भी हम पिछड़े हुए हैं। ज़्यादातर सरकारी योजनाएं अनाज देने तक सीमित हैं, जबकि पोषण सुरक्षा की बात कम ही होती है। मेरठ जैसे शहरी-ग्रामीण मिले-जुले क्षेत्रों में जहां निर्धन परिवारों की संख्या अधिक है, वहां बच्चों और महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता।

भुखमरी और कुपोषण के आंकड़े
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों (reports) के अनुसार, भारत में लगभग 16% आबादी कुपोषण से ग्रस्त है। इनमें अधिकांश बच्चे और महिलाएं शामिल हैं। मेरठ के सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आने वाले मरीजों में भी कुपोषण के लक्षण साफ देखे जा सकते हैं। यूनिसेफ (UNICEF) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 53% प्रजनन-आयु की महिलाएं एनीमिया (anemia) से ग्रस्त हैं। यह आँकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि केवल अनाज देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य और पोषण की दृष्टि से संतुलित भोजन भी आवश्यक है। मेरठ में भी बाल विकास परियोजनाओं के अधीन चल रहे आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थिति चिंताजनक है। कई जगह न तो पोषाहार नियमित मिल रहा है और न ही मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है।

खाद्य वितरण प्रणाली की खामियाँ
भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) विश्व की सबसे बड़ी योजनाओं में से एक है, लेकिन इसके ज़मीनी हालात उतने संतोषजनक नहीं हैं। कई राशन दुकानों पर मिलने वाले खाद्यान्न की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर सवाल उठते रहे हैं। लाभार्थियों को कभी समय पर राशन नहीं मिलता, तो कभी उनका नाम सूची से बाहर कर दिया जाता है। ग्रामीण बनाम शहरी असमानता भी खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करती है। मेरठ के शहरी क्षेत्रों में कार्डधारकों (cardholders) को फिर भी बेहतर सेवा मिल जाती है, पर ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी खामियों, आधार लिंक न होने या भ्रष्टाचार के कारण पात्र लोगों को भी लाभ नहीं मिल पाता। योजनाओं का क्रियान्वयन केवल कागज़ों पर न हो, इसके लिए नियमित निरीक्षण और पारदर्शिता जरूरी है।
कृषि क्षेत्र की समस्याएं और उनका प्रभाव
मेरठ की पहचान उसकी उपजाऊ ज़मीन और कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था से जुड़ी है। लेकिन यहां भी कृषि संकट साफ देखा जा सकता है। सिंचाई की सीमित सुविधा, मानसून पर निर्भरता, और छोटे किसानों की पूंजी की कमी जैसे मुद्दे खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित करते हैं। भूमि स्वामित्व में असमानता, महंगे बीज और कीटनाशक, और कृषि ऋणों की जटिल प्रक्रिया किसानों की रीढ़ तोड़ देती है। मेरठ ज़िले में भी कई किसान अब खेती छोड़कर मजदूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करने को विवश हैं। जब खेती कमजोर होती है, तो खाद्य सुरक्षा भी चरमराने लगती है।

खाद्य बर्बादी: एक अदृश्य संकट
भारत में प्रतिवर्ष लगभग 67 मिलियन टन (million ton) खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। शहरों में भी शादी-ब्याह, रेस्टोरेंट (restaurant) और सब्ज़ी मंडियों में भोजन की भारी बर्बादी देखी जाती है। यह विडंबना ही है कि एक ओर कुछ लोग भोजन के अभाव में जी रहे हैं, और दूसरी ओर अनगिनत टन खाना यूँ ही फेंक दिया जाता है। सरकारी गोदामों में खराब भंडारण व्यवस्था, अनियमित ट्रांसपोर्ट (transport), और खराब प्रबंधन इस बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। मेरठ में स्थित एफसीआई (FCI) गोदामों और स्थानीय मंडियों में भी अक्सर अनाज के सड़ने की खबरें आती हैं। इसके अलावा, हमारे घरों में भी थालियों में बचा खाना एक बड़ा कारण है। अगर हम सब मिलकर थोड़ा-थोड़ा बचाएं, तो बड़ी संख्या में लोगों का पेट भरा जा सकता है।
सरकार की योजनाएं और उनकी सीमाएं
सरकार ने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted Public Distribution System), एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS), मिड-डे मील (Mid Day meal), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम , और पोषण (POSHAN) अभियान जैसी योजनाएं शुरू की हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य था कि गरीब और वंचित वर्गों को पोषक भोजन मिले और कोई भूखा न रहे। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और कहती है। कई बार देखा गया है कि मिड-डे मील योजना के तहत बच्चों को भोजन की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती या समय पर खाना नहीं मिलता। एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) केंद्रों पर पोषण आहार की आपूर्ति अनियमित रहती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए-NFSA) के तहत मिलने वाला राशन भी सभी तक नहीं पहुंचता। इन योजनाओं की विफलता के पीछे प्रमुख कारण हैं – बजट में कटौती, वितरण में भ्रष्टाचार, निगरानी की कमी और आमजन में जागरूकता का अभाव। अगर इन योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जाए और आम नागरिकों को भी इसमें भागीदार बनाया जाए, तो निश्चित ही बदलाव संभव है।
कोयले की खामोश ताक़त और मेरठ की रोज़मर्रा की रफ्तार
खदान
Mines
29-07-2025 09:34 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आपके घर की रौशनी, स्कूलों की मशीनें, अस्पतालों का जीवनरक्षक उपकरण, और फैक्ट्रियों की आवाज़ें किस आधार पर चलती हैं? ये सब किसी अदृश्य शक्ति के भरोसे चलते हैं — और वह है ऊर्जा, जो बड़े हिस्से में आज भी कोयले से मिलती है। भारत की कोयला खनन यात्रा केवल खदानों और मशीनों की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस परिवर्तनशील भारत की गाथा है, जिसने अंधेरे से उजाले की ओर कदम बढ़ाए। मेरठ, चाहे खुद कोयले के भंडारों से दूर हो, लेकिन यहां के पंखे, लिफ्ट, ट्रेनें और इंडस्ट्रियल यूनिट्स तक कोयले की ऊर्जा की गर्मी पहुंचती है — यह ऊर्जा भले ही दिखती नहीं, पर हर दिन हमारे जीवन को गति देती है। खासकर रेलवे स्टेशन जैसे प्रमुख केंद्रों पर, जहां कभी कोयले से चलने वाली इंजनें धुआँ उड़ाती थीं, और आज भी बिजली से चलने वाली ट्रेनों के पीछे कहीं-न-कहीं कोयला आधारित पावर प्लांट्स हैं।
हम जब मेरठ में विकास की बात करते हैं — चाहे वह नयी कालोनियाँ हों, नए व्यापारिक संस्थान हों या स्मार्ट मीटरों से सजी गलियाँ — तब यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इन सबकी नींव में ऊर्जा की वह कड़ी मौजूद है, जिसकी शुरुआत कोयला खनन से होती है। इसलिए आज हम जब जलवायु परिवर्तन, नवीकरणीय ऊर्जा और सतत विकास की बात करते हैं, तो यह भी जानना जरूरी है कि कोयला का क्या इतिहास रहा है, उसकी मौजूदा भूमिका क्या है, और क्या वह आने वाले वर्षों में मेरठ जैसे शहरों के ऊर्जा भविष्य को प्रभावित करता रहेगा या नहीं। भारत में कोयला खनन की गहराइयों में न केवल ऊर्जा उत्पादन की क्षमता छिपी है, बल्कि एक ऐतिहासिक यात्रा भी जो हमारे आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक विकास की कहानी कहती है। ऐसे में यह जानना ज़रूरी है कि भारत में कोयला खनन कहाँ से शुरू हुआ, उसकी स्थिति क्या है, और भविष्य में यह हमें कैसे प्रभावित करेगा।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले यह समझेंगे कि भारत में कोयला खनन की ऐतिहासिक शुरुआत कैसे हुई और ब्रिटिश शासन में इसके क्या मायने थे। फिर हम जानेंगे कि भारत वैश्विक स्तर पर कोयले के उत्पादन और खपत के संदर्भ में कहाँ खड़ा है। इसके बाद, हम भारत के कुल कोयला भंडार, उसकी गहराई और उपलब्धता की स्थिति पर नज़र डालेंगे और यह देखेंगे कि हमारे पास यह संसाधन कितने समय तक और रहेगा। अंत में, हम कोयला खनन से जुड़ी कुछ पर्यावरणीय व तकनीकी चुनौतियों की चर्चा करेंगे, जो इस क्षेत्र के भविष्य को प्रभावित कर रही हैं।
भारत में कोयला खनन का ऐतिहासिक विकास
भारत में कोयला खनन का इतिहास आधुनिक नहीं, बल्कि गहराई से ऐतिहासिक है। हज़ारों साल पहले चीन और रोमन साम्राज्य में कोयले का प्रयोग सतही खनन के ज़रिए होता था। भारत में कोयले का व्यवस्थित दोहन ब्रिटिश काल में प्रारंभ हुआ। 1774 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों जॉन सुमनेर और सुएटोनियस ग्रांट हीटली ने बिहार के रानीगंज में दामोदर नदी के किनारे पहली कोयला खदान स्थापित की। हालांकि मांग की कमी के कारण लगभग एक शताब्दी तक इस क्षेत्र में धीमी प्रगति रही। लेकिन जैसे ही 1853 में भाप इंजनों का आगमन हुआ, कोयले की माँग में तीव्र वृद्धि हुई और उत्पादन 1 मिलियन मीट्रिक टन सालाना तक पहुँच गया। 1900 तक यह आँकड़ा 6.12 मिलियन मीट्रिक टन और 1920 तक 18 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुँच गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कोयले की आवश्यकता और अधिक बढ़ी। ब्रिटिश भारत में बिहार, बंगाल और ओडिशा में भारतीय खनिकों ने 1894 के बाद खनन के क्षेत्र में प्रवेश किया, जिससे यूरोपीय कंपनियों का एकाधिकार धीरे-धीरे टूटने लगा। खासकर झरिया और धनबाद जैसे क्षेत्रों में कई स्वदेशी खदानें स्थापित की गईं। मेरठ जैसे शहर भले सीधे खनन क्षेत्र में न आते हों, पर इस ऊर्जा की आपूर्ति से इनकी विकास प्रक्रिया जुड़ी रही है — विशेषकर बिजली, परिवहन और उद्योगों में।

भारत का कोयला उत्पादन और वैश्विक स्थिति में उसका स्थान
भारत, कोयला उत्पादन और खपत दोनों के मामले में विश्व के प्रमुख देशों में शामिल है। चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक और उपभोक्ता देश है। वर्ष 2022 में भारत ने 777.31 मिलियन मीट्रिक टन कोयले का खनन किया। वहीं, 2012 में भारत ने 595 मिलियन टन उत्पादन किया था जो कि वैश्विक उत्पादन का लगभग 6% था। भारत में बिजली उत्पादन का लगभग 68% हिस्सा कोयले पर आधारित है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह देश की ऊर्जा रीति का एक केंद्रीय स्रोत है। दुनिया के कुल कोयला भंडार में भारत की हिस्सेदारी लगभग 9% है, जिससे वह अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया और चीन के बाद पाँचवें स्थान पर आता है। दिलचस्प बात यह है कि भारत, कोयला उत्पादक होने के बावजूद, अपनी मांग का लगभग 30% हिस्सा आयात करता है — विशेषकर उच्च GCV (ग्रोस कैलोरिफिक वैल्यू) वाले कोयले की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए। मेरठ जैसे शहरों के उद्योग और रेलवे स्टेशनों की ऊर्जा आवश्यकता भी इस उत्पादन प्रणाली से ही पूरी होती रही है। यह संबंध एक अदृश्य लेकिन मज़बूत ऊर्जा-संरचना बनाता है।
भारत में कोयले का कुल भंडार और भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा
2016-17 में किए गए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के पास 315.149 बिलियन टन अनुमानित कोयला संसाधन हैं। ये भंडार देश के कई हिस्सों में फैले हुए हैं, जिनमें झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ प्रमुख हैं। रिपोर्टों के अनुसार भारत के कुल संसाधनों में से लगभग 60% भंडार 300 मीटर से कम गहराई पर हैं, जिनका अधिकतर दोहन किया जा चुका है या किया जा रहा है। भारत की वर्तमान खपत दर को देखते हुए योजना आयोग ने बताया कि ज्ञात कोयला भंडार अगले 45–50 वर्षों तक ही चल पाएंगे। इस आकलन में यह भी सामने आया है कि यदि कोयले की खपत 5% की वार्षिक दर से बढ़ती है, तो भंडार की उम्र और भी कम हो सकती है। कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) जैसी सरकारी कंपनियों द्वारा अभी अधिकतर सतही कोयला खनन किया जाता है और गहरी खानों की खोज या दोहन की योजना सीमित है। मेरठ जैसे शहरों की ऊर्जा निर्भरता को देखते हुए यह चिंता का विषय है कि भविष्य में कहीं यह आपूर्ति संकट में न आ जाए। इसलिए कोयले की खपत और भंडारण पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

कोयला खनन से जुड़ी पर्यावरणीय और तकनीकी चुनौतियाँ
कोयला खनन जहाँ ऊर्जा का स्रोत है, वहीं यह पर्यावरण के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन चुका है। खुले में खनन के कारण भूमि क्षरण, वनों की कटाई और जल स्रोतों में प्रदूषण जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। भारत में लगभग 90% कोयला उत्पादन 200 मीटर से कम गहराई की खुली खदानों से होता है, जिससे सतह पर पर्यावरणीय असर अधिक होता है। कोल इंडिया जैसी कंपनियाँ गहरी खानों के दोहन में अभी तकनीकी रूप से पिछड़ी हैं या निवेश की कमी से पीछे हैं। तकनीकी रूप से, भारत को उन देशों की तुलना में उन्नति की आवश्यकता है जो भूमिगत खनन के माध्यम से गहराई से कोयले का निष्कर्षण करते हैं। इसके अलावा, अधिक GCV वाले कोयले के लिए आयात पर निर्भरता यह दर्शाता है कि घरेलू कोयले की गुणवत्ता में सुधार की गुंजाइश है। मेरठ जैसे क्षेत्र पर्यावरणीय प्रभावों को भले सीधे न झेलते हों, लेकिन जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा मूल्य में अस्थिरता से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। इसलिये, यह आवश्यक है कि कोयला खनन तकनीक को अपग्रेड किया जाए और पर्यावरणीय सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए।
संदर्भ-
मेरठ में ई-पढ़ाई का बढ़ता चलन और डिजिटल पुस्तकों की बदलती दुनिया
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी देर रात किसी ई-बुक के पन्ने पलटते-पलटते खुद को किसी नई कल्पनाओं की दुनिया में खोया हुआ पाया है? यह अनुभव अब सिर्फ एक या दो लोगों तक सीमित नहीं रहा। हमारा मेरठ, जो अब तक स्वतंत्रता संग्राम, खेल प्रतिभाओं और हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध था, अब एक और बदलाव की ओर अग्रसर है – डिजिटल पढ़ाई और ई-बुक संस्कृति की ओर। बीते कुछ वर्षों में मेरठ के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और पुस्तक प्रेमी समुदायों ने पारंपरिक किताबों के साथ-साथ ई-पुस्तकों की ओर भी तेज़ी से कदम बढ़ाया है। डिजिटल लाइब्रेरीज़, मुफ्त ऑनलाइन पाठ्य सामग्री, और मोबाइल एप्स के ज़रिए अब विद्यार्थी और पाठक कहीं भी, कभी भी, अपनी पसंद की सामग्री पढ़ सकते हैं। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से लेकर छोटे-छोटे कोचिंग सेंटरों तक, हर जगह डिजिटल कंटेंट को अपनाया जा रहा है।
मेरठ के चौड़ा बाज़ार, बच्चा पार्क या सूरजकुंड के युवा अब अपने स्मार्टफोन पर केवल सोशल मीडिया नहीं, बल्कि साहित्य, प्रतियोगी परीक्षा सामग्री और इतिहास की किताबें भी पढ़ रहे हैं। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म जैसे किंडल, गूगल बुक्स और ऑडिबल (Audible) जैसे ऑडियोबुक ऐप्स की लोकप्रियता यहाँ भी तेज़ी से बढ़ रही है। कई स्थानीय शिक्षकों ने खुद के ई-पुस्तक संस्करण जारी किए हैं, जिनमें से कुछ का वितरण हज़ारों में हो चुका है। इस बदलते माहौल में अब घरों में किताबों की अलमारी के साथ-साथ "ई-बुक फोल्डर" भी बन चुके हैं। पारंपरिक पुस्तकालय जहाँ एक शांत अध्ययन का प्रतीक हुआ करते थे, वहीं अब डिजिटल लाइब्रेरी ने 24x7 पढ़ाई की सुविधा दी है। यह खासकर उन विद्यार्थियों के लिए बेहद मददगार है जो सीमित संसाधनों के कारण भौतिक पुस्तकें नहीं खरीद पाते थे।
इस लेख में हम देखेंगे कि मेरठ में डिजिटल पढ़ाई की प्रवृत्ति कैसे बढ़ी है और इसमें पुस्तक मेलों जैसे आयोजनों की क्या भूमिका रही है। हम भारत के ई-पुस्तक बाज़ार की मौजूदा स्थिति और उसकी संभावनाओं पर भी नजर डालेंगे। आगे, हम भौतिक और डिजिटल पुस्तकों की तुलना करते हुए जानेंगे कि पाठकों की प्राथमिकताएं कैसे बदल रही हैं। फिर, हम उन विभिन्न प्रकार की ई-पुस्तकों को समझेंगे जो आजकल लोकप्रिय हो रही हैं। अंत में, भारत के प्रमुख डिजिटल पुस्तकालयों की भूमिका पर रोशनी डालेंगे जो इस बदलाव को और भी सुलभ बना रहे हैं।
मेरठ में डिजिटल पढ़ाई की बढ़ती लहर
मेरठ में शैक्षिक संस्थानों की बड़ी संख्या और छात्रों की पढ़ाई के प्रति रुचि, इस शहर को डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए तैयार बनाती है। यहां के नागरिक विशेष रूप से छात्र और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा, अब मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप पर पढ़ाई को प्राथमिकता देने लगे हैं। मेरठ के कई कॉलेजों और पुस्तक प्रेमियों ने ई-बुक्स के प्रचार में भाग लिया और स्थानीय पुस्तकालयों में भी डिजिटल संसाधनों को शामिल किया गया। डिजिटल पुस्तकें यहां के युवाओं के लिए विशेष रूप से लाभकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि इन्हें कहीं भी, कभी भी पढ़ा जा सकता है। साथ ही, डिजिटल पुस्तक मेलों और ऑनलाइन गाइड बुक्स ने मेरठ के छात्रों को कठिन विषयों में भी सरलता से मार्गदर्शन देना शुरू कर दिया है।
भारत का ई-पुस्तक बाज़ार: आँकड़े, संभावनाएँ और विकास दर
भारत का ई-पुस्तक बाज़ार दिन-ब-दिन विस्तृत होता जा रहा है। स्टैटिस्टा (Statista) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2025 तक इस बाज़ार का राजस्व लगभग 255.40 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है। 2027 तक यह 279.80 मिलियन डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है, जो कि 4.67% की वार्षिक वृद्धि दर को दर्शाता है। 2027 तक अनुमानित उपयोगकर्ताओं की संख्या 133.3 मिलियन तक पहुंच सकती है। प्रति उपयोगकर्ता औसत आय लगभग 2.16 डॉलर मानी जा रही है। जबकि अमेरिका जैसे देशों में यह संख्या बहुत अधिक है, लेकिन भारत में इसकी तेजी से वृद्धि स्पष्ट करती है कि यहां डिजिटल पढ़ाई का भविष्य उज्ज्वल है। मेरठ जैसे शिक्षित शहर इस क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जहां युवा अब टेक्नोलॉजी के साथ सीखना अधिक पसंद कर रहे हैं।
डिजिटल बनाम भौतिक पुस्तकें: पढ़ने के तरीके में बदलती प्राथमिकताएं
जहां पहले पुस्तकालय जाकर किताबें पढ़ना एकमात्र विकल्प होता था, वहीं अब डिजिटल पुस्तकें हमें कहीं भी, कभी भी पढ़ने की आज़ादी देती हैं। मेरठ के छात्रों को अब किसी किताब के न मिलने की चिंता नहीं रहती, क्योंकि ई-पुस्तकों की असीमित आपूर्ति उपलब्ध है। विशेष रूप से दृष्टिबाधित छात्रों के लिए ई-पुस्तकें एक वरदान बनकर उभरी हैं। स्क्रीन रीडर टेक्नोलॉजी और ऑडियो बुक्स ने पढ़ाई को समावेशी बना दिया है। इसके अतिरिक्त, ई-पुस्तकों में हाइलाइटिंग, नोट्स, और शेयरिंग जैसी सुविधाएं हैं, जो भौतिक पुस्तकों में संभव नहीं होतीं। हालांकि, इन्हें पढ़ने के लिए उपकरण और इंटरनेट की आवश्यकता होती है, लेकिन यह लागत अब भी भौतिक पुस्तकों की तुलना में काफी कम है।

ई-पुस्तकों के लोकप्रिय प्रकार: मार्गदर्शिका से लेकर दैनिक आदतों तक
आज के दौर की ई-पुस्तकें सिर्फ उपन्यास नहीं हैं। मेरठ के कई छात्र अब "गाइड बुक्स" का उपयोग कर परीक्षा की तैयारी करते हैं। इसके अलावा "टिप्स बुक्स" जैसे – ’पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ाने की 20 युक्तियाँ’ या ‘इंटरव्यू में सफलता के 15 तरीके’ भी लोकप्रिय हो रही हैं। "सूची बुक्स" (List books), "दैनिक आदतों वाली किताबें" (Daily Ritual Books), और "प्रश्नोत्तर आधारित ई-पुस्तकें" (Q&A format books) अब स्मार्ट स्टडी का हिस्सा बन गई हैं। मेरठ में डिजिटल पब्लिशिंग से जुड़े कुछ युवाओं ने स्वयं इन प्रारूपों में पुस्तकें लिखनी शुरू की हैं, जिससे स्थानीय कंटेंट भी विकसित हो रहा है।
भारत के प्रमुख डिजिटल पुस्तकालय और उनकी विशेषताएँ
डिजिटल पढ़ाई की दुनिया को विस्तार देने में राष्ट्रीय डिजिटल पुस्तकालय (NDLI) ने अहम भूमिका निभाई है। मेरठ के कई स्कूल और कॉलेज अब इस प्लेटफॉर्म से जुड़े हुए हैं। जेस्टोर (JSTOR) जैसे वैश्विक मंच अब यहां के शोध छात्रों की पहली पसंद बनते जा रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी - विकिपीडिया
(Indian Science Academy) और ओपन लाइब्रेरी (Open Library) जैसे प्लेटफॉर्म विज्ञान, समाजशास्त्र, गणित और साहित्य से संबंधित सामग्री को उपलब्ध कराते हैं। इनमें हिंदी और अन्य भाषाओं की सामग्री भी उपलब्ध है, जिससे मेरठ जैसे हिंदी-भाषी क्षेत्र के छात्रों को भी आसानी होती है। ये पुस्तकालय न केवल पढ़ाई को सुलभ बनाते हैं, बल्कि ज्ञान को लोकतांत्रिक रूप में हर विद्यार्थी तक पहुंचाते हैं।
संदर्भ-
विरासत, विविधता और परंपरा का संगम है मेरठ का सांस्कृतिक इतिहास
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठ भारत के इतिहास और संस्कृति की गहराइयों में रचा-बसा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसकी जड़ें प्राचीन काल से जुड़ी हुई हैं। महाभारत काल से संबंधित हस्तिनापुर, जो मेरठ से केवल 37 किलोमीटर दूर है, कभी कौरवों और पांडवों की राजधानी माना जाता था। ऐसा माना जाता है कि मेरठ का नाम "मयराष्ट्र" से लिया गया है, जो रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता मायासुर से जुड़ा है। इस क्षेत्र पर मौर्य साम्राज्य का शासन रहा, जिसका प्रमाण अशोक कालीन अवशेषों और बौद्ध धरोहरों से मिलता है। इसके बाद मेरठ पर दिल्ली सल्तनत, मुगल साम्राज्य और फिर स्थानीय सरदारों जैसे जाटों, सैय्यदों और गुर्जरों का शासन रहा। अकबर के समय मेरठ में सिक्के ढाले जाते थे और सड़कें बनाई गईं, जिससे यह क्षेत्र समृद्ध हुआ। औरंगज़ेब के बाद यह क्षेत्र कमजोर हुआ और अंततः 1803 में ब्रिटिशों ने यहां छावनी की स्थापना की।
पहली वीडियो में हम मेरठ के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी देखेंगे।
नीचे दी गई वीडियो में हम मेरठ के इतिहास की एक झलक देखेंगे।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, मेरठ से ही शुरू हुआ। ब्रिटिशों द्वारा सैनिकों को ऐसे कारतूस उपयोग करने को मजबूर किया गया, जिनमें गाय और सूअर की चर्बी लगी होती थी, जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की आस्था के खिलाफ था। जब भारतीय सैनिकों ने इनकार किया तो उन्हें कैद कर लिया गया, जिससे आक्रोश फैल गया। कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में विद्रोह हुआ, जेल तोड़ी गई और ब्रिटिश अधिकारियों को मारा गया। यहीं से “दिल्ली चलो” का नारा उठा और आंदोलन देशभर में फैल गया।
नीचे दी गई वीडियो में हम मेरठ शहर को ड्रोन के माध्यम से ऊपर से देखेंगे।
आजादी के बाद भी मेरठ राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सुर्खियों में रहा, जैसे 1929 का मेरठ षड्यंत्र केस और 1980 के दशक की सांप्रदायिक घटनाएं। इसके बावजूद, मेरठ ने समय के साथ विकास किया और आज यह शिक्षा, कृषि, खेल सामान निर्माण और सांस्कृतिक विविधता का प्रमुख केंद्र है। ऐतिहासिक नौचंदी मेला इसकी जीवंत परंपरा का प्रमाण है। मेरठ आज भी भारत की संघर्षशील आत्मा और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक बना हुआ है।
संदर्भ-
मेरठ की रफ्तार बदलने को तैयार मेट्रो व रैपिड रेल: हर घर तक पहुँचेगा सफर का सुकून
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, शहर की तेज़ी से बढ़ती आबादी, नौकरीपेशा जीवनशैली और रोज़मर्रा के संघर्षों के बीच, एक ऐसा बदलाव दस्तक दे रहा है जो न केवल यात्रा को आसान बनाएगा बल्कि आपके जीवन की रफ्तार को भी बदल देगा — मेरठ मेट्रो (Metro) और रैपिड रेल (Rapid Rail) परियोजनाएं। दशकों तक दिल्ली और एनसीआर (NCR) की दूरी को रोज़ तय करने वाले हजारों मेरठवासियों के लिए अब राहत की उम्मीद बनकर यह परियोजनाएं सामने आई हैं। ट्रैफिक जाम (Traffic Jam), समय की बर्बादी और असुविधाजनक सफर को पीछे छोड़, मेरठ एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहा है जहाँ स्मार्ट (smart), सुरक्षित और तेज़ यात्रा संभव होगी।
इस लेख में हम जानेंगे कि मेरठ में मेट्रो और रैपिड रेल परियोजनाओं की वर्तमान स्थिति क्या है और यह कितनी दूर तक पहुँच चुकी हैं। साथ ही हम यह भी समझेंगे कि दिल्ली-एनसीआर आने-जाने वाले यात्रियों के लिए यह परियोजनाएं कितनी उपयोगी होंगी और कैसे यह प्रदूषण और यातायात की समस्याओं को कम करने में मदद करेंगी। इसके अतिरिक्त, मेरठ मेट्रो और रैपिड रेल के रोजगार और शहर की आंतरिक गतिशीलता पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी विचार करेंगे। अंत में, हम इन परियोजनाओं से जुड़ी सामाजिक, पर्यावरणीय और तकनीकी चुनौतियों पर भी एक समग्र दृष्टिकोण डालेंगे।
मेरठ में मेट्रो व रैपिड रेल परियोजनाओं की पृष्ठभूमि और निर्माण स्थिति
मेरठ में मेट्रो और रैपिड रेल दोनों ही परियोजनाएं उत्तर प्रदेश की शहरी परिवहन नीति के तहत विकसित की जा रही हैं। मेट्रो परियोजना को सबसे पहले जून 2015 में RITES द्वारा व्यवहार्यता अध्ययन के बाद प्रस्तावित किया गया था। बाद में इसे दिल्ली–गाज़ियाबाद–मेरठ रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम (RRTS) के साथ जोड़ा गया। यह परियोजना राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र परिवहन निगम (NCRTC) के अंतर्गत चल रही है और इसका पहला चरण 2025 तक पूरा होने की संभावना है। यह रैपिड रेल कॉरिडोर (Corridor) लगभग 82 किलोमीटर लंबा होगा जिसमें मेरठ शहर के लिए 22 किलोमीटर का अलग मेट्रो कॉरिडोर भी शामिल है। इससे दिल्ली से मेरठ की दूरी मात्र 55 मिनट में पूरी हो सकेगी। यह प्रणाली आधुनिक तकनीकों से लैस है, जैसे एयरोडायनामिक कोच (Aerodynamic Coach), टाइम टेबल (Time Table) आधारित संचालन और ग्रीन बिल्डिंग स्टेशन (Green Building Station)। निर्माण कार्य तेजी से प्रगति पर है और मेरठ शहर के अलग-अलग हिस्सों में स्टेशन, पिलर (pillar) और ट्रैक (track) का ढांचा तैयार किया जा रहा है।
दिल्ली-NCR में कार्यरत मेरठवासियों के लिए परिवहन विकल्प और समय की बचत
हर दिन मेरठ से दिल्ली, नोएडा और गुड़गांव की ओर काम के लिए जाने वाले हजारों लोग समय, धन और ऊर्जा की भारी खपत के साथ यात्रा करते हैं। परंपरागत बस, ट्रेन या निजी वाहनों के माध्यम से यह सफर न केवल थकाऊ होता है बल्कि ट्रैफिक जाम, असुरक्षा और मौसम की मार भी झेलनी पड़ती है। रैपिड रेल इन समस्याओं का समाधान बनकर सामने आ रही है। इसका औसत स्पीड 160 किमी/घंटा तक होगा, जिससे मेरठ से दिल्ली की दूरी 1 घंटे से भी कम समय में तय हो सकेगी। यह न केवल समय की बचत करेगा बल्कि शारीरिक और मानसिक तनाव को भी कम करेगा। इस सुविधा के माध्यम से शहर के युवा पेशेवरों और छात्रों को अब पलायन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वे मेरठ में रहकर ही दिल्ली स्तर के अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। एक तरह से यह परियोजना मेरठवासियों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने का एक मजबूत आधार बन रही है।
मेट्रो और रैपिड रेल द्वारा शहर में ट्रैफिक व प्रदूषण नियंत्रण में योगदान
सड़क पर बढ़ती गाड़ियों की संख्या, ट्रैफिक जाम और बढ़ता प्रदूषण मेरठ जैसे शहरों के लिए बड़ी चिंता का विषय बन चुका है। मेट्रो और रैपिड रेल एक पर्यावरण–अनुकूल समाधान प्रदान करती हैं। इससे निजी वाहनों पर निर्भरता कम होगी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट (public transport) की ओर रुझान बढ़ेगा। मेट्रो रेल विद्युत से संचालित होती है, जिससे ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का उत्सर्जन न्यूनतम होता है। इसके अलावा, भीड़-भाड़ वाले घंटों में यात्रियों को भीड़ से बचने और तेज़, सुगम यात्रा का विकल्प मिलता है। शहर की सड़कें खाली होंगी, वायु गुणवत्ता में सुधार होगा और ईंधन की खपत भी घटेगी। शहरी नियोजन और सतत विकास की दृष्टि से यह परियोजनाएं मेरठ को स्मार्ट सिटी (Smart City) की दिशा में आगे ले जा रही हैं।

मेरठ मेट्रो बनाम रैपिड रेल: रोजगार व आंतरिक गतिशीलता पर संभावित प्रभाव
जहाँ मेट्रो परियोजना मेरठ शहर के आंतरिक इलाकों को जोड़ने में सहायक होगी, वहीं रैपिड रेल क्षेत्रीय कनेक्टिविटी (connectivity) को बढ़ावा देगी। मेट्रो से स्थानीय व्यापार, कॉलेज, अस्पताल और बाजार क्षेत्रों तक पहुंच आसान होगी जिससे छोटे व्यवसायों को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, रैपिड रेल मेरठ और दिल्ली के बीच कार्यरत कर्मचारियों के लिए अधिक लाभकारी होगी। इससे शहरी–ग्रामीण क्षेत्र के बीच आवागमन भी आसान होगा और आवासीय निर्णयों पर भी प्रभाव पड़ेगा, जैसे लोग मेरठ में रहकर भी दिल्ली में काम कर सकेंगे। दोनों परियोजनाएं मिलकर न केवल रोजगार के नए अवसर खोलेंगी, बल्कि रोजगार की संरचना में भी बदलाव लाएंगी — यानी अब मेरठ में ही दिल्ली सरीखे अवसर मिलने लगेंगे।

मेट्रो सिस्टम के सामाजिक, पर्यावरणीय और तकनीकी जोखिम
हालांकि इन परियोजनाओं से अनेक लाभ मिलते हैं, लेकिन इनके साथ कुछ जटिलताएँ और जोखिम भी जुड़े हैं। मेट्रो निर्माण के दौरान बड़ी संख्या में पेड़ काटे जाते हैं, जिससे शहरी हरियाली को नुकसान होता है। निर्माण कार्य से पैदा होने वाली धूल, शोर और ट्रैफिक में व्यवधान भी नागरिकों के जीवन को प्रभावित करते हैं। भूमिगत मेट्रो सिस्टम (metro system) की खुदाई से आस-पास की इमारतों में कंपन और संरचनात्मक क्षति की आशंका रहती है। इसके अलावा, कोविड-19 जैसे महामारी के समय में बंद स्थानों में यात्रा संक्रमण का केंद्र बन सकती है। सुरक्षा की दृष्टि से स्टाफ (staff) की कमी और निगरानी की प्रणाली का अभाव अपराध की संभावना को भी बढ़ाता है। इन चुनौतियों का समाधान परियोजना के दीर्घकालिक प्रभाव को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।
संदर्भ -
संस्कृति 2068
प्रकृति 745