Meerut Breaking News Today Live - Read latest and breaking news today in hindi at Amarujala. यहां पढ़ें, मेरठ की ताजा खबरें, क्राइम,...
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागवानी किसानों की आय दोगुनी करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय ने एक क्रांतिकारी पहल की है।...
जिला शतरंज संघ की ओर से बृहस्पतिवार को पांडव नगर स्थित केएल निष्ठा शतरंज एकेडमी में एक दिवसीय शतरंज प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प...
सदर बाजार थाना क्षेत्र में बेगमपुल पर दो डॉक्टरों स्पॉर्पियो कार को दौड़ा दिया, जिससे वहां अफरातफरी मच गई।
पहाड़ों पर हो रही लगातार बर्फबारी का असर मैदानी इलाकों में भी देखने को मिल रहा है। कड़ाके की ठंड और शीतलहर के प्रकोप के बीच मेरठ में...
रजपुरा और मामेपुर शक्ति केंद्र पर बृहस्पतिवार को भाजपा जिलाध्यक्ष हरवीर पाल ने कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की। देवेंद्र चौहान के आवास प...
सीसीएस क्रिकेट मैदान सलाहपुर में बृहस्पतिवार को कैंट बोर्ड इलेवन और सीजीएचएस के बीच मैच हुआ। इसमें कैंट बोर्ड ने 69 रन से जीत दर्ज क...
भारतीय दलित विकास संस्थान की ओर से चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय परिसर स्थित काशीराम शोधपीठ के सभागार में शहीद उधम सिंह की जयंती की प...
शहीद मंगल पांडे राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय में समारोह आयोजित कर अटल शताब्दी समारोह के तहत जनपद स्तरीय विभिन्न प्रतियोगिताओ...
मेरठ परिक्षेत्र के उप गन्ना आयुक्त राजीव राय को शासन की ओर से मेरठ से हटा दिया गया है। उन्हें गोरखपुर और देवरिया के उप गन्ना आयुक्त...
छठी वाहिनी पीएसी में अकाउंट ब्रांच में तैनात दरोगा लेखा डोलचा बालैनी बागपत निवासी मुकेश कुमार, पिंडौरा शामली निवासी सिपाही आशीष कुमा...
नेशनल कैंप के लिए मेरठ के बॉक्सरों का हुआ चयन
परतापुर इंडस्ट्रियल स्टेट मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन (पीमा) के तत्वावधान में बृहस्पतिवार को उद्योग मंदिर सभागार में नगर निगम द्वारा हा...
सीएम ग्रिड योजना के विरोध में उतरे ट्रांसपोर्टर
मेरठ। राज्य ललित कला एकेडमी की ओर से बृहस्पतिवार को आयोजित तीन दिवसीय क्षेत्रीय कला प्रदर्शनी का समापन हो गया। एकेडमी के अध्यक्ष डॉ....
मेरठ। भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की 101वीं जयंती पर बृहस्पतिवार को महापौर हरिकांत अहलूवालिया ने सूरजकुंड स्पोर्...
एसआईआर : गणना प्रपत्र जमा करने का अंतिम दिन आज
युवक पर दो साल से यौन शोषण करने का आरोप लगाया
शहर में 13 स्थानों पर लगाए शिविर, गृहकर पर आपत्तियों का किया समाधान
संजय वन के पास वेल्डिंग कर्मचारी को पीटा, मोबाइल और नकदी लूटने का आरोप
Central Market case: Shopkeepers take on the son of the complex's allottee
केशव हत्याकांड : पुलिस ने डिजिटल साक्ष्य एकत्र किए, आरोपियों की तलाश जारी
पति समेत 15 ससुरालियाें पर उत्पीड़न का आरोप, प्रथामिकी दर्ज
थाना क्षेत्र के गांव पांचली बुजुर्ग निवासी नेत्रपाल के बेटे सचिन के साथ बुधवार को हुई लूट का पुलिस ने खुलासा कर दिया है। पुलिस के अन...
सोशल मीडिया पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर उपजा विवाद बृहस्पतिवार देर रात फायरिंग में बदल गया। नगर के मोहल्ला लाल कुआं में बाइक...
Meerut Breaking News Today Live - Read latest and breaking news today in hindi at Amarujala. यहां पढ़ें, मेरठ की ताजा खबरें, क्राइम,...
Meerut: बांग्लादेश के प्रधानमंत्री का फूंका पुतला, हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर जताया रोष
Meerut: पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेई की जन्म शताब्दी पर राजकीय महाविद्यालय में हुई प्रतियोगिता
Meerut: ज्योतिष एवं पंचांग लेखन के लिए नरेश दत्त शर्मा दिल्ली में सम्मानित
Meerut: चार साहिबजादों को समर्पित कीर्तन दरबार में हुआ महान कीर्तन, नगर पंचायत चेयरपर्सन रहीं मुख्य अतिथि
Meerut: हस्तिनापुर की आबादी में पहुंचे मगरमच्छ से दहशत, वन विभाग ने रेस्क्यू कर गंगा में छोड़ा
Meerut: गुरु गोविंद सिंह जयंती पर गुरु गोविंद सिंह पब्लिक स्कूल में हुआ वार्षिक मेले का आयोजन
Meerut: भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जयंती पर हुआ दीपोत्सव
कस्बे की चिंदौड़ी-समसपुर मार्ग स्थित मुस्लिम राजपूत के कब्रिस्तान की चहादीवारी तोड़कर बुधवार देर रात चोरों ने सरिया चोरी करने का प्र...
खेड़ी गांव निवासी 16 वर्षीय छात्र वंश बुधवार को मां की डांट से क्षुब्ध होकर घर छोड़कर चला गया। परिजनों ने उसकी काफी तलाश की, लेकिन क...
गांव माजरा निवासी होमगार्ड नरेंद्र शर्मा का हृदय गति रुकने के कारण 18 दिसंबर को निधन हो गया था। बृहस्पतिवार को उनकी तेरहवीं पर शोकसभ...
साली को अपहरण कर दुष्कर्म करने की दी धमकी, कप्तान से की शिकायत मोदीपुरम। प्रेम विवाह करने के बाद जीजा ने साली को अपहरण कर दुष्कर्म क...
थाना क्षेत्र के डूंगर गांव में तीन दिन पूर्व सड़क हादसे में घायल हुए मोहित (28) पुत्र नीरज की बृहस्पतिवार सुबह उपचार के दौरान मौत हो...
जानी थाने से करीब 200 मीटर दूर स्थित परचून की दुकान का शटर तोड़कर चोरों ने हजारों रुपये की नकदी और समान चोरी कर लिया। घटना की तहरीर...
जानी पुलिस ने बुधवार की रात ट्रांसफार्मर चोरी करने वाले दो बदमाशों को गिरफ्तार किया है। पुलिस ने उनके पास से ट्रांसफार्मर चोरी करने...
| निर्देशांक | 28.98°N 77.71°E |
| ऊंचाई | 247 मीटर (810 फ़ीट) |
| ज़िला क्षेत्र | 2,522 किमी² (974 वर्ग मील) |
| शहर की जनसंख्या | 1,305,429 |
| शहर की जनसंख्या घनत्व | 2,901/किमी² (7,514/वर्ग मील) |
| शहर का लिंग अनुपात | 886 ♀/1000 ♂ |
| समय क्षेत्र | यू टी सी +5:30 (आई एस टी) |
| ज़िले में शहर | 107 |
| ज़िले में गांव | 376 |
| ज़िले की साक्षरता | 84.80% |
| ज़िला अधिकारी संपर्क | 0121-2623024, 9454417566 |
मेरठवासियों, अगर आपके भीतर रोमांच की चाह, प्रकृति की शांति और पर्वतों की भव्यता को देखने का जुनून है, तो कंचनजंगा की यात्रा आपके जीवन के सबसे यादगार अनुभवों में से एक बन सकती है। हमारे मेरठ में भी ऐसे कई यात्री और पर्वत-प्रेमी हैं, जो हर साल हिमालय की ओर निकल पड़ते हैं - इन्हीं में कंचनजंगा का नाम सबसे अलग और सबसे सम्मानित रूप से लिया जाता है। दुनिया का तीसरा सबसे ऊँचा पर्वत होने के कारण इसका आकर्षण तो स्वाभाविक है, लेकिन इसकी पहचान सिर्फ ऊँचाई में ही नहीं बसती; यह पर्वत अपने भीतर आध्यात्मिक गहराई, पौराणिक मान्यताएँ और एक अनोखी प्राकृतिक विरासत समेटे हुए है। स्थानीय समुदाय कंचनजंगा को केवल एक पर्वत नहीं, बल्कि एक जीवित संरक्षक मानते हैं - एक ऐसी पवित्र शक्ति, जो उनके जीवन, संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा है। पर्वत के आसपास की घाटियों में फैली रहस्यमय धुंध, सुबह के सूरज की किरणों में चमकती हिम - चादरें, और दूर तक फैली सन्नाटे भरी शांति, हर यात्री को भीतर तक छू जाती है। शायद यही कारण है कि जो लोग यहाँ पहुँचते हैं, वे केवल एक यात्रा नहीं करते - वे एक अनुभव जीते हैं, एक भाव महसूस करते हैं, एक ऐसी जगह की ऊर्जा से जुड़ते हैं जो शब्दों में पूरी तरह बयान भी नहीं की जा सकती।आज हम इस लेख में सबसे पहले, हम जानेंगे कंचनजंगा पर्वत का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व, इसके नाम की उत्पत्ति और स्थानीय मान्यताओं के साथ। इसके बाद, हम कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान की भौगोलिक विशेषताओं और जैव-विविधता को समझेंगे। फिर, हम कंचनजंगा की पाँच प्रमुख चोटियों और आसपास स्थित अन्य शिखरों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। आगे बढ़ते हुए, हम कंचनजंगा परिसर के मुख्य पर्यटन स्थलों - युकसोम, त्सोंगो झील, नाथूला दर्रा, पेलिंग और लाचुंग - के बारे में जानेंगे। अंत में, हम कंचनजंगा ट्रेक्किंग अभियान की चुनौतियों और आवश्यक तैयारियों पर नज़र डालेंगे, जिससे आप समझ सकें कि यह यात्रा किस तरह की तैयारी मांगती है।कंचनजंगा पर्वत और इसका ऐतिहासिक–सांस्कृतिक महत्त्वकंचनजंगा पर्वत, जिसका नाम तिब्बती मूल के शब्द ‘कांग-चेन-दज़ो-नगा’ या ‘यांग-छेन-दज़ो-नगा’ से लिया गया है, का अर्थ “बर्फ़ के पाँच महान खज़ाने” माना जाता है। 8,586 मीटर ऊँचा यह पर्वत, हिमालय की श्रृंखला में एक असाधारण स्थान रखता है। सिक्किम के स्थानीय समुदायों के लिए यह पर्वत केवल एक प्राकृतिक संरचना नहीं बल्कि आस्था का केन्द्र है। बौद्ध परंपराओं में वर्णित ‘बेयुल’ और लेप्चा लोगों की मान्यताओं के अनुसार कंचनजंगा आध्यात्मिक शक्ति और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। कई धार्मिक अनुष्ठान और पर्वतीय परंपराएँ इसी पर्वत से प्रेरित हैं, जो इसके सांस्कृतिक महत्व को और भी मजबूत बनाती हैं।कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान की भौगोलिक विशेषताएँ और जैव-विविधतासिक्किम की हिमालयी श्रृंखला के मध्य में स्थित कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान, 1,78,400 हेक्टेयर में फैला एक विशाल प्राकृतिक भू-क्षेत्र है। 7 किलोमीटर से अधिक की अद्वितीय ऊर्ध्वाधर चौड़ाई के साथ, यह उद्यान मैदानों, झीलों, हिमनदों और ऊँचे बर्फीले पर्वतों से मिलकर बना है। इस क्षेत्र की जैव-विविधता इतनी समृद्ध है कि इसे वैश्विक जैव-संपदा संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पाई जाने वाली वनस्पतियों और स्तनधारियों की प्रजातियाँ मध्य और उच्च एशिया के पर्वतीय क्षेत्रों में दर्ज सबसे अधिक संख्या में से हैं। यही नहीं, पक्षियों की भी बड़ी संख्या यहां निवास करती है। प्राकृतिक विविधता के साथ-साथ, इस भूमि से जुड़े पौराणिक विश्वास और सांस्कृतिक धरोहर, इसे एक अनोखी पहचान देते हैं।कंचनजंगा की पाँच प्रमुख चोटियाँ और अन्य शिखरयह पूरा पर्वत-परिसर पाँच प्रमुख चोटियों का एक अद्भुत समूह है, जिनकी भव्यता इसे हिमालय का एक विशिष्ट और पवित्र पर्वत बनाती है। कंचनजंगा की मुख्य चोटी 8,586 मीटर की ऊँचाई के साथ विश्व की तीसरी सबसे ऊँची चोटी है, और इसके साथ खड़ी कंचनजंगा पश्चिम (8,505 मीटर), कंचनजंगा मध्य (8,482 मीटर), कंचनजंगा दक्षिण (8,494 मीटर) और कांगबाचेन (7,903 मीटर) मिलकर एक विशाल पर्वतीय दीवार सी बनाती हैं। इनमें से तीन चोटियाँ सिक्किम - नेपाल सीमा पर स्थित हैं, जबकि दो पूरी तरह से नेपाल के तापलेजंग जिले में आती हैं। इन ऊँचे शिखरों की उपस्थिति ही इस क्षेत्र को इतना रहस्यमय और आकर्षक बनाती है, लेकिन इसके आसपास स्थित बारह अन्य चोटियों का समूह इसकी सुंदरता को कई गुना और बढ़ा देता है। ये सहायक शिखर न केवल पूरे पर्वत-पट्टी को संतुलित रूप देते हैं, बल्कि पर्वतारोहियों और प्रकृति-प्रेमियों को एक अद्भुत, बहु-स्तरीय हिमालयी अनुभव भी प्रदान करते हैं, जहाँ हर दिशा में सिर्फ हिम, बादल और मौन की अनंतता फैली दिखाई देती है।कंचनजंगा परिसर के प्रमुख पर्यटन स्थलकंचनजंगा के आस-पास ऐसे कई स्थल हैं जो हर यात्री को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।युकसोम – कंचनजंगा ट्रेक्स का सबसे लोकप्रिय शुरुआती बिंदु, जो ग्रामीण सादगी और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है।त्सोंगो झील – गंगटोक से 38 किलोमीटर दूर, 12,400 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित यह झील अपने साफ़ नीले जल और आसपास के बर्फीले दृश्यों के कारण पर्यटकों की पसंदीदा है।नाथूला दर्रा – समुद्र तल से 4,310 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह ऐतिहासिक दर्रा सिक्किम और तिब्बत को जोड़ता है।पेलिंग – 7,200 फ़ीट पर स्थित यह स्थान हिमालय और कंचनजंगा की चोटियों को देखने का सबसे सुंदर दृश्य प्रदान करता है।लाचुंग – बर्फीले परिदृश्यों और लाचुंग चू नदी की अद्भुत सुंदरता से घिरा यह कस्बा यात्रियों को विशेष रूप से आकर्षित करता है।कंचनजंगा ट्रेक्किंग अभियान की चुनौतियाँ और आवश्यक तैयारीकंचनजंगा का ट्रेक्किंग अभियान दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण पर्वत अभियानों में गिना जाता है। लगभग दस सप्ताह तक चलने वाला यह अभियान मौसम की अनिश्चितताओं से भरा रहता है। मानसून में यहाँ भारी बर्फ़बारी और बर्फ़ीले तूफ़ान आम हैं। सर्दियों में बर्फ़बारी थोड़ी कम होती है, लेकिन मौसम हमेशा अप्रत्याशित बना रहता है। 8,000 मीटर से ऊपर की कठिन क्षैतिज चढ़ाई, पतली हवा, हिमस्खलन और तकनीकी मार्ग - ये सभी चुनौतियाँ इसे एक जटिल अभियान बनाती हैं। इसलिए उन्नत पर्वतारोहण कौशल, उच्च-स्तरीय पर्वतारोहण अनुभव, उत्कृष्ट शारीरिक क्षमता और विशेष शीतकालीन गियर अनिवार्य हैं। कई पर्वतारोही इसे एवरेस्ट से भी अधिक कठिन मानते हैं, जो इसकी कठोरता का प्रमाण है।संदर्भ -https://tinyurl.com/4ak8hkkv https://tinyurl.com/ykuscrcs https://tinyurl.com/55ztnnnf https://tinyurl.com/3sxdbf6r https://tinyurl.com/yw9n7dmz
मेरठवासियों, हमारी तेज़ी से बदलती शहरी ज़िंदगी ने सिर्फ़ हमारे रहने-सहने के तरीके को नहीं, बल्कि उन नन्हे जीवों को भी गहराई से प्रभावित किया है जो कभी हमारे घरों, छज्जों और आँगनों की रोज़मर्रा की धड़कन हुआ करते थे। उन्हीं प्यारे साथियों में से एक है गौरैया। वह छोटी-सी चहकती चिड़िया, जिसकी मधुर आवाज़ सुबह की हवा में घुलकर मोहल्लों को जगा देती थी, अब धीरे-धीरे हमारे आसपास से गायब होने लगी है। कंक्रीट की ऊँची इमारतें, बंद रसोई, शोर, प्रदूषण और बदलते मौसम ने मिलकर उसकी दुनिया को संकुचित कर दिया है। हम सबने महसूस किया है कि वह परिचित फड़फड़ाहट, वह दाने चुगने की सादगी और वह चहचहाहट अब रोज़ सुनाई नहीं देती।आज हम सबसे पहले समझेंगे कि आधुनिक शहरों में गौरैया अचानक क्यों और कैसे गायब होने लगी है, और यह स्थिति भारत के साथ पूरी दुनिया में क्यों चिंता का विषय बन चुकी है। इसके बाद, हम गौरैया की गिरती संख्या के प्रमुख कारणों को सरल भाषा में जानेंगे - जैसे कीटनाशक, कंक्रीट घर, भोजन और घोंसलों की कमी। आगे, हम गौरैया और मनुष्य के प्राचीन तथा भावनात्मक रिश्ते की झलक पाएँगे, जिससे समझ आएगा कि यह पक्षी हमारी संस्कृति में कितना गहराई से बसता है। अंत में, हम यह भी देखेंगे कि अपने घर, बगीचे और आसपास छोटी-छोटी कोशिशों से हम उसे वापस कैसे बुला सकते हैं।आधुनिक शहरों में गौरैया का गायब होना: भारत और विश्व की चिंताजनक स्थितिपिछले कुछ दशकों में गौरैया दुनिया की कई बड़ी और पुरानी बस्तियों से लगभग अदृश्य होती चली गई है। यूरोप, एशिया और अमेरिका के शोध संस्थानों ने इस पक्षी को अपनी “कमी वाले” या “रेड-लिस्ट के नज़दीक” श्रेणी में दर्ज किया है, क्योंकि उनकी आबादी में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। भारत में भी यही चिंता साफ़ दिखाई देती है - दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों में गौरैया की संख्या अचानक गिर गई, जहाँ कभी यह सबसे आम दिखने वाला पक्षी था। मेरठ जैसे पुराने, संस्कृति-समृद्ध शहर भी इस बदलाव से अछूते नहीं बचे। शहर का फैलता कंक्रीट, ऊँची इमारतें, सील्ड फ्लैट्स (sealed flats) और ऐसी आधुनिक डिज़ाइन जिनमें हवा और रोशनी तो आती है, पर पक्षियों के लिए कोई जगह नहीं - इन सबने गौरैया के लिए घोंसला बनाने की सबसे जरूरी शर्तें खत्म कर दीं। जहाँ कभी खिड़कियों के कोने, छतों की लकड़ी या कच्ची दीवारें उसके घर हुआ करते थे, अब वहाँ चिकनी सतहें और लोहे-काँच की संरचनाएँ हैं, जो उसके लिए बिल्कुल अनुपयोगी साबित होती हैं। यही कारण है कि गौरैया आधुनिक शहरों से चुपचाप गायब होती चली गई, और हमें इसका एहसास तब हुआ, जब उनकी चहक हमारे कानों तक पहुँचनी बंद हो गई।गौरैया क्यों कम हो रही है? घर, भोजन और प्राकृतिक कीड़ों की कमीगौरैया की कमी किसी एक कारण की देन नहीं, बल्कि शहरी जीवन के कई छोटे-बड़े परिवर्तनों का संयुक्त परिणाम है। आधुनिक घरों का निर्माण ऐसे तरीके से होने लगा है कि उनमें वे छोटी दरारें, खुली खिड़कियाँ, अर्ध-पक्के कोने या लकड़ी की बीम नहीं होतीं, जिन पर गौरैया आसानी से घोंसला बना सके। पहले ग्रामीण और कस्बाई रसोईघरों में चूल्हे चलते थे, जहाँ से दानों के टुकड़े, अनाज के कण और छोटी-छोटी खाद्य सामग्री गिरती रहती थी; यह सब गौरैया के लिए प्राकृतिक भोजन की तरह था। अब गैस-कनेक्शन, बंद किचन और पैक्ड फूड (packed food) ने वह सारा बिखराव समाप्त कर दिया है, जो उसके लिए महत्वपूर्ण था। कीटनाशकों ने खेतों और बागों में कीड़ों की संख्या को बेहद घटा दिया है, जबकि गौरैया के बच्चों का भोजन 80% से अधिक इन्हीं छोटे कीटों पर निर्भर होता है। इसके अलावा, शहरी जीवन का शोर, प्रदूषण, धातु का कचरा, निर्माण धूल और लगातार बदलता माइक्रो-हैबिटेट (micro-habitat) गौरैया की प्राकृतिक आदतों के पूरी तरह खिलाफ़ है, जिससे वह अपने ही शहरों में अनुकूल वातावरण खोजने में असमर्थ हो गई है।गौरैया और मनुष्य का प्राचीन रिश्ता: इतिहास से आज तकगौरैया का मनुष्य से रिश्ता सिर्फ़ सह-अस्तित्व का नहीं, बल्कि भावनाओं, यादों और संस्कृति का है। यह छोटा-सा पक्षी हजारों साल से मनुष्य की छतों, खेतों और दीवारों के साथ जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि रोमनों ने भी गौरैया को यूरोप के दूसरे हिस्सों में पहुँचाने में भूमिका निभाई, क्योंकि उन्हें यह पक्षी सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक लगता था। भारत में भी गौरैया बच्चों की कविताओं, माँ-बाप की कहानियों, और गाँव-शहरों के रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा रही है। पुराने मकानों, लकड़ी की छतों और मिट्टी के चूल्हों में यह ऐसे रहती थी, जैसे परिवार की छोटी सदस्य हो। मेरठ जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहरों में तो यह हर सुबह की आवाज़ का हिस्सा थी - खिड़की की जाली पर बैठकर फुदकना, आँगन में दाना चुगना, और बच्चों के पीछे-पीछे घूमना। आज जब यह नहीं दिखती, तो उसकी अनुपस्थिति सिर्फ़ एक पर्यावरणीय बदलाव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक रिक्तता भी महसूस होती है।गर्मी, जलसंकट और प्रदूषण: जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभावतेज़ी से बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव छोटे पक्षियों पर सबसे पहले और सबसे गंभीर रूप में पड़ा है। गौरैया का शरीर बहुत छोटा होता है, इसलिए वह गर्मी में जल्दी पानी गंवा देती है और जल्दी निर्जलित हो जाती है। पहले शहरों और गाँवों में छोटे-छोटे जलस्रोत, टोंटियाँ, गीली मिट्टी, कुएँ, पनघट और छतों पर रखे मिट्टी के घड़े होते थे, जहाँ से वह आसानी से पानी पी लेती थी। आज ऐसे स्रोत धीरे-धीरे गायब हो चुके हैं। शहरी हीट-आइलैंड (Heat-Island) प्रभाव, भारी ट्रैफ़िक, धुआँ, धूल और लगातार बढ़ता तापमान उसकी शारीरिक क्षमता से कहीं अधिक है। यही कारण है कि गर्मियों के दिनों में कई पशु चिकित्सालयों और रेस्क्यू सेंटरों में पंख झुलस चुके, प्यास से कमजोर और प्रदूषण से प्रभावित गौरैया लाई जाती हैं। यह सब मिलकर बताता है कि बदलता मौसम उसके अस्तित्व के लिए कितना खतरनाक बन चुका है।गौरैया को वापस बुलाने के सरल और व्यावहारिक कदमअगर इंसान चाहे तो गौरैया को वापस बुलाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए किसी बड़े बजट, बड़े प्रोजेक्ट या सरकारी योजना की आवश्यकता नहीं - सिर्फ़ हमारे छोटे-छोटे प्रयास ही काफी हैं। अपने घर की बालकनी या छत पर दाना-पानी रखना, मिट्टी की छोटी कटोरी में साफ पानी भरकर रखना, या कोई उथला बाउल लगाना गौरैया के लिए जीवनदान जैसा है। इसके अलावा, गमलों में तुलसी, बाजरा, मेहंदी, जंगली घास या स्थानीय पौधे लगाकर हम उसे प्राकृतिक भोजन और कीट उपलब्ध करा सकते हैं। लकड़ी के नेस्ट-बॉक्स (nest-box), छत के किसी शांत कोने में सुरक्षित जगह, या दीवार पर एक छोटा घोंसला छेद भी उसके लिए घर जैसा माहौल बना सकता है। जब एक मोहल्ला मिलकर ये छोटे कदम उठाता है, तो कुछ ही महीनों में गौरैया की वापसी साफ दिखाई देने लगती है। मनुष्य और प्रकृति के बीच रिश्ते की मरम्मत यहीं से शुरू होती है।गौरैया के पारिस्थितिक फायदे: प्रकृति में उसकी अनदेखी भूमिकागौरैया छोटे आकार की है, पर उसका महत्व किसी बड़े पर्यावरणीय घटक से कम नहीं। यह खेतों और बगीचों में मौजूद कई प्रकार के कीटों को खाती है, जिससे प्राकृतिक कीट नियंत्रण होता है और फसलें स्वस्थ रहती हैं। यह बीज फैलाकर जैव विविधता को बढ़ावा देती है, और बगीचों में नए पौधों और घासों को उगने का अवसर देती है। शहरों में भी गौरैया छोटा लेकिन जरूरी संतुलन बनाए रखती है - यदि कीटों और छोटे जीवों की संख्या अनियंत्रित हो जाए, तो पौधों और वातावरण पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसलिए गौरैया का लौटना सिर्फ़ एक पक्षी का लौटना नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र का पुनर्जीवन है। जहाँ गौरैया लौटती है, वहाँ पेड़, पौधे, कीट, हवा - सब धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगते हैं। वास्तव में यह प्रकृति की ओर से मिलने वाला संकेत है कि शहर फिर से जीवन के अनुकूल बन रहा है।संदर्भ :-https://bit.ly/3OvvDhf https://bit.ly/3RZ7gLG https://tinyurl.com/4425yya8
जब ऐतिहासिक स्मारकों की बात होती है, तो क़ुतुब मीनार और उसके आसपास का परिसर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुकला विरासत का एक अद्वितीय प्रतीक है। यह स्थल न केवल भारत की धार्मिक विविधता का आईना है, बल्कि विभिन्न ऐतिहासिक कालों और शासकों के योगदान का भी प्रमाण है। यहाँ हिंदू, जैन और इस्लामी स्थापत्य का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है, जो इस स्मारक को विशेष बनाता है। क़ुतुब मीनार सिर्फ एक विशाल मीनार नहीं है, बल्कि इसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के माध्यम से हमें उस समय की राजनीति, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक प्रथाओं की भी जानकारी मिलती है। फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे ये शिलालेख न केवल मीनार के निर्माण की कहानी बयां करते हैं, बल्कि शासकों के नाम, उनके उपाधियों और मीनार निर्माण में लगे समय की भी जानकारी देते हैं। इसके साथ ही, यहाँ उकेरी गई क़ुरान की आयतें और लौह स्तंभ जैसी संरचनाएँ इस स्थल की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।आज हम क़ुतुब मीनार और उसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के इतिहास और स्थापत्य कला के संगम को जानेंगे। ये शिलालेख सिर्फ स्थापत्य की मिसाल नहीं हैं, बल्कि इतिहास की कई कहानियाँ भी बताते हैं। कुछ शिलालेख महत्वपूर्ण घटनाओं और शासकों की जानकारी देते हैं, तो कुछ फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे हैं, जो अपनी भाषा और शैली की वजह से खास हैं। लौह स्तंभ और क़ुरान की आयतें इस स्थल की सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।क़ुतुब मीनार परिसर में पाए जाने वाले प्रमुख शिलालेखक़ुतुब मीनार परिसर में मौजूद शिलालेख इस स्मारक की पूरी कहानी को बयां करते हैं। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर पर की गई नक्काशी, ज्यामितीय और अरबस्क डिज़ाइन, और हिंदू व जैन स्थापत्य प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, इल्तुतमिश का मक़बरा, जो 1235 ईस्वी में बनाया गया था, लाल बलुआ पत्थर का साधारण चौकोर कक्ष है। इसके प्रवेश द्वारों और भीतरी हिस्सों पर सारासेनिक शैली में उकेरे गए शिलालेख और नक्काशी मौजूद हैं, जो उस समय की स्थापत्य शैली और शासक की महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक हैं। अलाई दरवाज़ा, जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का दक्षिणी प्रवेश द्वार है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा हिजरी 710 (ई.स. 1311) में निर्मित किया गया था। वहीं, अलाई मीनार, जो क़ुतुब मीनार के उत्तर में स्थित है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पहले की मीनार से दुगना ऊँचा बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन केवल इसकी पहली मंज़िल ही पूरी हो सकी। ये सभी शिलालेख और निर्माण कार्य उस समय के राजनीतिक और स्थापत्य महत्व को बखूबी दर्शाते हैं।फ़ारसी-अरबी और नागरी लिपियों का ऐतिहासिक महत्वक़ुतुब मीनार पर उकेरे गए फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख इस स्मारक की निर्माण कथा को स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं। फ़ारसी और अरबी लिपियों में नस्क़ह शैली की इस्लामी कैलीग्राफ़ी में शासकों के नाम, उनके उपाधियाँ और निर्माण काल दर्ज हैं। ये शिलालेख न केवल मीनार की भव्यता को दर्शाते हैं, बल्कि उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक परिपाटियों का भी प्रमाण हैं। वहीं, नागरी लिपि में लिखे शिलालेख, जैसे “पृथ्वी निरप,” चौहान राजपूत शासक पृथ्वीराज का संकेत देते हैं। ये शिलालेख हमें उस समय के राजनीतिक परिदृश्य और स्थानीय शासकों की पहचान के बारे में जानकारी देते हैं। फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख, दोनों ही स्थापत्य और ऐतिहासिक जानकारी का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं, जो मीनार और उसके परिसर के महत्व को और बढ़ाते हैं।लौह स्तंभ और इसके शिलालेखक़ुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ भी एक अद्भुत ऐतिहासिक संरचना है। इसे चौथी शताब्दी में विष्णुपद पहाड़ी पर भगवान विष्णु के ध्वज के रूप में स्थापित किया गया था। इसके शीर्ष पर गरुड़ की मूर्ति भी स्थापित थी। यह स्तंभ लगभग 98 प्रतिशत लोहे का है और आज तक इसमें जंग नहीं लगी है, जो उसकी उन्नत धातु विज्ञान तकनीक को दर्शाता है। लौह स्तंभ पर मौजूद शिलालेख राजा चंद्र की स्मृति और चंद्रगुप्त मौर्य द्वितीय से संबंधित विवरण देते हैं, जिससे यह स्तंभ लगभग 375-415 ईस्वी का माना जाता है। इसके अलावा, इस पर बाद के काल में 1052 ई. (संवत 1109), 1515 ई., 1523 ई., 1710 ई., 1826 ई., और 1831 ई. की तिथियों में भी शिलालेख दर्ज किए गए हैं। ये सभी शिलालेख भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों का प्रतीक हैं और इस परिसर की ऐतिहासिक समृद्धि को दर्शाते हैं।क़ुरान की आयतें और अन्य उकेरे गए विवरणक़ुतुब मीनार के विभिन्न हिस्सों पर उकेरी गई क़ुरान की आयतें और अन्य शिलालेख भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। मीनार की छठी मंज़िल पर छह क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिन पर नस्क़ह शैली में क़ुरान की आयतें, ग़ियाथ अल-दीन और मु'इज्ज़ अल-दीन की उपाधियाँ अंकित हैं। इसमें सूरा II (आयतें 255-260), सूरा LIX (आयतें 22-23) और सूरा XLVIII (आयतें 1-6) शामिल हैं। कुछ शिलालेखों में मोहम्मद ग़ोरी और घ़ोरीद सुलतान की प्रशंसा भी की गई है। ये आयतें और शिलालेख न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि उस समय के शासन और स्थापत्य कला की समझ भी प्रदान करते हैं। इनके माध्यम से हम यह जान सकते हैं कि मीनार और उसके आसपास के निर्माण कार्य केवल भव्य स्थापत्य तक सीमित नहीं थे, बल्कि उनमें धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी समाहित थे।संदर्भ -https://tinyurl.com/4fwv37wyhttps://tinyurl.com/yc6prmjjhttps://tinyurl.com/3nfw8sxjhttps://tinyurl.com/48f9k6wwhttps://tinyurl.com/4xhwzpyw
शीत अयनांत (Winter Solstice) एक खगोलीय घटना है, जिसमें उत्तरी गोलार्ध में वर्ष का सबसे छोटा दिन और सबसे लंबी रात होती है। आज के दिन पृथ्वी की धुरी सूर्य से अधिकतम दूरी की ओर झुकी रहती है और सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं। इस दिन सूर्य आकाश में काफी नीचे दिखाई देता है, जिससे दिन की अवधि कम हो जाती है और शाम जल्दी हो जाती है। शीत अयनांत को सर्दियों की आधिकारिक शुरुआत माना जाता है और इसके बाद दिन धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं, इसलिए इसे अंधकार के बाद प्रकाश की वापसी का प्रतीक भी समझा जाता है।डल झील, श्रीनगर की शान और कश्मीर के मुकुट का अनमोल रत्न, अपने हर रूप में मन मोह लेती है, लेकिन इसका सूर्यास्त देखने का अनुभव किसी जादू से कम नहीं। शाम ढलते ही जब आसमान के रंग सुनहरे, नारंगी और गुलाबी आभा में बदलने लगते हैं और झील का शांत पानी उन रंगों को अपने भीतर समेट लेता है, तब डल झील एक जीवंत चित्र की तरह चमक उठती है। रंग-बिरंगी शिकारे पानी की सतह पर तैरते हुए दिखाई देते हैं, जिनमें बैठे लोग इस शांत और रोमांटिक वातावरण में पूरी तरह खो जाते हैं। हर तरफ मुस्कानें, हँसी की गूंज और शीतल हवा की नरम थपकियाँ - सब मिलकर उस पल को अविस्मरणीय बना देते हैं।सूर्यास्त के समय झील पर तैरते शिकारे मानो सपनों की नावें बन जाते हैं, जिन पर बैठे परिवार, जोड़े और युवा अपने-अपने अंदाज़ में इस सुंदरता का आनंद लेते हैं। किसी शिकारे से कबाबों की खुशबू हवा में घुल जाती है, कहीं कोई अपनी प्रिय कथा साझा कर रहा होता है, और कहीं कोई बस चुपचाप उस दृश्य को आंखों में कैद कर रहा होता है। झील के दूसरी ओर दूर पहाड़ी पर स्थित शंकराचार्य मंदिर का दृश्य उस माहौल को आध्यात्मिकता और शांति से भर देता है। शाम की हल्की ठंड में डल झील की लहरों का धीमा संगीत सुनाई देता है और मन में एक अनोखा संतोष उतर आता है।इस पल की सबसे सुंदर बात यह है कि इसमें कोई जल्दबाज़ी, कोई दौड़-भाग नहीं होती-सिर्फ वर्तमान को महसूस करने की गहरी इच्छा होती है। लोग शिकारे में बैठे बस आकाश के बदलते रंगों को देखते रहते हैं और लगता है जैसे समय थम गया हो। कुछ यात्री कैमरे से यादें संजो लेते हैं, और कुछ उन्हें दिल में सुरक्षित रख लेते हैं क्योंकि यह अनुभव कुछ ऐसा होता है जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। सूर्य धीरे-धीरे पहाड़ों के पीछे छिप जाता है और उसके बाद पानी पर छूटती सुनहरी चमक दिल में अनकही कविता की तरह गूंजती रहती है।डल झील का सूर्यास्त सिर्फ एक दृश्य नहीं, बल्कि एक एहसास है - एक शांत, गहरा और मन को भीतर तक छूने वाला अनुभव, जो हर आने वाले को जीवनभर याद रहता है। जो भी इसे अपनी आंखों से देख ले, वह स्वीकार करता है कि ऐसे दृश्य बार-बार नहीं मिलते, और यही कारण है कि लौटते समय दिल झील से थोड़ा भारी, लेकिन शांत होकर जाता है।संदर्भ-https://tinyurl.com/mr2k3wpy https://tinyurl.com/44d7mn9y https://tinyurl.com/58b8y86d https://tinyurl.com/5eb3cau2
मेरठवासियों, जब हम अपने देश के इतिहास में उस काल की खोज करते हैं जिसने भारत को ज्ञान, कला, विज्ञान, साहित्य और संस्कृति के चरम शिखर पर पहुँचा दिया, तो गुप्त साम्राज्य का नाम सबसे उज्ज्वल रूप में सामने आता है। यह वह समय था जब भारत केवल राजनीतिक रूप से ही स्थिर नहीं हुआ, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी इतना विकसित हुआ कि आने वाली सदियों तक उसकी छाप मिट नहीं सकी। जिस तरह मेरठ अपनी वीरता, प्राचीन परंपराओं और विद्यानिष्ठ पहचान के लिए जाना जाता है, उसी तरह गुप्त युग ने पूरे भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक आत्मा को नया आकार दिया। गुप्त काल को अक्सर ‘भारत का स्वर्णयुग’ कहा जाता है - क्योंकि इसी दौर में साहित्य में नई शैली उभरी, विज्ञान को तार्किक दृष्टि मिली, कला ने सूक्ष्मता और सुंदरता का अनोखा संगम रचा, और शिक्षा जगत में नालंदा जैसे महान केंद्र पनपे। यह वह युग था जिसने भारतीय पहचान को एक समरस और तेजस्वी रूप दिया। आज जब हम गुप्त साम्राज्य की चर्चा शुरू कर रहे हैं, तो हम न सिर्फ़ एक महान साम्राज्य की कहानी समझेंगे, बल्कि उस युग की उन विशेषताओं को भी जानेंगे जिन्होंने भारतीय इतिहास की दिशा ही बदल दी। यह लेख आपको उस स्वर्णिम काल की यात्रा पर ले चलेगा, जहाँ शक्ति, ज्ञान और संस्कृति एक साथ खिलते थे - और जो आज भी हमारी सभ्यता की नींव को गहराई से प्रभावित करता है।इस लेख में हम गुप्त साम्राज्य को समझेंगे। पहले, उसके उदय और उस व्यापक भू-राजनीतिक विस्तार को देखेंगे जिसने उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत को एक सशक्त ढाँचे में जोड़ा। फिर, उसकी प्रशासनिक व्यवस्था को समझेंगे जहाँ विकेंद्रीकरण, गाँव-आधारित शासन और नगरों में कारीगरों की भागीदारी ने एक संतुलित प्रणाली बनाई। प्रमुख गुप्त शासकों की सैन्य सफलताओं और सांस्कृतिक योगदान पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, उस धार्मिक वातावरण को जानेंगे जिसने हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं को समान रूप से आगे बढ़ने दिया और नालंदा को जन्म दिया। और अंत में, हम उस वैज्ञानिक, गणितीय और मुद्रा-व्यवस्था की प्रगति को समझेंगे जिसने भारत के बौद्धिक विकास की मजबूत नींव रखी।गुप्त साम्राज्य की उत्पत्ति और प्राचीन भारत में उसका भौगोलिक-राजनीतिक विस्तारगुप्त साम्राज्य तीसरी-चौथी सदी में तब उभरा, जब भारत का राजनीतिक परिदृश्य कुषाण और शकों के पतन के बाद नए नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। इसी पृष्ठभूमि में श्रीगुप्त और घाटकगुप्त द्वारा रखी नींव चंद्रगुप्त प्रथम के समय एक विशाल शक्ति में बदलने लगी। साम्राज्य उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से उठकर मध्य भारत, बंगाल, गुजरात और मालवा तक फैल गया। इस व्यापक विस्तार ने प्रशासनिक एकता और सांस्कृतिक समृद्धि का ऐसा वातावरण बनाया कि इतिहासकारों ने इस काल को ‘भारत का स्वर्णयुग’ और ‘शास्त्रीय युग’ कहा। साहित्य, मूर्तिकला, दर्शन, गणित - हर क्षेत्र में गुप्तों ने नई पहचान बनाई, जिसका प्रभाव सदियों तक कायम रहा।गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: विकेन्द्रीकरण, इकाइयाँ और शासन-पद्धतिगुप्त प्रशासन धर्मशास्त्र पर आधारित था, जिसमें मनु, नारद और याज्ञवल्क्य जैसे विद्वानों के सिद्धांतों का प्रभाव दिखता है। शासन तीन स्तरों पर चलता था - केंद्र, प्रांत और नगर/ग्राम इकाइयाँ। गाँव को प्रशासन की मूल इकाई मानना गुप्त प्रणाली की विशेषता थी, जहाँ पंचायतें भूमि, जल, कर और सामाजिक प्रबंधन का दायित्व संभालती थीं। शहरी प्रशासन में कारीगरों, व्यापारियों और महासभाओं की सक्रिय भूमिका थी, जिससे आर्थिक व्यवस्था अधिक जीवंत हुई। गुप्त काल में शुरू हुआ यह विकेंद्रीकरण भारत की परंपरागत स्वशासन अवधारणा का मजबूत रूप माना जाता है।गुप्त साम्राज्य का मानचित्र लगभग 420 ईस्वी.गुप्त साम्राज्य के प्रमुख शासक: उपलब्धियाँ, सामरिक विजय और सांस्कृतिक योगदानचंद्रगुप्त प्रथम ने वैवाहिक गठबंधन - विशेषकर लिच्छवी कन्या से विवाह - के माध्यम से साम्राज्य को राजनीतिक रूप से मज़बूत किया। उनके पुत्र समुद्रगुप्त को ‘भारतीय नेपोलियन’ कहा जाता है, क्योंकि प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित उनकी सैन्य विजय अभूतपूर्व थीं। अश्वमेध यज्ञ कराकर उन्होंने अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित की और ‘कविराज’ की उपाधि उनके सांस्कृतिक रुझान को दर्शाती है। चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक-क्षत्रपों को पराजित कर पश्चिम भारत को पुनः भारतीय नियंत्रण में लाया - इसी काल में लौह स्तंभ जैसी अद्भुत कारीगरी उभरकर सामने आई। कुमारगुप्त ने शक्रादित्य की उपाधि धारण की और नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कर भारतीय शिक्षा को महान ऊँचाई दी। स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण को रोका, जो गुप्त साम्राज्य की अंतिम बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जाती है।गुप्त काल में धार्मिक विकास और नालंदा का उत्कर्षगुप्त शासक हिंदू धर्म के संरक्षक थे, परंतु धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा ने बौद्ध और जैन धर्मों को भी भरपूर संरक्षण दिया। इसी शांत वातावरण में नालंदा विश्वविद्यालय उभरा - जहाँ से एशिया भर के विद्वान शिक्षा लेने आते थे। महायान बौद्ध धर्म का विशेष विकास नरसिंहगुप्त बालादित्य के समय में हुआ। समाज में जाति व्यवस्था अधिक औपचारिक हो गई, पर शिक्षा, कला और दर्शन अब भी सभी वर्गों के बीच सक्रिय रूप से पनपते रहे। नालंदा की पुस्तकालय प्रणाली, पाठ्यक्रम और वैश्विक प्रतिष्ठा आज भी गुप्त युग की बौद्धिक परंपरा का प्रमाण है।चंद्रगुप्त द्वितीय, गुप्त काल - धनुर्धर की आकृति वाला सिक्कागुप्त युग की मुद्रा प्रणाली और विज्ञान–प्रौद्योगिकीगुप्त काल का सिक्काशास्त्र भारतीय इतिहास का सबसे परिष्कृत अध्याय है। स्वर्ण दीनारों पर शासकों की विशिष्ट प्रतिमाएँ - धनुषधारी, अश्वारोही, रण-वीर - और गरुड़-चिह्न जैसी प्रतीक-परंपरा गुप्तों की कलात्मक दृष्टि को दर्शाती है। विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट का योगदान अद्वितीय है - पृथ्वी के घूर्णन का सिद्धांत, ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या और π (पाई) का मान उनके कालजयी कार्य हैं। वराहमिहिर की ‘पंचसिद्धांतिका’ भारतीय ज्योतिष और खगोल विज्ञान की नींवों को मजबूत करने वाला ग्रंथ है। चिकित्सा में ‘हस्तायुर्वेद’ और ‘नवनीतकम’ जैसे ग्रंथ इस युग की वैज्ञानिक प्रगति को दर्शाते हैं।संदर्भ -https://tinyurl.com/b286ekx6 https://tinyurl.com/bdf2u32m https://tinyurl.com/yz9kctfn https://tinyurl.com/5xsv2hyt https://tinyurl.com/33zjamw2
मेरठवासियों, आपने शायद महसूस किया होगा कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे शहर की थालियों और बाज़ारों में मशरूम की मौजूदगी कितनी तेजी से बढ़ी है। चाहे दिल्ली रोड के रेस्तरां हों, केंद्रीय बाज़ार की सब्ज़ी मंडियाँ हों, या फिर गंगानगर-शास्त्रीनगर की आधुनिक सुपरमार्केट - हर जगह मशरूम आधारित व्यंजन अब सामान्य और पसंदीदा विकल्प बन चुके हैं। पहले जहाँ इनका नाम सुनकर लगता था कि यह कोई महँगा, ‘मेट्रो-सिटी’ वाला विदेशी खाद्य पदार्थ है, वहीं अब मेरठ के घरों की रोज़मर्रा की रसोई में भी मशरूम सब्ज़ी, सूप, टिक्का और स्टिर-फ्राय की तरह अपनाए जा रहे हैं। लेकिन मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि यह मुलायम, सफेद या रंगीन टोपी जैसा दिखने वाला ढांचा असल में पौधा नहीं है? यह ‘फंगस’ यानी कवक है - और वह भी बेसिडिओमाइकोटा (Basidiomycota) नामक उस विशाल प्राकृतिक समूह का हिस्सा, जिसके सदस्य करोड़ों वर्षों से धरती के पारिस्थितिक संतुलन को सुरक्षित रखने का काम कर रहे हैं। यह तथ्य जितना वैज्ञानिक है, उतना ही रोचक भी, क्योंकि मशरूम का जीवन चक्र, इसकी सूक्ष्म संरचना और इसका विकास एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रकृति की अद्भुत रचनात्मकता छिपी हुई है।इस लेख में हम सबसे पहले, जानेंगे कि मशरूम क्या होते हैं और बेसिडिओमाइकोटा समूह से उनकी पहचान कैसे होती है। फिर, उनके प्रजनन तंत्र और बीजाणुओं के फैलाव की रोचक प्रक्रिया पर नज़र डालेंगे। हम देखेंगे कि प्रकृति में मशरूम सहजीवन, विघटन और पारिस्थितिक संतुलन में क्या भूमिका निभाते हैं। अंत में, भारत में पाए जाने वाले प्रमुख और उपयोगी मशरूम - जैसे बटन (button), ऑयस्टर (oyster), शिटाके (shitake) और रीशी (rishi) - का संक्षिप्त परिचय मिलेगा।मशरूम और बेसिडिओमाइकोटा: संरचना व जैविक पहचानमशरूम किसी पौधे या जानवर की तरह नहीं होते, बल्कि यह एक अत्यंत विकसित कवक समूह - बेसिडिओमाइकोटा - से संबंधित हैं। इनकी मूल संरचना जमीन के अंदर फैले महीन धागेनुमा तंतुओं से बनती है, जिन्हें हाइफ़े (Hyphae) कहा जाता है। यही हाइफ़े मिलकर मायसीलियम (mycelium) नामक जाल बनाते हैं, जो असल में कवक का असली शरीर है। हम जो मशरूम की टोपी देखते हैं, वह केवल बेसिडियोकार्प (Basidiocarp) या फलन-काय होता है, जिसका मुख्य उद्देश प्रजनन है। इस टोपी के नीचे विशेष कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें बेसिडिया (Basidia) कहते हैं। यहीं पर यौन प्रजनन द्वारा बेसिडियोस्पोर (Basidiospores) बनते हैं। इनकी संरचना किसी छतरी जैसी लगती है - ऊपर चिकनी टोपी, नीचे पंखुड़ीनुमा किनारे या नलिकाएँ, और नीचे मजबूत डंठल। यह पूरा ढांचा प्रकृति द्वारा इतनी खूबसूरती से विकसित किया गया है कि यह हवा, नमी और प्रकाश के अनुसार स्वयं को समायोजित कर लेता है। यही कारण है कि मशरूम केवल अपने अनुकूल वातावरण में ही दिखाई देते हैं - अक्सर नम, छायादार और सड़ते पत्तों वाली जगहों पर।मशरूमों का प्रजनन तंत्र और बीजाणुओं का प्रसारमशरूम का प्रजनन तंत्र प्रकृति की सबसे नयनाभिराम प्रक्रियाओं में से एक है। जब बेसिडिया (basidia) पर बीजाणु तैयार होते हैं, तो वे हवा में फैल जाते हैं। एक अकेला मशरूम हजारों से लेकर लाखों तक बीजाणु छोड़ सकता है। हवा इन्हें दूर-दूर तक ले जाती है; कभी-कभी छोटे कीट भी इनके वाहक बनते हैं, जैसा कि क्लैथ्रस रूबर (clathrus ruber) जैसी प्रजातियों में देखा जाता है। जब दो संगत बीजाणु आपस में मिल जाते हैं, तो वे नई हाइफ़े बनाते हैं और एक नया कवक जीवन शुरू होता है। यह प्रक्रिया शरद ऋतु और सर्दियों के दौरान सबसे अधिक सक्रिय रहती है। मशरूम के नीचे कागज़ रखकर ‘बीजाणु प्रिंट’ भी बनाया जा सकता है - जिसमें बीजाणुओं का गिरा हुआ पैटर्न अलग-अलग रंगों, आकारों और घनत्व द्वारा प्रजातियों की पहचान में मदद करता है। यह शौक वैज्ञानिकों और मशरूम संग्राहकों में काफी लोकप्रिय है।पारिस्थितिकी में मशरूमों की भूमिका: सहजीवन, अपघटन और परजीविताप्रकृति में मशरूम की भूमिका इतनी व्यापक है कि इनके बिना जंगल का जीवन अधूरा लगने लगे। सबसे पहले, कई मशरूम माइकोराइज़ा (Mycorrhiza) संबंध बनाते हैं - एक सहजीवी साझेदारी जिसमें मशरूम पेड़ों की जड़ों को खनिज व पानी उपलब्ध कराते हैं और बदले में पेड़ उन्हें कार्बोहाइड्रेट (carbohyderate) देता है। यह संबंध पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य माना जाता है। दूसरा, कई मशरूम सैप्रोफाइट होते हैं - ये मृत लकड़ी, गिरे हुए पत्ते, और जैविक कचरे को विघटित करते हैं। इन्हें प्रकृति का सफ़ाईकर्मी कहना बिल्कुल सही है, क्योंकि ये जंगलों को सड़ने से बचाते हैं और मिट्टी में फिर से पोषक तत्व लौटाते हैं। कुछ मशरूम परजीवी भी होते हैं, जो कमजोर पेड़ों या पौधों पर बढ़ते हैं और कभी-कभी उन्हें नुकसान भी पहुँचाते हैं। लेकिन पारिस्थितिकी में इनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह जंगलों की जैविक संतुलन प्रक्रिया का एक हिस्सा है।भारत में उगने वाले प्रमुख और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मशरूमभारत में मशरूम की खेती तेजी से बढ़ रही है और कई किस्में अब आसानी से उपलब्ध हैं। बटन मशरूम (Agaricus bisporus) सबसे लोकप्रिय और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण प्रजाति है। इसका हल्का स्वाद और नरम बनावट इसे घरों और होटलों दोनों में पसंदीदा बनाते हैं। ऑयस्टर मशरूम (Pleurotus spp.) अपनी पंखे के आकार की संरचना और कोमल स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। यह किसानों के लिए भी लाभकारी है क्योंकि इसकी खेती अपेक्षाकृत आसान है। शिटाके मशरूम, जिनकी उत्पत्ति पूर्वी एशिया में हुई, अब भारत में भी उगाए जा रहे हैं। इनका मांसल स्वाद इन्हें विशेष व्यंजनों में उपयोगी बनाता है। एनोकी मशरूम, अपने लंबे सफ़ेद डंठल और छोटे गोल सिर के साथ, भारतीय बाज़ारों में अब जगह बना रहे हैं—विशेषकर सूप और एशियाई व्यंजनों में। और सबसे अनोखे - रीशी मशरूम (Ganoderma lucidum) - जिन्हें “अमरता का मशरूम” कहा जाता है, अपने औषधीय गुणों के कारण स्वास्थ्य जगत में अत्यधिक सम्मानित हैं।संदर्भ-https://tinyurl.com/mrxkdnre https://tinyurl.com/2fc2ccss https://tinyurl.com/yc24ebuv https://tinyurl.com/39cvvc9p https://tinyurl.com/yp8a3fzt https://tinyurl.com/mwt4y4by
मेरठवासियों, बीते कुछ वर्षों में आपकी रोज़मर्रा की जिंदगी में एक ऐसा परिवर्तन धीरे-धीरे उतर आया है, जिसने न सिर्फ आपकी खरीदारी की आदतों को बदला है बल्कि शहर की आर्थिक, सामाजिक और उपभोक्ता संस्कृति को भी नई दिशा दी है - और यह परिवर्तन है क्विक कॉमर्स (Quick Commerce) का। कभी तत्काल जरूरतों का सहारा नौचंदी बाजार की भीड़भाड़ वाली गलियाँ, आबू लेन की चमकती दुकानें, या घर के कोने वाली भरोसेमंद किराना दुकानें ही हुआ करती थीं, जहाँ जाने के लिए आपको समय निकालना पड़ता था। लेकिन आज ब्लिंकिट (Blinkit), ज़ेप्टो (Zepto) और इंस्टामार्ट (Instamart) जैसी ऐप्स ने इस पूरे अनुभव को मिनटों की सुविधा में बदल दिया है। अब आधी रात को दवाई खत्म हो जाए, सुबह के नाश्ते के लिए ब्रेड अचानक याद आए, या बच्चों को तुरंत चिप्स चाहिए हों - तो 10-15 मिनट में सब कुछ आपकी दहलीज़ पर उपलब्ध हो जाता है। यह सुविधा जहाँ आपकी दिनचर्या को सहज, तेज़ और अनुकूल बना रही है, वहीं दूसरी ओर मेरठ के पारंपरिक व्यापार मॉडल, किराना दुकानों और स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए नए अवसरों और चुनौतियों का मिश्रण भी पैदा कर रही है। धीरे-धीरे यह बदलाव इतना व्यापक हो गया है कि क्विक कॉमर्स अब सिर्फ एक तकनीकी सुविधा नहीं, बल्कि मेरठ जैसे विकसित होते शहर की उपभोक्ता सोच, आधुनिक जीवनशैली और खरीदारी संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है - और इसी बदलाव को समझना आज ज़रूरी भी है और समयानुकूल भी।इस लेख में हम क्विक कॉमर्स के बदलते प्रभावों को सरल रूप में समझेंगे। सबसे पहले जानेंगे कि यह मॉडल ग्राहक व्यवहार को कैसे ‘ऑन-डिमांड’ (On Demand) सोच में बदल रहा है। फिर देखेंगे कि मेरठ के पारंपरिक किराना स्टोर्स पर इसका क्या असर पड़ा है - जहाँ यह बदलाव चुनौतियाँ और नए अवसर दोनों लेकर आया है। इसके बाद समझेंगे कि तेज़ डिलीवरी ने पारंपरिक ई-कॉमर्स (E-Commerce) रणनीतियों को कैसे बदलने के लिए मजबूर किया। अंत में, इसके प्रमुख फायदे और सीमाएँ जानेंगे, ताकि समझ सकें कि सुविधा के साथ यह मॉडल कौन-सी व्यावहारिक चुनौतियाँ भी लाता है। कुल मिलाकर, क्विक कॉमर्स मेरठ की खरीदारी शैली और बाज़ार व्यवस्था को तेज़ी से नई दिशा दे रहा है।क्विक कॉमर्स कैसे बदल रहा है ग्राहक व्यवहारक्विक कॉमर्स ने आज के उपभोक्ता व्यवहार को मूल रूप से बदल दिया है, क्योंकि अब ग्राहकों को तुरंत सुविधा पाने की आदत हो गई है। जहाँ पहले लोग किराना या किसी भी दैनिक वस्तु की खरीदारी सप्ताह में एक बार योजनाबद्ध तरीके से करते थे, वहीं अब ब्लिंकिट, ज़ेप्टो और इंस्टामार्ट जैसी ऐप्स ने “15 मिनट में डिलीवरी” को एक सामान्य अनुभव बना दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि ग्राहकों के भीतर “ऑन-डिमांड” मानसिकता विकसित हो गई है - यानी चीज़ें खत्म हों उससे पहले खरीदने की जगह, ज़रूरत पड़ते ही छोटे-छोटे ऑर्डर कर देना। इस बदलाव ने खरीदारी को पूरी तरह व्यवहार आधारित बना दिया है, जिसमें योजना की जगह तात्कालिकता हावी हो गई है। इसके साथ ही इम्पल्स बायिंग भी तेज़ी से बढ़ी है; अब फ़िल्म देखते-देखते अचानक पॉपकॉर्न मंगवा लेना या रात में मीठे की इच्छा होना और तुरंत ऑर्डर कर देना पूरी तरह सामान्य हो चुका है। इतना ही नहीं, क्विक कॉमर्स ने लोगों की अपेक्षाओं को अन्य उद्योगों तक भी बढ़ा दिया है - अब ग्राहक दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, ब्यूटी प्रोडक्ट्स (beauty products) और घरेलू सामान में भी मिनटों की गति की उम्मीद करने लगे हैं। कुल मिलाकर, यह सेवा न केवल सुविधा दे रही है, बल्कि उपभोक्ता की सोच, व्यवहार, अपेक्षाओं और दैनिक आदतों को ही नए तरीके से आकार दे रही है।भारत के किराना स्टोर्स पर क्विक कॉमर्स का प्रभावक्विक कॉमर्स ने भारत के पारंपरिक किराना स्टोर्स के सामने एक जटिल स्थिति पैदा कर दी है। सदियों से ये दुकानें मोहल्लों की रीढ़ मानी जाती थीं, लेकिन ऐप-आधारित सेवाओं ने उनके ग्राहक आधार को काफी हद तक प्रभावित किया है। लोग अब छोटी-छोटी आवश्यकता भी ऑनलाइन मँगवा लेते हैं, जिससे फुटफॉल में गिरावट देखने को मिल रही है। साथ ही, बड़े क्विक कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स भारी डिस्काउंट और तेज़ सेवा देकर ग्राहकों को आकर्षित करते हैं, जिसका मुकाबला छोटे दुकानदारों के लिए आसान नहीं है। कई दुकानदार डिजिटल संचालन, इन्वेंट्री मैनेजमेंट (inventory management) या ऐप-इंटीग्रेशन (app-integration) जैसी तकनीकों में सहज नहीं होते, जिससे प्रतिस्पर्धा और कठिन हो जाती है। हालांकि, यह पूरी कहानी नकारात्मक नहीं है - कई किराना स्टोर्स अब क्विक कॉमर्स ब्रांड्स के पार्टनर बनकर माइक्रो-फुलफ़िल्मेंट सेंटर (micro-fulfilment center) के रूप में काम करने लगे हैं, जिससे उन्हें अतिरिक्त कमाई और नए ग्राहक मिल रहे हैं। कुछ दुकानदार ऑनलाइन ऑर्डरिंग सिस्टम (online ordering system) अपना रहे हैं और अपनी खुद की होम-डिलीवरी शुरू कर रहे हैं। यानी, क्विक कॉमर्स ने चुनौतियाँ तो पैदा की हैं, लेकिन साथ ही किराना स्टोर्स को डिजिटल रूप से विकसित होने और आधुनिक व्यापार व्यवस्था में अपनी जगह बनाने का अवसर भी दिया है।पारंपरिक ई-कॉमर्स पर क्विक कॉमर्स का प्रभावई-कॉमर्स पिछले एक दशक तक ऑनलाइन शॉपिंग का पर्याय बना रहा, लेकिन क्विक कॉमर्स के आने के बाद इस मॉडल को भी अपनी रणनीति और डिलीवरी सिस्टम में बड़े बदलाव करने पड़े। पहले जहाँ ग्राहक 2-3 दिन की डिलीवरी को सामान्य मानते थे, वहीं क्विक कॉमर्स ने “डिलीवरी इन मिनट्स” (delivery in minute) की संस्कृति बना दी, जिससे ई-कॉमर्स कंपनियों पर तेज़ डिलीवरी देने का दबाव बढ़ गया। इसके चलते पारंपरिक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म अब लोकल डार्क स्टोर्स बना रहे हैं, तेज़ डिस्पैच यूनिट्स और उच्च-स्तरीय लॉजिस्टिक्स सिस्टम स्थापित कर रहे हैं। उन्होंने सेकंड-डे डिलीवरी (second-day delivery) से बढ़कर 2-4 घंटे की डिलीवरी और “सेम-डे एक्सप्रेस डिलिवरी” (same-day express delivery) सेवाएँ शुरू करनी पड़ीं। एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि ई-कॉमर्स कंपनियाँ अब बड़े कैटलॉग के साथ-साथ केवल आवश्यक वस्तुओं के लिए विशेष तेज़ डिलीवरी सेगमेंट बना रही हैं, ताकि वे क्यू-कॉमर्स के दबाव का सामना कर सकें। इसके अतिरिक्त स्विगी-इंस्टामार्ट और ज़ोमैटो-ब्लिंकिट जैसी साझेदारियाँ दर्शाती हैं कि पारंपरिक ई-कॉमर्स और क्विक कॉमर्स के बीच अब प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग की नई रणनीतियाँ भी विकसित हो रही हैं। यह स्पष्ट है कि क्विक कॉमर्स ने पूरे ऑनलाइन रिटेल सिस्टम की दिशा और गति को ही बदल दिया है।क्विक कॉमर्स के प्रमुख फायदेक्विक कॉमर्स का सबसे बड़ा लाभ इसकी बेजोड़ सुविधा है। जब अचानक रात में बच्चे के डायपर खत्म हो जाएँ, गैस स्टोव पर दूध उबलते-उबलते खत्म हो जाए, दवा की तुरंत ज़रूरत हो, या मेहमानों के आने पर स्नैक्स कम पड़ जाएँ - इन सभी स्थितियों में 10-15 मिनट की डिलीवरी एक राहत की तरह काम करती है। यह सेवा आधुनिक जीवन की तेज़ रफ्तार और अनिश्चित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है, इसलिए यह युवाओं और व्यस्त परिवारों दोनों के बीच तेजी से लोकप्रिय हुई है। इसके अलावा क्विक कॉमर्स ने अभिगम्यता बढ़ाई है, क्योंकि अब शहरों में लगभग हर जरूरत की उत्पाद - मूलभूत किराना से लेकर प्रीमियम गॉरमेट आइटम (Premium Gourmet Items) तक - तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं। इस उद्योग ने रोज़गार के कई अवसर भी पैदा किए हैं, जिसमें डिलीवरी पार्टनर्स, वेयरहाउस स्टाफ (warehouse staff), टेक सपोर्ट (tech support) और डेटा एनालिटिक्स (data analytics) से जुड़े अनेक पद शामिल हैं। डायरेक्ट-टू-कस्टमर ब्रांड्स (Direct-2-Customer Brands) के लिए यह एक वरदान साबित हुआ है, क्योंकि उनके उत्पाद बिना किसी मध्यस्थ के विशाल ग्राहक समूह तक तेज़ी से पहुँचते हैं। कुल मिलाकर क्विक कॉमर्स सुविधा, गति और तकनीकी दक्षता का एक ऐसा मिश्रण है जिसने शहरी उपभोक्ताओं की दिनचर्या को सरल और सुगम बना दिया है।क्विक कॉमर्स के प्रमुख नुकसान और चुनौतियाँफायदों के साथ-साथ क्विक कॉमर्स कई गंभीर चुनौतियाँ भी पैदा करता है, जिन पर नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी समस्या इसका अत्यधिक महंगा और कम-लाभ वाला बिजनेस मॉडल (business model) है - तेज़ डिलीवरी के लिए भारी इंफ्रास्ट्रक्चर, मोटी मानव-शक्ति और महंगे माइक्रो-वेयरहाउस (micro-warehouse) की जरूरत होती है, जो कंपनियों की लागत बढ़ाता है। इसके अलावा डिलीवरी पार्टनर्स पर अत्यधिक दबाव पड़ता है; समय सीमा पूरी करने के लिए उन्हें तेज़ गति से चलना पड़ता है, जिससे दुर्घटनाओं और सुरक्षा जोखिम बढ़ जाते हैं। पर्यावरण के लिए भी यह मॉडल चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि तेज़ डिलीवरी के लिए लगातार वाहनों की आवाजाही, पैकेजिंग कचरा और ऊर्जा खपत बढ़ती है। इससे कार्बन फुटप्रिंट में वृद्धि होती है। क्विक कॉमर्स अनावश्यक खरीदारी को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि तत्काल उपलब्धता ग्राहक को ऐसे उत्पाद लेने के लिए प्रेरित करती है जिनकी उन्हें वास्तव में ज़रूरत नहीं होती। डिजिटल डिपेंडेंसी भी एक समस्या है - जहाँ इंटरनेट या स्मार्टफोन नहीं है, वहाँ लोग इससे लाभ नहीं उठा पाते, जिससे डिजिटल असमानता बढ़ती है। डेटा प्राइवेसी (data privacy) का जोखिम भी मौजूद है, क्योंकि कंपनियाँ उपयोगकर्ताओं की लोकेशन, पसंद और खरीदारी आदतों का बड़ा डेटा संग्रह करती हैं। इस प्रकार, क्विक कॉमर्स जितनी सुविधा देता है, उतनी ही सोच-समझकर उपयोग की मांग भी करता है।संदर्भ-https://tinyurl.com/33ppjy39 https://tinyurl.com/3j3xthka
मेरठवासियों, हमारे शहर की रफ़्तार और ऊर्जा पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मशहूर है। चौड़ी होती सड़कों, बढ़ते वाहनों और आधुनिक परिवहन साधनों के बीच आज मेरठ भी उसी बदलाव के दौर में है, जो पूरे भारत में सड़क सुरक्षा के लिए नई सोच की मांग कर रहा है। हाल के वर्षों में देशभर में सड़क दुर्घटनाओं के बढ़ते आँकड़ों ने सभी को चिंतित किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब स्वचालित वाहनों का युग आएगा, तब क्या हमारी सड़कों पर दुर्घटनाओं की संख्या घटेगी या और नई चुनौतियाँ जन्म लेंगी? इस बदलते समय में यह समझना ज़रूरी है कि भारत की वर्तमान स्थिति क्या है और भविष्य की राह किस दिशा में जा रही है।आज के इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में सड़क सुरक्षा की मौजूदा स्थिति क्या है और स्वचालित वाहनों के बढ़ते दौर में यह कैसी दिशा ले रही है। शुरुआत करेंगे देश में सड़क दुर्घटनाओं के ताज़ा आँकड़ों से, फिर समझेंगे कि सरकार सड़क सुरक्षा को लेकर क्या ठोस कदम उठा रही है। इसके बाद देखेंगे कि वाहन इंजीनियरिंग और ड्राइवर प्रशिक्षण कैसे सड़क सुरक्षा की बुनियाद बनते हैं। आगे बढ़ते हुए, स्वचालित वाहनों के युग में बदलते परिदृश्य और उनसे जुड़ी नई चुनौतियों पर बात करेंगे। अंत में, लिडार लेज़र (LIDAR Laser) जैसी आधुनिक तकनीकों और भविष्य की सुरक्षा योजनाओं पर नज़र डालेंगे, जो आने वाले समय में हमारी सड़कों को और सुरक्षित बना सकती हैं।भारत में सड़क दुर्घटनाओं की वर्तमान स्थिति और प्रमुख आँकड़ेभारत में सड़क दुर्घटनाओं की स्थिति अब भी गंभीर चिंता का विषय है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में देशभर में 4,12,432 सड़क दुर्घटनाएँ दर्ज की गईं, जिनमें 1,53,972 लोगों ने अपनी जान गंवाई, जबकि 3,84,448 लोग घायल हुए। कोविड-19 महामारी के दौरान लॉकडाउन के चलते 2020 में दुर्घटनाओं में अस्थायी कमी आई थी, परंतु 2021 में जैसे-जैसे देश सामान्य स्थिति में लौटा, दुर्घटनाओं का ग्राफ फिर से बढ़ा। हालांकि, 2019 की तुलना में 2021 में दुर्घटनाओं में 8.1% की कमी और घायलों में 14.8% की कमी देखी गई, लेकिन मौतों में 1.9% की वृद्धि यह दर्शाती है कि समस्या अब भी गहरी है। मेरठ जैसी तेज़ी से बढ़ती आबादी वाले शहरों में, जहां दोपहिया और चारपहिया वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, ये आँकड़े हमें सचेत करते हैं कि सड़क सुरक्षा को अब प्राथमिकता देनी ही होगी।सड़क सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रमुख उपायभारत सरकार ने सड़क सुरक्षा के लिए बहु-आयामी रणनीति अपनाई है, जिसमें शिक्षा, इंजीनियरिंग, प्रवर्तन और आपातकालीन देखभाल के चार स्तंभ शामिल हैं। सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा “सड़क सुरक्षा के संदर्भ में की गई कार्यवाही के लिए वित्तीय सहायता का अनुदान” जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं, जिनके तहत सड़क सुरक्षा से जुड़े संगठनों को सहयोग दिया जाता है। साथ ही, मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम 2019 ने यातायात नियमों के उल्लंघन पर कड़े दंड लागू किए हैं, जिससे लापरवाह ड्राइविंग पर अंकुश लग सके। सड़क सुरक्षा मानकों को पारदर्शी बनाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा रहा है, जिससे भ्रष्टाचार में कमी और डेटा रिपोर्टिंग में सटीकता आई है। मेरठ में भी प्रशासन द्वारा जागरूकता अभियानों और यातायात नियंत्रण के नए उपाय अपनाए जा रहे हैं ताकि शहर की सड़कों पर दुर्घटनाओं की संभावना कम हो।वाहन इंजीनियरिंग और ड्राइवर प्रशिक्षण की भूमिकाकिसी भी देश में सड़क सुरक्षा की नींव वाहन की संरचना और चालक की दक्षता पर टिकी होती है। भारत में अब वाहन इंजीनियरिंग के मानकों को लगातार अद्यतन किया जा रहा है ताकि वाहन टक्कर या पलटने जैसी घटनाओं में यात्रियों को अधिकतम सुरक्षा मिल सके। इसके साथ ही, ड्राइवर लाइसेंसिंग (Driver Licensing) और प्रशिक्षण प्रणाली को मजबूत करने के लिए देशभर में इंस्टीट्यूट्स ऑफ़ ड्राइविंग ट्रेनिंग एंड रिसर्च (आईडीटीआर - IDTR) केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं। इन संस्थानों में चालक को न केवल ड्राइविंग सिखाई जाती है, बल्कि सड़क सुरक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और आपात स्थिति में सही निर्णय लेने की शिक्षा भी दी जाती है। मेरठ जैसे व्यस्त शहर में, जहाँ ट्रैफिक का दबाव अधिक है, ऐसे प्रशिक्षण संस्थान बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वाहन निर्माता भी अब ऐसे डिजाइन पर काम कर रहे हैं जो चालक को बेहतर दृश्यता, ब्रेकिंग सिस्टम और सुरक्षा उपकरण प्रदान करें।स्वचालित वाहनों के युग में सड़क दुर्घटनाओं का संभावित परिदृश्यअब बात करते हैं भविष्य की - जब सड़कों पर स्वचालित वाहन (Automated Vehicles) आम हो जाएंगे। इन वाहनों से उम्मीद की जाती है कि मानव त्रुटियों के कारण होने वाली दुर्घटनाएँ काफी हद तक कम होंगी। किंतु वास्तविकता यह भी है कि स्वचालित तकनीक पूरी तरह त्रुटिरहित नहीं है। अमेरिका में 2020 से 2022 के बीच आंशिक स्वचालित नियंत्रण वाले वाहनों से जुड़ी लगभग 400 दुर्घटनाएँ दर्ज हुईं। कई बार सवाल उठता है - यदि बिना चालक के वाहन से दुर्घटना होती है तो जिम्मेदारी किसकी होगी?भारत में जब स्वचालित वाहनों का प्रसार होगा, तब मेरठ जैसी शहरों की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ट्रैफिक के व्यवहार को समझना और उससे तकनीक को अनुकूल बनाना बड़ी चुनौती होगी। इसलिए अभी से नीति निर्माताओं और इंजीनियरों को ऐसे नियम और तकनीकी समाधान तैयार करने होंगे जो मनुष्य और मशीन दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।तकनीकी सुधार, लिडार लेज़र और भविष्य की सुरक्षा रणनीतियाँभविष्य की सड़क सुरक्षा, लिडार लेज़र, सेंसर, और एआई आधारित निर्णय प्रणाली पर निर्भर करेगी। लिडार लेज़र तकनीक सड़क पर मौजूद वस्तुओं, वाहनों और पैदल यात्रियों की सटीक पहचान करती है, जिससे स्वचालित वाहन बेहतर निर्णय ले सकते हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय राजमार्ग यातायात सुरक्षा प्रशासन जैसी संस्थाएँ अब स्वचालित वाहनों के लिए नए मूल्यांकन मानक विकसित कर रही हैं। भारत में भी इसी दिशा में अनुसंधान और परीक्षण जारी हैं। यदि यह तकनीक सफलतापूर्वक लागू हुई, तो आने वाले दशक में मेरठ सहित पूरे देश की सड़कें और अधिक सुरक्षित, स्मार्ट और अनुशासित बन सकती हैं।संदर्भ-https://bit.ly/40UwMFQ https://bit.ly/40QQ7r7 https://tinyurl.com/3za7cdyt
मेरठवासियों, आप सभी जानते हैं कि हमारा शहर सिर्फ खेल, शिक्षा और बाज़ारों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की सबसे गर्वीली मिट्टी के रूप में भी जाना जाता है। मेरठ छावनी - जो आज भी शहर की पहचान का एक बड़ा हिस्सा है एक ऐसा ऐतिहासिक स्थल है जिसने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी को जन्म दिया। लेकिन इस छावनी की कहानी सिर्फ विद्रोह तक सीमित नहीं है; इसकी जड़ें 1803 से शुरू होती हैं, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) ने मेरठ पर नियंत्रण स्थापित किया। आज इस लेख में हम एक सरल, मानवीय और मेरठ-केन्द्रित शैली में समझेंगे कि कैसे हमारा शहर अंग्रेज़ी राज की रणनीतियों का केंद्र बना, छावनी कैसे विकसित हुई, कौन-कौन से स्थल आज भी इतिहास को जीवित रखते हैं, और वह रहस्यमयी ‘चपाती आंदोलन’ क्या था जिसने विद्रोह का संदेश पूरे उत्तर भारत में फैला दिया।आज हम सबसे पहले जानेंगे कि मुगल पतन के बाद मेरठ कैसे स्थानीय सरदारों के अधीन रहा और फिर 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में कैसे आया। इसके बाद, हम मेरठ छावनी की स्थापना, उसकी सैन्य संरचना और शहर के विकास पर उसके प्रभाव को समझेंगे। फिर हम छावनी के प्रमुख ऐतिहासिक आकर्षणों - शहीद स्मारक, औगढ़नाथ मंदिर और स्वतंत्रता संग्रहालय - का परिचय लेंगे। हम मेरठ में मौजूद ब्रिटिशकालीन वास्तुकला जैसे सेंट जॉन चर्च (St. John's Church) और गांधी बाग की झलक देखेंगे। और अंत में, हम उस रहस्यमय “चपाती आंदोलन” के बारे में जानेंगे जिसे कई इतिहासकार 1857 विद्रोह का मौन संदेशवाहक मानते हैं।फेंगेस, फ्रांस के पास मार्च पर मेरठ कैवलरी ब्रिगेडमेरठ का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आना: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि18वीं सदी के उत्तरार्ध में जब मुगल साम्राज्य अपनी शक्ति खो रहा था, तब उत्तर भारत की राजनीतिक तस्वीर तेजी से बदल रही थी। मेरठ भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं रहा। यहाँ स्थानीय जाट, सैय्यद और गुर्जर सरदारों का प्रभाव लगातार बढ़ता गया और कई क्षेत्रों में जाट प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी दौरान सरधना का एक बड़ा हिस्सा वॉल्टर रेनहार्ड्ट (Walter Reinhardt) (समरू) के नियंत्रण में था, जिसने इस क्षेत्र की सत्ता संरचना को और जटिल बना दिया। दूसरी ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मराठों के साथ हुए लगातार युद्धों के बाद उत्तर भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थी। 1803 में सुरजी-अंजुनगांव संधि के बाद मेरठ पूरी तरह अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। दिल्ली के समीप होने और गंगा-यमुना के उपजाऊ दोआब में स्थित होने के कारण यह क्षेत्र अंग्रेज़ों के लिए रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक - तीनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण था। यही वह क्षण था जिसने मेरठ को उत्तर भारत के सबसे प्रभावशाली सैन्य केंद्रों में बदलने की शुरुआत की।व्हेलर क्लबमेरठ छावनी की स्थापना (1803) और सैन्य महत्व1803 में ब्रिटिशों ने मेरठ छावनी की स्थापना की और इसे कुछ ही वर्षों में उत्तर भारत की सबसे सुदृढ़ तथा योजनाबद्ध सैन्य छावनियों में बदल दिया। लगभग 3,500 हेक्टेयर के विशाल क्षेत्र में फैली इस छावनी को तीन बड़े हिस्सों - इन्फ़ैन्ट्री (Infantry) लाइन्स, कैवेलरी (Cavalry) लाइन्स और रॉयल आर्टिलरी (Royal Artillery) लाइन्स - में व्यवस्थित रूप से विकसित किया गया। यहाँ सैनिकों के आवास, विशाल परेड ग्राउंड, प्रशिक्षण परिसर, चर्च, मैस, अस्पताल, गोदाम, बैरकें और अधिकारियों के बंगलों का निर्माण तेजी से हुआ। जैसे-जैसे सैन्य प्रतिष्ठान बढ़ते गए, उसके साथ ही मेरठ शहर की शहरी संरचना में भी बड़ा बदलाव आया। बाद में यहाँ स्थापित रीमाउंट एंड वेटरनरी कॉर्प्स (Remount & Veterinary Corps - RVC) केंद्र ने मेरठ को सैन्य-पशु प्रबंधन और अनुसंधान का केंद्र बना दिया। समय के साथ यह छावनी सिर्फ सैन्य गतिविधियों का स्थान नहीं रही, बल्कि मेरठ के सामाजिक, आर्थिक और आधुनिक विकास की नींव बन गई - और यह वही जगह बनी जहां से 1857 की चिंगारी भड़की जिसने इतिहास बदल दिया।सेंट जॉन्स चर्च, मेरठमेरठ छावनी के प्रमुख ऐतिहासिक और पर्यटन आकर्षणमेरठ छावनी आज भी इतिहास, विरासत और देशभक्ति का ऐसा संगम है जो हर आगंतुक को अपनी ओर खींच लेता है। यहाँ स्थित शहीद स्मारक 1857 के उन वीरों को समर्पित है जिन्होंने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ सबसे पहले स्वर उठाया। इस स्मारक का शांत परिसर और उसकी दीवारों पर अंकित बलिदानों की गाथाएँ हर आगंतुक को भीतर तक छू जाती हैं। औगढ़नाथ मंदिर - जिसे स्थानीय लोग काली पलटन मंदिर भी कहते हैं - वह स्थान है जहाँ विद्रोहियों ने पहली बार कारतूसों के मुद्दे पर खुलकर विरोध किया था। यह मंदिर आज भी मेरठ के लोगों की आस्था और गर्व का एक अद्भुत प्रतीक है। पास ही स्थित स्वतंत्रता संघर्ष संग्रहालय में 1857 के दुर्लभ दस्तावेज़, पत्र, हथियार, पेंटिंग्स और संस्मरण संरक्षित हैं, जो उस दौर को जीवंत रूप में सामने लाते हैं। इन सबके अलावा छावनी में फैली पुरानी पेड़-पंक्तियाँ, घुमावदार सड़कें और ऐतिहासिक इमारतें इस क्षेत्र को एक विशिष्ट और समयरहित आकर्षण देती हैं।मेरठ छावनी में 'मॉल रोड'मेरठ में ब्रिटिश वास्तुकला के प्रमाण: चर्च, उद्यान और औपनिवेशिक ढाँचेमेरठ छावनी की औपनिवेशिक वास्तुकला आज भी 19वीं सदी की शांति, अनुशासन और विन्यास को जीवंत रूप में दिखाती है। सेंट जॉन चर्च (1819–1821), जिसकी निओ-गॉथिक शैली और शांत परिसर अपनी प्राचीनता से ही मन को आकर्षित करते हैं, यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण धरोहरों में से एक है। इसके अंदर की ऊँची छतें, लकड़ी का आकर्षक इंटीरियर (interior) और बाहरी कब्रिस्तान में मौजूद 1857 के शहीदों और अंग्रेज़ी सैनिकों की कब्रें इतिहास की कई कहानियाँ समेटे हुए हैं। गांधी बाग, जिसे पहले कंपनी गार्डन कहा जाता था, औपनिवेशिक युग में मनोरंजन और टहलने के लिए बनाया गया एक बड़ा हरा-भरा उद्यान था। आज भी यह मेरठ छावनी का सबसे लोकप्रिय सार्वजनिक स्थल है। छावनी क्षेत्र के बंगलों, सैनिक आवासों, चौड़ी सड़कों, लाल-ईंटों वाली इमारतों और पेड़ों से घिरे मार्गों में अंग्रेज़ी वास्तुकला की विशिष्ट शैली दिखाई देती है - जो यह बताती है कि मेरठ कभी ब्रिटिश प्रशासन का एक अहम केंद्र हुआ करता था।गांधी बाग, मेरठ‘चपाती आंदोलन’ (1857): उत्तर भारत का रहस्यमय संकेत-तंत्र1857 के विद्रोह से ठीक पहले पूरे उत्तर भारत में एक अजीब और रहस्यमय गतिविधि देखी गई जिसे अंग्रेज़ों ने ‘चपाती आंदोलन’ नाम दिया। रात के समय एक व्यक्ति गाँव के चौकीदार को कई चपातियाँ देकर अगले गाँवों तक पहुँचाने को कहता था, और चौकीदार बिना सवाल किए यह काम दूसरों को सौंप देता था। खास बात यह थी कि किसी को यह तक नहीं पता था कि यह चपातियाँ बनवा कौन रहा है या उनका उद्देश्य क्या है। ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट के अनुसार यह चपातियाँ इतनी तेज़ी से फैल रही थीं कि उनकी डाक-व्यवस्था भी पीछे रह जाए। अंग्रेज़ आदमियों ने कई महीनों तक इसकी जांच की, पर कोई भी स्पष्ट संदेश या षड्यंत्र नहीं मिला। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि यह आंदोलन ग्रामीण इलाकों में असंतोष, बेचैनी और एकता का अप्रत्यक्ष संदेश था जिसने 1857 के विद्रोह के माहौल को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह घटना आज भी भारतीय इतिहास का एक रहस्यमय अध्याय बनी हुई है - जहाँ चपातियाँ विद्रोह की एक मौन, लेकिन प्रभावशाली चेतावनी की तरह पूरे उत्तर भारत में घूमती रहीं।संदर्भ -https://tinyurl.com/ypnzz9ah https://tinyurl.com/2p9n33s3 https://tinyurl.com/2edtyn6j https://tinyurl.com/yckur8pm https://tinyurl.com/jp3rnest https://tinyurl.com/mufy42zp
आज मेरठ की महिलाएँ हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। चाहे फैक्टरियों में काम करना हो, निर्माण स्थलों पर मेहनत करनी हो, या फिर सेवा क्षेत्र में अपने कौशल से योगदान देना हो, महिलाएँ अब समाज के हर हिस्से में दिखाई देती हैं। ऐसे में यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उनके अधिकारों और सुरक्षा के लिए हमारे श्रम क़ानून क्या कहते हैं। भारत का संविधान इन कामकाजी महिलाओं को कई विशेष अधिकार देता है, जो उन्हें न सिर्फ़ कार्यस्थल पर सुरक्षा प्रदान करते हैं, बल्कि सम्मान और समान अवसर भी सुनिश्चित करते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका हमेशा से बेहद अहम रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में लगभग 14.98 करोड़ महिला श्रमिक कार्यरत हैं। इनमें से बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों से आती है, लेकिन मेरठ जैसे अर्ध-शहरी इलाकों में भी महिलाएँ अब बड़ी संख्या में कार्यबल का हिस्सा बन रही हैं। शहर के उद्योग, शिक्षण संस्थान और सेवा क्षेत्र महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के साक्षी हैं।आज हम विस्तार से जानेंगे कि मेरठ की कामकाजी महिलाएँ किन श्रम कानूनों के तहत सुरक्षित और सम्मानित महसूस करती हैं, मातृत्व अवकाश और कार्यस्थल सुविधाएँ उनके जीवन को कैसे आसान बनाती हैं, व्यावसायिक प्रशिक्षण उनके आत्मविश्वास और आर्थिक स्वतंत्रता में कैसे मदद करता है, और इन सभी पहलुओं ने कैसे उन्हें हर क्षेत्र में सक्रिय, आत्मनिर्भर और समाज में सम्मानित बनाया है।श्रम क़ानून और महिलाओं की सुरक्षासरकार ने महिलाओं की सुरक्षा और कल्याण के लिए कई नियम बनाए हैं। फ़ैक्टरी अधिनिय (Factories Act) 1948 के तहत महिलाओं को ऐसे काम करने की अनुमति नहीं है, जिनसे उनके स्वास्थ्य या सुरक्षा को नुकसान पहुँच सकता है। उदाहरण के तौर पर, जब भारी मशीनें चल रही हों, तो महिलाएँ मशीनरी के पुर्ज़ों की सफ़ाई या मरम्मत का काम नहीं कर सकतीं। यह नियम किसी भी प्रकार की दुर्घटना से बचाव के लिए है। मेरठ के औद्योगिक इलाकों जैसे पार्टापुर, मोदीपुरम और मलियाना में इन नियमों का पालन कड़ाई से किया जाता है ताकि कामकाजी महिलाओं को सुरक्षित वातावरण मिले। साथ ही, महिलाओं को उन जगहों पर काम करने से भी रोका गया है जहाँ कपास दबाने या धूल और धुएँ से जुड़ा जोखिम अधिक होता है।रात में काम पर रोकक़ानून के अनुसार महिलाएँ केवल सुबह छह बजे से शाम सात बजे के बीच ही फैक्टरियों में काम कर सकती हैं। 1966 के बीड़ी और सिगार श्रमिक अधिनियम (Beedi and Cigar Workers Act) में भी यही प्रावधान है। 1952 का खान अधिनियम (Mines Act) महिलाओं को केवल ज़मीन से ऊपर की खदानों में इन समय सीमाओं के भीतर काम करने की अनुमति देता है। मेरठ में कई निजी और सरकारी संस्थान इस नियम का पालन करते हैं ताकि महिलाएँ देर रात की पालियों से जुड़ी किसी भी सुरक्षा समस्या से दूर रहें।भूमिगत कार्य और मातृत्व अवकाश1952 के खान अधिनियम के अनुसार, महिलाओं को किसी भी भूमिगत खदान में काम करने की अनुमति नहीं है। वहीं 1961 का मातृत्व लाभ अधिनियम गर्भवती कामकाजी महिलाओं को छह महीने तक का अवकाश देता है। यह छुट्टी बच्चे के जन्म से पहले या बाद में ली जा सकती है। इस अवधि में महिला को पूरा वेतन दिया जाता है। मेरठ की कई शिक्षण संस्थाएँ और औद्योगिक इकाइयाँ अब इस क़ानून का पालन करते हुए मातृत्व अवकाश का पूरा लाभ प्रदान कर रही हैं। इससे महिलाएँ बिना किसी चिंता के अपने परिवार और कार्य, दोनों में संतुलन बना पा रही हैं।कार्यस्थल पर सुविधाएँ और सम्मानश्रम क़ानून यह भी सुनिश्चित करते हैं कि महिलाओं को कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाएँ मिलें। अलग शौचालय और मूत्रालय की व्यवस्था संविदा श्रम अधिनियम 1970 और कारख़ाना अधिनियम 1948 में अनिवार्य की गई है। धुलाई और कपड़े बदलने की सुविधा भी कानून द्वारा आवश्यक मानी गई है ताकि महिलाएँ स्वच्छ और सम्मानजनक वातावरण में काम कर सकें। बाल देखभाल केंद्र या क्रेच (crèche) की व्यवस्था वहाँ की जाती है जहाँ बड़ी संख्या में महिलाएँ कार्यरत हों। इससे महिलाएँ अपने छोटे बच्चों की देखभाल को लेकर निश्चिंत रहती हैं और पूरे मन से अपने काम पर ध्यान दे सकती हैं। मेरठ के कई औद्योगिक और कॉर्पोरेट दफ़्तर अब ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे हैं, जिससे महिलाओं का आत्मविश्वास और उत्पादकता दोनों बढ़ रहे हैं।महिला प्रशिक्षण और आत्मनिर्भरतामहिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भारत सरकार ने कई प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए हैं। रोजगार एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय (Directorate General of Employment and Training) के अंतर्गत चलने वाला महिला व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम इस दिशा में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर में कई संस्थान कार्यरत हैं जैसे नोएडा में राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान और मुंबई, बेंगलुरु, तिरुवनंतपुरम, कोलकाता, इलाहाबाद और इंदौर में क्षेत्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान।मेरठ की महिलाएँ भी इन कार्यक्रमों का लाभ उठा रही हैं। शहर में कई निजी संस्थान सिलाई, कंप्यूटर संचालन, डेटा विश्लेषण और डिजिटल मार्केटिंग (Digital Marketing) जैसे आधुनिक कौशलों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। इन पहलों ने अनेक महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत और आत्मनिर्भर बनने में मदद की है।मेरठ की महिलाओं की बदलती तस्वीरआज मेरठ की महिलाएँ केवल घर तक सीमित नहीं रहीं। वे शिक्षा, प्रशासन, उद्योग, स्वास्थ्य सेवा और खेल के क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। श्रम क़ानूनों ने उन्हें सुरक्षा और अधिकारों की वह नींव दी है जिस पर वे आत्मविश्वास के साथ अपने सपनों की इमारत खड़ी कर रही हैं। इन क़ानूनों ने न केवल उनके जीवन की दिशा बदली है, बल्कि समाज में समानता और सम्मान की भावना को भी मज़बूत किया है।संदर्भhttps://tinyurl.com/zdpnp6ahhttps://tinyurl.com/rneuubcr
भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे अद्भुत विशेषताओं में से एक यह है कि यह मौसम, वातावरण और मानव मन - तीनों को गहराई से प्रभावित करता है। हमारे यहां राग केवल सुरों का मेल नहीं होते, बल्कि ऋतु, प्रकृति और भावनाओं के साथ जुड़े जीवंत अनुभव होते हैं। परंपराओं में कहा गया है कि “राग ऋतु के स्वभाव के अनुरूप रचे जाते हैं”, इसलिए हर मौसम का अपना विशिष्ट संगीत माना गया है। जैसे वर्षा का पवित्र उल्लास मल्हार में मिलता है, शरद की शांति भैरव में, वसंत की कोमलता हिंडोल में और सर्दियों की गंभीर-सुशांत ऊर्जा मालकौस में महसूस होती है।राग मालकौस, जिसे मालकोश भी कहा जाता है, भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे प्राचीन और आध्यात्मिक रागों में स्थान रखता है। कर्नाटक संगीत में यही राग हिंडोलम नाम से गाया जाता है। इसके नाम की उत्पत्ति भी अत्यंत रोचक है - मल और कौशिक का संयोजन, जिसका आशय है “वह जो नागों को माला की तरह धारण करता है”, यानी भगवान शिव। कथा है कि माता सती के अग्नि-बलिदान के बाद जब महादेव प्रलयकारी क्रोध में तप रहे थे, तब देवी पार्वती ने उन्हें शांत करने के लिए राग मालकौस की रचना की थी। इसीलिए इस राग में एक अद्भुत गहराई, स्थिरता और अधिभौतिक शक्ति का अनुभव मिलता है।इतना ही नहीं, जैन परंपरा में भी राग मालकौस का विशेष महत्व है। माना जाता है कि तीर्थंकर समवसरण में जब अर्धमागधी भाषा में देशना देते थे, तब इसी राग का प्रयोग किया जाता था, जिससे वातावरण में शांति और ग्रहणशीलता बनी रहती थी।इस प्रकार राग मालकौस केवल एक संगीत-रचना नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक धरोहर का वह जीवंत स्वर है, जो सर्दियों की नीरवता, रात की गहराई और मन की अंतर्मुखता को सुरों में पिरोकर श्रोता के हृदय तक पहुंचाता है।संदर्भ- https://tinyurl.com/5avpj8v6https://tinyurl.com/6fd3bfjx
मेरठवासियों, क्या आपको याद हैं वो दिन जब गाँव के मेले में या किसी स्कूल के कार्यक्रम में रंग-बिरंगी कठपुतलियाँ अपनी डोरियों पर झूमती थीं? कभी राजा बनकर न्याय करतीं, तो कभी किसी किसान या जोकर की आवाज़ बनकर समाज की सच्चाई बयां करतीं। बच्चे तालियाँ बजाते थे, बड़े मुस्कुराते थे - लेकिन इन पलों में सिर्फ़ हँसी नहीं, एक गहरी सीख भी छिपी होती थी। यही तो थी हमारी कठपुतली कला - मनोरंजन और जीवन-दर्शन का अद्भुत संगम। मेरठ जैसे सांस्कृतिक शहर में, जहाँ लोकनाट्य, कवि सम्मेलनों और नाट्य मंचों की परंपरा आज भी जीवित है, कठपुतली कला भी कभी लोक जीवन का अहम हिस्सा रही है। यह केवल नाचती या बोलती हुई गुड़िया नहीं थी - बल्कि हमारी संस्कृति, इतिहास और समाज की आवाज़ थी, जो बिना उपदेश दिए लोगों के दिलों तक पहुँचती थी। एक समय था जब मेरठ के आसपास के गाँवों में यह कला लोक शिक्षा और जागरूकता का माध्यम बनकर उभरती थी - बच्चों को नैतिकता, बड़ों को एकता और समाज को परिवर्तन का संदेश देती हुई। आज जब मोबाइल की स्क्रीन ने हमारे मनोरंजन की दुनिया को सीमित कर दिया है, तब लगता है जैसे वो डोरियाँ जो कभी कहानियों को जीवंत बनाती थीं, धीरे-धीरे ढीली पड़ रही हैं। पर क्या यह कला सचमुच गायब हो रही है - या बस हमारी नज़रों से ओझल हो गई है? इसी सवाल के साथ आइए, इस लेख में हम खोज करते हैं कठपुतली कला के उस समृद्ध इतिहास की जो सदियों से भारत की आत्मा का हिस्सा रही है। जानेंगे इसके उद्भव और धार्मिक महत्व के बारे में, लोक रंगमंच और शिक्षा में इसकी भूमिका को समझेंगे, भारत की विभिन्न क्षेत्रीय कठपुतली शैलियों का परिचय पाएँगे, इंडोनेशिया की वेयांग (Wayang) कुलित से इसके वैश्विक संबंध को देखेंगे, कारीगरों की पारंपरिक तकनीकों को जानेंगे, और अंत में इस कला के पुनर्जागरण की ज़रूरत पर विचार करेंगे।भारतीय परंपरा में कठपुतली कला का उद्भव और ऐतिहासिक महत्वकठपुतली भारत की सबसे पुरानी नाट्य कलाओं में से एक है। माना जाता है कि यह कला 500 ईसा पूर्व से भी पहले अस्तित्व में थी। ‘सिलप्पदिकारम’ जैसी प्राचीन तमिल कृति में कठपुतली के उल्लेख मिलते हैं, और ‘नाट्यशास्त्र’ के ‘सूत्रधार’ शब्द से भी इसके गहरे दार्शनिक अर्थ जुड़ते हैं। प्राचीन भारत में कठपुतली केवल मनोरंजन नहीं थी, बल्कि एक प्रतीकात्मक शिक्षा प्रणाली थी - जहाँ कलाकार ईश्वर की भूमिका निभाते थे, और कठपुतलियाँ मनुष्य के जीवन की प्रतीक बनती थीं। भारतीय दार्शनिकों ने इसे ब्रह्मांडीय नियंत्रण का रूपक माना, जैसे ईश्वर सूत्रधार है और हम उसकी डोरियों से संचालित पात्र हैं। इस प्रकार, कठपुतली कला न केवल लोकसंस्कृति की उपज है, बल्कि दार्शनिक गहराई से भरा एक आध्यात्मिक प्रदर्शन भी है।लोक रंगमंच और शिक्षा में कठपुतली की भूमिकाभारतीय समाज में कठपुतली सदियों से जनसंचार और लोकशिक्षा का सशक्त माध्यम रही है। पुराने समय में समाचार, नैतिक कहानियाँ और धार्मिक संदेश कठपुतली नाटकों के माध्यम से गाँव-गाँव पहुँचाए जाते थे। समय के साथ, यह कला सामाजिक जागरूकता अभियानों का हिस्सा बनी - चाहे वह पर्यावरण संरक्षण का सन्देश हो या स्वच्छता अभियान। कई शिक्षण संस्थान अब विकलांग बच्चों के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास के लिए कठपुतली को एक चिकित्सीय माध्यम के रूप में अपनाते हैं। शब्द, संगीत, रंग और गति के मिश्रण से यह कला बच्चों में आत्मविश्वास और रचनात्मकता को विकसित करती है। मेरठ जैसे सांस्कृतिक नगरों में लोक कलाकारों द्वारा आज भी इसका उपयोग जागरूकता फैलाने के लिए किया जाता है - जिससे यह कला आधुनिक समय में भी प्रासंगिक बनी हुई है।भारत की विविध क्षेत्रीय कठपुतली परंपराएँ और उनकी विशेषताएँभारत के हर कोने की कठपुतली की अपनी एक पहचान है। राजस्थान की "कठपुतली" अपनी चमकीली पोशाक और लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है, वहीं ओडिशा की "कुंडहेई" हल्की लकड़ी से बनी लचीली डोरियों से नियंत्रित होती है। कर्नाटक की "गोम्बेयट्टा" और तमिलनाडु की "बोम्मालट्टम" अपनी यक्षगान और नाट्य परंपरा से प्रेरित हैं - जिनमें डोरियों और छड़ों दोनों का उपयोग किया जाता है। पूर्वी भारत में "पुतुल नाच" (पश्चिम बंगाल) और "यमपुरी" (बिहार) छड़ आधारित कठपुतलियों के रूप में जानी जाती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश की दस्ताना कठपुतलियाँ हाथ से संचालित होती हैं और सामाजिक विषयों पर केंद्रित रहती हैं। यह विविधता भारत की सांस्कृतिक गहराई और रचनात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है - जहाँ हर क्षेत्र अपनी पहचान को डोरियों में पिरोता है।इंडोनेशिया की वेयांग कुलित: भारतीय छाया कठपुतली की वैश्विक समानताभारतीय छाया कठपुतली परंपरा की गूंज इंडोनेशिया तक पहुँची है। वहाँ की प्रसिद्ध "वेयांग कुलित" कला यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर घोषित की गई है। यह कला जावा और बाली द्वीपों में सदियों से जीवित है, जहाँ बकरी या भैंस की खाल से बनी कठपुतलियाँ पर्दे के पीछे दीपक की रोशनी से छाया बनाकर कथा कहती हैं। इसकी कहानियाँ भी रामायण और महाभारत से प्रेरित हैं - जो भारत और इंडोनेशिया के सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाती हैं। "वेयांग" शब्द का अर्थ ही ‘छाया’ है, जो भारतीय परंपरा की आत्मा को जीवित रखता है। इन कठपुतलियों को बनाने की प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म होती है - महीनों तक खाल को परिष्कृत कर, रंगों और सोने की पत्तियों से सजाया जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कला ने न केवल अपनी भूमि पर, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया में भी सांस्कृतिक पुल का निर्माण किया।कठपुतली निर्माण की पारंपरिक तकनीकें और कारीगरों की कलाकठपुतली निर्माण स्वयं में एक जटिल और रचनात्मक कला है। राजस्थान, कर्नाटक और ओडिशा के कारीगर लकड़ी, भैंस की खाल और कपड़े का उपयोग करते हैं। रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है, और कई बार इन्हें सोने या कांस्य पत्तियों से सजाया जाता है। कठपुतलियों की गतिशीलता उनके जोड़ और डोरियों पर निर्भर करती है - जिन्हें महीनों की मेहनत से सटीकता के साथ तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर इन डोरियों को "आत्मा की डोर" कहा जाता है, जो जीवन और कला के बीच के संबंध का प्रतीक है। इस कला में हर कठपुतली एक कहानी कहती है, और हर कारीगर अपनी रचना में अपना जीवन समर्पित करता है।आधुनिक युग में कठपुतली कला का संरक्षण और पुनर्जागरण की आवश्यकताडिजिटल युग में कठपुतली कला के सामने अस्तित्व का संकट है। टेलीविज़न, सोशल मीडिया (Social Media) और एनीमेशन (Animation) के युग में लोककला धीरे-धीरे हाशिये पर जा रही है। लेकिन जौनपुर जैसे सांस्कृतिक नगरों में कई विद्यालय और संगठन इस परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए पहल कर रहे हैं। कठपुतली कार्यशालाएँ, विद्यालयों में शैक्षिक नाटक, और लोक कलाकारों के सम्मान समारोह इस दिशा में सकारात्मक कदम हैं। हमें समझना होगा कि कठपुतली केवल एक नाटक नहीं, बल्कि हमारी लोक आत्मा की अभिव्यक्ति है। यदि इसे नई पीढ़ी से जोड़ा जाए, तो यह कला फिर से मंच पर लौट सकती है - और शायद पहले से अधिक जीवंत रूप में।संदर्भ -https://tinyurl.com/mvs2awya https://tinyurl.com/dwp94a58 https://tinyurl.com/47vvd5kh https://tinyurl.com/yn73njke
मेरठवासियों, अगर आपके भीतर रोमांच की चाह, प्रकृति की शांति और पर्वतों की भव्यता को देखने का जुनून है, तो कंचनजंगा की यात्रा आपके जीवन के सबसे यादगार अनुभवों में से एक बन सकती है। हमारे मेरठ में भी ऐसे कई यात्री और पर्वत-प्रेमी हैं, जो हर साल हिमालय की ओर निकल पड़ते हैं - इन्हीं में कंचनजंगा का नाम सबसे अलग और सबसे सम्मानित रूप से लिया जाता है। दुनिया का तीसरा सबसे ऊँचा पर्वत होने के कारण इसका आकर्षण तो स्वाभाविक है, लेकिन इसकी पहचान सिर्फ ऊँचाई में ही नहीं बसती; यह पर्वत अपने भीतर आध्यात्मिक गहराई, पौराणिक मान्यताएँ और एक अनोखी प्राकृतिक विरासत समेटे हुए है। स्थानीय समुदाय कंचनजंगा को केवल एक पर्वत नहीं, बल्कि एक जीवित संरक्षक मानते हैं - एक ऐसी पवित्र शक्ति, जो उनके जीवन, संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा है। पर्वत के आसपास की घाटियों में फैली रहस्यमय धुंध, सुबह के सूरज की किरणों में चमकती हिम - चादरें, और दूर तक फैली सन्नाटे भरी शांति, हर यात्री को भीतर तक छू जाती है। शायद यही कारण है कि जो लोग यहाँ पहुँचते हैं, वे केवल एक यात्रा नहीं करते - वे एक अनुभव जीते हैं, एक भाव महसूस करते हैं, एक ऐसी जगह की ऊर्जा से जुड़ते हैं जो शब्दों में पूरी तरह बयान भी नहीं की जा सकती।
आज हम इस लेख में सबसे पहले, हम जानेंगे कंचनजंगा पर्वत का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व, इसके नाम की उत्पत्ति और स्थानीय मान्यताओं के साथ। इसके बाद, हम कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान की भौगोलिक विशेषताओं और जैव-विविधता को समझेंगे। फिर, हम कंचनजंगा की पाँच प्रमुख चोटियों और आसपास स्थित अन्य शिखरों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। आगे बढ़ते हुए, हम कंचनजंगा परिसर के मुख्य पर्यटन स्थलों - युकसोम, त्सोंगो झील, नाथूला दर्रा, पेलिंग और लाचुंग - के बारे में जानेंगे। अंत में, हम कंचनजंगा ट्रेक्किंग अभियान की चुनौतियों और आवश्यक तैयारियों पर नज़र डालेंगे, जिससे आप समझ सकें कि यह यात्रा किस तरह की तैयारी मांगती है।
कंचनजंगा पर्वत और इसका ऐतिहासिक–सांस्कृतिक महत्त्व
कंचनजंगा पर्वत, जिसका नाम तिब्बती मूल के शब्द ‘कांग-चेन-दज़ो-नगा’ या ‘यांग-छेन-दज़ो-नगा’ से लिया गया है, का अर्थ “बर्फ़ के पाँच महान खज़ाने” माना जाता है। 8,586 मीटर ऊँचा यह पर्वत, हिमालय की श्रृंखला में एक असाधारण स्थान रखता है। सिक्किम के स्थानीय समुदायों के लिए यह पर्वत केवल एक प्राकृतिक संरचना नहीं बल्कि आस्था का केन्द्र है। बौद्ध परंपराओं में वर्णित ‘बेयुल’ और लेप्चा लोगों की मान्यताओं के अनुसार कंचनजंगा आध्यात्मिक शक्ति और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। कई धार्मिक अनुष्ठान और पर्वतीय परंपराएँ इसी पर्वत से प्रेरित हैं, जो इसके सांस्कृतिक महत्व को और भी मजबूत बनाती हैं।

कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान की भौगोलिक विशेषताएँ और जैव-विविधता
सिक्किम की हिमालयी श्रृंखला के मध्य में स्थित कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान, 1,78,400 हेक्टेयर में फैला एक विशाल प्राकृतिक भू-क्षेत्र है। 7 किलोमीटर से अधिक की अद्वितीय ऊर्ध्वाधर चौड़ाई के साथ, यह उद्यान मैदानों, झीलों, हिमनदों और ऊँचे बर्फीले पर्वतों से मिलकर बना है। इस क्षेत्र की जैव-विविधता इतनी समृद्ध है कि इसे वैश्विक जैव-संपदा संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यहां पाई जाने वाली वनस्पतियों और स्तनधारियों की प्रजातियाँ मध्य और उच्च एशिया के पर्वतीय क्षेत्रों में दर्ज सबसे अधिक संख्या में से हैं। यही नहीं, पक्षियों की भी बड़ी संख्या यहां निवास करती है। प्राकृतिक विविधता के साथ-साथ, इस भूमि से जुड़े पौराणिक विश्वास और सांस्कृतिक धरोहर, इसे एक अनोखी पहचान देते हैं।

कंचनजंगा की पाँच प्रमुख चोटियाँ और अन्य शिखर
यह पूरा पर्वत-परिसर पाँच प्रमुख चोटियों का एक अद्भुत समूह है, जिनकी भव्यता इसे हिमालय का एक विशिष्ट और पवित्र पर्वत बनाती है। कंचनजंगा की मुख्य चोटी 8,586 मीटर की ऊँचाई के साथ विश्व की तीसरी सबसे ऊँची चोटी है, और इसके साथ खड़ी कंचनजंगा पश्चिम (8,505 मीटर), कंचनजंगा मध्य (8,482 मीटर), कंचनजंगा दक्षिण (8,494 मीटर) और कांगबाचेन (7,903 मीटर) मिलकर एक विशाल पर्वतीय दीवार सी बनाती हैं। इनमें से तीन चोटियाँ सिक्किम - नेपाल सीमा पर स्थित हैं, जबकि दो पूरी तरह से नेपाल के तापलेजंग जिले में आती हैं। इन ऊँचे शिखरों की उपस्थिति ही इस क्षेत्र को इतना रहस्यमय और आकर्षक बनाती है, लेकिन इसके आसपास स्थित बारह अन्य चोटियों का समूह इसकी सुंदरता को कई गुना और बढ़ा देता है। ये सहायक शिखर न केवल पूरे पर्वत-पट्टी को संतुलित रूप देते हैं, बल्कि पर्वतारोहियों और प्रकृति-प्रेमियों को एक अद्भुत, बहु-स्तरीय हिमालयी अनुभव भी प्रदान करते हैं, जहाँ हर दिशा में सिर्फ हिम, बादल और मौन की अनंतता फैली दिखाई देती है।
कंचनजंगा परिसर के प्रमुख पर्यटन स्थल
कंचनजंगा के आस-पास ऐसे कई स्थल हैं जो हर यात्री को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

कंचनजंगा ट्रेक्किंग अभियान की चुनौतियाँ और आवश्यक तैयारी
कंचनजंगा का ट्रेक्किंग अभियान दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण पर्वत अभियानों में गिना जाता है। लगभग दस सप्ताह तक चलने वाला यह अभियान मौसम की अनिश्चितताओं से भरा रहता है। मानसून में यहाँ भारी बर्फ़बारी और बर्फ़ीले तूफ़ान आम हैं। सर्दियों में बर्फ़बारी थोड़ी कम होती है, लेकिन मौसम हमेशा अप्रत्याशित बना रहता है। 8,000 मीटर से ऊपर की कठिन क्षैतिज चढ़ाई, पतली हवा, हिमस्खलन और तकनीकी मार्ग - ये सभी चुनौतियाँ इसे एक जटिल अभियान बनाती हैं। इसलिए उन्नत पर्वतारोहण कौशल, उच्च-स्तरीय पर्वतारोहण अनुभव, उत्कृष्ट शारीरिक क्षमता और विशेष शीतकालीन गियर अनिवार्य हैं। कई पर्वतारोही इसे एवरेस्ट से भी अधिक कठिन मानते हैं, जो इसकी कठोरता का प्रमाण है।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/4ak8hkkv
https://tinyurl.com/ykuscrcs
https://tinyurl.com/55ztnnnf
https://tinyurl.com/3sxdbf6r
https://tinyurl.com/yw9n7dmz
मेरठवासियों, हमारी तेज़ी से बदलती शहरी ज़िंदगी ने सिर्फ़ हमारे रहने-सहने के तरीके को नहीं, बल्कि उन नन्हे जीवों को भी गहराई से प्रभावित किया है जो कभी हमारे घरों, छज्जों और आँगनों की रोज़मर्रा की धड़कन हुआ करते थे। उन्हीं प्यारे साथियों में से एक है गौरैया। वह छोटी-सी चहकती चिड़िया, जिसकी मधुर आवाज़ सुबह की हवा में घुलकर मोहल्लों को जगा देती थी, अब धीरे-धीरे हमारे आसपास से गायब होने लगी है। कंक्रीट की ऊँची इमारतें, बंद रसोई, शोर, प्रदूषण और बदलते मौसम ने मिलकर उसकी दुनिया को संकुचित कर दिया है। हम सबने महसूस किया है कि वह परिचित फड़फड़ाहट, वह दाने चुगने की सादगी और वह चहचहाहट अब रोज़ सुनाई नहीं देती।
आज हम सबसे पहले समझेंगे कि आधुनिक शहरों में गौरैया अचानक क्यों और कैसे गायब होने लगी है, और यह स्थिति भारत के साथ पूरी दुनिया में क्यों चिंता का विषय बन चुकी है। इसके बाद, हम गौरैया की गिरती संख्या के प्रमुख कारणों को सरल भाषा में जानेंगे - जैसे कीटनाशक, कंक्रीट घर, भोजन और घोंसलों की कमी। आगे, हम गौरैया और मनुष्य के प्राचीन तथा भावनात्मक रिश्ते की झलक पाएँगे, जिससे समझ आएगा कि यह पक्षी हमारी संस्कृति में कितना गहराई से बसता है। अंत में, हम यह भी देखेंगे कि अपने घर, बगीचे और आसपास छोटी-छोटी कोशिशों से हम उसे वापस कैसे बुला सकते हैं।
आधुनिक शहरों में गौरैया का गायब होना: भारत और विश्व की चिंताजनक स्थिति
पिछले कुछ दशकों में गौरैया दुनिया की कई बड़ी और पुरानी बस्तियों से लगभग अदृश्य होती चली गई है। यूरोप, एशिया और अमेरिका के शोध संस्थानों ने इस पक्षी को अपनी “कमी वाले” या “रेड-लिस्ट के नज़दीक” श्रेणी में दर्ज किया है, क्योंकि उनकी आबादी में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। भारत में भी यही चिंता साफ़ दिखाई देती है - दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों में गौरैया की संख्या अचानक गिर गई, जहाँ कभी यह सबसे आम दिखने वाला पक्षी था। मेरठ जैसे पुराने, संस्कृति-समृद्ध शहर भी इस बदलाव से अछूते नहीं बचे। शहर का फैलता कंक्रीट, ऊँची इमारतें, सील्ड फ्लैट्स (sealed flats) और ऐसी आधुनिक डिज़ाइन जिनमें हवा और रोशनी तो आती है, पर पक्षियों के लिए कोई जगह नहीं - इन सबने गौरैया के लिए घोंसला बनाने की सबसे जरूरी शर्तें खत्म कर दीं। जहाँ कभी खिड़कियों के कोने, छतों की लकड़ी या कच्ची दीवारें उसके घर हुआ करते थे, अब वहाँ चिकनी सतहें और लोहे-काँच की संरचनाएँ हैं, जो उसके लिए बिल्कुल अनुपयोगी साबित होती हैं। यही कारण है कि गौरैया आधुनिक शहरों से चुपचाप गायब होती चली गई, और हमें इसका एहसास तब हुआ, जब उनकी चहक हमारे कानों तक पहुँचनी बंद हो गई।
गौरैया क्यों कम हो रही है? घर, भोजन और प्राकृतिक कीड़ों की कमी
गौरैया की कमी किसी एक कारण की देन नहीं, बल्कि शहरी जीवन के कई छोटे-बड़े परिवर्तनों का संयुक्त परिणाम है। आधुनिक घरों का निर्माण ऐसे तरीके से होने लगा है कि उनमें वे छोटी दरारें, खुली खिड़कियाँ, अर्ध-पक्के कोने या लकड़ी की बीम नहीं होतीं, जिन पर गौरैया आसानी से घोंसला बना सके। पहले ग्रामीण और कस्बाई रसोईघरों में चूल्हे चलते थे, जहाँ से दानों के टुकड़े, अनाज के कण और छोटी-छोटी खाद्य सामग्री गिरती रहती थी; यह सब गौरैया के लिए प्राकृतिक भोजन की तरह था। अब गैस-कनेक्शन, बंद किचन और पैक्ड फूड (packed food) ने वह सारा बिखराव समाप्त कर दिया है, जो उसके लिए महत्वपूर्ण था। कीटनाशकों ने खेतों और बागों में कीड़ों की संख्या को बेहद घटा दिया है, जबकि गौरैया के बच्चों का भोजन 80% से अधिक इन्हीं छोटे कीटों पर निर्भर होता है। इसके अलावा, शहरी जीवन का शोर, प्रदूषण, धातु का कचरा, निर्माण धूल और लगातार बदलता माइक्रो-हैबिटेट (micro-habitat) गौरैया की प्राकृतिक आदतों के पूरी तरह खिलाफ़ है, जिससे वह अपने ही शहरों में अनुकूल वातावरण खोजने में असमर्थ हो गई है।
गौरैया और मनुष्य का प्राचीन रिश्ता: इतिहास से आज तक
गौरैया का मनुष्य से रिश्ता सिर्फ़ सह-अस्तित्व का नहीं, बल्कि भावनाओं, यादों और संस्कृति का है। यह छोटा-सा पक्षी हजारों साल से मनुष्य की छतों, खेतों और दीवारों के साथ जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि रोमनों ने भी गौरैया को यूरोप के दूसरे हिस्सों में पहुँचाने में भूमिका निभाई, क्योंकि उन्हें यह पक्षी सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक लगता था। भारत में भी गौरैया बच्चों की कविताओं, माँ-बाप की कहानियों, और गाँव-शहरों के रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा रही है। पुराने मकानों, लकड़ी की छतों और मिट्टी के चूल्हों में यह ऐसे रहती थी, जैसे परिवार की छोटी सदस्य हो। मेरठ जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहरों में तो यह हर सुबह की आवाज़ का हिस्सा थी - खिड़की की जाली पर बैठकर फुदकना, आँगन में दाना चुगना, और बच्चों के पीछे-पीछे घूमना। आज जब यह नहीं दिखती, तो उसकी अनुपस्थिति सिर्फ़ एक पर्यावरणीय बदलाव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक रिक्तता भी महसूस होती है।
गर्मी, जलसंकट और प्रदूषण: जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव
तेज़ी से बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव छोटे पक्षियों पर सबसे पहले और सबसे गंभीर रूप में पड़ा है। गौरैया का शरीर बहुत छोटा होता है, इसलिए वह गर्मी में जल्दी पानी गंवा देती है और जल्दी निर्जलित हो जाती है। पहले शहरों और गाँवों में छोटे-छोटे जलस्रोत, टोंटियाँ, गीली मिट्टी, कुएँ, पनघट और छतों पर रखे मिट्टी के घड़े होते थे, जहाँ से वह आसानी से पानी पी लेती थी। आज ऐसे स्रोत धीरे-धीरे गायब हो चुके हैं। शहरी हीट-आइलैंड (Heat-Island) प्रभाव, भारी ट्रैफ़िक, धुआँ, धूल और लगातार बढ़ता तापमान उसकी शारीरिक क्षमता से कहीं अधिक है। यही कारण है कि गर्मियों के दिनों में कई पशु चिकित्सालयों और रेस्क्यू सेंटरों में पंख झुलस चुके, प्यास से कमजोर और प्रदूषण से प्रभावित गौरैया लाई जाती हैं। यह सब मिलकर बताता है कि बदलता मौसम उसके अस्तित्व के लिए कितना खतरनाक बन चुका है।
गौरैया को वापस बुलाने के सरल और व्यावहारिक कदम
अगर इंसान चाहे तो गौरैया को वापस बुलाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए किसी बड़े बजट, बड़े प्रोजेक्ट या सरकारी योजना की आवश्यकता नहीं - सिर्फ़ हमारे छोटे-छोटे प्रयास ही काफी हैं। अपने घर की बालकनी या छत पर दाना-पानी रखना, मिट्टी की छोटी कटोरी में साफ पानी भरकर रखना, या कोई उथला बाउल लगाना गौरैया के लिए जीवनदान जैसा है। इसके अलावा, गमलों में तुलसी, बाजरा, मेहंदी, जंगली घास या स्थानीय पौधे लगाकर हम उसे प्राकृतिक भोजन और कीट उपलब्ध करा सकते हैं। लकड़ी के नेस्ट-बॉक्स (nest-box), छत के किसी शांत कोने में सुरक्षित जगह, या दीवार पर एक छोटा घोंसला छेद भी उसके लिए घर जैसा माहौल बना सकता है। जब एक मोहल्ला मिलकर ये छोटे कदम उठाता है, तो कुछ ही महीनों में गौरैया की वापसी साफ दिखाई देने लगती है। मनुष्य और प्रकृति के बीच रिश्ते की मरम्मत यहीं से शुरू होती है।
गौरैया के पारिस्थितिक फायदे: प्रकृति में उसकी अनदेखी भूमिका
गौरैया छोटे आकार की है, पर उसका महत्व किसी बड़े पर्यावरणीय घटक से कम नहीं। यह खेतों और बगीचों में मौजूद कई प्रकार के कीटों को खाती है, जिससे प्राकृतिक कीट नियंत्रण होता है और फसलें स्वस्थ रहती हैं। यह बीज फैलाकर जैव विविधता को बढ़ावा देती है, और बगीचों में नए पौधों और घासों को उगने का अवसर देती है। शहरों में भी गौरैया छोटा लेकिन जरूरी संतुलन बनाए रखती है - यदि कीटों और छोटे जीवों की संख्या अनियंत्रित हो जाए, तो पौधों और वातावरण पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसलिए गौरैया का लौटना सिर्फ़ एक पक्षी का लौटना नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र का पुनर्जीवन है। जहाँ गौरैया लौटती है, वहाँ पेड़, पौधे, कीट, हवा - सब धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगते हैं। वास्तव में यह प्रकृति की ओर से मिलने वाला संकेत है कि शहर फिर से जीवन के अनुकूल बन रहा है।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3OvvDhf
https://bit.ly/3RZ7gLG
https://tinyurl.com/4425yya8
जब ऐतिहासिक स्मारकों की बात होती है, तो क़ुतुब मीनार और उसके आसपास का परिसर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुकला विरासत का एक अद्वितीय प्रतीक है। यह स्थल न केवल भारत की धार्मिक विविधता का आईना है, बल्कि विभिन्न ऐतिहासिक कालों और शासकों के योगदान का भी प्रमाण है। यहाँ हिंदू, जैन और इस्लामी स्थापत्य का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है, जो इस स्मारक को विशेष बनाता है। क़ुतुब मीनार सिर्फ एक विशाल मीनार नहीं है, बल्कि इसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के माध्यम से हमें उस समय की राजनीति, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक प्रथाओं की भी जानकारी मिलती है। फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे ये शिलालेख न केवल मीनार के निर्माण की कहानी बयां करते हैं, बल्कि शासकों के नाम, उनके उपाधियों और मीनार निर्माण में लगे समय की भी जानकारी देते हैं। इसके साथ ही, यहाँ उकेरी गई क़ुरान की आयतें और लौह स्तंभ जैसी संरचनाएँ इस स्थल की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।
आज हम क़ुतुब मीनार और उसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के इतिहास और स्थापत्य कला के संगम को जानेंगे। ये शिलालेख सिर्फ स्थापत्य की मिसाल नहीं हैं, बल्कि इतिहास की कई कहानियाँ भी बताते हैं। कुछ शिलालेख महत्वपूर्ण घटनाओं और शासकों की जानकारी देते हैं, तो कुछ फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे हैं, जो अपनी भाषा और शैली की वजह से खास हैं। लौह स्तंभ और क़ुरान की आयतें इस स्थल की सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।
क़ुतुब मीनार परिसर में पाए जाने वाले प्रमुख शिलालेख
क़ुतुब मीनार परिसर में मौजूद शिलालेख इस स्मारक की पूरी कहानी को बयां करते हैं। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर पर की गई नक्काशी, ज्यामितीय और अरबस्क डिज़ाइन, और हिंदू व जैन स्थापत्य प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, इल्तुतमिश का मक़बरा, जो 1235 ईस्वी में बनाया गया था, लाल बलुआ पत्थर का साधारण चौकोर कक्ष है। इसके प्रवेश द्वारों और भीतरी हिस्सों पर सारासेनिक शैली में उकेरे गए शिलालेख और नक्काशी मौजूद हैं, जो उस समय की स्थापत्य शैली और शासक की महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक हैं। अलाई दरवाज़ा, जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का दक्षिणी प्रवेश द्वार है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा हिजरी 710 (ई.स. 1311) में निर्मित किया गया था। वहीं, अलाई मीनार, जो क़ुतुब मीनार के उत्तर में स्थित है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पहले की मीनार से दुगना ऊँचा बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन केवल इसकी पहली मंज़िल ही पूरी हो सकी। ये सभी शिलालेख और निर्माण कार्य उस समय के राजनीतिक और स्थापत्य महत्व को बखूबी दर्शाते हैं।
फ़ारसी-अरबी और नागरी लिपियों का ऐतिहासिक महत्व
क़ुतुब मीनार पर उकेरे गए फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख इस स्मारक की निर्माण कथा को स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं। फ़ारसी और अरबी लिपियों में नस्क़ह शैली की इस्लामी कैलीग्राफ़ी में शासकों के नाम, उनके उपाधियाँ और निर्माण काल दर्ज हैं। ये शिलालेख न केवल मीनार की भव्यता को दर्शाते हैं, बल्कि उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक परिपाटियों का भी प्रमाण हैं। वहीं, नागरी लिपि में लिखे शिलालेख, जैसे “पृथ्वी निरप,” चौहान राजपूत शासक पृथ्वीराज का संकेत देते हैं। ये शिलालेख हमें उस समय के राजनीतिक परिदृश्य और स्थानीय शासकों की पहचान के बारे में जानकारी देते हैं। फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख, दोनों ही स्थापत्य और ऐतिहासिक जानकारी का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं, जो मीनार और उसके परिसर के महत्व को और बढ़ाते हैं।
लौह स्तंभ और इसके शिलालेख
क़ुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ भी एक अद्भुत ऐतिहासिक संरचना है। इसे चौथी शताब्दी में विष्णुपद पहाड़ी पर भगवान विष्णु के ध्वज के रूप में स्थापित किया गया था। इसके शीर्ष पर गरुड़ की मूर्ति भी स्थापित थी। यह स्तंभ लगभग 98 प्रतिशत लोहे का है और आज तक इसमें जंग नहीं लगी है, जो उसकी उन्नत धातु विज्ञान तकनीक को दर्शाता है। लौह स्तंभ पर मौजूद शिलालेख राजा चंद्र की स्मृति और चंद्रगुप्त मौर्य द्वितीय से संबंधित विवरण देते हैं, जिससे यह स्तंभ लगभग 375-415 ईस्वी का माना जाता है। इसके अलावा, इस पर बाद के काल में 1052 ई. (संवत 1109), 1515 ई., 1523 ई., 1710 ई., 1826 ई., और 1831 ई. की तिथियों में भी शिलालेख दर्ज किए गए हैं। ये सभी शिलालेख भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों का प्रतीक हैं और इस परिसर की ऐतिहासिक समृद्धि को दर्शाते हैं।
क़ुरान की आयतें और अन्य उकेरे गए विवरण
क़ुतुब मीनार के विभिन्न हिस्सों पर उकेरी गई क़ुरान की आयतें और अन्य शिलालेख भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। मीनार की छठी मंज़िल पर छह क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिन पर नस्क़ह शैली में क़ुरान की आयतें, ग़ियाथ अल-दीन और मु'इज्ज़ अल-दीन की उपाधियाँ अंकित हैं। इसमें सूरा II (आयतें 255-260), सूरा LIX (आयतें 22-23) और सूरा XLVIII (आयतें 1-6) शामिल हैं। कुछ शिलालेखों में मोहम्मद ग़ोरी और घ़ोरीद सुलतान की प्रशंसा भी की गई है। ये आयतें और शिलालेख न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि उस समय के शासन और स्थापत्य कला की समझ भी प्रदान करते हैं। इनके माध्यम से हम यह जान सकते हैं कि मीनार और उसके आसपास के निर्माण कार्य केवल भव्य स्थापत्य तक सीमित नहीं थे, बल्कि उनमें धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी समाहित थे।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/4fwv37wy
https://tinyurl.com/yc6prmjj
https://tinyurl.com/3nfw8sxj
https://tinyurl.com/48f9k6ww
https://tinyurl.com/4xhwzpyw
शीत अयनांत (Winter Solstice) एक खगोलीय घटना है, जिसमें उत्तरी गोलार्ध में वर्ष का सबसे छोटा दिन और सबसे लंबी रात होती है। आज के दिन पृथ्वी की धुरी सूर्य से अधिकतम दूरी की ओर झुकी रहती है और सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं। इस दिन सूर्य आकाश में काफी नीचे दिखाई देता है, जिससे दिन की अवधि कम हो जाती है और शाम जल्दी हो जाती है। शीत अयनांत को सर्दियों की आधिकारिक शुरुआत माना जाता है और इसके बाद दिन धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं, इसलिए इसे अंधकार के बाद प्रकाश की वापसी का प्रतीक भी समझा जाता है।
डल झील, श्रीनगर की शान और कश्मीर के मुकुट का अनमोल रत्न, अपने हर रूप में मन मोह लेती है, लेकिन इसका सूर्यास्त देखने का अनुभव किसी जादू से कम नहीं। शाम ढलते ही जब आसमान के रंग सुनहरे, नारंगी और गुलाबी आभा में बदलने लगते हैं और झील का शांत पानी उन रंगों को अपने भीतर समेट लेता है, तब डल झील एक जीवंत चित्र की तरह चमक उठती है। रंग-बिरंगी शिकारे पानी की सतह पर तैरते हुए दिखाई देते हैं, जिनमें बैठे लोग इस शांत और रोमांटिक वातावरण में पूरी तरह खो जाते हैं। हर तरफ मुस्कानें, हँसी की गूंज और शीतल हवा की नरम थपकियाँ - सब मिलकर उस पल को अविस्मरणीय बना देते हैं।
सूर्यास्त के समय झील पर तैरते शिकारे मानो सपनों की नावें बन जाते हैं, जिन पर बैठे परिवार, जोड़े और युवा अपने-अपने अंदाज़ में इस सुंदरता का आनंद लेते हैं। किसी शिकारे से कबाबों की खुशबू हवा में घुल जाती है, कहीं कोई अपनी प्रिय कथा साझा कर रहा होता है, और कहीं कोई बस चुपचाप उस दृश्य को आंखों में कैद कर रहा होता है। झील के दूसरी ओर दूर पहाड़ी पर स्थित शंकराचार्य मंदिर का दृश्य उस माहौल को आध्यात्मिकता और शांति से भर देता है। शाम की हल्की ठंड में डल झील की लहरों का धीमा संगीत सुनाई देता है और मन में एक अनोखा संतोष उतर आता है।
इस पल की सबसे सुंदर बात यह है कि इसमें कोई जल्दबाज़ी, कोई दौड़-भाग नहीं होती-सिर्फ वर्तमान को महसूस करने की गहरी इच्छा होती है। लोग शिकारे में बैठे बस आकाश के बदलते रंगों को देखते रहते हैं और लगता है जैसे समय थम गया हो। कुछ यात्री कैमरे से यादें संजो लेते हैं, और कुछ उन्हें दिल में सुरक्षित रख लेते हैं क्योंकि यह अनुभव कुछ ऐसा होता है जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। सूर्य धीरे-धीरे पहाड़ों के पीछे छिप जाता है और उसके बाद पानी पर छूटती सुनहरी चमक दिल में अनकही कविता की तरह गूंजती रहती है।
डल झील का सूर्यास्त सिर्फ एक दृश्य नहीं, बल्कि एक एहसास है - एक शांत, गहरा और मन को भीतर तक छूने वाला अनुभव, जो हर आने वाले को जीवनभर याद रहता है। जो भी इसे अपनी आंखों से देख ले, वह स्वीकार करता है कि ऐसे दृश्य बार-बार नहीं मिलते, और यही कारण है कि लौटते समय दिल झील से थोड़ा भारी, लेकिन शांत होकर जाता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mr2k3wpy
https://tinyurl.com/44d7mn9y
https://tinyurl.com/58b8y86d
https://tinyurl.com/5eb3cau2
मेरठवासियों, जब हम अपने देश के इतिहास में उस काल की खोज करते हैं जिसने भारत को ज्ञान, कला, विज्ञान, साहित्य और संस्कृति के चरम शिखर पर पहुँचा दिया, तो गुप्त साम्राज्य का नाम सबसे उज्ज्वल रूप में सामने आता है। यह वह समय था जब भारत केवल राजनीतिक रूप से ही स्थिर नहीं हुआ, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी इतना विकसित हुआ कि आने वाली सदियों तक उसकी छाप मिट नहीं सकी। जिस तरह मेरठ अपनी वीरता, प्राचीन परंपराओं और विद्यानिष्ठ पहचान के लिए जाना जाता है, उसी तरह गुप्त युग ने पूरे भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक आत्मा को नया आकार दिया। गुप्त काल को अक्सर ‘भारत का स्वर्णयुग’ कहा जाता है - क्योंकि इसी दौर में साहित्य में नई शैली उभरी, विज्ञान को तार्किक दृष्टि मिली, कला ने सूक्ष्मता और सुंदरता का अनोखा संगम रचा, और शिक्षा जगत में नालंदा जैसे महान केंद्र पनपे। यह वह युग था जिसने भारतीय पहचान को एक समरस और तेजस्वी रूप दिया। आज जब हम गुप्त साम्राज्य की चर्चा शुरू कर रहे हैं, तो हम न सिर्फ़ एक महान साम्राज्य की कहानी समझेंगे, बल्कि उस युग की उन विशेषताओं को भी जानेंगे जिन्होंने भारतीय इतिहास की दिशा ही बदल दी। यह लेख आपको उस स्वर्णिम काल की यात्रा पर ले चलेगा, जहाँ शक्ति, ज्ञान और संस्कृति एक साथ खिलते थे - और जो आज भी हमारी सभ्यता की नींव को गहराई से प्रभावित करता है।
इस लेख में हम गुप्त साम्राज्य को समझेंगे। पहले, उसके उदय और उस व्यापक भू-राजनीतिक विस्तार को देखेंगे जिसने उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत को एक सशक्त ढाँचे में जोड़ा। फिर, उसकी प्रशासनिक व्यवस्था को समझेंगे जहाँ विकेंद्रीकरण, गाँव-आधारित शासन और नगरों में कारीगरों की भागीदारी ने एक संतुलित प्रणाली बनाई। प्रमुख गुप्त शासकों की सैन्य सफलताओं और सांस्कृतिक योगदान पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, उस धार्मिक वातावरण को जानेंगे जिसने हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं को समान रूप से आगे बढ़ने दिया और नालंदा को जन्म दिया। और अंत में, हम उस वैज्ञानिक, गणितीय और मुद्रा-व्यवस्था की प्रगति को समझेंगे जिसने भारत के बौद्धिक विकास की मजबूत नींव रखी।
![]()
गुप्त साम्राज्य की उत्पत्ति और प्राचीन भारत में उसका भौगोलिक-राजनीतिक विस्तार
गुप्त साम्राज्य तीसरी-चौथी सदी में तब उभरा, जब भारत का राजनीतिक परिदृश्य कुषाण और शकों के पतन के बाद नए नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। इसी पृष्ठभूमि में श्रीगुप्त और घाटकगुप्त द्वारा रखी नींव चंद्रगुप्त प्रथम के समय एक विशाल शक्ति में बदलने लगी। साम्राज्य उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से उठकर मध्य भारत, बंगाल, गुजरात और मालवा तक फैल गया। इस व्यापक विस्तार ने प्रशासनिक एकता और सांस्कृतिक समृद्धि का ऐसा वातावरण बनाया कि इतिहासकारों ने इस काल को ‘भारत का स्वर्णयुग’ और ‘शास्त्रीय युग’ कहा। साहित्य, मूर्तिकला, दर्शन, गणित - हर क्षेत्र में गुप्तों ने नई पहचान बनाई, जिसका प्रभाव सदियों तक कायम रहा।
गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: विकेन्द्रीकरण, इकाइयाँ और शासन-पद्धति
गुप्त प्रशासन धर्मशास्त्र पर आधारित था, जिसमें मनु, नारद और याज्ञवल्क्य जैसे विद्वानों के सिद्धांतों का प्रभाव दिखता है। शासन तीन स्तरों पर चलता था - केंद्र, प्रांत और नगर/ग्राम इकाइयाँ। गाँव को प्रशासन की मूल इकाई मानना गुप्त प्रणाली की विशेषता थी, जहाँ पंचायतें भूमि, जल, कर और सामाजिक प्रबंधन का दायित्व संभालती थीं। शहरी प्रशासन में कारीगरों, व्यापारियों और महासभाओं की सक्रिय भूमिका थी, जिससे आर्थिक व्यवस्था अधिक जीवंत हुई। गुप्त काल में शुरू हुआ यह विकेंद्रीकरण भारत की परंपरागत स्वशासन अवधारणा का मजबूत रूप माना जाता है।

गुप्त साम्राज्य के प्रमुख शासक: उपलब्धियाँ, सामरिक विजय और सांस्कृतिक योगदान
चंद्रगुप्त प्रथम ने वैवाहिक गठबंधन - विशेषकर लिच्छवी कन्या से विवाह - के माध्यम से साम्राज्य को राजनीतिक रूप से मज़बूत किया। उनके पुत्र समुद्रगुप्त को ‘भारतीय नेपोलियन’ कहा जाता है, क्योंकि प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित उनकी सैन्य विजय अभूतपूर्व थीं। अश्वमेध यज्ञ कराकर उन्होंने अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित की और ‘कविराज’ की उपाधि उनके सांस्कृतिक रुझान को दर्शाती है। चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक-क्षत्रपों को पराजित कर पश्चिम भारत को पुनः भारतीय नियंत्रण में लाया - इसी काल में लौह स्तंभ जैसी अद्भुत कारीगरी उभरकर सामने आई। कुमारगुप्त ने शक्रादित्य की उपाधि धारण की और नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कर भारतीय शिक्षा को महान ऊँचाई दी। स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण को रोका, जो गुप्त साम्राज्य की अंतिम बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जाती है।
गुप्त काल में धार्मिक विकास और नालंदा का उत्कर्ष
गुप्त शासक हिंदू धर्म के संरक्षक थे, परंतु धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा ने बौद्ध और जैन धर्मों को भी भरपूर संरक्षण दिया। इसी शांत वातावरण में नालंदा विश्वविद्यालय उभरा - जहाँ से एशिया भर के विद्वान शिक्षा लेने आते थे। महायान बौद्ध धर्म का विशेष विकास नरसिंहगुप्त बालादित्य के समय में हुआ। समाज में जाति व्यवस्था अधिक औपचारिक हो गई, पर शिक्षा, कला और दर्शन अब भी सभी वर्गों के बीच सक्रिय रूप से पनपते रहे। नालंदा की पुस्तकालय प्रणाली, पाठ्यक्रम और वैश्विक प्रतिष्ठा आज भी गुप्त युग की बौद्धिक परंपरा का प्रमाण है।

गुप्त युग की मुद्रा प्रणाली और विज्ञान–प्रौद्योगिकी
गुप्त काल का सिक्काशास्त्र भारतीय इतिहास का सबसे परिष्कृत अध्याय है। स्वर्ण दीनारों पर शासकों की विशिष्ट प्रतिमाएँ - धनुषधारी, अश्वारोही, रण-वीर - और गरुड़-चिह्न जैसी प्रतीक-परंपरा गुप्तों की कलात्मक दृष्टि को दर्शाती है। विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट का योगदान अद्वितीय है - पृथ्वी के घूर्णन का सिद्धांत, ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या और π (पाई) का मान उनके कालजयी कार्य हैं। वराहमिहिर की ‘पंचसिद्धांतिका’ भारतीय ज्योतिष और खगोल विज्ञान की नींवों को मजबूत करने वाला ग्रंथ है। चिकित्सा में ‘हस्तायुर्वेद’ और ‘नवनीतकम’ जैसे ग्रंथ इस युग की वैज्ञानिक प्रगति को दर्शाते हैं।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/b286ekx6
https://tinyurl.com/bdf2u32m
https://tinyurl.com/yz9kctfn
https://tinyurl.com/5xsv2hyt
https://tinyurl.com/33zjamw2
मेरठवासियों, आपने शायद महसूस किया होगा कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे शहर की थालियों और बाज़ारों में मशरूम की मौजूदगी कितनी तेजी से बढ़ी है। चाहे दिल्ली रोड के रेस्तरां हों, केंद्रीय बाज़ार की सब्ज़ी मंडियाँ हों, या फिर गंगानगर-शास्त्रीनगर की आधुनिक सुपरमार्केट - हर जगह मशरूम आधारित व्यंजन अब सामान्य और पसंदीदा विकल्प बन चुके हैं। पहले जहाँ इनका नाम सुनकर लगता था कि यह कोई महँगा, ‘मेट्रो-सिटी’ वाला विदेशी खाद्य पदार्थ है, वहीं अब मेरठ के घरों की रोज़मर्रा की रसोई में भी मशरूम सब्ज़ी, सूप, टिक्का और स्टिर-फ्राय की तरह अपनाए जा रहे हैं। लेकिन मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि यह मुलायम, सफेद या रंगीन टोपी जैसा दिखने वाला ढांचा असल में पौधा नहीं है? यह ‘फंगस’ यानी कवक है - और वह भी बेसिडिओमाइकोटा (Basidiomycota) नामक उस विशाल प्राकृतिक समूह का हिस्सा, जिसके सदस्य करोड़ों वर्षों से धरती के पारिस्थितिक संतुलन को सुरक्षित रखने का काम कर रहे हैं। यह तथ्य जितना वैज्ञानिक है, उतना ही रोचक भी, क्योंकि मशरूम का जीवन चक्र, इसकी सूक्ष्म संरचना और इसका विकास एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रकृति की अद्भुत रचनात्मकता छिपी हुई है।
इस लेख में हम सबसे पहले, जानेंगे कि मशरूम क्या होते हैं और बेसिडिओमाइकोटा समूह से उनकी पहचान कैसे होती है। फिर, उनके प्रजनन तंत्र और बीजाणुओं के फैलाव की रोचक प्रक्रिया पर नज़र डालेंगे। हम देखेंगे कि प्रकृति में मशरूम सहजीवन, विघटन और पारिस्थितिक संतुलन में क्या भूमिका निभाते हैं। अंत में, भारत में पाए जाने वाले प्रमुख और उपयोगी मशरूम - जैसे बटन (button), ऑयस्टर (oyster), शिटाके (shitake) और रीशी (rishi) - का संक्षिप्त परिचय मिलेगा।

मशरूम और बेसिडिओमाइकोटा: संरचना व जैविक पहचान
मशरूम किसी पौधे या जानवर की तरह नहीं होते, बल्कि यह एक अत्यंत विकसित कवक समूह - बेसिडिओमाइकोटा - से संबंधित हैं। इनकी मूल संरचना जमीन के अंदर फैले महीन धागेनुमा तंतुओं से बनती है, जिन्हें हाइफ़े (Hyphae) कहा जाता है। यही हाइफ़े मिलकर मायसीलियम (mycelium) नामक जाल बनाते हैं, जो असल में कवक का असली शरीर है। हम जो मशरूम की टोपी देखते हैं, वह केवल बेसिडियोकार्प (Basidiocarp) या फलन-काय होता है, जिसका मुख्य उद्देश प्रजनन है। इस टोपी के नीचे विशेष कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें बेसिडिया (Basidia) कहते हैं। यहीं पर यौन प्रजनन द्वारा बेसिडियोस्पोर (Basidiospores) बनते हैं। इनकी संरचना किसी छतरी जैसी लगती है - ऊपर चिकनी टोपी, नीचे पंखुड़ीनुमा किनारे या नलिकाएँ, और नीचे मजबूत डंठल। यह पूरा ढांचा प्रकृति द्वारा इतनी खूबसूरती से विकसित किया गया है कि यह हवा, नमी और प्रकाश के अनुसार स्वयं को समायोजित कर लेता है। यही कारण है कि मशरूम केवल अपने अनुकूल वातावरण में ही दिखाई देते हैं - अक्सर नम, छायादार और सड़ते पत्तों वाली जगहों पर।

मशरूमों का प्रजनन तंत्र और बीजाणुओं का प्रसार
मशरूम का प्रजनन तंत्र प्रकृति की सबसे नयनाभिराम प्रक्रियाओं में से एक है। जब बेसिडिया (basidia) पर बीजाणु तैयार होते हैं, तो वे हवा में फैल जाते हैं। एक अकेला मशरूम हजारों से लेकर लाखों तक बीजाणु छोड़ सकता है। हवा इन्हें दूर-दूर तक ले जाती है; कभी-कभी छोटे कीट भी इनके वाहक बनते हैं, जैसा कि क्लैथ्रस रूबर (clathrus ruber) जैसी प्रजातियों में देखा जाता है। जब दो संगत बीजाणु आपस में मिल जाते हैं, तो वे नई हाइफ़े बनाते हैं और एक नया कवक जीवन शुरू होता है। यह प्रक्रिया शरद ऋतु और सर्दियों के दौरान सबसे अधिक सक्रिय रहती है। मशरूम के नीचे कागज़ रखकर ‘बीजाणु प्रिंट’ भी बनाया जा सकता है - जिसमें बीजाणुओं का गिरा हुआ पैटर्न अलग-अलग रंगों, आकारों और घनत्व द्वारा प्रजातियों की पहचान में मदद करता है। यह शौक वैज्ञानिकों और मशरूम संग्राहकों में काफी लोकप्रिय है।
पारिस्थितिकी में मशरूमों की भूमिका: सहजीवन, अपघटन और परजीविता
प्रकृति में मशरूम की भूमिका इतनी व्यापक है कि इनके बिना जंगल का जीवन अधूरा लगने लगे। सबसे पहले, कई मशरूम माइकोराइज़ा (Mycorrhiza) संबंध बनाते हैं - एक सहजीवी साझेदारी जिसमें मशरूम पेड़ों की जड़ों को खनिज व पानी उपलब्ध कराते हैं और बदले में पेड़ उन्हें कार्बोहाइड्रेट (carbohyderate) देता है। यह संबंध पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य माना जाता है। दूसरा, कई मशरूम सैप्रोफाइट होते हैं - ये मृत लकड़ी, गिरे हुए पत्ते, और जैविक कचरे को विघटित करते हैं। इन्हें प्रकृति का सफ़ाईकर्मी कहना बिल्कुल सही है, क्योंकि ये जंगलों को सड़ने से बचाते हैं और मिट्टी में फिर से पोषक तत्व लौटाते हैं। कुछ मशरूम परजीवी भी होते हैं, जो कमजोर पेड़ों या पौधों पर बढ़ते हैं और कभी-कभी उन्हें नुकसान भी पहुँचाते हैं। लेकिन पारिस्थितिकी में इनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह जंगलों की जैविक संतुलन प्रक्रिया का एक हिस्सा है।

भारत में उगने वाले प्रमुख और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मशरूम
भारत में मशरूम की खेती तेजी से बढ़ रही है और कई किस्में अब आसानी से उपलब्ध हैं। बटन मशरूम (Agaricus bisporus) सबसे लोकप्रिय और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण प्रजाति है। इसका हल्का स्वाद और नरम बनावट इसे घरों और होटलों दोनों में पसंदीदा बनाते हैं। ऑयस्टर मशरूम (Pleurotus spp.) अपनी पंखे के आकार की संरचना और कोमल स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। यह किसानों के लिए भी लाभकारी है क्योंकि इसकी खेती अपेक्षाकृत आसान है। शिटाके मशरूम, जिनकी उत्पत्ति पूर्वी एशिया में हुई, अब भारत में भी उगाए जा रहे हैं। इनका मांसल स्वाद इन्हें विशेष व्यंजनों में उपयोगी बनाता है। एनोकी मशरूम, अपने लंबे सफ़ेद डंठल और छोटे गोल सिर के साथ, भारतीय बाज़ारों में अब जगह बना रहे हैं—विशेषकर सूप और एशियाई व्यंजनों में। और सबसे अनोखे - रीशी मशरूम (Ganoderma lucidum) - जिन्हें “अमरता का मशरूम” कहा जाता है, अपने औषधीय गुणों के कारण स्वास्थ्य जगत में अत्यधिक सम्मानित हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mrxkdnre
https://tinyurl.com/2fc2ccss
https://tinyurl.com/yc24ebuv
https://tinyurl.com/39cvvc9p
https://tinyurl.com/yp8a3fzt
https://tinyurl.com/mwt4y4by
मेरठवासियों, बीते कुछ वर्षों में आपकी रोज़मर्रा की जिंदगी में एक ऐसा परिवर्तन धीरे-धीरे उतर आया है, जिसने न सिर्फ आपकी खरीदारी की आदतों को बदला है बल्कि शहर की आर्थिक, सामाजिक और उपभोक्ता संस्कृति को भी नई दिशा दी है - और यह परिवर्तन है क्विक कॉमर्स (Quick Commerce) का। कभी तत्काल जरूरतों का सहारा नौचंदी बाजार की भीड़भाड़ वाली गलियाँ, आबू लेन की चमकती दुकानें, या घर के कोने वाली भरोसेमंद किराना दुकानें ही हुआ करती थीं, जहाँ जाने के लिए आपको समय निकालना पड़ता था। लेकिन आज ब्लिंकिट (Blinkit), ज़ेप्टो (Zepto) और इंस्टामार्ट (Instamart) जैसी ऐप्स ने इस पूरे अनुभव को मिनटों की सुविधा में बदल दिया है। अब आधी रात को दवाई खत्म हो जाए, सुबह के नाश्ते के लिए ब्रेड अचानक याद आए, या बच्चों को तुरंत चिप्स चाहिए हों - तो 10-15 मिनट में सब कुछ आपकी दहलीज़ पर उपलब्ध हो जाता है। यह सुविधा जहाँ आपकी दिनचर्या को सहज, तेज़ और अनुकूल बना रही है, वहीं दूसरी ओर मेरठ के पारंपरिक व्यापार मॉडल, किराना दुकानों और स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए नए अवसरों और चुनौतियों का मिश्रण भी पैदा कर रही है। धीरे-धीरे यह बदलाव इतना व्यापक हो गया है कि क्विक कॉमर्स अब सिर्फ एक तकनीकी सुविधा नहीं, बल्कि मेरठ जैसे विकसित होते शहर की उपभोक्ता सोच, आधुनिक जीवनशैली और खरीदारी संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है - और इसी बदलाव को समझना आज ज़रूरी भी है और समयानुकूल भी।
इस लेख में हम क्विक कॉमर्स के बदलते प्रभावों को सरल रूप में समझेंगे। सबसे पहले जानेंगे कि यह मॉडल ग्राहक व्यवहार को कैसे ‘ऑन-डिमांड’ (On Demand) सोच में बदल रहा है। फिर देखेंगे कि मेरठ के पारंपरिक किराना स्टोर्स पर इसका क्या असर पड़ा है - जहाँ यह बदलाव चुनौतियाँ और नए अवसर दोनों लेकर आया है। इसके बाद समझेंगे कि तेज़ डिलीवरी ने पारंपरिक ई-कॉमर्स (E-Commerce) रणनीतियों को कैसे बदलने के लिए मजबूर किया। अंत में, इसके प्रमुख फायदे और सीमाएँ जानेंगे, ताकि समझ सकें कि सुविधा के साथ यह मॉडल कौन-सी व्यावहारिक चुनौतियाँ भी लाता है। कुल मिलाकर, क्विक कॉमर्स मेरठ की खरीदारी शैली और बाज़ार व्यवस्था को तेज़ी से नई दिशा दे रहा है।

क्विक कॉमर्स कैसे बदल रहा है ग्राहक व्यवहार
क्विक कॉमर्स ने आज के उपभोक्ता व्यवहार को मूल रूप से बदल दिया है, क्योंकि अब ग्राहकों को तुरंत सुविधा पाने की आदत हो गई है। जहाँ पहले लोग किराना या किसी भी दैनिक वस्तु की खरीदारी सप्ताह में एक बार योजनाबद्ध तरीके से करते थे, वहीं अब ब्लिंकिट, ज़ेप्टो और इंस्टामार्ट जैसी ऐप्स ने “15 मिनट में डिलीवरी” को एक सामान्य अनुभव बना दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि ग्राहकों के भीतर “ऑन-डिमांड” मानसिकता विकसित हो गई है - यानी चीज़ें खत्म हों उससे पहले खरीदने की जगह, ज़रूरत पड़ते ही छोटे-छोटे ऑर्डर कर देना। इस बदलाव ने खरीदारी को पूरी तरह व्यवहार आधारित बना दिया है, जिसमें योजना की जगह तात्कालिकता हावी हो गई है। इसके साथ ही इम्पल्स बायिंग भी तेज़ी से बढ़ी है; अब फ़िल्म देखते-देखते अचानक पॉपकॉर्न मंगवा लेना या रात में मीठे की इच्छा होना और तुरंत ऑर्डर कर देना पूरी तरह सामान्य हो चुका है। इतना ही नहीं, क्विक कॉमर्स ने लोगों की अपेक्षाओं को अन्य उद्योगों तक भी बढ़ा दिया है - अब ग्राहक दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, ब्यूटी प्रोडक्ट्स (beauty products) और घरेलू सामान में भी मिनटों की गति की उम्मीद करने लगे हैं। कुल मिलाकर, यह सेवा न केवल सुविधा दे रही है, बल्कि उपभोक्ता की सोच, व्यवहार, अपेक्षाओं और दैनिक आदतों को ही नए तरीके से आकार दे रही है।
भारत के किराना स्टोर्स पर क्विक कॉमर्स का प्रभाव
क्विक कॉमर्स ने भारत के पारंपरिक किराना स्टोर्स के सामने एक जटिल स्थिति पैदा कर दी है। सदियों से ये दुकानें मोहल्लों की रीढ़ मानी जाती थीं, लेकिन ऐप-आधारित सेवाओं ने उनके ग्राहक आधार को काफी हद तक प्रभावित किया है। लोग अब छोटी-छोटी आवश्यकता भी ऑनलाइन मँगवा लेते हैं, जिससे फुटफॉल में गिरावट देखने को मिल रही है। साथ ही, बड़े क्विक कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स भारी डिस्काउंट और तेज़ सेवा देकर ग्राहकों को आकर्षित करते हैं, जिसका मुकाबला छोटे दुकानदारों के लिए आसान नहीं है। कई दुकानदार डिजिटल संचालन, इन्वेंट्री मैनेजमेंट (inventory management) या ऐप-इंटीग्रेशन (app-integration) जैसी तकनीकों में सहज नहीं होते, जिससे प्रतिस्पर्धा और कठिन हो जाती है। हालांकि, यह पूरी कहानी नकारात्मक नहीं है - कई किराना स्टोर्स अब क्विक कॉमर्स ब्रांड्स के पार्टनर बनकर माइक्रो-फुलफ़िल्मेंट सेंटर (micro-fulfilment center) के रूप में काम करने लगे हैं, जिससे उन्हें अतिरिक्त कमाई और नए ग्राहक मिल रहे हैं। कुछ दुकानदार ऑनलाइन ऑर्डरिंग सिस्टम (online ordering system) अपना रहे हैं और अपनी खुद की होम-डिलीवरी शुरू कर रहे हैं। यानी, क्विक कॉमर्स ने चुनौतियाँ तो पैदा की हैं, लेकिन साथ ही किराना स्टोर्स को डिजिटल रूप से विकसित होने और आधुनिक व्यापार व्यवस्था में अपनी जगह बनाने का अवसर भी दिया है।

पारंपरिक ई-कॉमर्स पर क्विक कॉमर्स का प्रभाव
ई-कॉमर्स पिछले एक दशक तक ऑनलाइन शॉपिंग का पर्याय बना रहा, लेकिन क्विक कॉमर्स के आने के बाद इस मॉडल को भी अपनी रणनीति और डिलीवरी सिस्टम में बड़े बदलाव करने पड़े। पहले जहाँ ग्राहक 2-3 दिन की डिलीवरी को सामान्य मानते थे, वहीं क्विक कॉमर्स ने “डिलीवरी इन मिनट्स” (delivery in minute) की संस्कृति बना दी, जिससे ई-कॉमर्स कंपनियों पर तेज़ डिलीवरी देने का दबाव बढ़ गया। इसके चलते पारंपरिक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म अब लोकल डार्क स्टोर्स बना रहे हैं, तेज़ डिस्पैच यूनिट्स और उच्च-स्तरीय लॉजिस्टिक्स सिस्टम स्थापित कर रहे हैं। उन्होंने सेकंड-डे डिलीवरी (second-day delivery) से बढ़कर 2-4 घंटे की डिलीवरी और “सेम-डे एक्सप्रेस डिलिवरी” (same-day express delivery) सेवाएँ शुरू करनी पड़ीं। एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि ई-कॉमर्स कंपनियाँ अब बड़े कैटलॉग के साथ-साथ केवल आवश्यक वस्तुओं के लिए विशेष तेज़ डिलीवरी सेगमेंट बना रही हैं, ताकि वे क्यू-कॉमर्स के दबाव का सामना कर सकें। इसके अतिरिक्त स्विगी-इंस्टामार्ट और ज़ोमैटो-ब्लिंकिट जैसी साझेदारियाँ दर्शाती हैं कि पारंपरिक ई-कॉमर्स और क्विक कॉमर्स के बीच अब प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग की नई रणनीतियाँ भी विकसित हो रही हैं। यह स्पष्ट है कि क्विक कॉमर्स ने पूरे ऑनलाइन रिटेल सिस्टम की दिशा और गति को ही बदल दिया है।
क्विक कॉमर्स के प्रमुख फायदे
क्विक कॉमर्स का सबसे बड़ा लाभ इसकी बेजोड़ सुविधा है। जब अचानक रात में बच्चे के डायपर खत्म हो जाएँ, गैस स्टोव पर दूध उबलते-उबलते खत्म हो जाए, दवा की तुरंत ज़रूरत हो, या मेहमानों के आने पर स्नैक्स कम पड़ जाएँ - इन सभी स्थितियों में 10-15 मिनट की डिलीवरी एक राहत की तरह काम करती है। यह सेवा आधुनिक जीवन की तेज़ रफ्तार और अनिश्चित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है, इसलिए यह युवाओं और व्यस्त परिवारों दोनों के बीच तेजी से लोकप्रिय हुई है। इसके अलावा क्विक कॉमर्स ने अभिगम्यता बढ़ाई है, क्योंकि अब शहरों में लगभग हर जरूरत की उत्पाद - मूलभूत किराना से लेकर प्रीमियम गॉरमेट आइटम (Premium Gourmet Items) तक - तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं। इस उद्योग ने रोज़गार के कई अवसर भी पैदा किए हैं, जिसमें डिलीवरी पार्टनर्स, वेयरहाउस स्टाफ (warehouse staff), टेक सपोर्ट (tech support) और डेटा एनालिटिक्स (data analytics) से जुड़े अनेक पद शामिल हैं। डायरेक्ट-टू-कस्टमर ब्रांड्स (Direct-2-Customer Brands) के लिए यह एक वरदान साबित हुआ है, क्योंकि उनके उत्पाद बिना किसी मध्यस्थ के विशाल ग्राहक समूह तक तेज़ी से पहुँचते हैं। कुल मिलाकर क्विक कॉमर्स सुविधा, गति और तकनीकी दक्षता का एक ऐसा मिश्रण है जिसने शहरी उपभोक्ताओं की दिनचर्या को सरल और सुगम बना दिया है।

क्विक कॉमर्स के प्रमुख नुकसान और चुनौतियाँ
फायदों के साथ-साथ क्विक कॉमर्स कई गंभीर चुनौतियाँ भी पैदा करता है, जिन पर नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी समस्या इसका अत्यधिक महंगा और कम-लाभ वाला बिजनेस मॉडल (business model) है - तेज़ डिलीवरी के लिए भारी इंफ्रास्ट्रक्चर, मोटी मानव-शक्ति और महंगे माइक्रो-वेयरहाउस (micro-warehouse) की जरूरत होती है, जो कंपनियों की लागत बढ़ाता है। इसके अलावा डिलीवरी पार्टनर्स पर अत्यधिक दबाव पड़ता है; समय सीमा पूरी करने के लिए उन्हें तेज़ गति से चलना पड़ता है, जिससे दुर्घटनाओं और सुरक्षा जोखिम बढ़ जाते हैं। पर्यावरण के लिए भी यह मॉडल चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि तेज़ डिलीवरी के लिए लगातार वाहनों की आवाजाही, पैकेजिंग कचरा और ऊर्जा खपत बढ़ती है। इससे कार्बन फुटप्रिंट में वृद्धि होती है। क्विक कॉमर्स अनावश्यक खरीदारी को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि तत्काल उपलब्धता ग्राहक को ऐसे उत्पाद लेने के लिए प्रेरित करती है जिनकी उन्हें वास्तव में ज़रूरत नहीं होती। डिजिटल डिपेंडेंसी भी एक समस्या है - जहाँ इंटरनेट या स्मार्टफोन नहीं है, वहाँ लोग इससे लाभ नहीं उठा पाते, जिससे डिजिटल असमानता बढ़ती है। डेटा प्राइवेसी (data privacy) का जोखिम भी मौजूद है, क्योंकि कंपनियाँ उपयोगकर्ताओं की लोकेशन, पसंद और खरीदारी आदतों का बड़ा डेटा संग्रह करती हैं। इस प्रकार, क्विक कॉमर्स जितनी सुविधा देता है, उतनी ही सोच-समझकर उपयोग की मांग भी करता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/33ppjy39
https://tinyurl.com/3j3xthka
मेरठवासियों, हमारे शहर की रफ़्तार और ऊर्जा पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मशहूर है। चौड़ी होती सड़कों, बढ़ते वाहनों और आधुनिक परिवहन साधनों के बीच आज मेरठ भी उसी बदलाव के दौर में है, जो पूरे भारत में सड़क सुरक्षा के लिए नई सोच की मांग कर रहा है। हाल के वर्षों में देशभर में सड़क दुर्घटनाओं के बढ़ते आँकड़ों ने सभी को चिंतित किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब स्वचालित वाहनों का युग आएगा, तब क्या हमारी सड़कों पर दुर्घटनाओं की संख्या घटेगी या और नई चुनौतियाँ जन्म लेंगी? इस बदलते समय में यह समझना ज़रूरी है कि भारत की वर्तमान स्थिति क्या है और भविष्य की राह किस दिशा में जा रही है।
आज के इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में सड़क सुरक्षा की मौजूदा स्थिति क्या है और स्वचालित वाहनों के बढ़ते दौर में यह कैसी दिशा ले रही है। शुरुआत करेंगे देश में सड़क दुर्घटनाओं के ताज़ा आँकड़ों से, फिर समझेंगे कि सरकार सड़क सुरक्षा को लेकर क्या ठोस कदम उठा रही है। इसके बाद देखेंगे कि वाहन इंजीनियरिंग और ड्राइवर प्रशिक्षण कैसे सड़क सुरक्षा की बुनियाद बनते हैं। आगे बढ़ते हुए, स्वचालित वाहनों के युग में बदलते परिदृश्य और उनसे जुड़ी नई चुनौतियों पर बात करेंगे। अंत में, लिडार लेज़र (LIDAR Laser) जैसी आधुनिक तकनीकों और भविष्य की सुरक्षा योजनाओं पर नज़र डालेंगे, जो आने वाले समय में हमारी सड़कों को और सुरक्षित बना सकती हैं।
भारत में सड़क दुर्घटनाओं की वर्तमान स्थिति और प्रमुख आँकड़े
भारत में सड़क दुर्घटनाओं की स्थिति अब भी गंभीर चिंता का विषय है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में देशभर में 4,12,432 सड़क दुर्घटनाएँ दर्ज की गईं, जिनमें 1,53,972 लोगों ने अपनी जान गंवाई, जबकि 3,84,448 लोग घायल हुए। कोविड-19 महामारी के दौरान लॉकडाउन के चलते 2020 में दुर्घटनाओं में अस्थायी कमी आई थी, परंतु 2021 में जैसे-जैसे देश सामान्य स्थिति में लौटा, दुर्घटनाओं का ग्राफ फिर से बढ़ा। हालांकि, 2019 की तुलना में 2021 में दुर्घटनाओं में 8.1% की कमी और घायलों में 14.8% की कमी देखी गई, लेकिन मौतों में 1.9% की वृद्धि यह दर्शाती है कि समस्या अब भी गहरी है। मेरठ जैसी तेज़ी से बढ़ती आबादी वाले शहरों में, जहां दोपहिया और चारपहिया वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, ये आँकड़े हमें सचेत करते हैं कि सड़क सुरक्षा को अब प्राथमिकता देनी ही होगी।

सड़क सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रमुख उपाय
भारत सरकार ने सड़क सुरक्षा के लिए बहु-आयामी रणनीति अपनाई है, जिसमें शिक्षा, इंजीनियरिंग, प्रवर्तन और आपातकालीन देखभाल के चार स्तंभ शामिल हैं। सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा “सड़क सुरक्षा के संदर्भ में की गई कार्यवाही के लिए वित्तीय सहायता का अनुदान” जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं, जिनके तहत सड़क सुरक्षा से जुड़े संगठनों को सहयोग दिया जाता है। साथ ही, मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम 2019 ने यातायात नियमों के उल्लंघन पर कड़े दंड लागू किए हैं, जिससे लापरवाह ड्राइविंग पर अंकुश लग सके। सड़क सुरक्षा मानकों को पारदर्शी बनाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा रहा है, जिससे भ्रष्टाचार में कमी और डेटा रिपोर्टिंग में सटीकता आई है। मेरठ में भी प्रशासन द्वारा जागरूकता अभियानों और यातायात नियंत्रण के नए उपाय अपनाए जा रहे हैं ताकि शहर की सड़कों पर दुर्घटनाओं की संभावना कम हो।
वाहन इंजीनियरिंग और ड्राइवर प्रशिक्षण की भूमिका
किसी भी देश में सड़क सुरक्षा की नींव वाहन की संरचना और चालक की दक्षता पर टिकी होती है। भारत में अब वाहन इंजीनियरिंग के मानकों को लगातार अद्यतन किया जा रहा है ताकि वाहन टक्कर या पलटने जैसी घटनाओं में यात्रियों को अधिकतम सुरक्षा मिल सके। इसके साथ ही, ड्राइवर लाइसेंसिंग (Driver Licensing) और प्रशिक्षण प्रणाली को मजबूत करने के लिए देशभर में इंस्टीट्यूट्स ऑफ़ ड्राइविंग ट्रेनिंग एंड रिसर्च (आईडीटीआर - IDTR) केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं। इन संस्थानों में चालक को न केवल ड्राइविंग सिखाई जाती है, बल्कि सड़क सुरक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और आपात स्थिति में सही निर्णय लेने की शिक्षा भी दी जाती है। मेरठ जैसे व्यस्त शहर में, जहाँ ट्रैफिक का दबाव अधिक है, ऐसे प्रशिक्षण संस्थान बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वाहन निर्माता भी अब ऐसे डिजाइन पर काम कर रहे हैं जो चालक को बेहतर दृश्यता, ब्रेकिंग सिस्टम और सुरक्षा उपकरण प्रदान करें।

स्वचालित वाहनों के युग में सड़क दुर्घटनाओं का संभावित परिदृश्य
अब बात करते हैं भविष्य की - जब सड़कों पर स्वचालित वाहन (Automated Vehicles) आम हो जाएंगे। इन वाहनों से उम्मीद की जाती है कि मानव त्रुटियों के कारण होने वाली दुर्घटनाएँ काफी हद तक कम होंगी। किंतु वास्तविकता यह भी है कि स्वचालित तकनीक पूरी तरह त्रुटिरहित नहीं है। अमेरिका में 2020 से 2022 के बीच आंशिक स्वचालित नियंत्रण वाले वाहनों से जुड़ी लगभग 400 दुर्घटनाएँ दर्ज हुईं। कई बार सवाल उठता है - यदि बिना चालक के वाहन से दुर्घटना होती है तो जिम्मेदारी किसकी होगी?
भारत में जब स्वचालित वाहनों का प्रसार होगा, तब मेरठ जैसी शहरों की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ट्रैफिक के व्यवहार को समझना और उससे तकनीक को अनुकूल बनाना बड़ी चुनौती होगी। इसलिए अभी से नीति निर्माताओं और इंजीनियरों को ऐसे नियम और तकनीकी समाधान तैयार करने होंगे जो मनुष्य और मशीन दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।

तकनीकी सुधार, लिडार लेज़र और भविष्य की सुरक्षा रणनीतियाँ
भविष्य की सड़क सुरक्षा, लिडार लेज़र, सेंसर, और एआई आधारित निर्णय प्रणाली पर निर्भर करेगी। लिडार लेज़र तकनीक सड़क पर मौजूद वस्तुओं, वाहनों और पैदल यात्रियों की सटीक पहचान करती है, जिससे स्वचालित वाहन बेहतर निर्णय ले सकते हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय राजमार्ग यातायात सुरक्षा प्रशासन जैसी संस्थाएँ अब स्वचालित वाहनों के लिए नए मूल्यांकन मानक विकसित कर रही हैं। भारत में भी इसी दिशा में अनुसंधान और परीक्षण जारी हैं। यदि यह तकनीक सफलतापूर्वक लागू हुई, तो आने वाले दशक में मेरठ सहित पूरे देश की सड़कें और अधिक सुरक्षित, स्मार्ट और अनुशासित बन सकती हैं।
संदर्भ-
https://bit.ly/40UwMFQ
https://bit.ly/40QQ7r7
https://tinyurl.com/3za7cdyt
मेरठवासियों, आप सभी जानते हैं कि हमारा शहर सिर्फ खेल, शिक्षा और बाज़ारों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की सबसे गर्वीली मिट्टी के रूप में भी जाना जाता है। मेरठ छावनी - जो आज भी शहर की पहचान का एक बड़ा हिस्सा है एक ऐसा ऐतिहासिक स्थल है जिसने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी को जन्म दिया। लेकिन इस छावनी की कहानी सिर्फ विद्रोह तक सीमित नहीं है; इसकी जड़ें 1803 से शुरू होती हैं, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) ने मेरठ पर नियंत्रण स्थापित किया। आज इस लेख में हम एक सरल, मानवीय और मेरठ-केन्द्रित शैली में समझेंगे कि कैसे हमारा शहर अंग्रेज़ी राज की रणनीतियों का केंद्र बना, छावनी कैसे विकसित हुई, कौन-कौन से स्थल आज भी इतिहास को जीवित रखते हैं, और वह रहस्यमयी ‘चपाती आंदोलन’ क्या था जिसने विद्रोह का संदेश पूरे उत्तर भारत में फैला दिया।
आज हम सबसे पहले जानेंगे कि मुगल पतन के बाद मेरठ कैसे स्थानीय सरदारों के अधीन रहा और फिर 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में कैसे आया। इसके बाद, हम मेरठ छावनी की स्थापना, उसकी सैन्य संरचना और शहर के विकास पर उसके प्रभाव को समझेंगे। फिर हम छावनी के प्रमुख ऐतिहासिक आकर्षणों - शहीद स्मारक, औगढ़नाथ मंदिर और स्वतंत्रता संग्रहालय - का परिचय लेंगे। हम मेरठ में मौजूद ब्रिटिशकालीन वास्तुकला जैसे सेंट जॉन चर्च (St. John's Church) और गांधी बाग की झलक देखेंगे। और अंत में, हम उस रहस्यमय “चपाती आंदोलन” के बारे में जानेंगे जिसे कई इतिहासकार 1857 विद्रोह का मौन संदेशवाहक मानते हैं।

मेरठ का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आना: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
18वीं सदी के उत्तरार्ध में जब मुगल साम्राज्य अपनी शक्ति खो रहा था, तब उत्तर भारत की राजनीतिक तस्वीर तेजी से बदल रही थी। मेरठ भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं रहा। यहाँ स्थानीय जाट, सैय्यद और गुर्जर सरदारों का प्रभाव लगातार बढ़ता गया और कई क्षेत्रों में जाट प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी दौरान सरधना का एक बड़ा हिस्सा वॉल्टर रेनहार्ड्ट (Walter Reinhardt) (समरू) के नियंत्रण में था, जिसने इस क्षेत्र की सत्ता संरचना को और जटिल बना दिया। दूसरी ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मराठों के साथ हुए लगातार युद्धों के बाद उत्तर भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थी। 1803 में सुरजी-अंजुनगांव संधि के बाद मेरठ पूरी तरह अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। दिल्ली के समीप होने और गंगा-यमुना के उपजाऊ दोआब में स्थित होने के कारण यह क्षेत्र अंग्रेज़ों के लिए रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक - तीनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण था। यही वह क्षण था जिसने मेरठ को उत्तर भारत के सबसे प्रभावशाली सैन्य केंद्रों में बदलने की शुरुआत की।

मेरठ छावनी की स्थापना (1803) और सैन्य महत्व
1803 में ब्रिटिशों ने मेरठ छावनी की स्थापना की और इसे कुछ ही वर्षों में उत्तर भारत की सबसे सुदृढ़ तथा योजनाबद्ध सैन्य छावनियों में बदल दिया। लगभग 3,500 हेक्टेयर के विशाल क्षेत्र में फैली इस छावनी को तीन बड़े हिस्सों - इन्फ़ैन्ट्री (Infantry) लाइन्स, कैवेलरी (Cavalry) लाइन्स और रॉयल आर्टिलरी (Royal Artillery) लाइन्स - में व्यवस्थित रूप से विकसित किया गया। यहाँ सैनिकों के आवास, विशाल परेड ग्राउंड, प्रशिक्षण परिसर, चर्च, मैस, अस्पताल, गोदाम, बैरकें और अधिकारियों के बंगलों का निर्माण तेजी से हुआ। जैसे-जैसे सैन्य प्रतिष्ठान बढ़ते गए, उसके साथ ही मेरठ शहर की शहरी संरचना में भी बड़ा बदलाव आया। बाद में यहाँ स्थापित रीमाउंट एंड वेटरनरी कॉर्प्स (Remount & Veterinary Corps - RVC) केंद्र ने मेरठ को सैन्य-पशु प्रबंधन और अनुसंधान का केंद्र बना दिया। समय के साथ यह छावनी सिर्फ सैन्य गतिविधियों का स्थान नहीं रही, बल्कि मेरठ के सामाजिक, आर्थिक और आधुनिक विकास की नींव बन गई - और यह वही जगह बनी जहां से 1857 की चिंगारी भड़की जिसने इतिहास बदल दिया।

मेरठ छावनी के प्रमुख ऐतिहासिक और पर्यटन आकर्षण
मेरठ छावनी आज भी इतिहास, विरासत और देशभक्ति का ऐसा संगम है जो हर आगंतुक को अपनी ओर खींच लेता है। यहाँ स्थित शहीद स्मारक 1857 के उन वीरों को समर्पित है जिन्होंने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ सबसे पहले स्वर उठाया। इस स्मारक का शांत परिसर और उसकी दीवारों पर अंकित बलिदानों की गाथाएँ हर आगंतुक को भीतर तक छू जाती हैं। औगढ़नाथ मंदिर - जिसे स्थानीय लोग काली पलटन मंदिर भी कहते हैं - वह स्थान है जहाँ विद्रोहियों ने पहली बार कारतूसों के मुद्दे पर खुलकर विरोध किया था। यह मंदिर आज भी मेरठ के लोगों की आस्था और गर्व का एक अद्भुत प्रतीक है। पास ही स्थित स्वतंत्रता संघर्ष संग्रहालय में 1857 के दुर्लभ दस्तावेज़, पत्र, हथियार, पेंटिंग्स और संस्मरण संरक्षित हैं, जो उस दौर को जीवंत रूप में सामने लाते हैं। इन सबके अलावा छावनी में फैली पुरानी पेड़-पंक्तियाँ, घुमावदार सड़कें और ऐतिहासिक इमारतें इस क्षेत्र को एक विशिष्ट और समयरहित आकर्षण देती हैं।

मेरठ में ब्रिटिश वास्तुकला के प्रमाण: चर्च, उद्यान और औपनिवेशिक ढाँचे
मेरठ छावनी की औपनिवेशिक वास्तुकला आज भी 19वीं सदी की शांति, अनुशासन और विन्यास को जीवंत रूप में दिखाती है। सेंट जॉन चर्च (1819–1821), जिसकी निओ-गॉथिक शैली और शांत परिसर अपनी प्राचीनता से ही मन को आकर्षित करते हैं, यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण धरोहरों में से एक है। इसके अंदर की ऊँची छतें, लकड़ी का आकर्षक इंटीरियर (interior) और बाहरी कब्रिस्तान में मौजूद 1857 के शहीदों और अंग्रेज़ी सैनिकों की कब्रें इतिहास की कई कहानियाँ समेटे हुए हैं। गांधी बाग, जिसे पहले कंपनी गार्डन कहा जाता था, औपनिवेशिक युग में मनोरंजन और टहलने के लिए बनाया गया एक बड़ा हरा-भरा उद्यान था। आज भी यह मेरठ छावनी का सबसे लोकप्रिय सार्वजनिक स्थल है। छावनी क्षेत्र के बंगलों, सैनिक आवासों, चौड़ी सड़कों, लाल-ईंटों वाली इमारतों और पेड़ों से घिरे मार्गों में अंग्रेज़ी वास्तुकला की विशिष्ट शैली दिखाई देती है - जो यह बताती है कि मेरठ कभी ब्रिटिश प्रशासन का एक अहम केंद्र हुआ करता था।

‘चपाती आंदोलन’ (1857): उत्तर भारत का रहस्यमय संकेत-तंत्र
1857 के विद्रोह से ठीक पहले पूरे उत्तर भारत में एक अजीब और रहस्यमय गतिविधि देखी गई जिसे अंग्रेज़ों ने ‘चपाती आंदोलन’ नाम दिया। रात के समय एक व्यक्ति गाँव के चौकीदार को कई चपातियाँ देकर अगले गाँवों तक पहुँचाने को कहता था, और चौकीदार बिना सवाल किए यह काम दूसरों को सौंप देता था। खास बात यह थी कि किसी को यह तक नहीं पता था कि यह चपातियाँ बनवा कौन रहा है या उनका उद्देश्य क्या है। ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट के अनुसार यह चपातियाँ इतनी तेज़ी से फैल रही थीं कि उनकी डाक-व्यवस्था भी पीछे रह जाए। अंग्रेज़ आदमियों ने कई महीनों तक इसकी जांच की, पर कोई भी स्पष्ट संदेश या षड्यंत्र नहीं मिला। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि यह आंदोलन ग्रामीण इलाकों में असंतोष, बेचैनी और एकता का अप्रत्यक्ष संदेश था जिसने 1857 के विद्रोह के माहौल को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह घटना आज भी भारतीय इतिहास का एक रहस्यमय अध्याय बनी हुई है - जहाँ चपातियाँ विद्रोह की एक मौन, लेकिन प्रभावशाली चेतावनी की तरह पूरे उत्तर भारत में घूमती रहीं।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/ypnzz9ah
https://tinyurl.com/2p9n33s3
https://tinyurl.com/2edtyn6j
https://tinyurl.com/yckur8pm
https://tinyurl.com/jp3rnest
https://tinyurl.com/mufy42zp
आज मेरठ की महिलाएँ हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। चाहे फैक्टरियों में काम करना हो, निर्माण स्थलों पर मेहनत करनी हो, या फिर सेवा क्षेत्र में अपने कौशल से योगदान देना हो, महिलाएँ अब समाज के हर हिस्से में दिखाई देती हैं। ऐसे में यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उनके अधिकारों और सुरक्षा के लिए हमारे श्रम क़ानून क्या कहते हैं। भारत का संविधान इन कामकाजी महिलाओं को कई विशेष अधिकार देता है, जो उन्हें न सिर्फ़ कार्यस्थल पर सुरक्षा प्रदान करते हैं, बल्कि सम्मान और समान अवसर भी सुनिश्चित करते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका हमेशा से बेहद अहम रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में लगभग 14.98 करोड़ महिला श्रमिक कार्यरत हैं। इनमें से बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों से आती है, लेकिन मेरठ जैसे अर्ध-शहरी इलाकों में भी महिलाएँ अब बड़ी संख्या में कार्यबल का हिस्सा बन रही हैं। शहर के उद्योग, शिक्षण संस्थान और सेवा क्षेत्र महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के साक्षी हैं।
आज हम विस्तार से जानेंगे कि मेरठ की कामकाजी महिलाएँ किन श्रम कानूनों के तहत सुरक्षित और सम्मानित महसूस करती हैं, मातृत्व अवकाश और कार्यस्थल सुविधाएँ उनके जीवन को कैसे आसान बनाती हैं, व्यावसायिक प्रशिक्षण उनके आत्मविश्वास और आर्थिक स्वतंत्रता में कैसे मदद करता है, और इन सभी पहलुओं ने कैसे उन्हें हर क्षेत्र में सक्रिय, आत्मनिर्भर और समाज में सम्मानित बनाया है।
श्रम क़ानून और महिलाओं की सुरक्षा
सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा और कल्याण के लिए कई नियम बनाए हैं। फ़ैक्टरी अधिनिय (Factories Act) 1948 के तहत महिलाओं को ऐसे काम करने की अनुमति नहीं है, जिनसे उनके स्वास्थ्य या सुरक्षा को नुकसान पहुँच सकता है। उदाहरण के तौर पर, जब भारी मशीनें चल रही हों, तो महिलाएँ मशीनरी के पुर्ज़ों की सफ़ाई या मरम्मत का काम नहीं कर सकतीं। यह नियम किसी भी प्रकार की दुर्घटना से बचाव के लिए है। मेरठ के औद्योगिक इलाकों जैसे पार्टापुर, मोदीपुरम और मलियाना में इन नियमों का पालन कड़ाई से किया जाता है ताकि कामकाजी महिलाओं को सुरक्षित वातावरण मिले। साथ ही, महिलाओं को उन जगहों पर काम करने से भी रोका गया है जहाँ कपास दबाने या धूल और धुएँ से जुड़ा जोखिम अधिक होता है।
रात में काम पर रोक
क़ानून के अनुसार महिलाएँ केवल सुबह छह बजे से शाम सात बजे के बीच ही फैक्टरियों में काम कर सकती हैं। 1966 के बीड़ी और सिगार श्रमिक अधिनियम (Beedi and Cigar Workers Act) में भी यही प्रावधान है। 1952 का खान अधिनियम (Mines Act) महिलाओं को केवल ज़मीन से ऊपर की खदानों में इन समय सीमाओं के भीतर काम करने की अनुमति देता है। मेरठ में कई निजी और सरकारी संस्थान इस नियम का पालन करते हैं ताकि महिलाएँ देर रात की पालियों से जुड़ी किसी भी सुरक्षा समस्या से दूर रहें।
भूमिगत कार्य और मातृत्व अवकाश
1952 के खान अधिनियम के अनुसार, महिलाओं को किसी भी भूमिगत खदान में काम करने की अनुमति नहीं है। वहीं 1961 का मातृत्व लाभ अधिनियम गर्भवती कामकाजी महिलाओं को छह महीने तक का अवकाश देता है। यह छुट्टी बच्चे के जन्म से पहले या बाद में ली जा सकती है। इस अवधि में महिला को पूरा वेतन दिया जाता है। मेरठ की कई शिक्षण संस्थाएँ और औद्योगिक इकाइयाँ अब इस क़ानून का पालन करते हुए मातृत्व अवकाश का पूरा लाभ प्रदान कर रही हैं। इससे महिलाएँ बिना किसी चिंता के अपने परिवार और कार्य, दोनों में संतुलन बना पा रही हैं।
कार्यस्थल पर सुविधाएँ और सम्मान
श्रम क़ानून यह भी सुनिश्चित करते हैं कि महिलाओं को कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाएँ मिलें। अलग शौचालय और मूत्रालय की व्यवस्था संविदा श्रम अधिनियम 1970 और कारख़ाना अधिनियम 1948 में अनिवार्य की गई है। धुलाई और कपड़े बदलने की सुविधा भी कानून द्वारा आवश्यक मानी गई है ताकि महिलाएँ स्वच्छ और सम्मानजनक वातावरण में काम कर सकें। बाल देखभाल केंद्र या क्रेच (crèche) की व्यवस्था वहाँ की जाती है जहाँ बड़ी संख्या में महिलाएँ कार्यरत हों। इससे महिलाएँ अपने छोटे बच्चों की देखभाल को लेकर निश्चिंत रहती हैं और पूरे मन से अपने काम पर ध्यान दे सकती हैं। मेरठ के कई औद्योगिक और कॉर्पोरेट दफ़्तर अब ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे हैं, जिससे महिलाओं का आत्मविश्वास और उत्पादकता दोनों बढ़ रहे हैं।
महिला प्रशिक्षण और आत्मनिर्भरता
महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भारत सरकार ने कई प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए हैं। रोजगार एवं प्रशिक्षण महानिदेशालय (Directorate General of Employment and Training) के अंतर्गत चलने वाला महिला व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम इस दिशा में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर में कई संस्थान कार्यरत हैं जैसे नोएडा में राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान और मुंबई, बेंगलुरु, तिरुवनंतपुरम, कोलकाता, इलाहाबाद और इंदौर में क्षेत्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान।
मेरठ की महिलाएँ भी इन कार्यक्रमों का लाभ उठा रही हैं। शहर में कई निजी संस्थान सिलाई, कंप्यूटर संचालन, डेटा विश्लेषण और डिजिटल मार्केटिंग (Digital Marketing) जैसे आधुनिक कौशलों का प्रशिक्षण दे रहे हैं। इन पहलों ने अनेक महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत और आत्मनिर्भर बनने में मदद की है।
मेरठ की महिलाओं की बदलती तस्वीर
आज मेरठ की महिलाएँ केवल घर तक सीमित नहीं रहीं। वे शिक्षा, प्रशासन, उद्योग, स्वास्थ्य सेवा और खेल के क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। श्रम क़ानूनों ने उन्हें सुरक्षा और अधिकारों की वह नींव दी है जिस पर वे आत्मविश्वास के साथ अपने सपनों की इमारत खड़ी कर रही हैं। इन क़ानूनों ने न केवल उनके जीवन की दिशा बदली है, बल्कि समाज में समानता और सम्मान की भावना को भी मज़बूत किया है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/zdpnp6ah
https://tinyurl.com/rneuubcr
भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे अद्भुत विशेषताओं में से एक यह है कि यह मौसम, वातावरण और मानव मन - तीनों को गहराई से प्रभावित करता है। हमारे यहां राग केवल सुरों का मेल नहीं होते, बल्कि ऋतु, प्रकृति और भावनाओं के साथ जुड़े जीवंत अनुभव होते हैं। परंपराओं में कहा गया है कि “राग ऋतु के स्वभाव के अनुरूप रचे जाते हैं”, इसलिए हर मौसम का अपना विशिष्ट संगीत माना गया है। जैसे वर्षा का पवित्र उल्लास मल्हार में मिलता है, शरद की शांति भैरव में, वसंत की कोमलता हिंडोल में और सर्दियों की गंभीर-सुशांत ऊर्जा मालकौस में महसूस होती है।
राग मालकौस, जिसे मालकोश भी कहा जाता है, भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे प्राचीन और आध्यात्मिक रागों में स्थान रखता है। कर्नाटक संगीत में यही राग हिंडोलम नाम से गाया जाता है। इसके नाम की उत्पत्ति भी अत्यंत रोचक है - मल और कौशिक का संयोजन, जिसका आशय है “वह जो नागों को माला की तरह धारण करता है”, यानी भगवान शिव। कथा है कि माता सती के अग्नि-बलिदान के बाद जब महादेव प्रलयकारी क्रोध में तप रहे थे, तब देवी पार्वती ने उन्हें शांत करने के लिए राग मालकौस की रचना की थी। इसीलिए इस राग में एक अद्भुत गहराई, स्थिरता और अधिभौतिक शक्ति का अनुभव मिलता है।
इतना ही नहीं, जैन परंपरा में भी राग मालकौस का विशेष महत्व है। माना जाता है कि तीर्थंकर समवसरण में जब अर्धमागधी भाषा में देशना देते थे, तब इसी राग का प्रयोग किया जाता था, जिससे वातावरण में शांति और ग्रहणशीलता बनी रहती थी।
इस प्रकार राग मालकौस केवल एक संगीत-रचना नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक धरोहर का वह जीवंत स्वर है, जो सर्दियों की नीरवता, रात की गहराई और मन की अंतर्मुखता को सुरों में पिरोकर श्रोता के हृदय तक पहुंचाता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5avpj8v6
https://tinyurl.com/6fd3bfjx
मेरठवासियों, क्या आपको याद हैं वो दिन जब गाँव के मेले में या किसी स्कूल के कार्यक्रम में रंग-बिरंगी कठपुतलियाँ अपनी डोरियों पर झूमती थीं? कभी राजा बनकर न्याय करतीं, तो कभी किसी किसान या जोकर की आवाज़ बनकर समाज की सच्चाई बयां करतीं। बच्चे तालियाँ बजाते थे, बड़े मुस्कुराते थे - लेकिन इन पलों में सिर्फ़ हँसी नहीं, एक गहरी सीख भी छिपी होती थी। यही तो थी हमारी कठपुतली कला - मनोरंजन और जीवन-दर्शन का अद्भुत संगम। मेरठ जैसे सांस्कृतिक शहर में, जहाँ लोकनाट्य, कवि सम्मेलनों और नाट्य मंचों की परंपरा आज भी जीवित है, कठपुतली कला भी कभी लोक जीवन का अहम हिस्सा रही है। यह केवल नाचती या बोलती हुई गुड़िया नहीं थी - बल्कि हमारी संस्कृति, इतिहास और समाज की आवाज़ थी, जो बिना उपदेश दिए लोगों के दिलों तक पहुँचती थी। एक समय था जब मेरठ के आसपास के गाँवों में यह कला लोक शिक्षा और जागरूकता का माध्यम बनकर उभरती थी - बच्चों को नैतिकता, बड़ों को एकता और समाज को परिवर्तन का संदेश देती हुई। आज जब मोबाइल की स्क्रीन ने हमारे मनोरंजन की दुनिया को सीमित कर दिया है, तब लगता है जैसे वो डोरियाँ जो कभी कहानियों को जीवंत बनाती थीं, धीरे-धीरे ढीली पड़ रही हैं। पर क्या यह कला सचमुच गायब हो रही है - या बस हमारी नज़रों से ओझल हो गई है? इसी सवाल के साथ आइए, इस लेख में हम खोज करते हैं कठपुतली कला के उस समृद्ध इतिहास की जो सदियों से भारत की आत्मा का हिस्सा रही है। जानेंगे इसके उद्भव और धार्मिक महत्व के बारे में, लोक रंगमंच और शिक्षा में इसकी भूमिका को समझेंगे, भारत की विभिन्न क्षेत्रीय कठपुतली शैलियों का परिचय पाएँगे, इंडोनेशिया की वेयांग (Wayang) कुलित से इसके वैश्विक संबंध को देखेंगे, कारीगरों की पारंपरिक तकनीकों को जानेंगे, और अंत में इस कला के पुनर्जागरण की ज़रूरत पर विचार करेंगे।

भारतीय परंपरा में कठपुतली कला का उद्भव और ऐतिहासिक महत्व
कठपुतली भारत की सबसे पुरानी नाट्य कलाओं में से एक है। माना जाता है कि यह कला 500 ईसा पूर्व से भी पहले अस्तित्व में थी। ‘सिलप्पदिकारम’ जैसी प्राचीन तमिल कृति में कठपुतली के उल्लेख मिलते हैं, और ‘नाट्यशास्त्र’ के ‘सूत्रधार’ शब्द से भी इसके गहरे दार्शनिक अर्थ जुड़ते हैं। प्राचीन भारत में कठपुतली केवल मनोरंजन नहीं थी, बल्कि एक प्रतीकात्मक शिक्षा प्रणाली थी - जहाँ कलाकार ईश्वर की भूमिका निभाते थे, और कठपुतलियाँ मनुष्य के जीवन की प्रतीक बनती थीं। भारतीय दार्शनिकों ने इसे ब्रह्मांडीय नियंत्रण का रूपक माना, जैसे ईश्वर सूत्रधार है और हम उसकी डोरियों से संचालित पात्र हैं। इस प्रकार, कठपुतली कला न केवल लोकसंस्कृति की उपज है, बल्कि दार्शनिक गहराई से भरा एक आध्यात्मिक प्रदर्शन भी है।
लोक रंगमंच और शिक्षा में कठपुतली की भूमिका
भारतीय समाज में कठपुतली सदियों से जनसंचार और लोकशिक्षा का सशक्त माध्यम रही है। पुराने समय में समाचार, नैतिक कहानियाँ और धार्मिक संदेश कठपुतली नाटकों के माध्यम से गाँव-गाँव पहुँचाए जाते थे। समय के साथ, यह कला सामाजिक जागरूकता अभियानों का हिस्सा बनी - चाहे वह पर्यावरण संरक्षण का सन्देश हो या स्वच्छता अभियान। कई शिक्षण संस्थान अब विकलांग बच्चों के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास के लिए कठपुतली को एक चिकित्सीय माध्यम के रूप में अपनाते हैं। शब्द, संगीत, रंग और गति के मिश्रण से यह कला बच्चों में आत्मविश्वास और रचनात्मकता को विकसित करती है। मेरठ जैसे सांस्कृतिक नगरों में लोक कलाकारों द्वारा आज भी इसका उपयोग जागरूकता फैलाने के लिए किया जाता है - जिससे यह कला आधुनिक समय में भी प्रासंगिक बनी हुई है।

भारत की विविध क्षेत्रीय कठपुतली परंपराएँ और उनकी विशेषताएँ
भारत के हर कोने की कठपुतली की अपनी एक पहचान है। राजस्थान की "कठपुतली" अपनी चमकीली पोशाक और लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है, वहीं ओडिशा की "कुंडहेई" हल्की लकड़ी से बनी लचीली डोरियों से नियंत्रित होती है। कर्नाटक की "गोम्बेयट्टा" और तमिलनाडु की "बोम्मालट्टम" अपनी यक्षगान और नाट्य परंपरा से प्रेरित हैं - जिनमें डोरियों और छड़ों दोनों का उपयोग किया जाता है। पूर्वी भारत में "पुतुल नाच" (पश्चिम बंगाल) और "यमपुरी" (बिहार) छड़ आधारित कठपुतलियों के रूप में जानी जाती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश की दस्ताना कठपुतलियाँ हाथ से संचालित होती हैं और सामाजिक विषयों पर केंद्रित रहती हैं। यह विविधता भारत की सांस्कृतिक गहराई और रचनात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है - जहाँ हर क्षेत्र अपनी पहचान को डोरियों में पिरोता है।
इंडोनेशिया की वेयांग कुलित: भारतीय छाया कठपुतली की वैश्विक समानता
भारतीय छाया कठपुतली परंपरा की गूंज इंडोनेशिया तक पहुँची है। वहाँ की प्रसिद्ध "वेयांग कुलित" कला यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर घोषित की गई है। यह कला जावा और बाली द्वीपों में सदियों से जीवित है, जहाँ बकरी या भैंस की खाल से बनी कठपुतलियाँ पर्दे के पीछे दीपक की रोशनी से छाया बनाकर कथा कहती हैं। इसकी कहानियाँ भी रामायण और महाभारत से प्रेरित हैं - जो भारत और इंडोनेशिया के सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाती हैं। "वेयांग" शब्द का अर्थ ही ‘छाया’ है, जो भारतीय परंपरा की आत्मा को जीवित रखता है। इन कठपुतलियों को बनाने की प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म होती है - महीनों तक खाल को परिष्कृत कर, रंगों और सोने की पत्तियों से सजाया जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कला ने न केवल अपनी भूमि पर, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया में भी सांस्कृतिक पुल का निर्माण किया।

कठपुतली निर्माण की पारंपरिक तकनीकें और कारीगरों की कला
कठपुतली निर्माण स्वयं में एक जटिल और रचनात्मक कला है। राजस्थान, कर्नाटक और ओडिशा के कारीगर लकड़ी, भैंस की खाल और कपड़े का उपयोग करते हैं। रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है, और कई बार इन्हें सोने या कांस्य पत्तियों से सजाया जाता है। कठपुतलियों की गतिशीलता उनके जोड़ और डोरियों पर निर्भर करती है - जिन्हें महीनों की मेहनत से सटीकता के साथ तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर इन डोरियों को "आत्मा की डोर" कहा जाता है, जो जीवन और कला के बीच के संबंध का प्रतीक है। इस कला में हर कठपुतली एक कहानी कहती है, और हर कारीगर अपनी रचना में अपना जीवन समर्पित करता है।

आधुनिक युग में कठपुतली कला का संरक्षण और पुनर्जागरण की आवश्यकता
डिजिटल युग में कठपुतली कला के सामने अस्तित्व का संकट है। टेलीविज़न, सोशल मीडिया (Social Media) और एनीमेशन (Animation) के युग में लोककला धीरे-धीरे हाशिये पर जा रही है। लेकिन जौनपुर जैसे सांस्कृतिक नगरों में कई विद्यालय और संगठन इस परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए पहल कर रहे हैं। कठपुतली कार्यशालाएँ, विद्यालयों में शैक्षिक नाटक, और लोक कलाकारों के सम्मान समारोह इस दिशा में सकारात्मक कदम हैं। हमें समझना होगा कि कठपुतली केवल एक नाटक नहीं, बल्कि हमारी लोक आत्मा की अभिव्यक्ति है। यदि इसे नई पीढ़ी से जोड़ा जाए, तो यह कला फिर से मंच पर लौट सकती है - और शायद पहले से अधिक जीवंत रूप में।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/mvs2awya
https://tinyurl.com/dwp94a58
https://tinyurl.com/47vvd5kh
https://tinyurl.com/yn73njke
अपने बिज़नेस के लिए नए अवसर खोजें
अपने शहर/देश की प्रगति की तुलना करें
नयी अपडेट : नवम्बर 2025
