मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ, इंसान को काल्पनिक दुनिया की सैर कराने वाली एल एस डी कितनी घातक है?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
27-03-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

क्या आपने कभी एल एस डी (लीसर्जिक एसिड डाईएथिलेमाइड) के बारे में सुना है? यह एक शक्तिशाली मतिभ्रमकारी दवा है, जो व्यक्ति के मूड, सोच और धारणा को गहराई से बदल सकती है। इसके सेवन के बाद व्यक्ति को बदली हुई वास्तविकता , असामान्य दृश्य अनुभव हो सकते हैं! शायद इसी कारण, अक्सर इसका मनोरंजन के लिए दुरुपयोग भी किया जाता है।
एल एस डी की खोज 1938 में स्विस वैज्ञानिक अल्बर्ट हॉफ़मैन (Albert Hofmann) ने की थी। वे उस समय एर्गोट (Ergot) नामक कवक पर शोध कर रहे थे, जो राई जैसे अनाज पर पाया जाता है। आज हम एल एस डी को विस्तार से समझेंगे! इसके तहत हम जानेंगे कि इसकी खोज कैसे हुई, पहली बार इसका संश्लेषण कैसे हुआ, और इसके प्रभाव क्या हैं। साथ ही, मानसिक स्वास्थ्य और नशामुक्ति उपचार में इसके संभावित उपयोगों पर चर्चा करेंगे। अंत में, माइक्रोडोज़िंग (छोटी मात्रा में सेवन) के फ़ायदे और जोखिमों को भी जानेंगे।
एल एस डी क्या है?
एल एस डी (लीसर्जिक एसिड डाईएथिलेमाइड) ( Lysergic acid diethylamide) एक अवैध मनोरंजक दवा है। यह एक परजीवी कवक से प्राप्त होती है, जो राई या एर्गोट पर उगता है। यह सबसे प्रसिद्ध मतिभ्रमकारी(हैलुसिनोजेनिक) दवा मानी जाती है। एल एस डी व्यक्ति की वास्तविकता की धारणा को बदल देती है और एक साइकेडेलिक दवा के रूप में जानी जाती है, जिसका मतलब है कि यह सभी इंद्रियों को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल व्यक्ति की सोच, समय के प्रति उसकी समझ और भावनाओं को बदल सकती है बल्कि एल एस डी के सेवन के बाद व्यक्ति मतिभ्रम हो सकता है। व्यक्ति ऐसी चीजें देख या सुन सकता है, जो वास्तव में मौजूद नहीं होतीं या विकृत रूप में नज़र देती हैं।
एल एस डी के मनोवैज्ञानिक प्रभावों की खोज डॉ. अल्बर्ट हॉफ़मैन द्वारा 1943 में संयोगवश की गई थी। वे सैंडोज़ (Sandoz) कंपनी में एक शोध रसायनज्ञ थे। जब वे एल एस डी-25 का संश्लेषण कर रहे थे, तो कुछ क्रिस्टल उनकी उंगलियों पर लग गए और त्वचा के माध्यम से अवशोषित हो गए। इसके परिणामस्वरूप, उन्हें एल एस डी के नशे के लक्षण महसूस होने लगे।
इसके बाद, डॉ. हॉफ़मैन ने जानबूझकर खुद पर प्रयोग किया और थोड़ी मात्रा में एल एस डी का सेवन किया। उन्होंने पाया कि लिसेर्जिक एसिड का उपयोग न्यूरोलॉजी (Neurology) और मनोचिकित्सा में किया जा सकता है। इसके संभावित प्रभावों को समझने के लिए उन्होंने जानवरों और मनुष्यों पर प्रयोग किए।
शुरुआती अध्ययनों में यह सामने आया कि एल एस डी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए लाभदायक हो सकता है। यह भूली हुई यादों और पुराने आघातों को फिर से जागृत कर सकता है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इससे उन यादों को चिकित्सीय रूप से ठीक करने में मदद मिल सकती है, जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य में सुधार संभव हो सकता है।
1950 और 60 के दशक में एल एस डी पर शोध:
1950 और 60 के दशक में एल एस डी को लेकर वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के बीच काफ़ी उत्सुकता थी। उस समय, स्विट्जरलैंड की फार्मास्युटिकल (pharmaceutical) कंपनी सैंडोज़ इसे "डेलीसिड" नाम से बाज़ार में उतार रही थी। 1964 के एक कैटलॉग (catalogue) में इसे मानसिक स्वास्थ्य, खासतौर पर चिंता और जुनूनी न्यूरोसिस जैसी समस्याओं के इलाज में एक उपयोगी दवा बताया गया था! माना जाता था कि यह दवा दमित भावनाओं को बाहर लाने और मानसिक शांति प्रदान करने में मदद कर सकती है।
उस दौर में यूरोपियन मनोचिकित्सा क्लीनिक्स में एल एस डी को साइकोलिटिक थेरेपी (Psycholytic Therapy) में इस्तेमाल किया जाता था। इस तकनीक का उद्देश्य मानसिक तनाव और आंतरिक संघर्षों को कम करना था। इसके तहत, मरीजों को छोटी खुराकों में एल एस डी दी जाती थी, जिससे उनका अवचेतन मन धीरे-धीरे खुल सके।
थेरेपी का तरीका भी दिलचस्प था –
- एल एस डी लेने के बाद आराम करने दिया जाता था।
- फिर मरीजों को अपने मतिभ्रम के अनुभवों को चित्रकला या मिट्टी की कला के माध्यम से व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।
- इसके बाद, एक समूह चर्चा होती थी, जहां मरीज अपने अनुभवों को चिकित्सक की मदद से समझने की कोशिश करते थे।
साइकेडेलिक थेरेपी (Psychedelic Therapy): साइकेडेलिक थेरेपी, एल एस डी थेरेपी का एक और तरीका था, जिसमें इसे उच्च खुराक में दिया जाता था। लेकिन इसे यूं ही नहीं दिया जाता था! मरीजों को इसके लिए गहरी मनोवैज्ञानिक तैयारी से गुजरना पड़ता था। इस तकनीक का लक्ष्य व्यक्तित्व में गहरे बदलाव लाना और मानसिक परेशानियों को ठीक करना था।
उस समय कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि एल एस डी का उपयोग कैंसर से होने वाले गंभीर दर्द को कम करने में भी किया जा सकता है। इसके अलावा, इसे एक "मॉडल मानसिक रोग" की तरह भी देखा जाता था, जिससे मानसिक बीमारियों की गहरी समझ विकसित की जा सके।
एल एस डी पर शोध क्यों बंद हो गया?
एल एस डी पर वैज्ञानिक अध्ययन 1950 के दशक में जोरों पर था, लेकिन 1970 के दशक के अंत तक यह लगभग रुक गया। इसके पीछे कई वजहें थीं:
- 1966 में अमेरिका में एल एस डी को अवैध घोषित कर दिया गया।
- मेडिकल रिसर्च (Medical Research) के नियम बहुत सख्त हो गए।
- इसका नतीजा यह हुआ कि जो शोध चल रहे थे, वे धीरे-धीरे बंद हो गए।
2000 के दशक के मध्य में वैज्ञानिकों ने एक बार फिर एल एस डी पर शोध करना शुरू किया। अब सवाल यह था – क्या एल एस डी वास्तव में दिमाग को "रीसेट" (reset) कर सकता है और सोचने के नए तरीके विकसित करने में मदद कर सकता है?
शोध बताते हैं कि एल एस डी सेरोटोनिन(serotonin) और डोपामाइन(Dopamine) जैसे न्यूरोट्रांसमीटर (Neurotransmitter) को प्रभावित करता है, जो हमारे मूड को नियंत्रित करते हैं। लेकिन इसका पूरा प्रभाव अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं गया है।
एल एस डी से किन बीमारियों में हो सकती है मदद ?
आज के शोध पुराने अध्ययनों पर आधारित हैं और वैज्ञानिक देख रहे हैं कि क्या एल एस डी का उपयोग निम्नलिखित स्थितियों के इलाज में किया जा सकता है:
✔ अवसाद (Depression)
✔ अभिघातजन्य तनाव विकार (PTSD)
✔ नशे की लत से छुटकारा (Addiction Recovery)
✔ घातक बीमारियों से जूझ रहे मरीजों की चिंता कम करना
फिलहाल, वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जांच कर रहे हैं कि क्या एल एस डी वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए एक प्रभावी उपचार हो सकता है या नहीं। हालांकि, अभी इस पर और शोध की ज़रुरत है। एल एस डी माइक्रोडोज़िंग(Microdosing) के बारे में काफ़ी चर्चा होती रहती है, लेकिन क्या यह वाकई फ़ायदेमंद है, या सिर्फ़ एक भ्रम? आइए इसे आसान भाषा में समझते हैं।
क्या माइक्रोडोज़िंग के सच में फ़ायदे हैं?
अभी तक इस बात के कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला हैं कि माइक्रोडोज़िंग एल एस डी से कोई वास्तविक स्वास्थ्य लाभ होता है। कुछ शोधों में पाया गया कि इसका मानसिक ध्यान (focus) पर कोई खास असर नहीं पड़ता।
असल में, ज़्यादातर शोध भरोसेमंद नहीं माने जाते क्योंकि वे उन लोगों के अनुभवों पर आधारित होते हैं, जो खुद इसे इस्तेमाल कर रहे होते हैं और अपनी राय ऑनलाइन शेयर करते हैं। कुछ नए अध्ययनों में तो यह भी पाया गया है कि माइक्रोडोज़िंग का असर सिर्फ़ प्लेसबो (placebo effect) प्रभाव हो सकता है—यानी, यह सच में काम नहीं करता, बस लोग मानते हैं कि कर रहा है।
लेकिन कुछ शुरुआती रिसर्च में इसके संभावित फ़ायदे सामने आए हैं, जैसे:
- संज्ञानात्मक क्षमताओं (cognitive abilities) में सुधार
- ऊर्जा स्तर बढ़ाना
- मूड और भावनात्मक संतुलन बेहतर करना
- चिंता और अवसाद को कम करना
- नशे की लत और पदार्थ के दुरुपयोग में मदद
- माइग्रेन (Migrane) और क्लस्टर सिरदर्द (cluster headache) से राहत
- ध्यान घाटे विकार (ADHD) के लक्षण कम करना
- बेहतर नींद और आत्म-देखभाल को बढ़ावा देना
क्या माइक्रोडोज़िंग से कोई जोखिम है?
अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि माइक्रोडोज़िंग से कोई गंभीर खतरा है या नहीं। हालांकि, चूहों पर किए गए कुछ अध्ययनों में यह पाया गया कि लंबे समय तक लगातार माइक्रोडोज़िंग करने से कुछ साइड इफ़ेक्ट (Side Effect) हो सकते हैं, जैसे:
- बढ़ी हुई आक्रामकता
- असामान्य व्यवहार
- अतिसक्रियता (Hyperactivity)
- खुशी महसूस करने में कठिनाई
इसके अलावा, एल एस डी सेरोटोनिन रिसेप्टर्स को सक्रिय करता है, जिससे सेरोटोनिन सिंड्रोम (Serotonin syndrome) हो सकता है। इसके लक्षणों में शामिल हैं:
- कंपकंपी (Shivering)
- त्वचा में झुनझुनी (Tingling Sensation)
- हाइपरथर्मिया (Hyperthermia) (शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में कठिनाई)
हालांकि, स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कम मात्रा या मनोरंजक रूप में लिया गया एल एस डी आमतौर पर नशे की लत नहीं बनाता और इससे किसी तरह की बाध्यकारी लत (compulsive use) विकसित होने के संकेत भी नहीं मिले हैं। फिलहाल, माइक्रोडोज़िंग के फ़ायदों और नुकसानों पर विज्ञान पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। कुछ लोग इसे फ़ायदेमंद मानते हैं, लेकिन यह भी संभव है कि यह सिर्फ़ एक मानसिक प्रभाव (placebo effect) हो। अगर आप इसे आज़माने की सोच रहे हैं, तो सावधानी ज़रूरी है और किसी चिकित्सा विशेषज्ञ से सलाह लेना बेहतर होगा।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yc98axz7
https://tinyurl.com/29u8y9gj
https://tinyurl.com/29u8y9gj
https://tinyurl.com/y8womo9a
https://tinyurl.com/2cczgz5l
मुख्य चित्र: साइकेडेलिक (Psychedelic) आँख (Wikimedia)
क्या मेरठ जानना चाहेगा, हाइड्रोपॉनिक खेती से एक अच्छा मुनाफ़ा कैसे कमाया जा सकता है ?
भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
Land type and Soil Type : Agricultural, Barren, Plain
26-03-2025 09:17 AM
Meerut-Hindi

हाल की बाज़ार रिपोर्ट्स के अनुसार, भारतीय हाइड्रोपॉनिक्स बाज़ार के 17.6% की दर से बढ़ने की उम्मीद है। यह बाज़ार 2031 तक लगभग 5.3 बिलियन यू एस डी (USD) तक पहुँच सकता है, जबकि 2022 में इसका था वर्तमान मूल्य लगभग 1.4 बिलियन यू एस डी था । क्या आपको पता है कि हाल ही में, मेरठ शहर में कुछ हाइड्रोपॉनिक खेत लगाए गए हैं? तो आज हम समझने की कोशिश करेंगे कि भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती का बाज़ार कितना बड़ा है।
इसके बाद, हम हाइड्रोपॉनिक खेती से होने वाली कमाई के विभिन्न तरीकों के बारे में जानेंगे, जैसे कि उत्पादों की बिक्री, खेत का दौरा, कंसल्टिंग सेवाएं आदि। फिर हम कुछ बेहतरीन भारतीय सब्ज़ियों के बारे में जानेंगे जिन्हें हाइड्रोपॉनिक खेती में उगाया जा सकता है, जैसे पालक, अदरक, टमाटर, शिमला मिर्च आदि।
आगे हम यह समझेंगे कि भारत में 1 एकड़ हाइड्रोपॉनिक खेत सेटअप करने की लागत कितनी हो सकती है। इसके बाद हम हाइड्रोपॉनिक खेती में होने वाले मुनाफ़े के बारे में भी चर्चा करेंगे।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती का भविष्य
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती का बाज़ार 2020 से 2027 तक हर साल 13.53% बढ़ने का अनुमान है। दुनिया भर में हाइड्रोपॉनिक खेती का बाज़ार सिर्फ़ 6.8% बढ़ रहा है। मेट्रो और बड़े शहरों में ऑर्गेनिक फ़सलों की मांग बहुत है। ऐसे लोग जो सेहत के बारे में सोचते हैं, वे ताज़े, सुरक्षित और हेल्दी ऑर्गेनिक फ़ल और सब्ज़ियाँ के लिए ज़्यादा पैसे देने के लिए तैयार रहते हैं।
नई-नई तकनीकें और खाने की महंगाई की वजह से हाइड्रोपॉनिक खेती की लागत कम हो रही है। इससे लोगों को इस तकनीक को अपनाने में मदद मिल रही है और अब इस खेती को शुरू करना और भी सस्ता होता जा रहा है। इससे, यह एक नया व्यवसाय बनने की दिशा में है। हालांकि, हाइड्रोपॉनिक खेती में कुछ मुश्किलें हैं कि क्या उगाया जा सकता है। इसलिये किसानों को शुरू में बैंकों और कृषि विशेषज्ञों से मदद की ज़रूरत हो सकती है।
हाइड्रोपॉनिक खेती से होने वाली आय के तरीके
- उत्पाद बेचना: हाइड्रोपॉनिक खेती से होने वाली मुख्य आय ताज़े उत्पादों को बेचकर होती है। जैसे सलाद पत्तियाँ, पालक, और जड़ी-बूटियाँ। ये उगाने में बहुत बढ़िया होती हैं क्योंकि ये सालभर उगाई जा सकती हैं, और इनका स्वाद भी बहुत अच्छा होता है। हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाई गई फसलें अच्छी गुणवत्ता वाली होती हैं, इसलिए इन्हें ज़्यादा कीमत मिलती है। किसान इन्हें किसानों के बाज़ार, सीएसए (Community Supported Agriculture) प्रोग्राम्स, या स्थानीय किराने की दुकानों में बेच सकते हैं। इसके अलावा, रेस्तरां, कैटरिंग कंपनियों या फूड डिलीवरी सर्विसेस से पार्टनरशिप करके एक स्थिर बाज़ार भी बना सकते हैं।
- मूल्यवर्धित उत्पाद: किसान सिर्फ़ ताज़े उत्पादों से ही नहीं, बल्कि मूल्यवर्धित उत्पादों से भी अपनी आय बढ़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए, पैक किए हुए सलाद, जड़ी-बूटियों के मिश्रण, सुगंधित तेल, या हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाए गए माइक्रोग्रीन्स। ये उत्पाद उपभोक्ताओं को आसानी से तैयार होने वाले और खास स्वाद वाले खाद्य उत्पादों की तलाश होती है। इसके ज़रिए किसान बेहतर कीमत वसूल सकते हैं और मुनाफ़े की दर बढ़ा सकते हैं।
- हाइड्रोपॉनिक खेत टूर: हाइड्रोपॉनिक खेत का दौरा आयोजित करने से भी अतिरिक्त आय हो सकती है। लोग इस तरह के शैक्षिक और रोचक अनुभव के लिए पैसे देने के लिए तैयार रहते हैं। वे खेती की तकनीक के बारे में जान सकते हैं, फसलें देख सकते हैं, और यहां तक कि कटाई या चखने का अनुभव भी कर सकते हैं। इससे न केवल आय होती है, बल्कि यह ब्रांड की पहचान बनाने, समुदाय के साथ जुड़ने और संभावित ग्राहकों से संपर्क स्थापित करने में मदद करता है।
- सलाहकार सेवाएं: हाइड्रोपॉनिक खेती में अनुभव रखने वाले किसान अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करके दूसरों को सलाह दे सकते हैं। ये सलाहकार सेवाएं व्यक्तिगत किसानों या संस्थाओं को हाइड्रोपॉनिक खेत शुरू करने के लिए सहायता प्रदान कर सकती हैं। इसमें खेत सेटअप, फ़सल चयन, सिस्टम डिजाइन, पोषक तत्वों का प्रबंधन, कीट नियंत्रण, और सामान्य खेत प्रबंधन के बारे में मार्गदर्शन शामिल हो सकता है। इसके लिए किसान सलाहकार शुल्क ले सकते हैं और इसके जरिए एक नया आय स्रोत बना सकते हैं।
भारत में हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाने के लिए बेहतरीन सब्ज़ियाँ
- पालक: क्या आप जानते हैं कि सर्दियों में घर में पालक से बनी चीज़ें ज़्यादा क्यों बनती हैं? इसका कारण है कि पालक एक ठंडी मौसम की फ़सल है और यह कम तापमान और कम रोशनी में अच्छी तरह से बढ़ती है। पालक हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाने के लिए बेहतरीन फ़सल है, और आपको तीन महीने तक इसकी फ़सल मिल सकती है।
- अदरक: पालक के विपरीत, अदरक गर्म और आर्द्र वातावरण में अच्छा बढ़ता है। यह हाइड्रोपॉनिक खेती के लिए एकदम सही है। क्या आप व्यावसायिक हाइड्रोपॉनिक उगाने का सोच रहे हैं? तो अदरक आपके लिए एक अच्छा विकल्प हो सकता है, क्योंकि इसके लिए बहुत सारे शोध सामग्री उपलब्ध हैं।
- टमाटर: तकनीकी रूप से, टमाटर एक फल है, लेकिन भारतीय रसोई में इसे एक सब्ज़ी, स्वाद बढ़ाने वाला और कई करी के बेस के रूप में प्रयोग किया जाता है। पर्याप्त रोशनी और ड्रिप हाइड्रोपॉनिक सिस्टम के साथ, आप इसे पूरे साल उगा सकते हैं। इसलिए, टमाटर हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाई जाने वाली एक सामान्य फ़सल है।
- खीरा: व्यावसायिक हाइड्रोपॉनिक उगाने वालों के लिए, खीरा एक लोकप्रिय फ़सल है। यह पर्यावरण के अनुकूल होता है और तेज़ी से बढ़ता है, जिससे आपको अच्छा उत्पादन मिलता है जब आप इसे ड्रिप हाइड्रोपॉनिक सिस्टम के साथ उगाते हैं। लेकिन इसके लिए आपको अधिक रोशनी और उच्च तापमान की आवश्यकता होती है।
- शिमला मिर्च: शिमला मिर्च किसी भी डिश में स्वाद बढ़ाने के लिए एक शानदार सब्ज़ी है, और यह सबका पसंदीदा होता है। यदि आप इसे बड़े पैमाने पर हाइड्रोपॉनिक तरीके से उगाते हैं, तो आपको अच्छा लाभ मिलेगा। इसे उगाने के लिए गर्मी, धूप और ड्रिप हाइड्रोपॉनिक सिस्टम का संयोजन चाहिए। रात में तापमान बढ़ना चाहिए और दिन में कम होना चाहिए।
- करेला: भारतीय भोजन की शुरुआत में जो फ़सल डाली जाती है, वह है करेला, जो एक बेलदार पौधा होता है। इसलिए आपके हाइड्रोपॉनिक सिस्टम को इस प्रकार की फ़सल का समर्थन करना चाहिए। गहरे पानी की संस्कृति और पोषक तत्व फिल्म तकनीक करेला के लिए सबसे उपयुक्त हैं। करेला की हरी फलियाँ 12-16 हफ्तों में तैयार हो जाती हैं।
यह सभी सब्ज़ियाँ हाइड्रोपॉनिक खेती के लिए बेहतरीन हैं और आप इन्हें उगाकर अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेत सेट करने की लागत
एक बार सेटअप की लागत
- पॉलीहाउस शेल्टर - ₹6,00,000
- ऐन आफ़ टी (NFT) सिस्टम सेटअप:
- बड़े पाइप (4 इंच) - ₹7,00,000
- छोटे पाइप (2 इंच) - ₹12,000
- पाइप कनेक्टर - ₹1,20,000
- स्टैंड प्लेटफ़ॉर्म - ₹1,00,000
- 20,000-लीटर का टैंक - ₹55,000
- प्लास्टिक टैंक - ₹15,000 (2 टैंक)
- 5,000 लीटर का टैंक - ₹22,000
- पानी का पंप (1 HP) - ₹30,000 (4 पंप)
- पानी का पंप (0.5 HP) - ₹10,000 (2 पंप)
- नेट कप्स - ₹1,00,000
- पानी का कूलर - ₹60,000
- आर ओ (RO) सिस्टम - ₹50,000
- पी एच (pH) मीटर - ₹1,200
- टी डी एस (TDS) मीटर - ₹2,000
- मज़दूरी - ₹10,000
कुल लागत (एक बार सेटअप): ₹18,87,200 से ₹20,00,000 तक
हाइड्रोपॉनिक खेती की प्रति चक्र लागत
हर महीने खेती करने के लिए, प्रति चक्र लागत इस प्रकार है:
- बिजली - ₹15,000/माह
- बीज - ₹20,000/माह
- खाद - ₹20,000/माह
- मज़दूरी - ₹10,000/माह
- रख-रखाव - ₹5,000/माह
- पैकिंग और परिवहन - ₹10,000/माह
कुल प्रति चक्र लागत: ₹80,000
हाइड्रोपॉनिक खेती में मुनाफ़ा
अगर आप 5000 वर्ग फ़ुट जगह में एक फ़सल (जैसे लेट्यूस) उगाते हैं:
- कुल उत्पादन - 3200 किलो
- नुकसान - 1000 किलो
- कुल बचा हुआ उत्पादन - 2200 किलो
- बाज़ार में कीमत - ₹350/किलो
- कुल कमाई - ₹7,70,000
इस तरह, हाइड्रोपॉनिक खेती से अच्छा मुनाफ़ा हो सकता है।
भारत में हाइड्रोपॉनिक खेती का मुनाफ़ा
मुनाफ़ा:
- कुल कमाई प्रति चक्र: ₹7,70,000
- कुल लागत प्रति चक्र: ₹80,000
मुनाफ़ा प्रति चक्र: ₹6,90,000
इस तरह, हाइड्रोपॉनिक खेती का मुनाफ़ा ₹6,90,000 प्रति चक्र होता है।
हाइड्रोपॉनिक खेती में निवेश (प्रति वर्ग फीट)
- अगर आप 5000 वर्ग फीट में खेती करते हैं, तो कुल निवेश (एक बार का और प्रति चक्र) ₹20,00,000 होता है।
- इस हिसाब से, एक बार का निवेश, प्रति वर्ग फ़ीट ₹400 है और प्रति चक्र का निवेश, प्रति वर्ग फ़ीट ₹16 है।
हाइड्रोपॉनिक खेती में मुनाफ़ा (प्रति वर्ग फीट)
- 5000 वर्ग फ़ीट के क्षेत्र से कुल मुनाफ़ा ₹6,90,000 है।
- प्रति वर्ग फ़ीट , मुनाफ़ा ₹138 प्रति चक्र होता है।
हैं, तो हाइड्रोपॉनिक खेती, आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प हो सकती है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: हाइड्रोपॉनिक तरीके से की गई टमाटर की खेती (Wikimedia)
योग का सर्वोत्तम फल पाने के लिए, इसके नियमों से अवगत हों !
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
25-03-2025 09:21 AM
Meerut-Hindi

कई शोध, यह प्रमाणित करते हैं कि, योग हमारे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। यही कारण है कि, पिछले कुछ वर्षों में, इंटरनेट और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ, मेरठ वासियों की भी योग में रूचि बढ़ रही है। क्या आप जानते हैं कि, योग और 'नियम' के बीच गहरा संबंध है! नियम उन सकारात्मक आदतों या कर्तव्य को कहा जाता है, जो योग और धर्म में सुझाए गए हैं। इनका उद्देश्य, लोगों को स्वस्थ जीवन जीने, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने और मुक्त अवस्था तक पहुँचने में मदद करना होता है। इसलिए, आज के इस लेख में, हम इन नियमों के बारे में विस्तार से जानेंगे। खासतौर पर, हम योग के पाँच नियमों (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) पर चर्चा करेंगे। इसकी क्रम में, हम इनके अर्थ और महत्व को समझेंगे। इसके बाद, हम यह भी जानेंगे कि, इन पाँच नियमों को अपने दैनिक जीवन में कैसे लागू किया जा सकता है। अंत में, हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि, योग के 8 अंगों का अभ्यास हमारे जीवन में क्यों ज़रूरी है।
नियम का क्या अर्थ है?
'नियम' एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'योग दर्शन और शिक्षा द्वारा सुझाए गए कर्तव्य या पालन' होता है। ये कर्तव्य, योग के मार्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पतंजलि के योग सूत्र में नियमों को योग के दूसरे अंग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नियम योग के नैतिक नियमों को व्यक्ति के मन, शरीर और आत्मा पर लागू करने का तरीका हैं। इनसे व्यक्ति के भीतर एक सकारात्मक वातावरण बनाने में मदद मिलती है। नियमों का अभ्यास एक योगी को आंतरिक शक्ति, स्पष्टता और अनुशासन प्रदान करता है। ये गुण उसकी आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति करने के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं।
योग के 5 नियमों को निम्नवत दिया गया है:
1. शौच (स्वच्छता): शौच का अर्थ है ‘स्वच्छता’, लेकिन, यह केवल शारीरिक सफ़ाई तक सीमित नहीं है। इसका उद्देश्य, हमारे मन, विचार और आदतों की स्वच्छता पर भी ध्यान देना है। शौच की आदत डालने से, हमें यह समझने में मदद मिलती है कि कौन-सी आदतें हमारे जीवन में उपयोगी नहीं हैं। जब तक हम अपनी नकारात्मकता और 'अशुद्धियों' को दूर नहीं करेंगे, तब तक योग का अभ्यास कठिन हो सकता है। इसलिए, शौच हमें आंतरिक और बाहरी स्वच्छता बनाए रखने की सीख देता है।
2. संतोष (संतुष्टि): संतोष का अर्थ, संतुष्टि होता है, लेकिन इसे प्राप्त करना आसान नहीं है। हम अक्सर सोचते हैं, "मैं तब खुश होऊंगा जब यह होगा" या "अगर यह मिल जाए तो।" लेकिन संतोष हमें सिखाता है कि वर्तमान में जो हमारे पास है, उसे स्वीकार करें और उसकी सराहना करें। जब हम संतोष का अभ्यास करते हैं, तो हमारे मन की बेचैनी कम होती है। इससे हम अपने जीवन में सहजता और संतुष्टि के साथ आगे बढ़ सकते हैं।
3. तपस (अनुशासन): तपस का अर्थ, अनुशासन और भीतर से उत्साह का विकास होता है। यह नियम, हमें आत्म-अनुशासन और जुनून को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित करता है। तपस का अर्थ, हर व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है, लेकिन, इसका मूल उद्देश्य एक ही है:- हमारे अंदर छिपे साहस और उद्देश्य की भावना को जगाना। यह हमें, अपने लक्ष्य की ओर दृढ़ता से बढ़ने की शक्ति देता है।
4. स्वाध्याय (स्व-अध्ययन): स्वाध्याय का मतलब है, स्वयं का अध्ययन। पतंजलि ने कहा है, "स्वयं का अध्ययन करो और दिव्यता को खोजो।" इसका अभ्यास हमें आत्म-चिंतन और खुद को समझने की कला सिखाता है। इससे, हमें यह पहचानने में मदद मिलती है कि, कौन-सी चीज़ें हमारे लिए हानिकारक हैं और कौन-सी हमारे लिए फ़ायदेमंद। स्वाध्याय हमें जीवन के बारे में सीखने और अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
5. ईश्वर प्रणिधान (उच्च शक्ति के प्रति समर्पण): ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है ईश्वर या किसी उच्च शक्ति के प्रति समर्पण। इसका उद्देश्य अपनी अपेक्षाओं को छोड़कर जीवन को पूरी तरह से जीना होता है। हमें अपनी ओर से पूरी कोशिश करनी चाहिए, प्रामाणिक रहना चाहिए, लेकिन परिणाम के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर प्रणिधान का अभ्यास हमारे तनाव और चिंता को कम करता है। इससे हम अपने दैनिक जीवन में अधिक सशक्त और शांत महसूस करते हैं।
योग के पाँच नियमों का अपने दैनिक जीवन में कैसे अभ्यास करें?
योग को केवल एक शारीरिक व्यायाम के रूप में देखना सही नहीं है। यह जीवन जीने का एक संपूर्ण तरीका है। योग के पाँच नियमों को अपनाकर हम अपने जीवन को संतुलित, शांतिपूर्ण और आनंदमय बना सकते हैं। आइए, इन पाँच नियमों को समझें और इन्हें मैट (योग अभ्यास) पर और अपने जीवन में कैसे लागू करें।
1. शौच (स्वच्छता)
मैट पर:
- योग अभ्यास शुरू करने से पहले अपने मन को मौन ध्यान के माध्यम से शांत करें।
- शवासन करते समय गहरी शांति अनुभव करने की कोशिश करें।
- हर अभ्यास के पहले और बाद में अपनी योग चटाई साफ रखें।
मैट से बाहर:
- रोज़ नहाने और हाथ धोने की आदत डालें।
- ऐसा खाना पकाएँ, जो न केवल शरीर को बल्कि मन को भी सुखद लगे।
2. संतोष (संतुष्टि)
मैट पर:
- बाहरी शोर, जैसे निर्माण के शोर को नज़रअंदाज़ करें और अपने ध्यान को स्थिर रखें।
- कठिन योगासन करते समय शांति बनाए रखें।
- अपनी सीमाओं को समझें और उन्हें स्वीकार करें।
मैट से बाहर:
- जो कुछ भी आपके पास है, उसमें संतुष्ट रहना सीखें।
- दूसरों के नाटकीय जीवन या समस्याओं में उलझने से बचें।
3. तपस (संयम और अनुशासन)
मैट पर:
- कठिन योग मुद्रा को थोड़ी देर तक बनाए रखने की कोशिश करें, बशर्ते यह दर्द न करे।
- किसी नए कौशल पर काम करें और इसे पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्पित रहें।
- हर अभ्यास से पहले एक संकल्प लें और उसे पूरा करने का प्रयास करें।
मैट से बाहर:
- उन मुश्किल बातचीतों को करें जो आपके विकास में सहायक हो सकती हैं। (लेकिन यदि यह केवल नकारात्मकता या बहस है, तो इसे छोड़ दें।)
- कठिन कामों को तुरंत पूरा करें, ताकि आप अपनी ऊर्जा, सकारात्मक और सुखद कार्यों में लगा सकें।
4. स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन)
मैट पर:
- अपने योग अभ्यास को रिकॉर्ड करें।
- अभ्यास के दौरान अपने शरीर की ज़रूरतों को सुनें। ज़्यादा प्रयास की ज़रूरत कहाँ है और कहाँ पीछे हटने की आवश्यकता है, इसे समझें।
मैट से बाहर:
- खुद से सवाल करें कि, आप किन सिद्धांतों के लिए खड़े हैं। क्या आप अपने मूल्यों के अनुसार जी रहे हैं?
- यह जानें कि, आप अपनी ऊर्जा कहाँ और कैसे खर्च कर रहे हैं। क्या आप इसे किसी बेहतर उद्देश्य के लिए उपयोग कर सकते हैं?
5. ईश्वर प्रणिधान (समर्पण)
मैट पर:
- अपना अभ्यास किसी ऐसे व्यक्ति या शक्ति को समर्पित करें, जिसे आप महत्वपूर्ण मानते हैं।
- भक्ति की भावना जगाएँ। यह आपके विश्वास, विचार या किसी सुंदर दृष्टि के रूप में हो सकती है।
मैट से बाहर:
- किसी अच्छे उद्देश्य के लिए स्वेच्छा से काम करें, जो आपको आंतरिक संतोष दे।
- अपने व्यक्तिगत मार्गदर्शक सिद्धांतों की एक सूची बनाएँ और यह सोचें कि आप उनके माध्यम से अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे बन सकते हैं।
योग का अभ्यास, केवल शरीर को मज़बूत करने के लिए नहीं, बल्कि मन और आत्मा को भी शुद्ध करने के लिए है। इन पाँच नियमों को अपनाकर आप अपने जीवन को बेहतर दिशा में ले जा सकते हैं। योग को अपने दैनिक जीवन में शामिल करें और इसके सकारात्मक प्रभावों को महसूस करें।
योग के आठ अंगों का अभ्यास क्यों करना चाहिए?
ऋषि पतंजलि ने योग सूत्र के दूसरे अध्याय में योग के आठ अंगों की महत्ता को समझाया है। सूत्र 2.28 में वे कहते हैं:
"योगाङ्गनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः।"
अर्थात, "योग के आठ अंगों के निरंतर अभ्यास से अशुद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं और ज्ञान व विवेक का प्रकाश फैलता है।"
योग के आठ अंगों का अभ्यास, हमें अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद करता है। जब हम इन अंगों को गहराई से अपनाते हैं, तो आंतरिक संघर्ष और द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। हमारे भीतर का प्रकाश, जो हमारा असली स्वरूप है, प्रकट होने लगता है। जैसा कि गुरुदेव श्री श्री रविशंकर जी ने समझाया है, "योग के आठ अंग, एक कुर्सी के चार पैरों की तरह हैं। ये आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि यदि आप एक को खींचेंगे, तो बाकी सभी अपने आप खिंचकर आ जाएँगे।"
यह तुलना समझने में मदद करती है कि, जब हम शरीर को विकसित करते हैं, तो यह समग्रता में विकसित होता है। जैसे शरीर के सभी अंग एक साथ बढ़ते हैं, वैसे ही योग के ये आठ अंग भी, एक साथ अभ्यास किए जाते हैं। यह चरणबद्ध प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक सामूहिक अनुभव है।
योग के आठ अंग, हमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से संतुलित करते हैं। जब हम इनका अभ्यास करते हैं, तो यह एक ऐसा अनमोल उपहार बन जाता है, जो हमें जीवन में शांति, संतुलन और आनंद प्रदान करता है। इसलिए, योग के आठ अंगों का अभ्यास न केवल हमारे जीवन को सरल और शुद्ध बनाता है, बल्कि हमें हमारे असली स्वरूप से जोड़ता है। यह अभ्यास, जीवन के हर पहलू में संतुलन लाता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/27lxho2l
https://tinyurl.com/24p9yneg
https://tinyurl.com/2xlehd89
https://tinyurl.com/2yfjqybj
मुख्य चित्र : तांत्रिक योग के छह चक्रों का चित्रण (Wikimedia)
क्या मेरठ ने किया है अपनी अच्छी सेहत के लिए फ़ंगस और ई. कोली जैसे सूक्ष्मजीवों का धन्यवाद?
फंफूद, कुकुरमुत्ता
Fungi, Mushrooms
24-03-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

गर्मियों की शुरुआत हो चुकी है, और इस बदलते मौसम का असर मेरठ वासियों की सेहत पर भी साफ़ नज़र आता है! हालांकि शुक्र है अच्छी दवाइयों की बदौलत हमारे बिगड़ी हुई सेहत लंबे समय तक बिगड़ी नहीं रह सकती! इसलिए आपको उन नन्हे सूक्ष्मजीवों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जो हमारे लिए जीवनरक्षक दवाईयां बनाने में बहुत बड़ा योगदान देते हैं! जी हाँ! दवा उद्योग में सूक्ष्मजीवों की भूमिका बेहद अहम होती है। ये नन्हें, जीव जीवन रक्षक दवाओं और उपचारों के उत्पादन में सहायक होते हैं। एंटीबायोटिक (antibiotic) बनाने में बैक्टीरिया (bacteria) और कवक का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, टीकों का निर्माण भी इन्हीं के माध्यम से होता है, जो विभिन्न बीमारियों से बचाव करते हैं।
सूक्ष्मजीव विटामिन (vitamins), एंज़ाइम(enzyme) और इंसुलिन(insulin) के उत्पादन में भी सहायक होते हैं। इंसुलिन का उपयोग मधुमेह के इलाज में किया जाता है। इसके अलावा, ये प्रोबायोटिक्स (probiotics) के निर्माण में भी मदद करते हैं। इन छोटे जीवों के बिना कई महत्वपूर्ण दवाओं का निर्माण करना कठिन हो जाता। इसलिए आज के इस लेख में हम आनुवंशिक रूप से संशोधित ई. कोली (E. Coli) पर चर्चा करेंगे और यह जानेंगे कि इसका उपयोग इंसुलिन उत्पादन में कैसे किया जाता है। यह मधुमेह रोगियों के लिए बहुत लाभदायक है। इसके बाद, हम सूक्ष्मजीवों के औषधीय उपयोगों पर ध्यान देंगे। आगे हम यह भी देखेंगे कि टीके, एंज़ाइम और अन्य दवाओं के विकास में इनका क्या योगदान है। अंत में, हम कवक से बनने वाले एंटीबायोटिक्स (antibiotics) का अध्ययन करेंगे और समझेंगे कि पेनिसिलियम जैसे कवक जीवन रक्षक दवाओं के निर्माण में कैसे सहायक होते हैं।
आइए, इस लेख की शुरुआत आनुवंशिक रूप से संशोधित ई. कोली द्वारा इंसुलिन के उत्पादन की प्रक्रिया को समझने के साथ करते हैं:
ई. कोली (E. coli) यानी एस्चेरिशिया कोली (Escherichia coli), एक प्रकार का बैक्टीरिया है, जो आमतौर पर इंसानों और जानवरों की आंतों में पाया जाता है। वैज्ञानिक, खमीर या बैक्टीरिया में इंसुलिन उत्पन्न करने के लिए इंसुलिन कोडिंग जीन डालते हैं। वर्ष 1979 में जेनेंटेक के वैज्ञानिकों ने ई. कोली जीवाणु से मानव इंसुलिन का सफ़ल उत्पादन किया। इससे पहले, 1978 में पुनः संयोजक डी एन ए तकनीक का उपयोग कर ई. कोली में बड़े पैमाने पर मानव इंसुलिन बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।
पहले, मधुमेह का इलाज मुख्य रूप से सुअर के इंसुलिन से किया जाता था। हालांकि, जीन अंतर के कारण यह इंसुलिन मनुष्यों में एलर्जी का कारण बनता था। लेकिन आधुनिक तकनीक की मदद से इस समस्या का समाधान खोज लिया गया और मानव इंसुलिन का उत्पादन संभव हो सका।
हाल ही में, बच्चों में विकास संबंधी विकारों के इलाज के लिए मानव विकास हार्मोन (Human Growth Hormone (HGH)) का उपयोग किया जाने लगा है। इस हार्मोन को प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों ने ‘ एच जी एच जीन को सी दी एन ए (cDNA) लाइब्रेरी से क्लोन किया। फिर इसे जीवाणु वेक्टर में डालकर ई. कोली कोशिकाओं में प्रविष्ट किया गया। इसके बाद बैक्टीरिया को विकसित किया गया और हार्मोन को अलग किया गया। इस तकनीक से बड़े पैमाने पर मानव विकास हार्मोन का व्यावसायिक उत्पादन संभव हो सका।
आइए, अब जानते हैं कि ई. कोली को इंसुलिन उत्पादन के लिए आदर्श जीव क्यों माना जाता है?
ई. कोली (एस्चेरिचिया कोली) को इंसुलिन उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त जीव माना जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि इसकी प्रजनन दर काफ़ी तेज़ होती है। सही परिस्थितियां मिलने पर यह हर 20-30 मिनट में अपनी संख्या दोगुनी कर सकता है। इसके अलावा, यह एम्पीसिलीन (Ampicillin) और टेट्रासाइक्लिन (Tetracycline) जैसी एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी होता है। इससे इंसुलिन निर्माताओं को अवांछित रोगाणुओं के विकास को रोकने में मदद मिलती है।
ई. कोली को संभालना आसान होता है, जिससे इसका रखरखाव कम लागत में भी किया जा सकता है। अन्य जीवों की तुलना में यह अधिक मात्रा में इंसुलिन उत्पन्न करता है। यही कारण है कि इंसुलिन निर्माण में ई. कोली का उपयोग सबसे अधिक लाभदायक होता है।
मानव इंसुलिन उत्पादन में भी ई. कोली की अहम भूमिका निभाता है:
पुनः संयोजक मानव इंसुलिन विकसित होने से पहले, मधुमेह के रोगी सूअरों और गायों के अग्न्याशय से प्राप्त इंसुलिन पर निर्भर रहते थे। हालांकि यह इंसुलिन रक्त शर्करा को सामान्य स्तर पर बनाए रखने में सहायक था, लेकिन इसका अणु मानव इंसुलिन से थोड़ा अलग होता था।
मानव इंसुलिन में बी-श्रृंखला के सी-टर्मिनल पर थ्रेओनीन (Threonine) नामक एक अमीनो एसिड पाया जाता है, जबकि सुअर इंसुलिन में एलानिन अमीनो एसिड होता है। यह छोटा अंतर भी शरीर में इंसुलिन के प्रभाव को प्रभावित कर सकता था। ई. कोली के माध्यम से इंसुलिन का उत्पादन करने से यह समस्या हल हो गई और मरीज़ो को शुद्ध मानव इंसुलिन उपलब्ध हो सका।
आइए, अब सूक्ष्मजीवों के औषधीय उपयोग को समझते हैं:
सूक्ष्मजीव, हमारे जीवन में कई तरह से उपयोगी होते हैं। क्या आप जानते हैं कि एक प्रकार के सूक्ष्मजीव से होने वाली बीमारियों का इलाज अन्य सूक्ष्मजीवों की मदद से किया जा सकता है। इन्हीं सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके एंटीबायोटिक्स और एंटीफ़ंगल दवाइयाँ तैयार की जाती हैं। मनुष्यों के लिए औषधियों में भी इनका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।
मनुष्यों के लिए सूक्ष्मजीवों के कुछ महत्वपूर्ण औषधीय उपयोग निम्नवत् दिए गए हैं:
- एंटीबायोटिक्स का निर्माण: स्ट्रेप्टोमाइसिन (streptomycin) और एरिथ्रोमाइसिन(erythromycin) जैसी एंटीबायोटिक दवाएँ सूक्ष्मजीवों से बनाई जाती हैं और
आमतौर पर संक्रमण के इलाज में प्रयोग होती हैं। - प्रतिरक्षादमनकारी दवा: ट्राइकोडर्मा पॉलीस्पोरम (Trichoderma polysporum) से साइक्लोस्पोरिन ए(Cyclosporin A) तैयार किया जाता है, जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को नियंत्रित करने में मदद करता है।
- संक्रमण के इलाज में उपयोग: पेनिसिलियम नोटेटम (Penicillium notatum) नामक कवक से पेनिसिलिन बनाया जाता है, जो विभिन्न संक्रमणों के उपचार में सहायक होता है।
- गर्भाशय संकुचन और माइग्रेन का उपचार: क्लैविसेप्स पर्पुरिया (Claviceps purpurea) नामक कवक से बनी एर्गोट दवा का उपयोग प्रसव के दौरान गर्भाशय के संकुचन को उत्तेजित करने और गंभीर माइग्रेन के इलाज में किया जाता है।
- टीकों का निर्माण: सूक्ष्मजीवों की सहायता से टीके बनाए जाते हैं। इन टीकों में कमज़ोर या निष्क्रिय वायरस होते हैं, जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगों से लड़ने के लिए तैयार करते हैं।
- कैंसर थेरेपी: कोल्ट्रिडिया बैक्टीरिया (Coltridia bacteria) के गैर-रोगजनक उपभेद चिकित्सीय प्रोटीन का उत्पादन करते हैं, जो ट्यूमर(tumor) के इलाज में सहायक होते हैं।
- दस्त का उपचार: फ्लोरोक्विनोलोन (fluoroquinolones) के साथ एरिथ्रोमाइसिन (Aithromycin) का उपयोग दस्त जैसी समस्याओं के इलाज के लिए किया
जाता है। - स्टेरॉयड के परिवहन में सहायता: माइकोबैक्टीरियम (Mycobacterium), रोडोकोकस (Rhodococcus) और गॉर्डनिया (Gordonia) जैसे सूक्ष्मजीव, शरीर
के भीतर स्टेरॉयड (steroid) के परिवहन में मदद करते हैं। - पोषण संबंधी पूरक: सैक्रोमाइसिस सेरेविसिया यीस्ट(Saccharomyces cerevisiae yeast) विटामिन और प्रोटीन से भरपूर होता है, इसलिए इसे पोषण पूरक के रूप में उपयोग किया जाता है।
- कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण: मोनस्कस पर्पेरियस (Monascus purpeureus) नामक फंगस से स्टैटिन दवा बनाई जाती है, जो रक्त में कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने में सहायक होती है।
सूक्ष्मजीव चिकित्सा क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी सहायता से कई घातक बीमारियों का इलाज संभव हुआ है। भविष्य में भी चिकित्सा विज्ञान में सूक्ष्मजीवों का उपयोग और अधिक उन्नत तरीकों से किया जाएगा।
आइए, अब जानते हैं कि कवक से प्राप्त एंटीबायोटिक्स और औषधियाँ चिकित्सा क्षेत्र में क्या क्रांति ला रही हैं?
अपना भोजन सड़े गले मृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करने वाले कवकों की मदद से भी एंटीबायोटिक्स और औषधियों का उत्पादन करना आसान हो जाता है! कवक के कई द्वितीयक मेटाबोलाइट्स (metabolites) व्यावसायिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। ये प्राकृतिक रूप से एंटीबायोटिक्स का उत्पादन करते हैं, जो हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने या उनके विकास को रोकने में मदद करते हैं। इससे पर्यावरण में कवक का संतुलन बना रहता है। पेन्सिलिन और सिफालोस्पोरिन(Cephalosporins) जैसे महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक्स भी कवक से ही प्राप्त किए जाते हैं।
इसके अलावा, कवक से कई बहुमूल्य औषधियाँ भी बनाई जाती हैं। उदाहरण के तौर पर साइक्लोस्पोरिन(Cyclosporine), एक प्रभावी औषधि है, जो अंग प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरोधक तंत्र को नियंत्रित करने में सहायक होती है। एर्गोट एल्कलॉइड्स का उपयोग रक्त वाहिकाओं को संकुचित करने के लिए किया जाता है, जबकि कुछ जैविक हार्मोन भी कवक से प्राप्त होते हैं। साइलोसाइबिन (Psilocybin), जो साइलोसाइबे सेमिलेंसिएटा और जिम्नोपिलस जूनोनियस जैसे कवकों में पाया जाता है, प्राचीन समय से विभिन्न संस्कृतियों में अपनी मतिभ्रमकारी (hallucinogenic) विशेषताओं के कारण उपयोग में लिया जाता रहा है।
21वीं सदी की शुरुआत में, चिकित्सा क्षेत्र में उपयोग होने वाले प्रमुख औषधीय यौगिकों में 20 से अधिक प्रमुख तत्व कवक से प्राप्त हुए थे। शीर्ष 10 महत्वपूर्ण औषधियों में एंटी-कोलेस्ट्रोल स्टैटिन, पेन्सिलिन और साइक्लोस्पोरिन ए (Cyclosporine A) शामिल थे। इनकी वैश्विक बिक्री अरबों डॉलर तक पहुँच गई थी।
हाल के वर्षों में, मानव चिकित्सा के लिए कई नई औषधियाँ विकसित की गई हैं। माइकाफुंगिन एक प्रभावशाली एंटीफ़ंगल दवा है, जो फंगल संक्रमण के इलाज में मदद करती है। माइकोफेनोलेट (mycophenolate) स्कॉक्सेलाइटिस को रोकने के लिए उपयोग किया जाता है। रोसुवास्टेटिन (rosuvastatin), कोलेस्ट्रॉल (cholestrol) कम करने में सहायक है। सेफडिटोरेन एक शक्तिशाली एंटीबायोटिक के रूप में कार्य करता है। कवक से प्राप्त औषधियाँ चिकित्सा क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका निभा रही हैं और भविष्य में भी इनका महत्व बढ़ता रहेगा।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: ई. कोली (E. coli) नामक बैक्टीरिया और खेलते हुए बच्चे (Wikimedia, pexels)
आइए नज़र डालें, कैसे चिंपैंज़ियों के साथ अन्य जीव, अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हैं
व्यवहारिक
By Behaviour
23-03-2025 09:15 AM
Meerut-Hindi

हमारे प्यारे शहर वासियों, आपमें से कई लोग इस बात से अवगत होंगे, कि हमारी धरती पर कुछ ऐसे जीव मौजूद हैं, जो दुनिया के सबसे बुद्धिमान जानवरों के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये जीव,अपनी समस्याओं को सुलझाने, विभिन्न प्रकार के उपकरणों का उपयोग करने तथा जटिल सामाजिक संरचनाओं के अनुसार खुद को ढालने में आश्चर्यजनक रूप से सक्षम होते हैं। इन जीवों में चिंपैंज़ी (Chimpanzees), ओरांगुटान (Orangutans), डॉल्फ़िन (Dolphins), हाथी, कौवे और ऑक्टोपस (Octopuses) विशेष रूप से शामिल हैं। उदाहरण के लिए, यदि चिंपैंज़ियों की बात करें, तो यह देखा गया है, कि बीमार होने पर वे स्वयं, एक ऐसे पौधे का चुनाव करते हैं, जिसे खाकर वे खुद को ठीक कर सकते हैं। मनुष्यों की तरह ही, विभिन्न चिंपैंज़ी समूह, अपनी अनूठी संस्कृतियों का विकास कर सकते हैं। एक समय ऐसा माना जाता था कि केवल मनुष्य ही औज़ार बना सकते हैं, लेकिन प्राइमेटोलॉजिस्ट्स (primatologist) द्वारा यह देखा गया है कि अफ़्रीका (Africa) में स्वतंत्र रूप से रहने वाले चिंपैंज़ी, टीलों से दीमक पकड़ने के लिए लाठी का इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही, वे अपने खुद के खिलौने और खेल विधियां बनाते हैं। चिंपैंज़ी, एस्पिलिया (Aspilia) पौधों की पत्तियों को चबाते हैं, जो परजीवी कीड़ों और जीवाणुओं को मारती है। पेट दर्द होने पर, वे वर्नोनिया (Vernonia) की टहनियों का रस पीते हैं, जो एंटीबायोटिक (Antibiotic) के रूप में काम करती है। तो आइए, आज हम, इन चलचित्रों के माध्यम से विश्व के कुछ सबसे बुद्धिमान जानवरों और उनकी व्यवहार संबंधी विशेषताओं को विस्तार से देखें। हम उपर्युक्त जानवरों के अलावा ये भी देखेंगे कि गिलहरी, तोते आदि जैसे जीव अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन कैसे करते हैं। इसके अलावा, एक अन्य वीडियो क्लिप के ज़रिए, हम यह जानेंगे कि क्या चीज़ें, चिंपैंज़ियों को इतना बुद्धिमान बनाती हैं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yhwfbv5h
https://tinyurl.com/ynjr7dy5
https://tinyurl.com/3cyk37fv
https://tinyurl.com/2p9kjah9
https://tinyurl.com/2ma9xkrx
https://tinyurl.com/yd784jvx
मेरठ के घर-घर के लिए,भोले की झाल से जलविद्युत ऊर्जा कैसे बनती है, इसका डिजिटलीकरण क्यों?
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
22-03-2025 09:10 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के कई नागरिकों ने ‘भोले की झाल’ के बारे में सुना होगा। यह एक बांध है जो मेरठ में स्थित है और मुख्य रूप से मेरठ क्षेत्र को बिजली सप्लाई करता है। इस बांध को हरिद्वार से आने वाली ऊपरी गंगा नहर के बहाव को रोककर बनाया गया था। इसी के बारे में आज हम बात करेंगे कि भारत में जलविद्युत (हाइड्रोइलेक्ट्रिसिटी (Hydroelctricity)) कैसे बनती है। फिर, हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि हमारे देश में हाइड्रोपावर प्लांट्स को डिजिटली क्यों अपडेट किया जाना ज़रूरी है।
इसके बाद, हम भारत के जलविद्युत क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण डिजिटल तकनीकों और नवाचारों के बारे में जानेंगे, जैसे डिजिटल ट्विन टेक्नोलॉजी (Digital Twin Technology), आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), मशीन लर्निंग (Machine learning), इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT) और अन्य। अंत में, हम भोले की झाल हाइड्रो पावर प्लांट के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी भी जानेंगे।
भारत में जलविद्युत (हाइड्रोइलेक्ट्रिसिटी) कैसे बनती है?
ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है और न ही समाप्त की जा सकती है, लेकिन इसकी रूप बदल सकती है। जब बिजली बनाई जाती है, तो कोई अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न नहीं होती है। असल में, एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे प्रकार में बदल जाती है। ऊर्जा बनाने के लिए पानी का बहाव होना ज़रूरी है। बहते हुए पानी से टरबाइन के पंखे घुमते हैं, जिससे ऊर्जा को यांत्रिक (मशीन) ऊर्जा में बदला जाता है। जैसे ही टरबाइन घूमती है, जनरेटर का रोटर घुमता है और यांत्रिक ऊर्जा को बिजली के रूप में बदल देता है। इसे हम हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर या हाइड्रोपावर कहते हैं क्योंकि पानी ही बिजली का मुख्य स्रोत होता है। जलविद्युत ऊर्जा जलविद्युत पावर स्टेशनों द्वारा उत्पन्न की जाती है।

कुछ पावर स्टेशनों को नदियों, नालों और नहरों पर भी बनाया जाता है, लेकिन पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बांधों की ज़रुरत होती है। बांध पानी को कई कारणों से रोकते हैं, जैसे कृषि, आवासीय, औद्योगिक उपयोग और बिजली उत्पादन। जलाशय एक बैटरी की तरह होता है, जो पानी को जमा करता है और जब आवश्यकता होती है, तो उसे बिजली बनाने के लिए छोड़ता है। बांध पानी की ऊंचाई को इतना बढ़ा देता है कि पानी तेज़ी से बहने लगता है। पानी को जलाशय से टरबाइन तक एक नली (पेनस्टॉक) के माध्यम से भेजा जाता है। तेज बहते हुए पानी से टरबाइन के पंखे इस तरह घूमते हैं जैसे हवा में पंखी। पानी के दबाव से टरबाइन के पंखे जनरेटर के रोटर को घुमाते हैं, और इस प्रक्रिया से बिजली उत्पन्न होती है जब रोटर के तार स्थिर कोइल के पास से गुज़रते हैं।
भारत में जलविद्युत संयंत्रों के डिजिटलीकरण की आवश्यकता
जलविद्युत संयंत्रों का डिजिटलीकरण वर्तमान संसाधनों का अधिकतम लाभ उठाने और उत्पादकता में सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह ऑपरेशन और मेंटेनेंस (O&M) लागत को बेहतर बनाता है और पावर संयंत्र (Power Plant) की सुरक्षा को बढ़ाता है। डिजिटल नियंत्रण टरबाइन, संयंत्र और उपकरणों के प्रदर्शन को सुधारते हैं, जिससे ऑपरेशन और मेंटेनेंस की लागत घटती है, संचालन की दक्षता बढ़ती है और संपत्ति प्रबंधन बेहतर होता है। इसके अलावा, डिजिटल कंट्रोलर्स (Digital Controllers), पानी की धारा, दबाव और शक्ति जैसे इनपुट और आउटपुट पैरामीटर (Input and Output Parameters) की अधिक सटीक माप प्रदान करते हैं, जिससे जलविद्युत संयंत्रों की परियोजना दक्षता में सुधार होता है। डिजिटल समाधान जलाशय प्रबंधन में भी सुधार लाते हैं।
डिजिटलीकरण जलविद्युत संयंत्रों को अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के साथ अधिक कुशलता से काम करने में सक्षम बनाता है, जिससे जलविद्युत संयंत्रों के संचालन का समर्थन और निर्णय-निर्माण में सुधार होता है। इसके अलावा, उन्नत तकनीकें, पुराने जलविद्युत संयंत्रों के संचालन को अपग्रेड करने में भी इस्तेमाल की जा सकती हैं।

भारत के जलविद्युत क्षेत्र में डिजिटल प्रौद्योगिकियों और नवाचारों की महत्वपूर्ण भूमिका
1.) डिजिटल ट्विन तकनीक (Digital Twin Technology): डिजिटल ट्विन तकनीक, आर्टिफ़िशिय इंटेलिजेंस (AI), गणितीय मॉडल और संयंत्र के असली समय के डेटा का उपयोग करती है, जिससे जलविद्युत संयंत्रों के वर्चुअल मॉडल (Virtual Models) बनाए जाते हैं। ये डिजिटल ट्विन्स, ऊर्जा संयंत्र के संचालन को एक वर्चुअल वातावरण में दोहराते हैं, जिससे अलग-अलग संचालन स्थितियों का परीक्षण किया जा सकता है। यह तकनीक, संयंत्रों के व्यवहार को सीखने में मदद करती है और समय के साथ और अधिक सटीक होती जाती है।
2.) आर्टिफ़िशिय इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML): इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग, ऑपरेशन और मेंटेनेंस जैसी गतिविधियों को सूचित और डिजिटलीकरण करने में मदद कर सकते हैं। ए ई और एम ल भविष्यवाणी रखरखाव में मदद करते हैं, जिससे संपत्ति के स्वास्थ्य की जांच की आवृत्ति कम होती है और जोखिमों का पहले ही पता चल जाता है।
3.) इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT): इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स, जलविद्युत संयंत्रों के संचालन की वास्तविक समय में की निगरानी रखता है और संपत्ति की स्वास्थ्य स्थिति की जानकारी प्रदान करता है। इसमें सेंसर्स का उपयोग किया जाता है, जो विभिन्न मापदंडों जैसे पहनने, कंपन और तापमान को ट्रैक करते हैं। ये सेंसर्स, समय-समय पर डेटा एकत्र करते हैं, जिससे संयंत्र की स्थिति में सुधार होता है और रखरखाव के लिए बेहतर योजनाएं बनाई जाती हैं।
4.) रिमोट मॉनिटरिंग तकनीकियाँ (Remote Monitoring Technologies): ड्रोन और कंप्यूटर विज़न जैसी रिमोट मॉनिटरिंग तकनीकें, संपत्ति निरीक्षण प्रक्रियाओं को बदलने की क्षमता रखती हैं। ये मानव कर्मचारियों की आवश्यकता को कम करती हैं, खासकर उन स्थानों पर जहां पहुंच मुश्किल हो या खतरनाक हो। जब इन्हें, ए ई और एम ल के साथ एकीकृत किया जाता है, तो ड्रोन, स्वचालित रूप से समस्याओं का पता लगा सकते हैं। निर्माण चरण के दौरान, ड्रोन (Drone) और डाइविंग रोबोट (Diving Robot), जो सेंसर और एक्ट्यूएटर्स (Sensors and Actuators) से लैस होते हैं, प्रगति की निगरानी करने और सटीक डिजिटल सतह मॉडलिंग में मदद करते हैं।

भोल की झाल जल विद्युत संयंत्र के कुछ महत्वपूर्ण विवरण
- कुल विद्युत उत्पादन क्षमता: 2.7 मेगावाट (4 x 0.375 मेगावाट और 2 x 0.6 मेगावाट यूनिट्स)
- स्थान: ऊपरी गंगा नहर पर चेनेज मिल (chainahe mile) 84-2-100 पर, मेरठ के बाईपास से लगभग 8 किमी दूर
- नहर का डिज़ाइन डिस्चार्ज: 5900 क्यूसेक (cusec)
- डिज़ाइन हेड: 14 फ़ीट
- इनटेक गेट की संख्या और आकार: 18, 2.3 मीटर x 3.35 मीटर
- प्रकार: वर्टिकल कापलान (Vertical Kaplan)
- कमीशनिंग वर्ष: 1928-29
- आउटपुट: 560 बी एच पी
- स्पीड: 187.5 आर पी एम
- ब्लेड्स की संख्या: 4
- फ़िक्स्ड ब्लेड्स की संख्या: 20
संदर्भ
मुख्य चित्र: भोले की झाल और एक जलविद्युत संयंत्र (Wikimedia)
आज मेरठ जानेगा, ए डी एच डी और इस मानसिक विकार को ठीक करने के उपायों के बारे में
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-03-2025 09:14 AM
Meerut-Hindi

हाल के वर्षों में, बच्चों के बीच स्क्रीन का बढ़ता उपयोग, चिंता का कारण बन गया है, खासकर 'अटेंशन डेफ़िसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर' (Attention Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD)) के बढ़ते मामलों के संबंध में। ए डी एच डी एक तंत्रिका संबंधी विकार है, जो व्यवहार को प्रभावित करता है। इससे वैश्विक स्तर पर लाखों लोग प्रभावित हैं, जिनमें भारत में बड़ी संख्या में बच्चे शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization (WHO)) के अनुसार, भारत में अनुमानित 5-8% बच्चे ए डी एच डी से पीड़ित हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, ए डी एच डी से पीड़ित बच्चे अक्सर शैक्षणिक कार्यों में कठिनाई का सामना करते हैं क्योंकि उन्हें ध्यान केंद्रित करने या लंबे समय तक स्थिर बैठने में कठिनाई होती है। तो आइए, आज इस चिकित्सीय विकार, इसके लक्षण और कारणों के बारे में विस्तार से जानते हुए, वयस्कों में ए डी एच डी के निदान और उपचार के बारे में समझते हैं। इसके साथ ही, हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि ए आई आधारित प्रौद्योगिकियां, भारतीयों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में कैसे मदद कर सकती हैं। अंत में, हम हाल के वर्षों में भारत में पेश किए गए कुछ डिजिटल मानसिक स्वास्थ्य समाधानों की खोज करेंगे।
ए डी एच डी के लक्षण:
ए डी एच डी के लक्षणों में ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, बेचैनी, आवेग, व्यवस्थित रहने और निर्देशों का पालन करने में असमर्थता जैसे लक्षण शामिल हैं। भारत में, सामाजिक अपेक्षाओं और पारंपरिक शिक्षण पद्धतियों के कारण ए डी एच डी वाले बच्चों के लिए यह स्थिति और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाती है। इसके प्रमुख लक्षणों में शामिल हैं:
- गृहकार्य या शैक्षणिक कार्य पूरा करने में कठिनाई
- अव्यवस्था और विस्मरणशीलता
- बातचीत में हस्तक्षेप करना
- पारंपरिक शिक्षण विधियों का पालन करने में कठिनाई
- बिना सोचे समझे कार्य करना
- अपनी बारी का इंतजार करने न करना
- अत्यधिक बोलना
- खतरे का बहुत कम या कोई एहसास न होना
- शारीरिक गतिविधि की कमी
- सामाजिक अलगाव
ए डी एच डी का कारण:
वैज्ञानिकों के अनुसार, ए डी एच डी वाले लोगों की मस्तिष्क संरचना और गतिविधि में अंतर होता है। योजना बनाने, ध्यान देने, निर्णय लेने और व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए भाषा का उपयोग करने का कार्य मानव मस्तिष्क के अगला हिस्से 'फ्रंटल लोब' (frontal lobe) द्वारा किया जाता है। मानव मस्तिष्क किसी कार्य को करने के लिए दो प्रकार के ध्यान का उपयोग करता है स्वचालित ध्यान और निर्देशित ध्यान। स्वचालित ध्यान का उपयोग मस्तिष्क तब करता है, जब आप कुछ दिलचस्प काम करते हैं। निर्देशित ध्यान का उपयोग मस्तिष्क तब करता है, जब आप कोई थका देने वाला या कम रुचि वाला काम करते हैं। इस विकार के मरीज़ों में में स्वचालित ध्यान बहुत मजबूत होता है, क्योंकि निर्देशित ध्यान के लिए बहुत अधिक प्रयास की आवश्यकता होती है और इसका उपयोग करना कठिन होता है। ऐसे लोगों कमज़ोर में, निर्देशित ध्यान कौशल कमज़ोर होते हैं।
इसके अलावा, न्यूरॉन्स नामक तंत्रिका कोशिकाएं मस्तिष्क में संकेत संचारित करती हैं। ये संकेत मस्तिष्क में न्यूरॉन्स के समूहों में घूमते हैं जिन्हें नेटवर्क कहा जाता है। मस्तिष्क में स्वचालित ध्यान नेटवर्क को डिफ़ॉल्ट मोड कहते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, ए डी एच डी वाले लोगों में अलग तरह से काम करने वाले नेटवर्क होते हैं। हालाँकि शोधकर्ताओं ने सामान्य मस्तिष्क से ए डी एच डी मस्तिष्क में कई अंतरों की खोज की है, लेकिन यह अभी तक पूरी तरह सामने नहीं आया है कि वे क्यों होते हैं और किस प्रकार ए डी एच डी के लक्षणों को जन्म देते हैं। वर्तमान शोध से यह भी पता चला है कि ए डी एच डी में आनुवंशिकी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ए डी एच डी वाले माता-पिता के बच्चों में यह स्थिति होने की संभावना अधिक होती है। ए डी एच डी के अन्य संभावित कारणों में शामिल हो सकते हैं:
- मस्तिष्क की शारीरिक रचना,
- गर्भावस्था के दौरान मादक द्रव्यों का सेवन,
- समय से पहले जन्म,
- जन्म के समय कम वजन।
वयस्कों में ए डी एच डी का निदान:
वयस्कों में ए डी एच डी का निदान करना मुश्किल होता है क्योंकि इसके लक्षण अन्य स्थितियों के समान होते हैं। इस विकार वाले कई वयस्कों को चिंता और अवसाद का भी सामना करना पड़ता है। लेकिन, यदि ये लक्षण गंभीर हैं जिससे दैनिक जीवन में समस्याएं उत्पन्न होती हैं तो ए डी एच डी का निदान किया जा सकता है। इसकी पुष्टि के लिए कोई विशेष परीक्षण नहीं है, हालाँकि, इसकी निदान प्रक्रिया में शामिल हैं:
- शारीरिक जाँच
- व्यक्तिगत और पारिवारिक चिकित्सा पृष्ठभूमि की जाँच
- वर्तमान चिकित्सा स्थिति की जानकारी
- मनोवैज्ञानिक परीक्षण
उपचार:
वयस्कों में ए डी एच डी के उपचार के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श, शिक्षा, प्रशिक्षण और दवाएं शामिल हैं। इन उपचारों को एक साथ करने पर, ए डी एच डी के लक्षणों से राहत मिलने में मदद मिलती है।
वयस्कों के लिए ए डी एच डी दवाएं:
ए डी एच डी के उपचार के लिए मेथलफ़ीनाडेट (methylphenidate) या एम्फ़ैटेमाइन (amphetamine) जैसी उत्तेजक दवाएं सबसे अधिक दी जाती हैं। ये उत्तेजक मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर कहे जाने वाले रसायनों के स्तर को बढ़ाने और संतुलित करने में मदद करते हैं। इसके अलावा, एटमॉक्सेटाइन (atomoxetine) और बुप्रोपियन (bupropion) जैसी अवसादरोधी दवाएं भी दी जाती हैं।
मनोवैज्ञानिक परामर्श:
मनोचिकित्सा मदद करती है:
- आवेगी विकार को कम करने में,
- आत्मसम्मान में सुधार करने में,
- रिश्तों को बेहतर बनाने के तरीकों के बारे में सीखाकर हैं।
भारतीयों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में ए आई की भूमिका:
- युवा वयस्कों के लिए, ए आई एप्लिकेशन उच्च शिक्षा, करियर विकल्प और स्वतंत्र जीवन के तनाव के प्रबंधन में सहायता प्रदान कर सकते हैं।
- ए आई-संचालित आभासी सलाहकार, तनाव कम करने की तकनीक, समय प्रबंधन और निर्णय लेने पर मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त, एआई-संचालित प्लेटफ़ॉर्म जीवन में होने वाले बदलावों से निपटने और स्वस्थ कार्य-जीवन संतुलन बनाए रखने के लिए संसाधनों का प्रबंधन कर सकते हैं।
- मध्यम आयु वर्ग के वयस्कों को अक्सर बढ़ती ज़िम्मेदारियों और सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है।
- ए आई, व्यक्तिगत तनाव प्रबंधन रणनीतियों की पेशकश, विश्राम तकनीकों की सुविधा और स्व-देखभाल गतिविधियों के लिए अनुस्मारक प्रदान करके इस समूह की सहायता कर सकता है।
- ए आई-संचालित चैटबॉट्स या आभासी थेरेपिस्ट भावनात्मक चिंताओं पर चर्चा के लिए एक गोपनीय स्थान प्रदान कर सकते हैं।
- ए आई-आधारित स्वास्थ्य प्लेटफ़ॉर्म्स व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और दिनचर्या के अनुसार फिटनेस और स्वास्थ्य दिनचर्या को तैयार कर सकते हैं।
- इसके अलावा, ए आई अनुप्रयोगों द्वारा भावनात्मक चुनौतियों को भी प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा सकता है, जिसमें अलगाव की भावनाएं, संज्ञानात्मक गिरावट और उम्र से संबंधित मानसिक स्वास्थ्य मुद्दे शामिल हैं।
- इसके अतिरिक्त, एआई-संचालित सेंसर व्यवहार पैटर्न में बदलाव का पता लगा सकते हैं और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को संभावित भावनात्मक संकट या संज्ञानात्मक गिरावट के प्रति सचेत कर सकते हैं।
भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए कुछ डिजिटल मानसिक स्वास्थ्य समाधान:
- किरण (KIRAN): 'सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय' द्वारा टेलीफ़ोन पर मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास सेवाएं प्रदान करने के लिए सितंबर 2020 में किरण हेल्पलाइन लॉन्च की गई। इस हेल्पलाइन का उद्देश्य महामारी से प्रेरित मनोवैज्ञानिक मुद्दों और मानसिक स्वास्थ्य आपात स्थितियों से जूझ रहे लोगों को प्रथम चरण की सलाह और परामर्श प्रदान करने के लिए एक जीवन रेखा के रूप में काम करना है। इसकी सेवाएं 13 भाषाओं में 24/7 उपलब्ध हैं। हेल्पलाइन का उद्देश्य घबराहट, चिंता, अवसाद, अभिघातजन्य तनाव विकार, समायोजन विकार और मानसिक स्वास्थ्य आपात स्थिति में सहायता एवं परामर्श प्रदान करना है।
- मानस मित्र (MANAS Mitra): 'मानसिक स्वास्थ्य और सामान्य स्थिति संवर्धन प्रणाली' (Mental Health and Normalcy Augmentation System (MANAS)) को भारतीयों के मानसिक कल्याण को बढ़ाने के लिए एक मंच के रूप में अप्रैल 2021 में लॉन्च किया गया। इस प्लेटफ़ॉर्म का लक्ष्य, विभिन्न स्वास्थ्य और कल्याण प्रयासों को एकीकृत करके, वैज्ञानिक उपकरणों को गेमिफ़ाइड इंटरफ़ेस (Gamified Interface) के साथ जोड़ना है। यह मंच, सकारात्मक मानसिक कल्याण के बारे में जागरूकता फैलाने और वेबिनार, ज्ञान साझाकरण और लाइव सत्रों के माध्यम से जानकारी प्रसारित करने के माध्यम के रूप में कार्य करता है।
- टेली मानस (Tele MANAS): 2022-23 के दौरान, गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य परामर्श और देखभाल सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए 'राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम' की शुरूआत हुई। इस नेटवर्क में 23 टेली-मानसिक स्वास्थ्य केंद्र और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान शामिल हैं, जबकि अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान-बैंगलोर इसमें तकनीकी सहायता प्रदान करता है। टेली मानस की अवधारणा एक व्यापक मानसिक स्वास्थ्य सेवा के रूप में की गई है, जिसका लक्ष्य 24/7 समान, सुलभ, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण मानसिक स्वास्थ्य देखभाल तक सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करना है।
अन्य राज्य-स्तरीय पहलें:
- कर्नाटक ई-मानस (Karnataka e-Manas): यह पहल, मानसिक रोगियों और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के लिए एक राज्य स्तरीय डिजिटल रजिस्ट्री है जो उनके उपचार रिकॉर्ड पर नज़र रखने सहित कई सेवाएं और कार्यक्षमताएं प्रदान करती है।
- दिल्ली केयर (Delhi CARES): महामारी के दौरान तनाव में रहने वाले छात्रों के लिए टेली-परामर्श सेवा के रूप में दिल्ली में यह हेल्पलाइन शुरू की गई थी।
- मानसनवाद हेल्पलाइन (Mansanwad Helpline): इस हेल्पलाइन को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से निपटने के लिए 2017 में राजस्थान सरकार द्वारा शुरू किया गया था।
- बी एम सी-एमपावर 1 ऑन 1 (BMC-Mpower 1on1): यह हेल्पलाइन मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को कम करने और मनोचिकित्सकों और नैदानिक मनोवैज्ञानिकों से टेली-परामर्श सहायता प्रदान करने के लिए महाराष्ट्र में COVID-19 के दौरान शुरू की गई थी।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
बंगाल के प्राचीन व्यापारों व संस्कृति में, खड्ग राजवंश का रहा है एक महत्वपूर्ण योगदान
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
Small Kingdoms: 300 CE to 1000 CE
20-03-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

समता, पूर्वी भारतीय उपमहाद्वीप में बंगाल का एक प्राचीन भू-राजनीतिक विभाजन था। इस साम्राज्य को कई विभीन नामों के साथ जाना जाता है,जिनमें समतात, सकनत, संकट, और संकनत। समता ने छठवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच गौड़ा साम्राज्य, खड्ग राजवंश, पहले देव राजवंश, चंद्र राजवंश और वर्मन राजवंश के शासनकाल के दौरान, बंगाल के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में प्रमुखता प्राप्त की। इस संदर्भ में, आइए आज, खड्ग राजवंश के बारे में विस्तार से बात करते हैं। इसके बाद, हम इस राजवंश के महत्वपूर्ण शासकों के बारे में विस्तार से जानेंगे। इसके अलावा, हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि, खड्ग राजवंश के ताम्र प्लेट उत्कीर्णन, उनके धर्म और संस्कृति के बारे में क्या जानकारी बताते हैं। इसके बाद, हम समता राज्य के सिक्कों का पता लगाएंगे। अंत में, हम व्यापार और उद्योगों पर कुछ प्रकाश डालेंगे, जो प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दौरान बंगाल में मुख्य थे।
खड्ग राजवंश (625 ईस्वी से 710 ईस्वी) का परिचय:
खड्ग राजवंश ने सातवीं और आठवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास, प्राचीन बंगाल के वांगा और समता क्षेत्रों पर शासन किया। इस राजवंश की जानकारी, मुख्य रूप से अशरफ़पुर (वर्तमान ढाका के पास) में खोजी गई, दो तांबे की प्लेटों, प्लस सिक्के (Plus coins), और सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री – शेंग-चे (Sheng-che) के खातों से आती है। अशरफ़पुर अनुदान, एक राजा – उदीर्णखड्ग को संदर्भित करता है। उनके नाम का अंतिम भाग, यह संकेत दे सकता है कि, वह भी शायद खड्ग राजवंश से संबंधित थे। लेकिन, उनके शासनकाल की अवधि, अभी तक निर्धारित नहीं की गई है।
बौद्ध खड्ग राजा, शायद स्थानीय शासक थे, जो इस क्षेत्र के मूल निवासी थे, लेकिन उनके क्षेत्र की सीमा का पता लगाना मुश्किल है। अशरफ़पुर की तांबे की प्लेटों में से एक में, नरसिंगदी में रायपुरा अपज़िला के तहत, तालपटाक और दत्ताकातक को, क्रमशः तालपरा और दत्तगांव गांवों के साथ पहचाना गया है।
खड्ग राजवंश के महत्वपूर्ण शासक:
इस राजवंश के पहले ज्ञात शासक – खड्गोड़ामा (625-640 ईसवी) थे । लेकिन, उनके पूर्ववर्तियों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिली है। खड्गोड़ामा के उत्तराधिकारी, उनके बेटे – जटखड्ग (640-658 ईस्वी) थे। उत्तराधिकार की रेखा उनके बेटे – देवखड्ग (658-673 ईसवी) और उनके पोते – राजभट (673-690 ईसवी) के माध्यम से जारी रही। राजभता का शासन, शायद उनके भाई – बालभट (690-705 ईसवी) ने जारी रखा।
खड्ग राजवंश के ताम्र प्लेट उत्कीर्णन, उनके धर्म और संस्कृति के बारे में क्या जानकारी बताते हैं ?
बालभट द्वारा जारी की हुई तांबे की प्लेट में वर्णन मिलता है कि, विहार और स्तूपों के रखरखाव तथा आश्रम में नवीकरण और मरम्मत कार्यों के लिए, धनलक्ष्मीपटक क्षेत्र में 28 पट्टक ज़मीन दी गई थी । यह प्लेट, ‘महाभोगआश्रम’ को संदर्भित करती है, जिसका अर्थ है कि, यह शायद वह आश्रम था, जहां भव्य धार्मिक त्योहार आयोजित किए गए थे। विहार स्पष्ट रूप से आठ संख्या में थे और उनमें, परिमितमातम और दानचंद्रिका को सिखाया गया था। दान स्पष्ट रूप से बुद्ध, धर्म और संघ के नाम पर बनाए गए, आवासीय धार्मिक संरचनाओं के लिए किए गए थे।
पहली अशरफ़पुर ताम्र प्लेट, इस राजवंश के धार्मिक झुकाव के बारे में थोड़ी अधिक जानकारी प्रस्तुत करती है। यह एक बैल के चिन्ह के नीचे, श्रीमत देवखड्ग नाम के शिलालेख को संदर्भित करती है, जो धर्मचक्र के बजाय, बाईं ओर मुड़ा है। यह देवखड्ग के शैव की ओर झुकाव को इंगित कर सकता है। यह झुकाव उनने बेटे – बालभट के माध्यम से जारी है, जिन्होंने खुद को अपने ताम्र प्लेट में, परमेश्वर राजपूत्र के रूप में वर्णित किया था।

समता राज्य के सिक्के:
•खड्ग राजवंश सिक्के:
खड्ग राजवंश द्वारा जारी किए गए सिक्के, अक्सर संस्कृत में शाही चित्रों और शिलालेखों को चित्रित करते थे। ये सिक्के, उनके जटिल डिज़ाइनों और शिल्प कौशल की उच्च गुणवत्ता के लिए उल्लेखनीय हैं।
•देव राजवंश सिक्के:
देव राजवंश ने आठवीं से नवीं शताब्दी तक शासन करते हुए, उन सिक्कों को जारी किया, जो डिज़ाइन में अधिक भिन्न थे। कुछ सिक्कों की विशेषता, हिंदू देवताओं की छवियां व शासकों के धार्मिक झुकावों के चिन्ह हैं। जबकि, अन्य सिक्के, उस समय की संस्कृत और स्थानीय लिपि के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं हैं।
•चंद्र राजवंश के सिक्के:
दसवीं शताब्दी में प्रमुखता से बढ़े, चंद्र राजवंश ने उन सिक्कों को जारी किया, जो उनके विशिष्ट आइकॉनोग्राफ़ी और शिलालेखों की विशेषता है। ये सिक्के, अक्सर देवताओं और उनकी छवियों को चित्रित करते हैं। साथ ही, इन सिक्कों पर मिले शाही आंकड़े, दिव्य वैधता पर राजवंश के ज़ोर का संकेत देते हैं।

व्यापार और उद्योग, जो प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दौरान बंगाल में मुख्य थे:
प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दौरान, बंगाल में मौजूद उद्योगों में, कपड़ा उद्योग, सबसे प्रमुख था। बंगाल ने अतीत में अपने कपड़ा उद्योग के लिए बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी। शुरुआती बंगाल में उत्पादित कपड़े और उससे संबंधित उत्पादों की चार किस्में – क्षौम, डुकुला, पत्रों और करपसिका थीं।
एक अन्य महत्वपूर्ण उद्योग, जो इस अवधि के दौरान महत्व प्राप्त करता था, वह चीनी था। बंगाल, गन्ने की खेती के शुरुआती क्षेत्रों में से एक था। सुश्रुता द्वारा यह बताया गया है कि, पंड्रव के गन्ने को बड़ी मात्रा में चीनी की उपज के लिए नोट किया गया था। मार्को पोलो (Marco polo) ने भी देखा कि, चीनी, बंगाल से निर्यात की गई सबसे महत्वपूर्ण वस्तुओं में से एक थी।
बर्तनों का निर्माण भी बंगाल के लोगों के निर्वाह का एक महत्वपूर्ण साधन था। कुंभकार लोग, उत्तमशंकर समूह के थे। सभी उद्योगों में, बर्तन, प्रारंभिक मध्ययुगीन बंगाल की कला और शिल्प का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: बंगाल का मानचित्र और राजा शशांक धनुष के साथ (Wikimedia)
चलिए जानते हैं कैसे, मेरठ के किसानों के लिए, बेर है, एक आदर्श व स्वास्थ्य वर्धक फ़सल !
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
19-03-2025 09:15 AM
Meerut-Hindi

मेरठ और इस क्षेत्र के कई किसान, बेर (Indian jujube) उगाते हैं, क्योंकि यह फल, इस क्षेत्र के सूखे और अर्ध-शुष्क जलवायु में अच्छे से पनपता है। बेर के पेड़ों को कम पानी की आवश्यकता होती है, और वे खराब मिट्टी में भी अच्छी तरह से विकसित हो सकते हैं। इस कारण, स्थानीय किसानों के लिए, बेर एक विश्वसनीय फ़सल बनता हैं। यह फल, विटामिन सी (Vitamin C) , लौह (Iron) और एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidant) से समृद्ध है, जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने, पाचन में सुधार करने और त्वचा स्वास्थ्य का समर्थन करने में मदद करता है।
आज, हम बेर पर चर्चा करेंगे, जो इसके मीठे स्वाद और जलवायु लचीलेपन के लिए जाना जाता है। हम इसके पोषण मूल्य और कैंडीज़, ज्यूस और अचार जैसे उत्पादों में इसके उपयोग का पता लगाएंगे। इसके बाद, हम बेर फ़सल के लिए आवश्यक इष्टतम मिट्टी और जलवायु स्थितियों को देखेंगे।
बेर का परिचय:-
बेर, जिसे “इंडियन जूजूब (Indian jujube)” के रूप में भी जाना जाता है, शुष्क परिस्थितियों में खेती के लिए उपयुक्त है। यह फल, भारत का मूल है, और इसे भारत में ‘गरीब आदमी का फल’ कहा जाता है। बेर के उत्कृष्ट स्वास्थ्य लाभ है। बेर की व्यावसायिक खेती अपनी मांग, खेती की सहजता और कम रखरखाव के कारण, दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। अंकुरित बेर पेड़ों के वाणिज्यिक वृक्षारोपण, अब पूरे भारत में खेती में विशेष हैं, और किसानों को भी अच्छे लाभ मिल रहे हैं।
बेर प्रोटीन, विटामिन सी (Vitamin-C) और खनिज़ों का समृद्ध स्रोत है। इसकी खेती पूरे देश में की जाती है। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश, प्रमुख बेर उत्पादक राज्य हैं।
बेर का पोषण महत्व–
बेर , विविधता और उपज स्थितियों के आधार पर, स्वाद, बनावट, उपयोग, विटामिन और खनिज़ों में भिन्न होते हैं। बेर प्रजातियां, सामान्य रूप से प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने एवं स्वस्थ अवयवों के लिए, विटामिन ए और सी (Vitamin-C) का एक स्रोत है। इसके अलावा, हड्डियों एवं दांतों का समर्थन करने के लिए, कैल्शियम (Calcium) और फ़ॉस्फ़ोरस (Phosphorus) तथा शरीर में इलेक्ट्रोलाइट्स (Electrolytes) एवं तरल तत्वों को संतुलित करने के लिए, पोटैशियम (Potassium) से भरपूर होती हैं। बेर, रक्तप्रवाह के माध्यम से ऑक्सीजन परिवहन के लिए, हीमोग्लोबिन विकसित करने के लिए, लौह प्रदान करते हैं। पाचन तंत्र को बढ़ावा देने के लिए, फ़ाइबर; तंत्रिका कार्यों को नियंत्रित रखने हेतु, मैग्नीशियम (Magnesium) ; एवं तांबे और जस्ता सहित अन्य पोषक तत्वों का भी स्रोत है।
आयुर्वेद और अन्य प्राकृतिक दवाओं में, बेर को एंटी-इंफ्लेमेटरी (Anti-inflammatory), एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants) और शुद्धिकरण गुणों वाला फल माना जाता है। इन फलों को अपच में मदद करने, संयुक्त सूजन को कम करने और नींद में सुधार करने के लिए, दवाओं में शामिल किया जाता है। सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयोग के लिए, बेर का पाउडर बनाया जाता है। इस पाउडर को शहद के साथ मिलकर, एक त्वचा मास्क के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है। साथ ही, इसके बीजों के तेल का उपयोग, बालों के विकास में सहायता हेतु भी किया जाता है।
अनुप्रयोग-
बेर को स्नैक (snack) के रूप में खाया जा सकता है। इसका स्वाद बढ़ाने के लिए, इस पर नमक और मिर्च पाउडर भी छिड़का जा सकता है। बेर को काटकर, फलों के सलाद में मिलाया जा सकता है; पनीर प्लैटर्स पर परोसा जा सकता है; या फिर, विभिन्न घरेलू ट्रेल मिक्स (विभिन्न मेवे या सुखाए गए फलों का मिश्रण) में मिलाया जाता है। भारत में, बेर को कई चाट व्यंजनों में शामिल किया जाता है। यह सड़क विक्रेताओं द्वारा बेचे जाने वाली स्नैक जैसी वस्तुओं में जगह पाता है, या एक ठंडे पेय के रूप में, इसे पानी के साथ तर किया जाता है। इन पेय व्यंजनों में, पोषण संबंधी लाभों के लिए अदरक या नारियल का पानी भी शामिल हो सकता है।
ताज़े बेर की आमतौर पर चटनी बनाई जाती है, और इसे पराठों और रोटी के साथ परोसा जाता है। इनका केक, बार और जैम के रूप में प्रयोग किया जाता है , या इनसे मीठी और नमकीन कैंडी भी बनाई जा सकती है। बेर को धूप में सुखाने पर एक तीखे मसाले के रूप में, प्रयुक्त किया जाता है। सूखे बेर फलों में किशमिश जैसी गुणवत्ता होती है, और अतः इनका उपयोग व्यंजनों में किशमिश के विकल्प के रूप में किया जाता है।
बेर की खेती के लिए इष्टतम मिट्टी और जलवायु की स्थिति-
बेर के पेड़, मिट्टी के प्रकारों की एक विस्तृत विविधता में पनपते हैं, जिनमें रेतीली मिट्टी से लेकर दोमट बलुई मिट्टी शामिल है। हालांकि, वे 5.0 से 7.5 की पी एच रेंज (pH range) के साथ, अच्छी तरह से सुखी मिट्टी पसंद करते हैं। इनके रोपण के लिए मिट्टी तैयार करते समय, गहरी जुताई और किसी भी कठिन परतों को हटाना महत्वपूर्ण है। मिट्टी में खाद या प्राकृतिक खाद जैसे कार्बनिक पदार्थों को शामिल करना, न केवल बेर पेड़ों की प्रजनन क्षमता को बढ़ाता है, बल्कि मिट्टी की संरचना और उसकी जल धारण क्षमता में भी सुधार करता है।
बेर , एक हार्डी पौधा (Hardy plant) है, जो अलग-अलग जलवायु परिस्थितियों का सामना कर सकता है। यह सूखे के प्रति लचीला है, और 150 मिलीमीटर से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी पनप सकता है। हालांकि, इष्टतम फल उत्पादन के लिए, 400 से 800 मिलीमीटर के बीच, वार्षिक वर्षा आदर्श है। बेर का पेड़, पूर्ण सूर्य प्रकाश के तहत सबसे अच्छा प्रदर्शन करता है, और 5° से 45° सेल्सियस तक तापमान को सहन कर सकता है। किसानों को उच्च सापेक्ष आर्द्रता वाले क्षेत्रों से बचना चाहिए, क्योंकि, यह रोगों के विकास और कीट संक्रमण को प्रोत्साहित कर सकता है।
बेर की कुछ लोकप्रिय किस्में-
•उमरन (Umran):
ये फल, चिकने और चमकदार छिलके के साथ, अंडाकार आकार के होते हैं। ये सुनहरे पीले रंग के होते हैं, और परिपक्वता पर चॉकलेट ब्राउन रंग में बदल जाता है। यह मार्च के अंत से अप्रैल के मध्य तक परिपक्व हो जाते हैं। इस किस्म के पेड़ों से 150-200 किलोग्राम की औसत उपज मिलती है।
•कैथली (Kaithli):
ये फल मध्यम आकार, लंबाकार, चिकने छिलके और हरे–पीले रंग के होते हैं। मार्च के अंत तक, ये फ़सल के लिए तैयार होते है, जो स्वाद में मीठे होते हैं। यह फल प्रति पेड़ 75 किलोग्राम की औसत उपज देता है। परंतु, यह किस्म पाउडर फ़फूंदी बीमारी से प्रभावित होती है।
• ज़ी जी 2 (ZG 2):
इनके पेड़ अन्य बेरों की तुलना में ज़्यादा फैलते हैं। ये फल, मध्यम आकार के होते हैं, आयताकार और पकने पर चमकीले हरे रंग के होते हैं। ज़ी जी 2 बेर, स्वाद में मीठा होता है। यह पाउडर फ़फूंदी बीमारी के लिए प्रतिरोधक है। मार्च एंड में फ़सल के लिए तैयार। यह प्रति पेड़ 150 किलोग्राम की औसत उपज देता है।
•वालैती (Wallaiti):
ये अंडाकार आकार के साथ, बड़े फल होते हैं। परिपक्वता पर, फलों का रंग, सुनहरे पीले रंग में बदल जाता है। इसका गुदा, 13.8% से 15% तक, कुल निलंबित ठोस पदार्थों के साथ नरम होता है। यह बेर, प्रति पेड़ 114 किलोग्राम फलों की औसत उपज देता है।
•सनौर 2 (Sanaur 2) :
सनौर 2 बेर बड़े आकार के होते हैं, और इनका छिलका, सुनहरे पीले रंग के साथ, चिकना होता है। इसमें, कुल निलंबित ठोस पदार्थ 19% है, और इनका स्वाद मीठा है। यह पाउडर, फ़फूंदी के प्रति प्रतिरोधी है। मार्च माह के लगभग दूसरे पखवाड़े में, यह किस्म फ़सल के लिए तैयार हो जाती है। यह प्रति पेड़, 150 किलोग्राम की औसत उपज देता है।
•बलवंत (Balvant):
यह फ़सल, नवंबर माह के मध्य में परिपक्व हो जाती है। यह फल, प्रति पेड़, 121, किलोग्राम की औसत उपज देता है।
•नीलम (Neelam):
यह किस्म, नवंबर के अंत में, परिपक्व हो जाती है। यह किस्म, प्रति पेड़, 121 किलोग्राम औसत उपज देती है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : flickr
19वीं सदी में शुरू हुई सहायता अनुदान प्रणाली ने, मेरठ में उच्च शिक्षा को किया प्रोत्साहित
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
18-03-2025 09:16 AM
Meerut-Hindi

हमारे मेरठ में 1892 में स्थापित, मेरठ कॉलेज (Meerut College), भारत में एक प्रसिद्ध संकाय, अभिनव शैक्षिक संस्थान और एक प्रमुख अनुसंधान विश्वविद्यालय है, जहां छात्रों के अकादमिक प्रदर्शन के साथ, बौद्धिक जिज्ञासा और रचनात्मकता को निखारा जाता है। इस कॉलेज की स्थापना, ब्रिटिश शासन काल के दौरान डब्ल्यू.के. बोनौड (W.K. Bonnoud) द्वारा की गई थी। तो आइए, आज 19वीं सदी में भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए ब्रिटिश समर्थन की शुरुआत के बारे में जानते हैं और अंग्रेज़ों की सहायता अनुदान प्रणाली के नियमों को समझने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही, हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि सहायता अनुदान प्रणाली की कार्यप्रणाली की समीक्षा और निगरानी कैसे की जाती थी। अंत में, हम 19वीं शताब्दी के दौरान, उत्तर प्रदेश में निर्मित कुछ प्रतिष्ठित कॉलेजों के बारे में जानेंगे।
भारतीय शिक्षा के लिए ब्रिटिश समर्थन की शुरुआत:
1813 में संसद द्वारा 20 वर्षों के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के चार्टर को नवीनीकृत किए जाने के बाद, कंपनी को साहित्य के पुनरुद्धार, प्रचार एवं प्रोत्साहन और ब्रिटिश क्षेत्रों में विज्ञान की शुरूआत और प्रचार के लिए, प्रति वर्ष 100,000 रुपये खर्च करना आवश्यक था। इससे शिक्षा के पारंपरिक रूपों को समर्थन मिला। 1813 में, त्रावणकोर के तत्कालीन ब्रिटिश रेजिडेंट कर्नल जॉन मुनरो (John Munro) और सीरियन चर्च के एक विद्वान भिक्षु पुलिककोटिल डायोनिसियस द्वितीय (Pulikkottil Dionysius II) के अनुरोध पर, त्रावणकोर की रानी गौरी पार्वती बाई ने कोट्टायम, त्रावणकोर में एक थियोलॉजिकल कॉलेज (Theological College) शुरू करने की अनुमति दी। रानी ने कर मुक्त 16 एकड़ संपत्ति, 20,000 रूपये और निर्माण के लिए आवश्यक लकड़ी प्रदान की। इस कॉलेज की आधारशिला 18 फरवरी 1813 को रखी गई और इसका निर्माण 1815 तक पूरा हुआ। प्रारंभ में इसे कोट्टायम कॉलेज कहा जाता था। इस कॉलेज को केरल में "अंग्रेजी शिक्षा शुरू करने वाला पहला स्थान" और 1815 में ही अंग्रेजों को शिक्षक के रूप में नियुक्त करने वाला पहला स्थान माना जाता है। बाद में, इसे सीरियन कॉलेज के नाम से भी जाना जाने लगा। यहां छात्रों को धार्मिक विषयों के साथ-साथ मलयालम के अलावा अंग्रेजी, हिब्रू, ग्रीक, लैटिन, सिरिएक और संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी।
भारत में सहायता अनुदान प्रणाली के नियम:
- स्थानीय आवश्यकताओं और धन की उपलब्धता के आधार पर अंग्रेज़ी या स्थानिक भाषा में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने वाले प्रत्येक विद्यालय के लिए, सरकारी अनुदान स्वीकृत किया जाता था। हालाँकि, अनुदान निजी स्रोतों से विद्यालय पर खर्च की गई राशि से अधिक नहीं होना चाहिए था।
- सरकार से सहायता प्राप्त करने के इच्छुक विद्यालयों के प्रबंधकों को एक लिखित आवेदन जमा करना आवश्यक था।
सहायता अनुदान प्राप्त करने वाले विद्यालयों के लिए पात्रता शर्तें:
- विद्यालय में दो तिहाई छात्र, फ़ीस रोल पर हों और जिन्हें गरीब होने के कारण भुगतान से छूट दी गई हो और को विद्यालय पर्याप्त स्थानीय प्रबंधन के तहत कार्यरत हो। सामान्य और महिला विद्यालयों के मामलों में, जहां कोई शुल्क नहीं था, इस शर्त को हटा दिया गया था
- ऐसे मामलों को छोड़कर जहां भवन अनुदान के लिए भी आवेदन किया गया था, विद्यालय में उचित और पर्याप्त आवास होना चाहिए था।
- निजी व्यक्तियों या संघों द्वारा योगदान की गई धनराशि में निश्चित किया गया रखरखाव व्यय, पिछले तीन साल की अवधि के दौरान, उस उद्देश्य के लिए खर्च की गई औसत राशि से कम नहीं होना चाहिए।
- विद्यालय प्रबंधन को इस तरह का अनुदान प्राप्त करने की तारीख से तीन साल की अवधि के लिए अपने अस्तित्व और कामकाज का आश्वासन देना होता था।
- विद्यालय को उचित खाते और व्यय का बजट बनाए रखना होता था और आवश्यक अनुदान निजी स्रोतों के योगदान से किए गए व्यय से अधिक नहीं होना चाहिए।
- विद्यालय को सरकार के शिक्षा अधिकारियों द्वारा धर्मनिरपेक्ष शिक्षा से संबंधित निरीक्षण और परीक्षा के लिए तैयार रहना पड़ता था।
सहायता अनुदान प्रणाली की कार्यप्रणाली की समीक्षा:
1892-93 से 1896-97 के दौरान, सहायता अनुदान प्रणाली की कार्यप्रणाली को शिक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया। इसके नियमों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। हालांकि, इस प्रणाली का मुख्य दोष शैक्षिक तरीकों को रूढ़िबद्ध करने और प्रत्येक विद्यालय में मूल्यांकन के एक ही पैमाने को लागू करने की प्रवृत्ति थी। इसने विद्यालयों को अपनी रुचि या स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार विकसित होने से रोक दिया। इसके अनुसार, हाल ही में शुरू हुए विद्यालयों को नियमों का सख्ती से पालन करना आवश्यक था, जबकि लंबे समय से स्थापित विद्यालयों को नियमों में कुछ छूट दी गई, जिससे उन्हें पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रता मिल सके। उनका अनुदान, तीन से पांच साल की अवधि के लिए कुछ गारंटी पर तय किया जा सकता था। वार्षिक समीक्षा के आधार पर ऐसे संस्थानों के लिए अनुदान की वृद्धि को मूल्यांकन के लिए एक बेंचमार्क के रूप में नहीं अपनाया जाता था, क्योंकि इससे उनके काम का सही निर्णय नहीं हो पाता था। इसलिए इंस्पेक्टरों द्वारा निरीक्षण और विश्वविद्यालय एवं विभागीय परीक्षाओं के परिणाम पर अनुदान तय करने से कुछ विद्यालयों पर निराशाजनक प्रभाव पड़ा। इस प्रकार उन विद्यालयों के लिए, जो लंबे समय से उच्च स्थान पर थे और कार्यात्मक और वित्तीय रूप से स्थिर थे, सहायता अनुदान तय करने के लिए मूल्यांकन का एक अलग पैमाना प्रस्तावित किया गया था।
19 वीं शताब्दी के दौरान निर्मित प्रतिष्ठित कॉलेज:
मेरठ कॉलेज:
मेरठ कॉलेज का परिसर, 106 एकड़ में फैला हुआ है, और इसका शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों का एक समृद्ध इतिहास है। एक संस्था के रूप में, मेरठ कॉलेज, ज्ञान को आगे बढ़ाने और दुनिया भर में सकारात्मक प्रभाव डालने के लिए प्रतिबद्ध है। इस संकाय में 184 पूर्णकालिक उच्च प्रशिक्षित शिक्षक और लगभग 456 पी एच डी (PhD) अनुसंधान विद्वान हैं, जो अकादमिक विकास के लिए निरंतर कठिन परिश्रम करते हैं। यहां के बुनियादी ढाँचे में अच्छी तरह से सुसज्जित कक्षाएँ, प्रयोगशालाएँ, एक केंद्रीय पुस्तकालय, 10 विभागीय पुस्तकालय, 31 प्रयोगशालाएँ, 87 अध्ययन कक्ष और दो सभागार शामिल हैं।
मेरठ कॉलेज का समृद्ध इतिहास, वर्ष 1888 से शुरू हुआ जब यहां के संस्थापक डब्ल्यू.के. बोनौड (W.K. Bonnoud) ने उच्च शिक्षा के लिए एक केंद्र की कल्पना की। 70 छात्रों और मुट्ठी भर शिक्षकों के साथ, संस्थान ने स्नातक कार्यक्रम के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्धता ली। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी मेरठ कॉलेज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके कई छात्रों और शिक्षकों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया, कॉलेज अक्सर क्रांतिकारियों के लिए एक बैठक स्थल के रूप में कार्य करता था। अपनी मामूली शुरुआत से लेकर उत्तर भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का एक बड़ा उदाहरण स्थापित करने तक, मेरठ कॉलेज की यात्रा देश में उच्च शिक्षा के विकास को दर्शाती है।
मुइर सेंट्रल कॉलेज:
इलाहाबाद की सबसे प्रभावशाली इमारतों में से एक, मुइर सेंट्रल कॉलेज (Muir Central College) की स्थापना, 1872 में उत्तर पश्चिमी प्रांतों के लेफ़्टिनेंट गवर्नर और स्कॉटिश प्रशासक विलैम मुइर (Willaim Muir) ने की थी। इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा सुविधाओं में कमी को भांपकर, उन्होंने मुइर सेंट्रल कॉलेज शुरू करने का फैसला किया। 9 दिसंबर 1873 को भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड नॉर्थब्रुक (Lord Northbrook) ने इस कॉलेज की आधारशिला रखी। 1912 में लेफ़्टिनेंट -गवर्नर सर जॉन हेवेट (Sir John Hewett) ने यहां यूनिवर्सिटी सीनेट हॉल खोला। 1921 तक इस कॉलेज को एक स्वतंत्र दर्जा प्राप्त था, जिसके बाद इसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विलय कर दिया गया और अब यह विश्वविद्यालय का मुख्य केंद्र है।
इस कॉलेज की इमारत में लगभग 61 मीटर ऊँची एक मीनार है, जो मिर्ज़ापुर से लाए गए बलुआ पत्थर से बनी है, जिसके अंदर संगमरमर और मोज़ेक से बना फ़र्श है। इस इमारत में एक चतुर्भुज के आकार में ऊंचे और सुंदर मेहराब हैं। अंदर, टावर के नीचे, शानदार गुंबद वाला एक ऊंचा हॉल है। ये कॉलेज अपने प्राकृतिक इतिहास, संग्रहालय, अपने बेहतरीन टैक्सिडर्मि नमूनों के लिए जाना जाता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: मेरठ में स्थित चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय (Wikimedia)
मेरठ जानिए, दुनिया के सबसे बड़े पतंगे के बारे में कुछ अद्भुत तथ्य
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
17-03-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आप जानते हैं कि, एटलस मॉथ (Atlas moth), दुनिया के सबसे बड़े और सुंदर पतंगों में से एक है, और वह किसी समय एक दुर्लभ लेकिन आकर्षक दृष्टि घटना थी। अपने व्यापक, पैटर्न वाले पंखों और अद्वितीय सुंदरता के साथ, इसने पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, वनों की कटाई, निवास स्थान विनाश, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण आज इनकी आबादी लगातार घट रही है। घने हरे–भरे और इनके मेज़बान पौधों के नुकसान ने, इन पतंगों का जीवन मुश्किल बना दिया है। एक प्रमुख परागणकर्ता के रूप में, एटलस मॉथ का गायब होना, पर्यावरणीय असंतुलन का एक चेतावनी संकेत है।
आज, हम एटलस मोथ्स के बारे में पढ़ेंगे। फिर हम, इसके बारे में कुछ अद्भुत तथ्य पढ़ेंगे, जो इसके अद्वितीय आकार, उपस्थिति और व्यवहार को उजागर करते हैं। इसके बाद, हम इसके प्राकृतिक आवास पर चर्चा करेंगे। हम पारिस्थितिकी तंत्र में, इसकी भूमिका को भी देखेंगे, जो परागण और जैव विविधता में इसके योगदान पर केंद्रित होगी। अंत में, हम इन कीटों की रक्षा के लिए, संरक्षण प्रयासों का पता लगाएंगे, जो उनकी आबादी को संरक्षित करने के उद्देश्य से, सामने आने वाली चुनौतियों और पहलों को संबोधित करते हैं।
एटलस मॉथ्स का परिचय-
एटलस मॉथ या अटैकस एटलस (Attacus atlas), , दुनिया का सबसे बड़ा पतंगा है। यह निशाचर प्रजाति, दक्षिण पूर्व एशिया की मूल है। उनके पास कोई मुंह नहीं होता है, और इस जीवन चरण में वे कुछ खाते या पीते भी नहीं हैं।
ये कीट पूरे भारत, चीन(China), इंडोनेशिया (Indonesia) और मलेशिया(Malaysia) के माध्यमिक जंगलों, झाड़ियों, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और वर्षावनों में पाए जाते हैं। साथ ही, यह बांग्लादेश, कंबोडिया(Combodia), हांगकांग(Hongkong), लाओस(Laos), नेपाल और ताइवान(Taiwan) में भी व्यापक है।
“एटलस” नाम की संभावना, मॉथ के जीवंत एवं अद्वितीय पंख पैटर्न से आई है, जो एक नक्शे या एटलस पर दिखाए गई भूवैज्ञानिक संरचनाओं से मिलती जुलती है। इनके नाम के पीछे एक अन्य सिद्धांत, ग्रीक पौराणिक कथाओं से आता है। मिथक के अनुसार, ‘एटलस’ एक टाइटन (Titan) था। उसे ज़ीउस (Zeus) द्वारा आदेश दिया गया था कि, वह देवताओं के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए, सज़ा के रूप में अपने कंधों पर आकाश को पकड़ ले। इस तरह के बड़े कार्य के लिए, एक बड़े टाइटन की आवश्यकता होती है। इसलिए, “एटलस” मॉथ , ऐसे प्राणी के बड़े आकार का उल्लेख कर सकता है।
ये कीट, अपने बड़े पंखों के व्यापक सतह क्षेत्र के कारण, दुनिया का सबसे बड़ा पतंगा है। मादाएं पुरुषों की तुलना में बड़ी होती हैं, और वे 12 इंच तक बड़ी हो सकती हैं।
एटलस मॉथ के नाम के पीछे अंतिम सिद्धांत, कैंटोनीज़ अनुवाद (Cantonese translation) है, जिसका अर्थ “सांप के सिर वाला कीट” है। यह शब्द, इनके पंखों की नोक पर मौजूद, अलग-अलग सांप के चेहरे जैसे आकार को संदर्भित करता है। एटलस मॉथ अपने लाभ के लिए, इस सांप के सिर वाले पैटर्न का उपयोग करता है। यदि कभी किसी स्थिति में कीट को खतरा महसूस होता है, तो यह एक चलते हुए सांप सिर की नकल करने के लिए, अपने पंखों को फड़फड़ना शुरू कर देगा।
एटलस मॉथ के बारे में कुछ अद्भुत तथ्य-
१.एटलस कीट के विशाल पंख, मानव हाथ की तुलना में व्यापक है।
२. इस मॉथ में, लाल रंग में उल्लिखित त्रिकोणीय पैटर्न के साथ, लाल-भूरे रंग के पंख होते हैं।
३.एटलस मॉथ लार्वा, अपनी रक्षा रणनीतियों में प्रभावशाली हैं। वे नीले-हरे रंग के होते हैं, और उनके फुले हुए शरीर पर सफ़ेद मोमी आवरण होते हैं । लार्वा, लगभग 12 इंच की दूरी तक, स्राव कर सकते हैं, जिसमें एक शक्तिशाली गंध होती है। इसका उपयोग, शिकारियों के खिलाफ़, और यहां तक कि, चींटियों और छिपकलियों के खिलाफ़ किया जा सकता है।
४.वे केवल कुछ हफ़्तों के लिए ही जीवित रहते हैं। सुंदर एटलस मॉथ , केवल एक से दो सप्ताह के लिए ही जीवित रहते है। खाने की क्षमता के बिना पैदा हुए, पतंगे, लार्वा के रूप में संग्रहित किए गए भोजन के भंडार पर ज़्यादा समय के लिए, जीवित रहने में असमर्थ हैं।
एटलस मॉथ के निवास स्थान-
ये कीट, बंद कैनोपी (पेड़ों की टहनियों द्वारा बना मंडप), व्यापक पत्ती वाले सदाबहार पेड़ों और समशीतोष्ण स्थितियों वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं, जहां तापमान 25 डिग्री सेल्सियस (25º Celsius) से अधिक नहीं होता है। हरे–भरे वर्षावन, एटलस कीट के लिए सही आवास प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें अपने प्राकृतिक वातावरण में पनपने की अनुमति मिलती है। ये वर्षावन, सूखे और गीले दोनों मौसम का अनुभव करते हैं, जो एटलस कीट के लिए एक विविध और गतिशील वातावरण बनाते हैं। उनके पूरे जीवन चक्र में, जो पत्तियों पर अंडे देने से लेकर वयस्क मादाओं के रूप में आराम करने तक होता है, ये पतंगे, अपना पूरा जीवन एक ही पेड़ पर बिताते हैं।
इनका अपनी सीमा के भीतर एक विस्तृत वितरण है, लेकिन कुछ मॉथ्स की आबादी, विशिष्ट क्षेत्रों में पाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, कुछ मोथ्स फ़िलीपींस (Philippines), पापुआ न्यू गिनी (Papua New Guinea) और उत्तरी भारत जैसे क्षेत्रों में पाए जा सकते हैं। ये स्थान, एटलस मॉथ के लिए उपयुक्त स्थिति और संसाधन प्रदान करते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में एटलस मॉथ की भूमिका-
एटलस मॉथ सहित कई कीट, पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे पौधों के महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं, जो विभिन्न पौधों की प्रजातियों के प्रजनन में योगदान करते हैं। लगभग 85% फ़सलों में कीट-परागण होता है, और इस प्रक्रिया में पतंगे एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं। उनकी संख्या में गिरावट का फ़सलों और देशी पौधों की प्रजातियों के परागण पर, अतः नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
पतंगे, पक्षियों और चमगादड़ सहित अन्य जानवरों के लिए, एक खाद्य स्रोत के रूप में भी काम करते हैं। उदाहरण के लिए, ब्लू-टिट चिक्स (Blue-tit chicks) नामक पक्षी, प्रत्येक वर्ष, बड़ी संख्या में इन कीटों के लार्वा का उपभोग करते हैं। एक पारिस्थितिकी तंत्र में एटलस मॉथ की उपस्थिति और बहुतायत, उस पारिस्थितिकी तंत्र के समग्र स्वास्थ्य और जैव विविधता को दर्शाती है।
एटलस मॉथ्स की रक्षा के लिए प्रयास-
विभिन्न एटलस मॉथ प्रजातियों की संरक्षण की स्थिति, उनकी विशिष्ट आबादी और भौगोलिक सीमा के आधार पर भिन्न होती है। गिरती आबादी और आवास हानि, उनके दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करती है। उनके निवास स्थान को संरक्षित करने तथा उनके पारिस्थितिक महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाले संरक्षण प्रयास, एटलस कीट और अन्य मॉथ प्रजातियों के भावी अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। वनों की कटाई को रोककर और टिकाऊ भूमि प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देकर, हम उन महत्वपूर्ण आवासों को संरक्षित कर सकते हैं, जो एटलस मॉथ आबादी का समर्थन करते हैं।
एटलस मोथ्स के पारिस्थितिक महत्व के बारे में जनता को शिक्षित करना, उनके संरक्षण का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। परागणकों के रूप में उनकी भूमिका एवं जैव विविधता में उनके योगदान के बारे में जागरूकता बढ़ाकर, संरक्षण प्रयासों को समर्थन प्राप्त हो सकता है। इससे ज़िम्मेदार भूमि उपयोग प्रथाओं को प्रोत्साहित भी किया जा सकता है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: हाथ में बैठा एक एटलस मॉथ (Wikimedia)
क्या मेरठ देखना चाहेगा, आखिर दुबई मिरेकल गार्डन, वैश्विक स्तर पर इतना लोकप्रिय क्यों है ?
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
16-03-2025 09:02 AM
Meerut-Hindi

हमारे प्यारे मेरठ वासियों, क्या आप जानते हैं कि दुबई मिरेकल गार्डन (Dubai Miracle Garden), फूलों का एक बगीचा है जो दुबई, संयुक्त अरब अमीरात (Dubai, United Arab Emirates) के दुबईलैंड (Dubailand) ज़िले में स्थित है। 72,000 वर्ग मीटर (780,000 वर्ग फ़ीट) में फैले इस गार्डन को 2013 में खोला गया था। यह दुनिया का सबसे बड़ा फूलों का बगीचा है, जिसमें 50 मिलियन से भी अधिक फूल और 250 मिलियन पौधे हैं। अप्रैल 2015 में, इस उद्यान को गार्डन टूरिज़म अवार्ड (Garden Tourism Award 2015) द्वारा मोज़ेल पुरस्कार (Moselle Award) से सम्मानित किया गया। उसी वर्ष, 2015 में, इस बगीचे ने दुबई बटरफ़्लाई गार्डन (Dubai Butterfly Garden) का भी शुभारंभ किया, जो दुनिया का सबसे बड़ा और क्षेत्र का पहला इनडोर बटरफ़्लाई गार्डन या तितली उद्यान है। यहाँ 26 प्रजातियों की 15,000 से भी अधिक तितलियां मौजूद हैं। दुबई मिरेकल गार्डन का नाम, निश्चित रूप से उपयुक्त है, क्योंकि यह एक रेगिस्तानी भूमि पर बनाया गया है, जहां पौधों की विभिन्न प्रजातियों को उगाना बहुत कठिन है। हर मौसम में यहाँ विभिन्न फूल उगाए जाते हैं, जिससे यहाँ बार-बार आने वाले आगंतुकों को हर बार यहाँ आने पर एक अलग अनुभव प्राप्त होता है। यहाँ एमिरेट्स एयरबस A380 ( Emirates Airbus A380) नामक एक हवाई जहाज़ की एक प्रतिकृति भी मौजूद है, जिसे 2016 में गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स (Guinness Book of World Records) का "सबसे बड़ा पुष्प इंस्टॉलेशन" (floral installation) का खिताब मिला था। इस उद्यान में 60 अलग-अलग किस्म के फूल मौजूद हैं। तो चलिए, आज कुछ चलचित्रों के ज़रिए, यह समझने की कोशिश करते हैं, कि दुबई मिरेकल गार्डन, दुनिया भर में इतना अनोखा और लोकप्रिय क्यों है। इसके अलावा, हम दुबई बटरफ़्लाई गार्डन से संबंधित एक चलचित्र का भी आनंद लेंगे। उसके बाद, हम इस गार्डन की पूरी सैर कराने वाले कुछ दृश्यों पर भी नज़र डालेंगे। ।
संदर्भ:
संस्कृति 1979
प्रकृति 702