मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ वासियों, बदलता रहे दौर, पर नहीं बदलना चाहिए लैंगिक समानता का महत्व
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
07-05-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

मेरठ वासियों, क्या आप जानते हैं कि, आज मैनोस्फ़ेयर(Manosphere) का उभरना वैश्विक स्तर पर बहस और चिंता का विषय बन चुका है? मैनोस्फ़ेयर, एक ऑनलाइन समुदाय है, जहां विभिन्न समूह पुरुषों के अधिकारों, पुरुषत्व और लिंग भूमिकाओं पर चर्चा करते हैं। हालांकि, जहां कुछ समूह पुरुषों से जुड़े वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वहीं अन्य लोग हानिकारक विचारों को फ़ैलाते हैं, जो गलतफ़हमी, अनुचित पुरुषत्व और गैर–नारीवादी विश्वासों को बढ़ावा देते हैं। कई आलोचकों का मानना है कि, इस तरह का कंटेंट महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, ऑनलाइन उत्पीड़न, और यहां तक कि कट्टरता का कारण बन सकता है। यह मुद्दा, इस तरह के कंटेंट के बारे में जागरूक होना तथा समाज में लिंग भूमिकाओं के बारे में, सकारात्मक और सम्मानजनक बातचीत को प्रोत्साहित करने के महत्व को रेखांकित करता है। विशेष रूप से किशोर पुरुषों को सावधान और सतर्क रहना चाहिए, और ऐसी साइटों से बचना चाहिए। क्योंकि, मैनोस्फ़ेयर लोगों को हानिकारक विचारधाराओं की ओर धकेल सकते हैं।
आज, हम चर्चा करेंगे कि, मैनोस्फ़ेयर क्या है। हम जांच करेंगे कि, किशोर लड़के इन समुदायों की ओर क्यों आकर्षित होते हैं; वे इनसे क्या अपील पाते हैं; और इससे जुड़े संभावित जोखिम क्या हैं। अंत में, हम यह देखेंगे कि, माता-पिता अपने बेटों को पुरुषत्व और इंटरनेट के उपयोग पर स्वस्थ मार्गदर्शन करने के लिए, क्या कर सकते हैं।
मैनोस्फ़ेयर क्या है?
मैनोस्फ़ेयर, महिलाओं के सशक्तिकरण के खिलाफ़ पुरुषों के ऑनलाइन समुदायों का एक नेटवर्क है, जो गैर–नारीवादी और लिंगवादी विश्वासों को बढ़ावा देते हैं। वे समाज में सभी प्रकार की समस्याओं के लिए, महिलाओं और नारीवादियों को दोषी मानते हैं। इनमें से कई समुदाय, महिलाओं और लड़कियों के प्रति नाराज़गी, या यहां तक कि घृणा को प्रोत्साहित करते हैं। मैनोस्फ़ेयर के चार मुख्य समूह हैं:
१.पुरुष अधिकार कार्यकर्ता (MRAs), राजनीतिक परिवर्तनों की वकालत करते हैं, जो पुरुषों को लाभान्वित करेंगे। हालांकि, उनकी अधिकांश सक्रियता में नारीवादी और अन्य महिला समर्थकों के प्रति उत्पीड़न और दुरुपयोग शामिल हैं।
२.मेन गोइंग देयर ओन वे(Men going their own way – MGTOW) का तर्क है कि, महिलाएं इतनी बुरी हैं कि, पुरुषों को उनसे पूरी तरह से बचना चाहिए। इस मान्यता के कुछ पुरुष, महिलाओं के साथ दोस्ती भी नहीं करेंगे।
३.पिक-अप आर्टिस्ट्स (Pick-up artists – PUAs), पुरुषों को प्रलोभन रणनीतियां सिखाते हैं, ताकि वे महिलाओं को आकर्षित कर सकें। फिर इनमें से कई तकनीकों में, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करना शामिल है, जैसे कि – उनका अपमान करना या उनकी सहमति की अवहेलना करना।
४.इनवॉलंटरी सेलिबेट्स(Involuntary celibates) का मानना है कि, वे किसी महिला के साथ संबंध के हकदार हैं, लेकिन, किसी साथी को खोजने में असमर्थ हैं। अत्यधिक हिंसा और यहां तक कि हत्या के कुछ कृत्यों के लिए, इस समूह को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।
किशोर लड़के, मैनोस्फ़ेयर पर क्यों आकर्षित होते हैं?
इस ऑनलाइन स्थान का सबसे खतरनाक हिस्सा यह है कि, यह भाई-चारे की भावना को बढ़ाता है। जबकि कई ज्येष्ठ पुरुषों के पास सूचना को समझने और जांचने की क्षमता होती है, किशोर लड़के इतनी जागरूकता नहीं रखते हैं। उन युवा लड़कों को, जो अपनी वास्तविकताओं में खोए हैं और दुनिया में अनदेखा महसूस करते हैं, यह स्थान उन्हें ऐसा महसूस कराता है कि, वे अपने समुदाय को पाए हैं।
मैनोस्फ़ेयर, पुरुषत्व का एक बहुत स्पष्ट दृश्य प्रस्तुत करता है, साथ ही साथ ‘एक अलग पुरुष बनने’ के लिए एक योजना भी प्रस्तुत करता है। यह ऐसा विश्व दर्शाता है, जहां नियंत्रण, शक्ति और प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि मानी जाती हैं। और कोई भी किशोर लड़का, जो अभी भी विभिन्न चीज़ों का पता लगा रहा होता है, यहां आश्वस्त महसूस कर सकता है।
एक तरफ़, ये ऑनलाइन स्थान, आमतौर पर काफ़ी आकर्षक होते हैं। यहां लड़कों के मूल्यों को एक परस्पर संवादात्मक समुदाय द्वारा मान्य किया जाता है। अतः यह समझना आसान है कि, किशोर लड़के ऐसे प्लेटफ़ॉर्म पर क्यों आ सकते हैं।
लड़कों के माता-पिता इस संदर्भ में क्या कर सकते हैं?
यद्यपि मैनोस्फ़ेयर की गलत शिक्षाएं इंटरनेट तक ही सीमित नहीं हैं, केवल ऑनलाइन समुदायों में ही सबसे अधिक समस्याग्रस्त विचारधारा साझा की जाती है। यदि आप किसी लड़के के माता-पिता हैं, तो आप निम्नलिखित तरीकों से, अपने लड़कों को मैनोस्फ़ेयर के हानिकारक पहलुओं से बचा सकते हैं।
1. मुक्त बातचीत ज़रूरी है!
जैसे-जैसे लड़के वयस्क पुरुषों में बदलते हैं, उनके लिए यह स्वाभाविक है कि, वे पुरुषत्व और दुनिया में उनकी जगह के बारे में उत्सुक हों। अतः इस समय माता-पिता को एक ऐसे वातावरण को बढ़ावा देना चाहिए, जहां बेटे अपने विचारों और भावनाओं के बारे में बात करने में सहज महसूस कर सकते हैं। लिंग भूमिकाओं, रिश्तों और पुरुषत्व के विषयों को भी, बातचीत में शामिल करना एक अच्छा विचार है। साथ ही, बच्चों को विश्वास में लेकर, यह जानें कि वे इंटरनेट पर क्या देखते, करते और सुनते या पढ़ते हैं।
2. सकारात्मक आदर्श को बढ़ावा देना:
किसी लड़के के विकास के दौरान, कोई आदर्श होना महत्वपूर्ण हैं। अपने बेटे को किसी ऐसे आदर्श पुरुष व्यक्ति से बातें सीखने में मदद करें, जो स्वस्थ पुरुषत्व का प्रदर्शन करते हैं और महिलाओं का सम्मान करते हैं।
3.उनकी ऑनलाइन गतिविधि की निगरानी करें:
आज विभिन्न वेबसाइट (Website), सोशल मीडिया (Social Media), फ़ोरम (Forums) और सब्रेडिट्स (Subreddits) ने खतरनाक विचारधारा को फ़ैलने की अनुमति दी है, जो इंटरनेट पूर्व दिनों में असंभव था। इसलिए, आज बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों में माता-पिता के छोटे से हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
वर्ल्ड अस्थमा डे:दीर्घकालिक स्वास्थ्य की हिफ़ाज़त में,क्यों ज़रूरी है श्वसन रोगों से बचाव
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
06-05-2025 09:25 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, ब्रोंकाइटिस (Bronchitis) एक आम सांस संबंधी बीमारी है, जो खासतौर पर मौसम बदलने और बढ़ते प्रदूषण की वजह से होती है। जब फेफड़ों तक हवा पहुंचाने वाली नलियां (Bronchial tubes) सूज जाती हैं, तो सांस लेने में कठिनाई होती है, लगातार खांसी आती है, बलगम बनता है और सीने में भारीपन महसूस होता है। यह समस्या वायरस के संक्रमण, धूम्रपान या धूल और प्रदूषण के संपर्क में आने से हो सकती है।
ब्रोंकाइटिस दो तरह का होता है—एक्यूट ब्रोंकाइटिस (Acute Bronchitis), जो कुछ हफ़्तों में ठीक हो जाता है, और क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस (chronic bronchitis), जो लंबे समय तक रह सकता है और उचित इलाज की आवश्यकता पड़ सकती है। इससे बचने के लिए धुएं से दूर रहें, पानी ज़्यादा पिएं और डॉक्टर की सलाह के अनुसार दवाएं लें। सही जानकारी और समय पर इलाज से इस समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।
आज हम जानेंगे कि ब्रोंकाइटिस क्या होता है। फिर हम इसके प्रकार और लक्षणों के बारे में समझेंगे, ताकि इसे जल्दी पहचाना जा सके। आखिर में, हम इसके इलाज और रोकथाम के तरीकों पर चर्चा करेंगे।
ब्रोंकाइटिस क्या है?
ब्रोंकाइटिस एक ऐसी बीमारी है जिसमें फेफड़ों तक हवा पहुंचाने वाली नलियों श्वासनलियाँ (Bronchi) में सूजन आ जाती है। जब ये नलियां किसी संक्रमण या धुएं जैसी चीज़ों से प्रभावित होती हैं, तो वे फूल जाती हैं और उनमें बलगम भरने लगता है। इससे खांसी जैसी समस्याएँ होने लगती है, जो कुछ दिनों से लेकर कई हफ़्तों तक रह सकती है।
एक्यूट ब्रोंकाइटिस का सबसे आम कारण वायरस (virus) होता है, जबकि धूम्रपान और प्रदूषण जैसी चीज़ें लंबे समय तक चलने वाले क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस का कारण बन सकती हैं।
ब्रोंकाइटिस के प्रकार
ब्रोंकाइटिस दो प्रकार का होता है:
1. एक्यूट ब्रोंकाइटिस:
यह ब्रोंकाइटिस कुछ समय के लिए ही रहता है और अक्सर सर्दी या फ्लू (flu) जैसे वायरल संक्रमण के कारण होता है। इसके लक्षणों में शामिल हैं:
- खांसी (बलगम के साथ या बिना)
- सीने में तकलीफ़ या दर्द
- बुखार
- हल्का सिरदर्द और बदन दर्द
- सांस लेने में परेशानी
2. क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस:
यह एक लंबे समय तक रहने वाली बीमारी है, जिसमें ब्रोंकाई नलियां ज़रूरत से ज़्यादा बलगम बनाने लगती हैं। यह बीमारी बार-बार हो सकती है या पूरी तरह ठीक ही नहीं होती है। इसे क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ (Chronic obstructive pulmonary disease/COPD) का हिस्सा माना जाता है। अगर किसी व्यक्ति को क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस के साथ वातस्फीति (emphysema) भी हो जाता है, तो उसे सी ओ पी डी का मरीज़ माना जाता है। यह एक गंभीर और संभावित रूप से जानलेवा स्थिति हो सकती है।
ब्रोंकाइटिस के लक्षण
अगर आपको एक्यूट ब्रोंकाइटिस है, तो आपको सर्दी जैसे लक्षण हो सकते हैं, जैसे:
- खांसी
- बलगम (जो साफ़, सफ़ेद, पीला-भूरा या हरा हो सकता है, लेकिन कभी-कभी खून की लकीरें भी हो सकती हैं)
- गला ख़राब या दर्द
- हल्का सिरदर्द और बदन दर्द
- हल्का बुखार और सर्दी लगना
- थकान महसूस होना
- सीने में असहजता
- सांस लेने में दिक्कत या घरघराहट
ये लक्षण आमतौर पर एक हफ़्ते में ठीक होने लगते हैं, लेकिन खांसी कई हफ़्तों तक बनी रह सकती है।
अगर आपको क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस है, तो इसके लक्षण लंबे समय तक रह सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:
- लगातार खांसी
- बलगम का बनना
- शरीर में थकावट
- सीने में तकलीफ़
- सांस लेने में परेशानी
ब्रोंकाइटिस का इलाज कैसे किया जाता है?
ब्रोंकाइटिस ज़्यादातर मामलों में खुद ही ठीक हो जाता है, लेकिन इससे जल्दी राहत पाने के लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले, मरीज़ को भरपूर आराम करने की ज़रूरत होती है ताकि शरीर संक्रमण से लड़ सके। ज़्यादा शारीरिक मेहनत करने से बीमारी बढ़ सकती है, इसलिए जब तक पूरी तरह ठीक न हो जाएं, तब तक आराम करना ज़रूरी है। अच्छी नींद लेने से शरीर शीघ्र स्वस्थ होता है।
पानी और अन्य तरल पदार्थों का अधिक सेवन करना भी ज़रूरी होता है। गर्म पानी, सूप, चाय या शहद-नींबू पानी पीने से गले को आराम मिलता है और सीने में जमा बलगम आसानी से बाहर निकल जाता है। ठंडी चीज़ो से बचना चाहिए, क्योंकि वे गले में जलन और खांसी को बढ़ा सकती हैं। अगर सांस लेने में दिक्कत हो रही हो, तो भाप लेना एक कारगर उपाय है। गर्म पानी में विक्स (vicks) या अजवाइन डालकर भाप लेने से फेफड़ों को आराम मिलता है और सांस लेना आसान हो जाता है। ह्यूमिडीफायर (Humidifier) का इस्तेमाल भी किया जा सकता है, खासकर अगर घर का माहौल बहुत शुष्क हो।
अगर खांसी बहुत ज़्यादा हो और रात में सोने में परेशानी हो रही हो, तो डॉक्टर की सलाह से खांसी कम करने वाली दवा ली जा सकती है। हल्के बुखार, सिरदर्द या छाती में दर्द होने पर पेरासिटामोल (Paracetamol) या इबूप्रोफ़ेन (Ibuprofen) जैसी दर्द निवारक दवाएं ली जा सकती हैं, लेकिन इन्हें बिना डॉक्टर की सलाह के नहीं लेना चाहिए।
ब्रोंकाइटिस ज़्यादातर मामलों में वायरस के कारण होता है, इसलिए एंटीबायोटिक्स की ज़रूरत नहीं पड़ती। हालांकि, अगर डॉक्टर को लगे कि संक्रमण बैक्टीरियल (bacterial) है, तो वे एंटीबायोटिक्स (Anti-Biotics) लिख सकते हैं। यह दवाएं उन मरीज़ो को दी जाती हैं, जिनका प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) कमज़ोर होती है या जिन्हें पहले से कोई फेफड़ों की बीमारी होती है।
धूम्रपान करने वाले लोगों को उसे तुरंत बंद कर देना चाहिए, क्योंकि यह फेफड़ों को और ज़्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। धूल, धुआं और प्रदूषित जगहों से बचना ज़रूरी है, क्योंकि ये चीज़े ब्रोंकाइटिस को और ज़्यादा बिगाड़ सकती हैं। अगर बाहर जाना ज़रूरी हो, तो मास्क पहनकर जाना फ़ायदेमंद होगा।
अगर खांसी तीन हफ़्तों से ज़्यादा बनी रहे, सांस लेने में बहुत ज़्यादा दिक्कत हो, सीने में तेज़ दर्द महसूस हो, बलगम में खून आने लगे, बार-बार तेज़ बुखार हो या कमज़ोरी बहुत ज़्यादा लगे, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए। सही देखभाल और सावधानी बरतने से ब्रोंकाइटिस जल्दी ठीक हो सकता है और फेफड़ों को किसी गंभीर समस्या से बचाया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
सकल वाद्ययंत्र गूंज रही अमीर खुसरो की संगीतमय विरासत
मघ्यकाल के पहले : 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक
Early Medieval:1000 CE to 1450 CE
05-05-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

मेरठ की गलियों में जब बैंड-बाजे की धुन गूंजती है, तो वह सिर्फ़ एक संगीत नहीं, बल्कि सदियों पुरानी विरासत की गूंज होती है। यह वही नगर है, जहाँ के पीतल वाद्ययंत्रों की खनक ने भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाई है। दशकों से मेरठ को अपने बेहतरीन बैंड-बाजे, तुरही, ट्रम्पेट (Trumpet), ढोल और अन्य वाद्ययंत्रों के लिए जाना जाता है। यहाँ के कारीगर पारंपरिक हुनर और आधुनिक डिज़ाइनों का ऐसा संगम तैयार करते हैं, जो वाद्ययंत्रों को एक अनोखी और उत्कृष्ट पहचान देता है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान तबला उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब भी मेरठ के अजराड़ा घराने की तारीफ़ किए बिना नहीं रह पाते थे? यही वह धरती है, जहाँ तबला वादन और क़व्वाली की धुनें मिलकर ऐसा समां बांधती हैं, मानो अमीर ख़ुसरो की विरासत फिर से जीवंत हो उठी हो। साहित्य और संगीत की दुनिया में अमीर ख़ुसरो का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे केवल कवि ही नहीं, बल्कि एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने फ़ारसी, हिंदवी और अरबी में ऐसी रचनाएँ दीं, जो प्रेम, आस्था और जीवन के सार को सरल शब्दों में गहरे अर्थों के साथ व्यक्त करती हैं। ग़ज़ल और ख़याल जैसी काव्य शैलियों के जन्मदाता के रूप में उनका योगदान अमूल्य है। उनकी रचनाएँ—"तुहफ़त-उल-सिग़्र", "वस्त-उल-हयात", "ग़ज़लियत-ए-ख़ुसरो" और "ख़ज़ैन-उल-फ़ुतुह"—आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।
मेरठ की गलियों में आज भी उनकी संगीत साधना की झलक देखी जा सकती है। क़व्वाली के जनक के रूप में पहचाने जाने वाले ख़ुसरो ने फ़ारसी और भारतीय संगीत परंपराओं को इस तरह जोड़ा कि एक नई, अनोखी और आत्मा को छू लेने वाली धुनों से भरपूर संगीत विधा का जन्म हुआ। कहा जाता है कि सितार और तबला जैसे वाद्ययंत्रों के विकास में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा, और यही वाद्ययंत्र भारतीय शास्त्रीय संगीत की पहचान बन गए।
आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे अमीर ख़ुसरो ने क़व्वाली की नींव रखी और इस अनूठी संगीत परंपरा को जन्म दिया। इसके बाद, हम उनके द्वारा विकसित तराना शैली पर चर्चा करेंगे, जिसमें लय और माधुर्य का विलक्षण संगम देखने को मिलता है। और अंत में, हम उन संगीत नवाचारों को समझेंगे, जिनकी बदौलत सितार और तबला भारतीय संगीत की आत्मा बन गए।
अमीर ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) एक ऐसा नाम है, जिसका विस्तार केवल एक कवि या संगीतकार तक सीमित नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की बहुआयामी विरासत का प्रतीक है! उन्हें भारत के प्रथम मुस्लिम संगीतज्ञ के रूप में देखा जाता है! उनके योगदान ने भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी ख़ुसरो ने अपने समय में विद्वान, दार्शनिक, रहस्यवादी, वैज्ञानिक, इतिहासकार और राजनयिक के रूप में गहरा प्रभाव डाला। लेकिन उनकी सबसे बड़ी पहचान उनकी कविताएँ बनीं, जिन्हें उन्होंने फ़ारसी और ब्रजभाषा (मध्यकालीन साहित्यिक हिंदी) में रचा।
दिल्ली में निवास के दौरान, वे महान सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325) के प्रिय शिष्य बने। ऐसा कहा जाता है कि अपने गुरु से गहरा लगाव होने के कारण, उनके निधन के केवल छह महीने बाद ही ख़ुसरो ने भी इस संसार को अलविदा कह दिया। ख़ुसरो को मुख्य रूप से क़व्वाली—एक भक्तिपूर्ण सूफ़ी गायन शैली—के जनक के रूप में जाना जाता है। लेकिन उनका संगीत नवाचार केवल यहीं तक सीमित नहीं था; उन्होंने उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में कई नई शैलियों की भी नींव रखी।
आज भी ख़ुसरो की मूल रचनाएँ शास्त्रीय क़व्वाली प्रस्तुतियों की आधारशिला मानी जाती हैं। क़व्वाली की इस परंपरा का जन्म और विकास निज़ामुद्दीन औलिया के दरबार में हुआ, और अब उनकी दरगाह दिल्ली का एक प्रमुख सूफ़ी तीर्थ स्थल है। कहा जाता है कि प्रतिदिन निज़ामुद्दीन औलिया तब तक भोजन नहीं करते थे, जब तक कि वे संगीत का आनंद न ले लें। अपने गुरु को प्रसन्न करने के लिए, ख़ुसरो ने विशेष रूप से उनके लिए नई संगीत रचनाओं की रचना की और इन्हें कोरस सहित प्रस्तुत किया। यही वह क्षण था जब क़व्वाली एक नई शैली के रूप में उभरी और संगीत की दुनिया में अमर हो गई।
तराना का जन्म कैसे हुआ?
ऐसा कहा जाता है कि ख़ुसरो ने तराना की रचना तब की, जब वे राग कदंबक में प्रसिद्ध गायक गोपाल नायक की प्रस्तुति को समझने का प्रयास कर रहे थे। वे इस प्रस्तुति की बारीकियों को पकड़ने के लिए लगातार छह दिन तक गुप्त रूप से अभ्यास करते रहे। अंततः, उन्होंने मृदंग के बोलों और अन्य विशिष्ट वाक्यांशों का प्रयोग करते हुए तराना शैली को विकसित किया।
सितार और तबला के जन्मदाता?
तराना और क़ौल जैसी विशिष्ट संगीत शैलियों के प्रवर्तक होने के साथ-साथ, अमीर ख़ुसरो को सितार और तबला का जनक भी माना जाता है! तबला, दो अलग-अलग आकार के ड्रमों की जोड़ी है, जिनमें से प्रत्येक का स्वरूप और ध्वनि अलग होती है।
बायाँ ड्रम (बायन) गहरी और गंभीर ध्वनियाँ उत्पन्न करता है और संगीतमय धुन को आधार प्रदान करता है। दायाँ ड्रम (दायन) मुख्य स्वर उत्पन्न करता है और रचनात्मक अभिव्यक्ति का केंद्र होता है।
इतना ही नहीं सितार की उत्पत्ति भी ख़ुसरो के नाम से जोड़ी जाती है। इसकी लंबी गर्दन और खोखले, लौकीनुमा शरीर ने इसे एक विशिष्ट पहचान दी। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इसका स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। इसे बजाने के लिए मिज़राब नामक विशेष नाड़ी का प्रयोग किया जाता है।
कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में मुग़लों ने भारत में सितार को लोकप्रिय बनाया, और इसकी जड़ें मध्य पूर्व तक फैली हुई थीं। लेकिन ख़ुसरो ने ही सबसे पहले तीन तारों वाले सितार का निर्माण किया। उन्होंने त्रितंत्री वीणा का नाम बदलकर ‘सहतार’ रखा, जिसे आगे चलकर ‘सितार’ के नाम से जाना गया। उनके इस नवाचार ने भारतीय संगीत को एक नया आयाम दिया और यह यंत्र आने वाले युगों तक संगीतकारों की प्रेरणा बना रहा।
आइए अब आपको बसंत के उत्सव और अमीर ख़ुसरों की एक अनोखी साझा परंपरा से रूबरू कराते हैं:
जब पीली सरसों के फूल खिलते हैं और हवाओं में बसंत का रंग घुलने लगता है, तब चिश्तिया दरगाहों पर एक अलग ही रौनक नज़र आती है। लकिन क्या आप जानते हैं कि यह परंपरा कोई साधारण उत्सव नहीं, बल्कि वह धरोहर है, जो 12वीं सदी में अमीर ख़ुसरो के समय से चली आ रही है। इस्लामिक महीने रजब की 3 तारीख को मनाया जाने वाला यह उत्सव, सूफ़ी प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है। कहा जाता है कि अमीर ख़ुसरो ने इसे अपने आध्यात्मिक गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को प्रसन्न करने के लिए शुरू किया था।
इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है:
एक समय की बात है, जब अमीर ख़ुसरों के पीर (आध्यात्मिक गुरु) हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने भांजे की मृत्यु से अत्यंत दुखी थे। उनकी उदासी अमीर ख़ुसरों से देखी नहीं गई। वसंत ऋतु का आगमन हुआ, तो खुसरो ने सरसों के पीले फूलों का गुलदस्ता तैयार किया और श्रद्धा से दरगाह पहुंचे। वह इतना मगन होकर नाचे कि निज़ामुद्दीन औलिया के चेहरे पर वर्षों बाद फिर से मुस्कान लौट आई। तभी से बसंत उनके जीवन का हिस्सा बन गया और आगे चलकर यह परंपरा सूफ़ी दरगाहों में भी गूंजने लगी। यह रस्म अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और अन्य चिश्तिया दरगाहों पर हर साल प्रेम और भक्ति के रंग बिखेरती है। जब कव्वाल ख़ुसरों के कलाम गाते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत है।
अमीर ख़ुसरों सिर्फ एक कवि या संगीतकार ही नहीं, बल्कि एक योद्धा भी थे। उनकी लेखनी उतनी ही शक्तिशाली थी, जितनी कि उनके शब्दों की गूंज। इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार, ख़ुसरो ने 38 बसंत देखे। उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए बादशाह ने उन्हें ‘अमीर’ की उपाधि और 1200 सालाना की तनख्वाह प्रदान की। ख़ुसरो कहते थे— "जब तलवारें ख़ामोश हो जाती हैं, तब कवि की आवाज़ इतिहास रचती है।"
इस तरह, सूफ़ी बसंत केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और संगीत की वह परंपरा बन चुका है, जो न केवल अतीत में जीवंत थी, बल्कि आज भी हर दरगाह में गूंजती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में तबला और अमीर ख़ुसरो दिहलवी का ख़मसा का स्रोत : Wikimedia
मेरठ, आपको ज़रूर सुनना चाहिए, रबींद्रनाथ टैगोर की लेख में प्रस्तुत उत्कृष्ट कृतियों को
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
04-05-2025 09:08 AM
Meerut-Hindi

हम मेरठ के नागरिक, रबींद्रनाथ टैगोर को न केवल एक महान विचारक और लेखक के रूप में, बल्कि, एक उल्लेखनीय कवि और संगीतकार के रूप में भी याद करते हैं। उनकी कविताएं और गीत, विशेष रूप से उनकी कृति – ‘गीतांजलि’ में, वे प्यार, प्रकृति, भक्ति और मानव आत्मा के बारे में बोलते हैं। टैगोर ने 2,000 से अधिक गीत बनाए, जिन्हें ‘रबीन्द्रसंगीत’ के नाम से जाना जाता है, जो आज भी पूरे भारत में गाया जाता है। उनकी रचनाएं, सरल भाषा में गहरी भावनाओं और विचारों को ले जाती हैं, एवं हर उम्र के लोगों के दिलों को छूती हैं। इस रविवार, हम विभिन्न चलचित्रों के माध्यम से, रबींद्रनाथ टैगोर की कविताओं और गीतों का पता लगाएंगे। हम उनके पौराणिक कार्य – गीतांजलि संग्रह पर चर्चा करके लेख की शुरूआत करेंगे। उसके बाद, हम उनकी एक अन्य प्रभावशाली रचना - "उपगुप्त" का पता लगाएंगे। इसके बाद, हम एक शक्तिशाली विचार की कविता, जो कठिन समय के दौरान साहस का गीत गाती है – “विपदा में निर्भीक रहूं मैं” को सुनेंगे। अंत में, हम “जो तेरी पुकार पे कोई” कविता का आनंद लेंगे, जो एक हिंदी रबीन्द्रसंगीत है।
रबींद्रनाथ टैगोर की साहित्यिक विरासत:
रबींद्रनाथ टैगोर का भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने भारतीय जनता और सभी विदेशी लोगों तक, भारतीय संस्कृति के परिष्कृत रूप को अपने साहित्यिक के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनके साहित्यिक कार्यों को इतना सम्मान दिया गया है कि, उन्हें ‘विश्व-कवि’ कहा जाता था, और उन्हें साहित्य श्रेणी में, 1913 में नोबेल पुरस्कार(Nobel Prize) भी मिला। टैगोर ने अपने बचपन में ही, इन कविताओं को लिखना शुरू किया था। ‘गाथा’ नामक एक पुस्तक, और कुछ कविताएं और कहानियां, उनकी 20 वर्ष की आयु से पहले ही प्रकाशित की गई थीं।
प्रकृति और आध्यात्मिक विषयों पर प्रेम, उनकी कविता में प्रमुखता से वर्णित है। टैगोर ने गद्य-कविता शैली में भी कई कविताएं लिखी हैं। साथ ही, उन्होंने अनगिनत प्रेम गीत और कविताएं लिखी हैं। बंगाली साहित्य में भी उनका अविश्वसनीय योगदान है। ‘सोनार नारी’, ‘कथन काहिनी’, ‘बालक’, ‘उर्वशी’, और ‘गीताजंली’ आदि उनकी कुछ उत्कृष्ट काव्य रचनाएं हैं।
चलिए, आज नीचे दी गई सुंदर चलचित्रों के माध्यम से, रबींद्रनाथ टैगोर की कृति – गीतांजलि, तथा इस संग्रह की कुछ मुख्य कविताएं, जैसे कि – ‘संसार सो रहा है’, ‘उपगुप्त’, ‘विपदा में निर्भीक रहूं मैं’, ‘जो तेरी पुकार पे कोई’, आदि क्रमशः सुनते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/yck7zcbh
https://tinyurl.com/eru6wax6
https://tinyurl.com/y4ynampj
https://tinyurl.com/yr96deyz
https://tinyurl.com/mpm44mc4
https://tinyurl.com/ye2yr462
मेरठवासी चलिए जानें पत्रकारिता की शुरुआत और आज उसकी भूमिका को!
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Communication and IT Gadgets
03-05-2025 09:13 AM
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हमारे शहर की गलियों में आज भी इतिहास की धड़कनें सुनाई देती हैं! यहाँ के अख़बारों में जनता की आवाज़ गूंजती है। चाहे बात टूटी सड़कों की हो या शिक्षा नीतियों में सुधार की, मेरठ का मीडिया हक़ीक़त को बेबाक़ी से सामने लाने की कोशिश करता है। यही जागरूकता मेरठवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क और सजग बनाती है। आज तेज़ी के साथ बदलते दौर में, सूचनाओं की बाढ़ ने सच और अफ़वाह के बीच की लकीर को धुंधला कर दिया है! ऐसे में मेरठ का मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए सही और सटीक जानकारी देकर लोगों को सही फ़ैसले लेने में मदद करता है। इसलिए, इस लेख में सबसे पहले हम पत्रकारिता के इतिहास पर नज़र डालेंगे, जिसके तहत हम देखेंगे कि समय के साथ पत्रकारिता कैसे एक मिशन से पेशे में बदल गई। इसके बाद हम जानेंगे कि मौजूदा दौर में पत्रकारिता क्यों इतनी महत्वपूर्ण हो गई है। आगे हम यह भी देखेंगे कि लोकतंत्र को मज़बूती देने में मीडिया क्या भूमिका निभाती है। अंत में, उन नैतिक सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे, जो पत्रकारों को निष्पक्ष और ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग का अर्थ समझाते हैं।
पत्रकारिता का मतलब केवल खबरें छापना ही नहीं होता। सच्ची पत्रकारिता वह है, जिसमें सूचनाओं को इकट्ठा किया जाता है, उनका विश्लेषण होता है और फिर जाकर उन ख़बरों को लोगों तक ईमानदारी से पहुँचाया जाता है। पत्रकारिता का असली मकसद "लोगों को सच्चाई से रूबरू कराना" होता है!
लेकिन क्या आप जानते हैं कि पत्रकारिता की शुरुआत कब हुई थी?
पत्रकारिता कोई नई नवेली खोज नहीं है, बल्कि इसका इतिहास भी सदियों पुराना बताया जाता है। दुनिया की पहली दर्ज की गई खबर प्राचीन रोम में 59 ईसा पूर्व प्रकाशित हुई थी। उस समय "एक्टा ड्यूर्ना (Acta Diurna)" नामक दस्तावेज में खबरें दर्ज की जाती थीं! इन दस्तावेजों को शहर के सार्वजनिक स्थलों पर लगाया जाता था, ताकि लोग इन्हें पढ़ या सुन सकें।
चीन में भी पत्रकारिता का एक अनोखा तरीका अपनाया गया। 907 ईस्वी में वहाँ की सरकार ने अधिकारियों को सूचनाएँ देने के लिए "बाओ"(Bao) नामक दस्तावेज तैयार किया, जिसमें महत्वपूर्ण घटनाओं का ज़िक्र होता था।
धीरे-धीरे मुख्यधारा के समाचार पत्र अस्तित्व में आए। 1609 में जर्मनी में पहला आधुनिक अखबार प्रकाशित हुआ। अंग्रेज़ी भाषा के पहले अखबार को "ओल्ड इंग्लिश (Old English)" के नाम से जाना जाता था। हालांकि, 1702 में प्रकाशित "डेली कोर्टेंट (Daily Courant)" पहला सार्वजनिक अखबार बना, जिसने पत्रकारिता को एक नई दिशा दी।
जैसे-जैसे अखबारों का प्रभाव बढ़ा, सरकारों और संस्थानों के लिए पत्रकारिता एक बड़ी चुनौती बनने लगी। कई जगहों पर सत्ता की आलोचना करने के कारण पत्रकारों का विरोध भी हुआ।
1830 के दशक में पत्रकारिता में बड़ा बदलाव देखा गया। इस दौर में बड़े पैमाने पर अखबार छपने लगे और आम लोगों तक पहुँचने लगे। ये अखबार जनता की आवाज़ बन गए। सचित्र रिपोर्टिंग ने खासतौर पर महिला पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया।
समय के साथ अखबारों का महत्व और बढ़ता गया। प्रकाशक अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचने के लिए नए-नए तरीके खोजने लगे। स्वतंत्र समाचार एजेंसियाँ गठित होने लगीं, जो विभिन्न खबरों को इकट्ठा करके समाचार पत्रों को बेचती थीं।
1883 में ब्रिटेन में पहली बार पत्रकारों का संगठित समूह बना। इसके बाद 1933 में अमेरिका में "प्रोफ़ेशनल न्यूज़पेपर गिल्ड (Professional Newspaper Guild)" नामक संगठन स्थापित हुआ, जिसका उद्देश्य पत्रकारों के हितों की रक्षा करना था।
पत्रकारिता को धीरे-धीरे एक अकादमिक विषय के रूप में भी स्वीकार किया जाने लगा। 1879 में मिसौरी विश्वविद्यालय (University of Missouri) ने इसे चार साल के अध्ययन कार्यक्रम के रूप में शुरू किया। 1912 में कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University), न्यूयॉर्क ने इसमें स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रदान की। टेलीग्राफ़ (Telegraph) के आगमन ने खबरों के प्रसार में तेज़ी ला दी! भले ही उस समय तकनीक बहुत कम विकसित हुई थी, लेकिन इसके बावजूद, राजनीति, धर्म, क़ानून और अर्थव्यवस्था से जुड़ी खबरें लोगों तक पहुँचने लगीं।
समय के साथ पत्रकारिता के स्वरूप में बड़ा बदलाव आया। सिनेमा और रेडियो ने खबरों को नया मंच दिया। फिर टीवी आया, जिसने रिपोर्टिंग को पूरी तरह बदल कर रख दिया। अब ख़बरों को केवल पढ़ा ही नहीं बल्कि देखा और सुना भी जाने लगा।
आज पत्रकारिता सिर्फ़ खबरें प्रदान करने का माध्यम नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ बन गई है। डिजिटल युग में यह और भी गतिशील हो गई है। सोशल मीडिया और इंटरनेट की वजह से खबरें अब पलक झपकते ही दुनिया भर में पहुँच जाती हैं।
आज की दुनिया में पत्रकारिता क्यों महत्वपूर्ण है?
आधुनिक समय की पत्रकारिता पहले जैसी नहीं रही। आज ख़बरों का दायरा केवल अख़बारों और टीवी तक सीमित नहीं हैं। सोशल मीडिया, ऑनलाइन वेबसाइट्स और यू्ट्यूब (YouTube) जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने हर किसी के लिए खबरों तक पहुंचना आसान बना दिया है। इंटरनेट और तेज़ कनेक्टिविटी (connectivity) की वजह से रिपोर्टिंग और जानकारी साझा करना पहले से कहीं आसान हो गया है। इसी के साथ-साथ पत्रकारिता के नए रूप भी सामने आए हैं।
पत्रकारिता क्यों ज़रूरी है?
पत्रकारिता समाज में अहम भूमिका निभाती है क्योंकि यह:
- सच्चाई उजागर करती है: हम अपने रोज़मर्रा के फ़ैसले डेटा और तथ्यों के आधार पर लेते हैं। जो खबरें हम पढ़ते या देखते हैं, वे हमारे विचारों और निर्णयों को प्रभावित करती हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र को मज़बूत बनाती है क्योंकि यह लोगों को सही जानकारी देकर जागरूक करती है। इससे लोग देश के भविष्य के लिए सही नेता चुनने में सक्षम होते हैं। इसके अलावा, पत्रकारिता हमें अन्याय, जलवायु परिवर्तन और सामाजिक मुद्दों पर सोचने और कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करती है।
- बिज़नेस को बढ़ावा देती है: पत्रकारिता सिर्फ़ खबरें ही नहीं देती, बल्कि बाज़ार पर भी असर डालती है। हम क्या खरीदें, यह तय करने में भी मीडिया का बड़ा रोल होता है। नए उत्पादों और सेवाओं की जानकारी देकर यह उपभोक्ताओं को सही निर्णय लेने में मदद करती है। विज्ञापनों और रिपोर्ट्स के ज़रिया ब्रांड्स को पहचान मिलती है, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिलता है।
- समाज में बदलाव लाती है: पत्रकारिता समाज में बदलाव का एक शक्तिशाली माध्यम साबित होती है। यह हमें दुनिया भर के समुदायों और संस्कृतियों से जोड़ती है। जब हम अन्य देशों या समाजों की ख़बरें देखते हैं, तो हमारी सोच का दायरा बढ़ता है। हमें उनके संघर्ष, जीवनशैली और चुनौतियों के बारे में जानकारी मिलती है। इससे समाजों के बीच की दूरियाँ घटती हैं और सहानुभूति बढ़ती है।
पत्रकारिता सिर्फ़ ख़बरें दिखाने का काम नहीं है, बल्कि सच को सामने लाने की ज़िम्मेदारी भी होती है। इसलिए, हर पत्रकार के लिए कुछ नैतिक सिद्धांतों का पालन करना बेहद ज़रूरी है। ये सिद्धांत न सिर्फ़ पत्रकार को सच्चाई की तलाश और जनहित में काम करने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि किसी को बेवजह नुकसान पहुँचाने से भी रोकते हैं।
आइए, इन्हें सरल भाषा में समझते हैं:
- सच्चाई को सामने लाना और सटीक रिपोर्टिंग: सच को सामने लाना, पत्रकारिता का सबसे पहला और अहम सिद्धांत है। एक ज़िम्मेदार पत्रकार का फ़र्ज़ है कि वह खबर की पूरी जाँच-पड़ताल करे और सिर्फ़ सटीक, प्रमाणित जानकारी ही प्रस्तुत करे। अफ़वाहों या बिना पुष्टि किए गए तथ्यों को प्रकाशित करना पत्रकारिता के उसूलों के ख़िलाफ़ होना चाहिए।
- स्वतंत्र और निष्पक्ष रिपोर्टिंग: पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत उसकी निष्पक्षता होती है। एक पत्रकार को किसी राजनीतिक दल, धर्म या समूह का पक्ष लेने के बजाय जनता के हित में काम करना चाहिए। उसका मकसद सच को सामने लाना होना चाहिए, न कि किसी एजेंडा (agenda) को बढ़ावा देना।
- संतुलित और ईमानदार रिपोर्टिंग: स्वतंत्रता के साथ-साथ रिपोर्टिंग में संतुलन भी ज़रूरी है। एक पत्रकार को सभी पक्षों को समान रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। एकतरफ़ा या भ्रामक रिपोर्टिंग दर्शकों को गुमराह करती है और पत्रकारिता की विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुँचाती है।
- जनता के प्रति जवाबदेही: पत्रकारों को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। समाचार संगठनों को पाठकों और दर्शकों की राय का सम्मान करना चाहिए। पत्रकारों को अपनी खबर के साथ अपना नाम (बायलाइन) देना चाहिए, ताकि वे अपनी रिपोर्टिंग के लिए ज़िम्मेदार बने रहें।
- संवेदना रखना: हर खबर को प्रकाशित करना ज़रूरी नहीं होता। अगर किसी खबर से किसी व्यक्ति (खासतौर पर बच्चों या कमज़ोर वर्ग) को गंभीर नुकसान हो सकता है, तो मीडिया को संवेदनशीलता के साथ फ़ैसला लेना चाहिए। यदि खबर से होने वाला व्यक्तिगत नुकसान, जनहित से ज़्यादा है, तो उसे रोक देना ही सही होता है।
- मानहानि से बचाव: किसी व्यक्ति की छवि को नुकसान पहुँचाना न सिर्फ़ अनैतिक है, बल्कि क़ानूनी की नज़र में भी गलत है। पत्रकारों को झूठे या भ्रामक बयान छापने से बचना चाहिए, क्योंकि तथ्यहीन रिपोर्टिंग से लोगों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँच सकती है।
नैतिक पत्रकारिता का आधार सच्चाई, निष्पक्षता और ज़िम्मेदारी है। इन सिद्धांतों का पालन करके ही पत्रकार अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकते हैं और समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भारतीय पत्रकार जुग सूर्या, जो पहले जूनियर स्टेट्समैन (जेएस) और फिर टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्यरत थे, 2011 में गोवा में एक विमोचन समारोह में अपनी पुस्तक की प्रतियों पर हस्ताक्षर करते हुए! का स्रोत : Wikimedia
मेरठवासियों के जीवन प्रश्नों का समाधान, आदि शंकराचार्य की अमर शिक्षाएँ!
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-05-2025 09:23 AM
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मेरठ के विद्यापीठों में आज भी विद्यार्थियों को आदि शंकराचार्य की गूढ़ शिक्षाओं से प्रेरित किया जाता है! शंकराचार्य का मानना था कि सच्ची भक्ति ही ईश्वर तक पहुँचने का सर्वोत्तम मार्ग है। उनके अनुसार, भक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति आत्म-जागरूकता और आंतरिक शांति प्राप्त कर सकता है। इस विचारधारा के प्रचार के लिए उन्होंने भारत के चार दिशाओं में चार मठों (उत्तर में बद्रीनाथ, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में पुरी और दक्षिण में श्रृंगेरी) की स्थापना की। ये चार धाम न केवल तीर्थ स्थल हैं, बल्कि भक्ति और शिक्षा के जीवंत केंद्र भी बने हुए हैं। आदि शंकराचार्य ने आस्था की शक्ति से लोगों को एकजुट किया। उन्होंने हिंदू दर्शन की जड़ों को पुनः सशक्त किया और ज्ञान व भक्ति के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित किया। उनकी शिक्षाएँ यह दर्शाती हैं कि भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं!
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित ये मठ सिर्फ़ धार्मिक स्थल नहीं हैं, बल्कि वेदांत ज्ञान के संरक्षण और प्रचार के प्रतीक हैं। यहाँ हर वर्ष लाखों श्रद्धालु इन मठों में दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ उन्हें आध्यात्मिक शांति और ज्ञान की अनुभूति होती है। आज उनकी जयंती के अवसर पर हम इस लेख में आदि शंकराचार्य के भक्ति और ज्ञान के अद्भुत सामंजस्य को समझेंगे। हम जानेंगे कि कैसे उन्होंने श्रद्धा (भक्ति) और बोध (ज्ञान) को मिलाकर एक संतुलित आध्यात्मिक मार्ग प्रस्तुत किया। साथ ही, उनके द्वारा स्थापित चार मठों की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक भूमिका को भी जानेंगे, जो आज भी हिंदू परंपरा में पवित्रता और एकता के प्रतीक हैं।
अद्वैत वेदांत में ज्ञान को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, लेकिन आदि शंकराचार्य ने सिर्फ़ ज्ञान ही नहीं, बल्कि भक्ति के महत्व को भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार, आत्मा को परम सत्य का अनुभव तभी होता है, जब अहंकार का पूर्ण त्याग किया जाए—और इसके लिए भक्ति एक प्रभावी साधन है। शंकराचार्य की भक्ति रचनाएँ ईश्वर के प्रति समर्पण को केंद्र में रखती हैं। उनका मानना था कि केवल तर्क और विचार के सहारे आत्मज्ञान पाना संभव नहीं है। ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा भी उतनी ही आवश्यक होता है। जब कोई व्यक्ति सच्चे समर्पण और श्रद्धा से भक्ति करता है, तो उसका अहंकार धीरे-धीरे विलीन होने लगता है। यही अहंकार आत्मज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनता है।
भक्ति और ज्ञान का यह संतुलन आज भी लाखों साधकों को प्रेरित करता है। भक्ति मन को शुद्ध और निर्मल बनाती है, जिससे ज्ञान को आत्मसात करना सरल हो जाता है। वहीं, ज्ञान व्यक्ति को अंधविश्वास और संकीर्णता से मुक्त रखता है, जिससे भक्ति भटकाव का शिकार नहीं होती। शंकराचार्य का यह संतुलित दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए न तो सिर्फ़ ज्ञान पर्याप्त है और न ही सिर्फ़ भक्ति। सच्ची साधना के लिए दोनों का सहअस्तित्व आवश्यक है।
क्या आप जानते हैं कि आदि शंकराचार्य न सिर्फ़ एक महान दार्शनिक थे, बल्कि समाज सुधारक भी थे? उन्होंने हिंदू धर्म को एकजुट करने और उसकी परंपराओं को संरक्षित रखने के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाए। इसी क्रम में उन्होंने भारत के चारों दिशाओं में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी वैदिक ज्ञान और आध्यात्मिक साधना के केंद्र हैं।
आइए, इन चारों मठों के बारे में विस्तार से जानते हैं:
ज्योतिर्मठ (उत्तराम्नाय पीठ) – यह मठ उत्तराखंड के जोशीमठ (चमोली ज़िले) में स्थित है! इसे उत्तर भारत का प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र माना जाता है। इसके पहले शंकराचार्य श्री तोटकाचार्य थे। यह मठ अथर्ववेद से जुड़ा है और इसके अंतर्गत दशनामी संप्रदाय की तीन शाखाएँ – गिरि, पर्वत और सागर संप्रदाय आती हैं।
- श्रृंगेरी मठ (दक्षिणाम्नाय पीठ) – यह मठ कर्नाटक के चिक्कमगलूर ज़िले में तुंगा नदी के किनारे स्थित है। आदि शंकराचार्य ने इसकी स्थापना की थी और इसके पहले शंकराचार्य श्री सुरेश्वराचार्य थे। यह मठ यजुर्वेद से संबद्ध है।
इसका महावाक्य है:
"अहम् ब्रह्मास्मि" – जिसका अर्थ है: "मैं ही ब्रह्म हूँ"।
यह वाक्य व्यक्ति के भीतर परमात्मा की अनुभूति का प्रतीक है।
- गोवर्धन मठ (पूर्वाम्नाय पीठ) – यह मठ ओडिशा के पुरी में स्थित है और पूर्व भारत का प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र माना जाता है। इस मठ का नेतृत्व सबसे पहले श्री पद्मपादाचार्य ने संभाला था। यह मठ ऋग्वेद से जुड़ा है। इसके अंतर्गत बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, असम, उत्तर प्रदेश (प्रयागराज सहित) और पूर्वोत्तर के अन्य राज्य आते हैं।
- द्वारका मठ (पश्चिमाम्नाय पीठ) – गुजरात के द्वारका में स्थित यह मठ पश्चिम भारत का प्रमुख धार्मिक केंद्र है। इसे द्वारका शारदा पीठ या कालिका मठ भी कहा जाता है।
इसके पहले शंकराचार्य श्री हस्तामलकाचार्य थे। यह मठ सामवेद से जुड़ा है।
इसका महावाक्य है:
"तत्त्वमसि" – जिसका अर्थ: "तू ही वह है" होता है।
यह वाक्य व्यक्ति और ब्रह्म के अद्वैत (एकत्व) को दर्शाता है।
इन मठों ने न सिर्फ़ वैदिक ज्ञान और अद्वैत वेदांत का प्रचार-प्रसार किया, बल्कि सदियों तक भारत की आध्यात्मिक विरासत को जीवित रखा। आज भी ये मठ साधकों और जिज्ञासुओं के लिए ज्ञान, साधना और आत्मबोध के प्रमुख केंद्र हैं।
आदि शंकराचार्य न सिर्फ़ एक महान दार्शनिक थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने हिंदू धर्म को एकीकृत करने और वैदिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए चार मठों की स्थापना की। इसके अलावा, उन्होंने चारधाम तीर्थ स्थलों का प्रचार भी किया, जो आज भी करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र हैं।
क्या आपने कभी सोचा है कि भारत में स्थित चार धाम तीर्थ स्थलों का धार्मिक महत्व इतना खास क्यों है? हिंदू धर्म में इन चार धामों की यात्रा को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि इन तीर्थ स्थलों के दर्शन से जीवन के पाप कट जाते हैं और आत्मा को शांति मिलती है।
चार धामों की स्थापना महान आदि शंकराचार्य ने की थी, जो एक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान थे। लोककथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु इन चार धामों में अलग-अलग रूपों में विराजमान हैं:
- रामेश्वरम में वह स्नान करते हैं,
- बद्रीनाथ में वह ध्यान लगाते हैं,
- पुरी में वह भोजन करते हैं और
- द्वारका में वह विश्राम करते हैं।
अब आइए, इन चार पवित्र धामों के बारे में विस्तार से जानते हैं:
- पुरी, ओडिशा (पूर्वी भारत): पुरी को भगवान विष्णु का पवित्र धाम माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ के दर्शन करने से जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है। यह तीर्थ ओडिशा राज्य में बंगाल की खाड़ी के किनारे स्थित है।
यहाँ का मुख्य आकर्षण जगन्नाथ मंदिर है, जिसे 12वीं शताब्दी में बनाया गया था। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की पूजा की जाती है। इसे स्थानीय लोग "श्री क्षेत्र" और मंदिर को "बड़ा देउला" भी कहते हैं। हर साल यहाँ रथ यात्रा का भव्य आयोजन होता है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को विशाल रथों पर श्री गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है। लाखों श्रद्धालु इस यात्रा में शामिल होते हैं, जिससे यह दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजनों में से एक बन गया है।
- रामेश्वरम, तमिलनाडु (दक्षिण भारत): रामेश्वरम दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जिसे भगवान शिव का धाम माना जाता है। यह तमिलनाडु में समुद्र के किनारे स्थित है और चार धामों में विशेष स्थान रखता है। यहाँ का मुख्य आकर्षण रामनाथस्वामी मंदिर है, जिसमें भगवान शिव का एक ज्योतिर्लिंग स्थापित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहाँ भगवान राम ने लंका जाने के लिए समुद्र पर रामसेतु का निर्माण किया था। ऐसा कहा जाता है कि चार धाम की यात्रा तब तक पूरी नहीं मानी जाती, जब तक रामेश्वरम के दर्शन न कर लिए जाएँ। भक्त यहाँ अग्नितीर्थम में स्नान कर अपने पापों से मुक्ति पाने की प्रार्थना करते हैं।
- द्वारका, गुजरात (पश्चिम भारत): द्वारका पश्चिम भारत में स्थित एक पौराणिक नगरी है, जिसे भगवान कृष्ण की राजधानी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि मथुरा छोड़ने के बाद भगवान कृष्ण ने द्वारका को अपनी राजधानी बनाया था। यहाँ का मुख्य आकर्षण द्वारकाधीश मंदिर है, जिसे "जगत मंदिर" भी कहा जाता है। यह मंदिर अरब सागर के किनारे स्थित है और अपनी भव्यता और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। द्वारका में स्थित गोमती नदी का घाट और समुद्र का संगम स्थल भी श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है। मान्यता है कि यहाँ स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं।
- बद्रीनाथ, उत्तराखंड (उत्तर भारत): बद्रीनाथ उत्तराखंड के चमोली ज़िले में स्थित है। यह तीर्थ स्थल हिमालय की गोद में अलकनंदा नदी के किनारे बसा है। यहाँ का मुख्य आकर्षण बद्रीनाथ मंदिर है, जो भगवान विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर 3,133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और इसका निर्माण आदि शंकराचार्य ने 9वीं शताब्दी में कराया था। मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहाँ बद्री (जंगली बेर) का सेवन करते हुए कठोर तपस्या की थी, इसलिए इसका नाम बद्रीनाथ पड़ा। मंदिर के पास स्थित तप्त कुंड में श्रद्धालु स्नान करते हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि इसके जल में पाप नाशक गुण हैं।
चार धाम यात्रा को हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जीवन में एक बार इन चार पवित्र धामों की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। इन तीर्थ स्थलों का धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व इतना गहरा है कि यहाँ आकर हर भक्त को आत्मिक शांति का अनुभव होता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अपने शिष्यों के साथ आदि शंकराचार्य | चित्र स्रोत : Wikimedia
मेरठवासियों की सेहत और ताज़गी के लिए क्यों ज़रूरी है स्प्रिंग वाटर?
नदियाँ
Rivers and Canals
01-05-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

बोतलबंद पानी आज मेरठ के लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। प्यास लगने पर हर कोई बोतल का ढक्कन खोलते हुए दिखाई देता हैं! ऐसा इसलिए है क्योंकि बोतल का पानी साफ़ , स्वच्छ और सुरक्षित विकल्प माना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बोतलबंद पानी के भी कई प्रकार होते हैं? पानी के सभी प्रकारों में स्प्रिंग वाटर (Spring Water) यानी झरने के पानी को सबसे शुद्ध और आदर्श माना जाता है! आम बोतलबंद पानी के मुक़ाबले, झरने के पानी को अधिक प्राकृतिक माना जाता है। क्योंकि यह सीधे भूमिगत स्रोतों से आता है और इसमें प्राकृतिक रूप से मौजूद खनिज होते हैं। यह न सिर्फ़ ताज़ा रहता है बल्कि आमतौर पर दूषित तत्वों से भी मुक्त होता है। इसे पहाड़ों या प्राकृतिक जल स्रोतों से इकट्ठा करके हल्का फ़िल्टर किया जाता है, ताकि इसकी प्राकृतिक गुणवत्ता बनी रहे। आजकल सेहत को लेकर लोगों की जागरूकता बढ़ रही है, और इसी वज़ह से कई लोग झरने के पानी को ज़्यादा पसंद करने लगे हैं। इसकी ख़ासियत सिर्फ़ इसका प्राकृतिक स्वाद ही नहीं, बल्कि इसमें मौजूद ज़रूरी मिनरल्स (minerals) भी हैं, जो शरीर के लिए फ़ायदेमंद साबित हो सकते हैं। इसलिए आइए आज के इस लेख में हम पानी के अलग-अलग प्रकारों और उनकी ख़ूबियों को समझते हैं, और यह भी देखते हैं कि क्या झरने का पानी वाक़ई में एक बेहतर विकल्प है?
पानी, पानी ही होता है, लेकिन उसके भी अपने कई रूप होते हैं! हर तरह का पानी अपने फ़ायदे और कमियों के साथ आता है। चलिए, सबसे पहले आसान भाषा में समझते हैं कि किस तरह के पानी की क्या ख़ासियतें होती हैं और आपके लिए कौन-सा बेहतर हो सकता है।
1. नल का पानी: नल का पानी वही है जो आपके घरों में पाइप से आता है। यह सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला पानी है! नगरपालिका इसे फ़िल्टर करके सप्लाई करती है। लेकिन इसकी गुणवत्ता जगह-जगह अलग-अलग हो सकती है। कई बार इसमें अशुद्धियाँ रह जाती हैं, इसलिए कुछ लोग इसे फ़िल्टर करने के बाद ही पीना पसंद करते हैं।
2. आसुत जल (Distilled Water): आसुत जल यानी डिस्टिल्ड वॉटर (Distilled Water) को उबालकर और ठंडा करके तैयार किया जाता है, जिससे इसकी सारी अशुद्धियाँ हट जाती हैं। यह लगभग 100% शुद्ध होता है, इसलिए इसका इस्तेमाल आमतौर पर प्रयोगशालाओं और मेडिकल उपकरणों में किया जाता है। लेकिन चूंकि इसमें ज़रूरी मिनरल्स नहीं होते, इसलिए रोज़मर्रा की प्यास बुझाने के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प नहीं माना जाता।
3. शुद्ध पानी (Purified Water): शुद्ध पानी को बैक्टीरिया, केमिकल्स और दूसरी अशुद्धियों से हटाने के लिए अलग-अलग तरीक़ों से फ़िल्टर किया जाता है। इसमें रिवर्स ऑस्मोसिस (RO), डिस्टिलेशन (distillation) और कार्बन फ़िल्ट्रेशन (Carbon Filteration) जैसी तकनीकें शामिल हैं। डिस्टिल्ड वॉटर के उलट, इसमें कुछ ज़रूरी मिनरल्स बचाए भी जाते हैं, जिससे यह प्यूरीटी और न्यूट्रिशन का बैलेंस बनाए रखता है।
4. खनिज जल (Mineral Water): खनिज जल प्राकृतिक भूमिगत स्रोत से आता है और इसमें कैल्शियम (Calcium), मैग्नीशियम (Magnesium) और पोटैशियम (Potassium) जैसे मिनरल्स स्वाभाविक रूप से मौजूद होते हैं। ये मिनरल्स सेहत के लिए फ़ायदेमंद होते हैं। हालाँकि, अलग-अलग ब्रांड्स के मिनरल वॉटर में इनकी मात्रा अलग हो सकती है, इसलिए ख़रीदने से पहले लेबल चेक करना ज़रूरी है।
5. झरने का पानी या स्प्रिंग वाटर (Spring Water): स्प्रिंग वाटर उस पानी को कहा जाता है जो ज़मीन के अंदर से ख़ुद-ब-ख़ुद निकलकर सतह पर आ जाता है। इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध माना जाता है, लेकिन कई बार इसे भी प्रोसेस किया जाता है ताकि यह लंबे समय तक सुरक्षित बना रहे। अगर इसे साफ़ स्रोत से लिया जाए, तो यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है। दुनियाभर में स्प्रिंग वाटर का कई तरह से इस्तेमाल किया जाता है। यह न सिर्फ़ पीने और दैनिक ज़रूरतों के लिए ज़रूरी है, बल्कि इसे आनंद और मनोरंजन का भी एक अच्छा स्रोत माना जाता है।
इसके अलावा, झरने के पानी के कई औषधीय गुण भी होते हैं। प्राचीन यूनानी चिकित्सक मिनरल वाटर थेरेपी के फ़ायदों से भली-भांति परिचित थे। प्राचीन समय में अरब और मिस्र के लोग बीमारियों के इलाज के लिए मिनरल वाटर का उपयोग करते थे।
यह पानी शरीर में एटीपी (ATP) उत्पादन जैसी जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं में सहायक होता है। यह हड्डियों से जुड़ी बीमारियों को धीरे-धीरे कम करता है और मांसपेशियों को स्वस्थ बनाए रखता है। साथ ही, यह रक्तचाप और शरीर में जल संतुलन बनाए रखने में भी मदद करता है।
झरने के पानी में प्राकृतिक खनिज तत्व मौजूद होते हैं, जो सेहत के लिए फ़ायदेमंद हो सकते हैं। यह पानी स्वाभाविक रूप से खनिजों से भरपूर होता है, इसलिए जब इसकी तुलना बोतलबंद या नल के पानी से की जाती है, तो यह अलग नज़र आता है।
खनिज पानी भूमिगत जलाशयों से निकलता है। जब झरने का पानी तलछटी चट्टानों, मिट्टी और प्राकृतिक खनिजों से होकर गुज़रता है, तो ये खनिज उसमें घुल जाते हैं। इसमें पोटैशियम, सोडियम (sodium), कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे मुख्य खनिज पाए जाते हैं, साथ ही थोड़ी मात्रा में ज़िंक (Zinc) और आयरन (Iron) भी मौजूद होते हैं। झरने के पानी में मौजूद हर खनिज अपने आयनिक रूप में होता है, जिससे हमारा शरीर इसे सप्लीमेंट्स या खाने में मौजूद खनिजों की तुलना में ज़्यादा आसानी से अवशोषित कर सकता है। जब झरने का पानी अपने शुद्धतम रूप में होता है, तो इसमें किसी भी अन्य पानी की तुलना में सबसे अधिक खनिज तत्व होते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
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Butterfly and Insects
30-04-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठ में मधुमक्खी पालन (Beekeeping) से कई उपयोगी चीज़ें मिलती हैं, जैसे- शहद (Honey), मधुमोम (Beeswax), रॉयल जेली (Royal Jelly) और प्रोपोलिस (Propolis)। ये चीज़ें कई उद्योगों में काम आती हैं। शहद से स्थानीय व्यापार, स्वास्थ्य और आयुर्वेद को बढ़ावा मिलता है। मधुमोम से मोमबत्तियाँ और सौंदर्य प्रसाधन बनाए जाते हैं। रॉयल जेली सेहत के लिए फ़ायदेमंद होती है, और प्रोपोलिस का इस्तेमाल, दवाइयों में किया जाता है। इन उत्पादों से लोगों को रोज़गार मिलता है, छोटे उद्योग बढ़ते हैं, खेती में टिकाऊ तरीक़े अपनाए जाते हैं, और मेरठ की जैव-विविधता (Biodiversity) को भी मज़बूती मिलती है।
आज हम इन उत्पादों को क़रीब से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि शहद (Honey) सेहत के लिए कितना फ़ायदेमंद है। शहद मुख्य रूप से “एपिस मेलिफ़ेरा (Apis mellifera)” नामक मधुमक्खी से प्राप्त होता है। फिर, हम मधुमोम (Beeswax) की विशेषताओं और इसके उपयोगों के बारे में विस्तार से बात करेंगे। मधुमोम भी “एपिस मेलिफ़ेरा” प्रजाति से प्राप्त होता है, और इसे मोमबत्तियाँ, सौंदर्य प्रसाधन और दवाइयों में इस्तेमाल किया जाता है।
आख़िर में, हम मधुमक्खी के ज़हर (Bee Venom) के इस्तेमाल को समझेंगे। मधुमक्खी का ज़हर मुख्य रूप से एपिस मेलिफ़ेरा से प्राप्त होता है। हाल के वर्षों में इसका उपयोग सहायक इलाज के रूप में किया गया है, ख़ासकर गठिया (Rheumatoid Arthritis), मल्टिपल स्क्लेरोसिस (Multiple Sclerosis), कैंसर (Cancer) और शिंगल्स (Shingles) जैसी बीमारियों में।
मधुमक्खी पालन से प्राप्त विभिन्न उप-उत्पाद
शहद (Honey)
मधुमक्खियाँ फूलों से रस (Nectar) चूसती हैं और उसे अपने एक विशेष थैली जैसे अंग में संग्रहित करती हैं, जिसे “हनी क्रॉप (Honey Crop)” कहा जाता है। जब मधुमक्खी अपने छत्ते (Colony) में लौटती है, तो दूसरी मधुमक्खी इस रस को लेकर मोम के बने छत्ते (Honey Comb) पर फैला देती है, ताकि उसमें मौजूद पानी वाष्पित (Evaporate) हो सके। दूसरी मधुमक्खी इसमें एक एंज़ाइम (Enzyme) जिसे “इनवर्टेज़ (Invertase)” कहते हैं, भी मिलाती है। यह एंज़ाइम चीनी के अणुओं (Sugar Molecules) को तोड़ने में मदद करता है। जब यह मिश्रण गाढ़ा हो जाता है, तो इसे मोम की परत से ढक दिया जाता है।
पराग (Pollen)
पराग कण, छोटे-छोटे नर जनन इकाई (Male Reproduction Units) होते हैं, जो फूलों के परागकोश (Anthers) में बनते हैं। ये कण पौधों के प्रजनन में मदद करते हैं। मधुमक्खियाँ इन पराग कणों को एकत्रित कर अपने छत्ते में ले जाती हैं, जहाँ से यह उपयोगी उत्पाद बनता है।
प्रोपोलिस (Propolis)
प्रोपोलिस, जिसे “बी ग्लू (Bee Glue)” भी कहा जाता है, मधुमक्खियों द्वारा एकत्रित मधुमोम (Beeswax) और पेड़ों की पत्तियों व टहनियों से निकले रेज़िन (Resins) का मिश्रण होता है। मधुमक्खियाँ इसका उपयोग अपने छत्ते की दरारें भरने, घोंसले (Nest Cavities) की दीवारें और बच्चे पालने की कोठरियों (Brood Combs) को लाइन करने, और छत्ते के प्रवेश द्वार को छोटा करने के लिए करती हैं। इसमें एंटी-बैक्टीरियल (Antibacterial) और एंटी- फ़ंगल (Antifungal) गुण होते हैं, जो इसे स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बनाते हैं।
रॉयल जेली (Royal Jelly)
रॉयल जेली, एक प्रोटीन युक्त पदार्थ है, जिसे मधुमक्खी के लार्वा को खिलाया जाता है। रानी मधुमक्खी (Queen bee) के लार्वा को अधिक मात्रा में रॉयल जेली दी जाती है, जिससे वह अन्य मधुमक्खियों से बड़ी हो जाती है। यह रॉयल जेली पचाए हुए पराग और शहद से बनाई जाती है। इसमें शर्करा (Sugars), वसा (Fats), अमीनो एसिड (Amino Acids), विटामिन (Vitamins), खनिज (Minerals) और प्रोटीन (Proteins) होते हैं, जो इसे पोषण से भरपूर बनाते हैं।
मधुमक्खी का ज़हर (Venom)
मधुमक्खी के डंक (Bee Sting) में एक जटिल प्रकार का प्रोटीन युक्त ज़हर होता है। हाल के शोध बताते हैं कि इस ज़हर का उपयोग इंसानों के इलाज में लाभकारी हो सकता है। इसका प्रयोग गठिया, मल्टीपल स्क्लेरोसिस, कैंसर और अन्य बीमारियों के सहायक उपचार में किया जा रहा है।
शहद खाने के स्वास्थ्य लाभ
1. सूजन-रोधी गुण - शहद में सूजन-रोधी (Anti-inflammatory) गुण होते हैं, जो शरीर में सूजन को कम करने और इससे बचाव करने में मदद करते हैं।
2. खांसी से राहत - शहद की गाढ़ी बनावट (Viscosity) गले को आराम देती है और एलर्जी (Allergens) से बचाने में मदद करती है, जिससे खांसी में राहत मिलती है।
3. एंटीऑक्सीडेंट गुण - शहद में पॉलीफेनॉल (Polyphenols) और फ्लेवोनॉयड (Flavonoids) जैसे एंटीऑक्सीडेंट (Antioxidants) होते हैं, जो कोशिकाओं को ऑक्सीडेटिव क्षति (Oxidative Damage) से बचाते हैं।
4. घाव भरने में मदद - शहद में एंटीबैक्टीरियल (Antibacterial) गुण होते हैं। यह जलने से होने वाली तकलीफ़ को कम करता है, बैक्टीरिया और संक्रमण से लड़ता है और घाव भरने में सहायता करता है।
5. अच्छी नींद में मदद – शहद, मेलाटोनिन (Melatonin) हार्मोन के उत्पादन को बढ़ाता है, जो नींद की गुणवत्ता को नियंत्रित करता है। यह मस्तिष्क में ट्रिप्टोफ़ैन (Tryptophan) के उत्पादन को भी बढ़ावा देता है, जिससे बेहतर नींद आती है।
6. मधुमेह प्रबंधन - शहद में ग्लूकोज़ (Glucose) और फ्रक्टोज़ (Fructose) की तुलना में ग्लाइसेमिक इंडेक्स (Glycaemic Index) कम होता है। इसलिए, यह टाइप-1 और टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित लोगों के लिए बेहतर विकल्प है।
7. प्राकृतिक खाद्य संरक्षक - हालाँकि शहद में क्लोस्ट्रीडियम बोटुलिनम (Clostridium botulinum) की थोड़ी मात्रा होती है, लेकिन इसमें प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट होने की विशेषता है। यह फलों और सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग के दौरान पॉलीफ़ेनॉल ऑक्सिडेज़ ब्राउनिंग (Polyphenol Oxidase Browning) के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में सहायक होता है।
मधुमक्खी के मोम के लाभ और उपयोग
1. त्वचा को नमी प्रदान करना - मधुमक्खी का मोम त्वचा में नमी बनाए रखने में मदद करता है, जिससे त्वचा कोमल और मुलायम रहती है। इसमें एंटी-एलर्जिक (Anti-allergenic) और सूजन-रोधी (Anti-inflammatory) गुण होते हैं, जो त्वचा की जलन को कम करते हैं। इसलिए, यह रोसेशिया (Rosacea) और एक्ज़िमा (Eczema) जैसी त्वचा समस्याओं के उपचार के लिए फ़ायदेमंद है।
2. बाहरी प्रभावों से सुरक्षा - जब मधुमक्खी का मोम त्वचा पर लगाया जाता है, तो यह एक सुरक्षात्मक परत बनाता है। यह त्वचा को पर्यावरणीय प्रदूषकों और अत्यधिक मौसम से बचाने में सहायक होता है।
3. बालों की वृद्धि में मदद - मधुमक्खी का मोम न केवल बालों को मॉइस्चराइज़ (Moisturize) और शांत करता है, बल्कि यह बालों की प्राकृतिक नमी को बनाए रखता है। यह बालों की वृद्धि (Hair Growth) को बढ़ावा देता है और बाल झड़ने (Hair Loss) की समस्या को कम करता है।
मधुमक्खी के विष (Bee Venom) के उपयोग
मधुमक्खी का विष कई तरीकों से उपयोग किया जाता है और यह अलग-अलग रूपों में उपलब्ध होता है। इसे अर्क (Extracts), को सप्लीमेंट्स (Supplements), मॉइस्चराइज़र (Moisturizers), और सीरम (Serums) जैसे उत्पादों में मिलाया जाता है। आप मधुमक्खी-विष वाले उत्पाद ऑनलाइन या विशेष स्टोर्स से खरीद सकते हैं।
चिकित्सा में मधुमक्खी के विष का उपयोग
2020 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, मधुमक्खी का विष, सूजन (Inflammation), दर्द (Pain), गठिया (Arthritis), पार्किंसन रोग (Parkinson’s Disease), और कैंसर (Cancer) जैसी बीमारियों के इलाज में लाभकारी पाया गया है। हालांकि, शोधकर्ता इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इन स्वास्थ्य समस्याओं के लिए मधुमक्खी के विष की प्रभावशीलता की पुष्टि करने के लिए अधिक नियंत्रित परीक्षण (Controlled Trials) की आवश्यकता है।
मधुमक्खी डंक चिकित्सा (Bee-Sting Therapy)
मधुमक्खी का विष “लाइव बी अक्यूपंक्चर” (Live Bee Acupuncture) या “बी-स्टिंग थेरेपी” में भी उपयोग किया जाता है। 2023 की एक समीक्षा के अनुसार, इस उपचार में जीवित मधुमक्खियों को त्वचा पर रखा जाता है और डंक लगवाया जाता है। इसे दर्द से राहत के लिए प्रभावी माना जाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
मेरठ की आर्थिक वृद्धि व खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है मत्स्य पालन उद्योग
मछलियाँ व उभयचर
Fishes and Amphibian
29-04-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

हमारे क्षेत्र के निवासी इस बात से सहमत होंगे कि, मेरठ अपने कई तालाबों, नदियों और ऊपरी गंगा नहर के अपने नेटवर्क के साथ, मछली खेती का समर्थन करता है; इसमें रोज़गार का निर्माण करता है; तथा क्षेत्र में भोजन पोषण और स्थिरता को बढ़ावा देता है। यह अभ्यास, स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाता है; हमें प्रोटीन युक्त भोजन प्रदान करता है; और जैविक उर्वरकों के माध्यम से कृषि का समर्थन करता है। इससे मत्स्य पालन, हमारे क्षेत्र की वृद्धि और खाद्य सुरक्षा में एक आवश्यक योगदानकर्ता बन जाता है। तो आज, आइए मछली पालन खेती के लाभों का पता लगाएं, तथा इसके आर्थिक, पोषण और पर्यावरणीय लाभों को जानें। इसके बाद, हम भारत में उपयोग किए जाने वाले विभिन्न मछली फ़ार्मिंग सिस्टम पर चर्चा करेंगे। फिर हम, भारत में खेती के लिए, सबसे अच्छी प्रकार की मछलियों को देखेंगे। यहां हम इनके लिए आवश्यक निवेश और परिचालन खर्चों को भी देखेंगे।
मछली पालन खेती के लाभ:
1.स्थिरता: मछली पालन खेती, मछली उत्पादन करने का एक स्थायी तरीका है, और इससे प्राकृतिक मछलियों की आबादी पर कम दबाव पड़ता है।
2.आर्थिक विकास: यह क्षेत्र रोज़गार का निर्माण करता है, और विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था को बढ़ाता है।
3.पोषण सुरक्षा: मछलियां प्रोटीन, ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड (Omega-3 fatty acids) और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों की एक उत्कृष्ट स्रोत है, जो खाद्य सुरक्षा में योगदान देती है।
4.संसाधन दक्षता: मछलियां, अन्य पशुधन की तुलना में, अपने शरीर के द्रव्यमान में फ़ीड या दिए गए खाद्य को अधिक कुशलता से परिवर्तित करती है। इससे मछली पालन, प्रोटीन (Protein) के उत्पादन का एक संसाधन-कुशल तरीका बन जाता है।
भारत में उपयोग किए जाने वाले, विभिन्न मछली फ़ार्मिंग तंत्र:
1. पिंजरा प्रणाली (Cage System) – इस तकनीक में धातु के पिंजरों को पानी में डुबोया जाता है, जिसमें मछलियां होती है। खेती का यह तरीका, कृत्रिम रूप से मछलियों को खाद्य खिलाने की अनुमति देता है।
2. तालाब प्रणाली (Pond System) – इस प्रणाली में, एक छोटे तालाब या टैंक की आवश्यकता होती है, जहां मछलियां बढ़ती हैं। यह सबसे अधिक लाभकारी मछली पालन खेती तकनीकों में से एक है, क्योंकि इसमें मछलियों के कचरे वाले पानी का उपयोग, कृषि क्षेत्र में खाद के तौर पर किया जाता है।
3. एकीकृत पुनर्चक्रण प्रणाली (Integrated Recycling System) – इस विधि में ग्रीनहाउस (Greenhouse) में रखी गई मछलियों के बड़े प्लास्टिक टैंक का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, टैंकों के बगल में एक हाइड्रोपॉनिक बेड (Hydroponic bed) है। मछली टैंक के पानी का उपयोग करते हुए लोग तुलसी, अजमोद, आदि जड़ी-बूटियों की भी खेती करते हैं।
4. क्लासिक फ़्राई फ़ार्मिंग (Classic Fry Farming) - इस तकनीक का उपयोग करते हुए, मछलियों को अंडों से बच्चे बनने तक पाला जाता है। फिर उन्हें, पानी के किसी स्त्रोत में छोड़ा जाता है।
भारत में खेती के लिए सबसे अच्छी मछली किस्में:
1. कैटफ़िश फ़ार्मिंग (Catfish Farming):
कैटफ़िश, मछली किसानों के शीर्ष विकल्पों में से एक हैं, क्योंकि विशेष रूप से गर्म जलवायु में उनका पालन करना आसान है। उन्हें तालाबों के साथ-साथ टैंकों में भी पाला जा सकता है। बाज़ार में भी उनकी अच्छी मांग है। आप 18 महीनों तक उनका पालन करके, मुनाफ़ा कमा सकते हैं। सबसे प्रमुख कैटफ़िश प्रजातियां, जिन्हें आप पाल सकते हैं, वे चैनल कैटफ़िश (Channel catfish), ब्लू कैटफ़िश (Blue catfish) और फ्लैथेड कैटफ़िश (Flathead catfish.) हैं।
2. कॉड फ़ार्मिंग (Cod Farming):
कॉडफ़िश, यूरोप और अमेरिका में मछली की बहुत महत्वपूर्ण वाणिज्यिक प्रजातियां हैं। इसकी लोकप्रियता हमेशा से ही बढ़ती जा रही है। बाज़ार में बेचे जाने से पहले, इन मछलियों को 24-36 महीनों तक पाला जाना चाहिए।
3. तिलापिया फ़ार्मिंग (Tilapia Farming):
तिलापिया मछली, भारतीय मछली पालन खेती में तीसरी सबसे लोकप्रिय मछली है, जिसे किसान अक्सर चुनते हैं। इन मछलियों में प्रोटीन की उच्च मात्रा होती हैं, वे बड़े आकार की होती हैं, और काफ़ी अच्छी तरह से बढ़ती हैं। वे 28 से 30 डिग्री सेल्सियस के तापमान सीमा में, अच्छी तरह से बढ़ सकती हैं।
4. ईल फ़ार्मिंग (Eel Farming):
ईल मछलियां, प्रकृति में मांसाहारी होती हैं। उनके शरीर की रचना, लंबी एवं सांप जैसी होती है। उनके शरीर पतले और फिसलाऊ होते हैं। चीन (China), जापान (Japan) और ताइवान (Taiwan) जैसे देश, ईल मछली के सबसे बड़े उत्पादक और विक्रेता हैं।

5. ग्रास कार्प (Grass Carp) फ़ार्मिंग:
ग्रास कार्प, एक मीठे पानी की मछली है, एवं वाइट अमूर (White amur) के रूप में लोकप्रिय है। ग्रास कार्प मछली पालन खेती में, आपको उन्हें बहते पानी में बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि यह उनके प्राकृतिक प्रजनन को बढ़ाता है।
हमारे मेरठ में, मछली पालन व्यवसाय शुरू करने में कितना खर्च हो सकता है?
व्यय के प्रकार | अनुमानित लागत |
तालाब निर्माण या भूमि विकास की लागत | 5,000 – 2,00,000 रुपए |
मत्स्य-बीज | 10,000 – 50,000 रुपए |
मछली खाद्य और पोषण | 20,000 – 1,00,000 रुपए |
श्रम की मासिक लागत | 10,000 – 50,000 रुपए प्रति माह |
उपकरण लागत | 15,000 – 1,00,000 रुपए |
मासिक रखरखाव शुल्क | 5,000 – 20,000 रूपए |
संदर्भ
चित्र स्रोत : wikimedia
1803 में बनी मेरठ छावनी है भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े कई लोकप्रिय आकर्षणों का घर
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
28-04-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि 1803 में, दिल्ली सल्तनत के पतन के साथ, ग्वालियर राज्य के मराठा महाराजा दौलत राव सिंधिया ने मेरठ क्षेत्र को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) को सौंप दिया था। उस समय दिल्ली से इसकी निकटता और समृद्ध गंगा-यमुना दोआब के अंदर का क्षेत्र होने के कारण यहां मेरठ छावनी स्थापित की गई। शहर को 1818 में मेरठ जिले का मुख्यालय बना दिया गया। तो आइए आज, जानते हैं कि कैसे और कब मेरठ ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आया। इसके साथ ही, हम एक प्रमुख सैन्य केंद्र के रूप में मेरठ छावनी के इतिहास और महत्व पर प्रकाश डालेंगे और मेरठ छावनी के कुछ लोकप्रिय आकर्षणों के बारे में जानेंगे। हम मेरठ में ब्रिटिश वास्तुकला के कुछ प्रसिद्ध उदाहरणों जैसे सेंट जॉन चर्च और गांधी बाग के बारे में चर्चा करेंगे। अंत में, हम यह जानेंगे कि कैसे उत्तर भारत में चपातियों का रहस्यमय वितरण, 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष का अग्रदूत बन गया।
मेरठ, ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में कब और कैसे आया ?
औरंगज़ेब के शासनकाल में मेरठ पर मुगल कब्ज़े के अंत के बाद, मेरठ सैय्यद, जाट और गुर्जर जैसे स्थानीय सरदारों के अधीन आ गया। 18वीं सदी के अंत तक मेरठ पर जाटों का कब्ज़ा रहा। मेरठ जिले के कुछ हिस्से अंग्रेज़ शासक वॉल्टर रेनहार्ड्ट (Walter Reinhardt) के शासन में आ गए, जो उस समय सरधना का शासक था। अंग्रेज़ों ने तब तक भारत में अपनी पकड़ स्थापित कर ली थी। इसके बाद अंग्रेज़ों ने 1803 में मेरठ में छावनी की स्थापना की। और रेज़िमेंट के बच्चों के लिए स्कूलों, पार्कों और चर्चों एवं अधिकारियों के बंगलों की स्थापना की गई और मेरठ में ढांचात्मक विकास के लिए कई मेरठ में चलाई गईं, जिससे उन्हें शहर पर पकड़ मिल गई।
मेरठ छावनी का इतिहास और महत्व:
अंग्रेज़ों ने मराठों के साथ सुरजी अंजुनगांव की संधि के बाद 1803 में मेरठ छावनी की स्थापना की। 3,500 हेक्टेयर में फैली, छावनी को 'ब्रिटिश इंफैंट्री (British Infantry (BI)) लाइन्स' ब्रिटिश कैवेलरी (British Cavalry (BC)), लाइन्स और रॉयल आर्टिलरी (Royal Artillery (RA)) लाइन्स में विभाजित किया गया। समय के साथ, इन क्षेत्रों के आसपास बाज़ार और मोहल्ले विकसित हुए। यह छावनी अन्य संबद्ध सेवाओं के साथ-साथ दो भारतीय सेना पैदल सेना विभागों और रिमाउंट और पशु चिकित्सा कोर केंद्र और कॉलेज (Remount & Veterinary Corps Centre and College) का मुख्यालय भी है।
मेरठ छावनी के कुछ लोकप्रिय आकर्षण:
मेरठ छावनी में कई ऐसे लोकप्रिय आकर्षण हैं जो भारत के स्वतंत्रता संघर्ष और उस विद्रोह की शुरुआत की याद दिलाते हैं, जिनके कारण हमारा देश स्वतंत्र हुआ। इनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं:
शहीद स्मारक: शहीद स्मारक, 1857 के विद्रोह में मारे गए सैनिकों की स्मृति में बनाया गया एक स्मारक है।
औगढ़नाथ मंदिर: औगढ़नाथ मंदिर, जिसे काली पलटन मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, भगवान शिव को समर्पित मेरठ के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर ने 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
स्वतंत्रता संघर्ष संग्रहालय: स्वतंत्रता संघर्ष संग्रहालय में इतिहास के विभिन्न चरणों, विशेषकर स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध से संबंधित अनेकों पेंटिंग, कलाकृतियाँ और संस्मरण संग्रहित हैं।
मेरठ में ब्रिटिश वास्तुकला के कुछ प्रसिद्ध उदाहरण:
सेंट जॉन्स चर्च: मेरठ में स्थित सेंट जॉन्स चर्च का निर्माण 1819-1821 के बीच हुआ था। यह उत्तरी भारत का सबसे पुराना चर्च है और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान बनाया गया था। इसे वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति माना जाता है। चर्च के पास एक कब्रिस्तान है, जिसमें 1857 के विद्रोह के दौरान मारे गए ब्रिटिश लोगों और उनके परिवारों की कब्रें हैं। यह चर्च, अंग्रेज़ी चर्च वास्तुकला की शैली में बनाया गया है, जिसमें प्रार्थना के लिए निर्धारित एक बड़ा खुला स्थान है। यहां प्रत्येक रविवार की सुबह विशेष प्रार्थना आयोजित की जाती है, जिसका समय गर्मियों के दौरान सुबह 8.30 बजे और सर्दियों के दौरान सुबह 9.30 बजे है। ईस्टर, क्रिसमस या नए साल के अवसरों पर सेवा का समय सुबह 10 बजे है।
गांधी बाग: गांधी बाग, जिसे स्थानीय तौर पर 'कंपनी गार्डन' के नाम से जाना जाता है, मेरठ में माल रोड पर स्थित है। इसका निर्माण आजादी से पहले किया गया था, लेकिन हाल ही में इसका नाम बदल दिया गया है। यह परिसर विविध प्रकार की वनस्पतियों के साथ हरियाली से भरा हुआ है। यहाँ एक संगीतमय फव्वारा है जो हर शाम बगीचे में चलता है। पहले, इसमें कई प्रवेश द्वार थे, और कोई प्रवेश शुल्क नहीं था, लेकिन अब केवल एक प्रवेश द्वार है, जो नाममात्र प्रवेश शुल्क के साथ जनता के लिए खुला है। मेरठ का छावनी बोर्ड गांधी बाग का रखरखाव करता है।
उत्तर भारत में चपातियों का वितरण 1857 में भारत की पहली स्वतंत्रता लड़ाई का अग्रदूत कैसे बना:
1857 की शुरुआत में ब्रिटिश गुप्तचरों ने अपने आकाओं को कई उत्तर भारतीय गांवों में चपाती के असामान्य वितरण की सूचना दी। इसे ब्रिटिश द्वारा चपाती आंदोलन (Chapati Movement) का नाम दिया गया। इन गुप्तचरों का मानना था कि स्वतंत्रता सेनानी, चपातियों में गुप्त संदेश छिपा कर भेजते हैं, यद्यपि निरीक्षण में ऐसे कोई संदेश सामने नहीं आए। ये आंदोलन, पहली बार फ़रवरी 1857 में अंग्रेज़ों के ध्यान में आया। उत्तर भारत के गांवों से खबरें आने लगीं कि लोग हज़ारों रोटियां वितरित कर रहे हैं। इस वितरण प्रक्रिया में एक व्यक्ति जंगल से आता था , और गाँव के चौकीदार को कई रोटियाँ देता था और उससे और अधिक रोटियाँ बनाने के लिए कहता था।
फिर वो उन्हें पास के गाँवों के चौकीदारों को वितरित करता था। तब चौकीदार अपनी पगड़ी में चपातियाँ लेकर जाता था, उसे अक्सर चपातियों के मूल स्रोत के बारे में बहुत कम या कोई ज्ञान नहीं होता था।
श्रीरामपुर में प्रकाशित एक अंग्रेज़ी अखबार, 'द फ़्रेंड ड ऑफ़ इंडिया' (The Friend of India) ने अपने 5 मार्च 1857 के संस्करण में बताया कि जब एक क्षेत्र के पुलिस स्टेशन में चपाती पहुंची, तो ब्रिटिश अधिकारी भ्रमित हो गए और वे बहुत डरे हुए थे। इन चपतियों का वितरण दूर-दूर तक हुआ; फ़र्रुख़ाबाद से गुड़गांव तक, अवध से रोहिलखंड होते हुए दिल्ली तक। वितरण की गति ब्रिटिशों के लिए विशेष रूप से निराशाजनक थी क्योंकि यह ब्रिटिश मेल की तुलना में बहुत तेज़ थी। इस आंदोलन के स्रोत और अर्थ के बारे में ब्रिटिश द्वारा कई बार पूछताछ की गई। प्रत्येक बार उन्हें जानकारी मिली कि रोटियाँ कहीं अधिक व्यापक रूप से वितरित की जा रही थीं, और जिन भारतीयों ने उन्हें प्राप्त किया, वे आम तौर पर उन्हें किसी प्रकार के संकेत के रूप में लेते थे। हालाँकि, इसके अलावा, राय विभाजित रही।
संदर्भ
मुख्य चित्र में मेरठ छावनी का स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
आइए देखें, धीमी गति में गोल्डन और चेंजेबल हॉक-ईगल की अद्भुत उड़ानों को
व्यवहारिक
By Behaviour
27-04-2025 09:08 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के शांत बाहरी इलाकों में, अक्सर चीलों को खुले आसमान में उड़ते देखा जा सकता है - खासकर खुले मैदानों के पास। उनके चौड़े पंखों और स्थिर रहकर उड़ने (glide) को देखना, अब शहर की रोज़मर्रा की गतिविधियों में से एक हो गया है। कई अन्य पक्षियों की तुलना में चीलों की उड़ान अद्वितीय और विशिष्ट है। बड़े शरीर, शक्तिशाली संरचना और विशेष पंख, उन्हें अत्यधिक ऊंचाई पर उड़ने और तापमान का प्रभावी ढंग से उपयोग करने की अनुमति देते हैं । उड़ाते समय वे अपने लंबे, चौड़े और सपाट पंखों को पूरा फैलाती हैं और उड़ान के दौरान उनके पंख केवल थोड़ा-सा ऊपर उठते हैं। भारत में, चील की कई प्रजातियां हैं, जिनमें से मुख्य प्रजाति गोल्डन ईगल (Golden Eagle) और चेंजेबल हॉक-ईगल (Changeable Hawk-Eagle) की है। ये प्रजातियां, भारत की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय प्रजातियों में से एक हैं। गोल्डन ईगल, एक बड़ा, प्रतिष्ठित पक्षी है, जो मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्र में देखा जाता है। इसी प्रकार से चेंजेबल हॉक या क्रेस्टेड हॉक-ईगल (crested hawk-eagle) को अपने परिवर्तनशील पंखों और अनुकूलनीय स्वभाव के लिए जाना जाता है। ये विभिन्न भारतीय आवासों में व्यापक रूप से वितरित होते हैं। चीलों की उड़ान की एक मुख्य विशेषता यह है कि उड़ते समय वे अपने पंख नहीं फड़फड़ाते। ऐसा इसलिए है, क्यों कि उनके पंख, उनके शरीर के आकार के सापेक्ष बड़े होते हैं, जो उन्हें महत्वपूर्ण उडान देने में मदद करते हैं। साथ ही चीलें अपनी उड़ान को अनुकूलित करने के लिए विभिन्न उड़ान तकनीकों का उपयोग करतीं हैं, जिस कारण वे अपने पंख नहीं फड़फड़ाते। तो आइए, आज हम, गोल्डन ईगल को धीमी गति में हवा में उड़ते देखेंगे। इसके बाद, हम एक स्लो मोशन वीडियो के माध्यम से चेंजेबल हॉक-ईगल को देखेंगे, जो अचानक एक विशेष बल के साथ उड़ान भरती है। इसके पंखों की तेज़ क्रिया इसे घने जंगलों में पैंतरेबाज़ी करने में मदद करते हैं। इसके बाद, हम बाल्ड ईगल (Bald Eagle) के कुछ धीमी गति के वीडियो क्लिप देखेंगे, जिसमें वे हवा में बने रहने के लिए अपने मज़बूत, स्थिर पंखों की गति का उपयोग करते हुए बीच-बीच में अपनी दिशा को कुशलता से समायोजित करती है।
संदर्भ:
आइए जानें, मेरठ में कैसे बढ़ रहा है मानव-निर्मित टेक्सटाइल फ़ाइबरों का उत्पादन व निर्यात !
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
26-04-2025 09:19 AM
Meerut-Hindi

मेरठ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं? हमारा देश मानव-निर्मित फ़ाइबर (MMF) कपड़ों का दुनिया में छठा सबसे बड़ा निर्यातक है। भारत से कपड़ा निर्यात में मानव-निर्मित फ़ाइबर का 16% योगदान है। भारतीय कपड़ा उद्योग को उम्मीद है कि 2030 तक मानव-निर्मित फ़ाइबर कपड़ों का निर्यात 75% बढ़कर 11.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है, जो 2021-22 में लगभग 6.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
भारत का कपड़ा और परिधान क्षेत्र सीधा 4.5 करोड़ लोगों को रोज़गार देता है, और 10 करोड़ लोग इससे जुड़े अन्य उद्योगों में काम करते हैं। यह हमारे देश का दूसरा सबसे बड़ा रोज़गार देने वाला क्षेत्र है।
आज हम समझेंगे कि भारत में मानव-निर्मित फ़ाइबर का उत्पादन फिलहाल किस स्थिति में है। फिर हम जानेंगे कि भारत के कपड़ा उद्योग पर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) का क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसमें हम ऑटोमेशन और कार्यक्षमता, नवाचार और कस्टमाइज़ेशन जैसी ए आई की बड़ी खूबियों पर ध्यान देंगे।
इसके बाद, हम उन महत्वपूर्ण पहलों और योजनाओं पर नज़र डालेंगे, जो हाल के वर्षों में भारतीय कपड़ा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई हैं। अंत में, हम भारत के कुछ प्रमुख कपड़ा शहरों के बारे में जानेंगे, जैसे करूर (कर्नाटक), सूरत (गुजरात), मुंबई (महाराष्ट्र) और अन्य।
भारत में मानव-निर्मित फ़ाइबर (MMF) का वर्तमान स्थिति
भारत दुनिया में कृत्रिम रेशों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यहां बड़ी फैक्टरियां हैं, जिनमें अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग होता है। इस समय भारत लगभग 1700 मिलियन किलो कृत्रिम रेशे और करीब 3400 मिलियन किलो कृत्रिम धागे (filaments) का उत्पादन करता है। भारत में 35000 मिलियन वर्ग मीटर से अधिक कपड़े बनाए जाते हैं, जो कृत्रिम रेशों और उनके मिश्रण से तैयार होते हैं। भारत में अधिकांश कृत्रिम रेशे बनाए जाते हैं। भारत दुनिया में पॉलिएस्टर (Polyester) और विस्कोस (Viscose) का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। प्रमुख प्रकारों में पॉलिएस्टर, विस्कोस, ऐक्रेलिक (Acrylic) और पॉलीप्रोपाइलीन (Polypropylene) शामिल हैं।
भारत में मानव-निर्मित फ़ाइबरों का निर्यात
भारत में कृत्रिम टेक्सटाइल फ़ाइबरों या रेशों (Man Made Fabrics (MMF)) वस्त्र उद्योग तेजी से बढ़ रहा है और दुनिया में प्रमुख स्थान रखता है। वर्तमान में, भारत पॉलिएस्टर और विस्कोस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारतीय टेक्सटाइल फ़ाइबरों का निर्यात लगभग 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो भारत के कुल वस्त्र निर्यात का लगभग 30% है (जिसमें परिधान शामिल नहीं हैं), जो 2023-24 में 20292 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। ये निर्यात 2014-15 तक लगातार बढ़ रहा था, लेकिन उसके बाद वैश्विक वित्तीय संकट और 2020 में कोविड-19 महामारी के कारण निर्यात पर असर पड़ा। भारत का ये उद्योग, पूरी आपूर्ति श्रृंखला में आत्मनिर्भर है, जिसमें कच्चे माल से लेकर परिधान निर्माण तक शामिल है। हमारे वस्त्र अंतरराष्ट्रीय मानकों के होते हैं और उनकी उत्कृष्ट कारीगरी, रंग, आरामदायकता, मजबूती और अन्य तकनीकी गुणों के लिए प्रसिद्ध हैं। सरकार का लक्ष्य 2029-30 तक वस्त्र निर्यात को 100 बिलियन डॉलर तक पहुंचाना है, जिसमें मानव-निर्मित टेक्सटाइल फ़ाइबरों का योगदान 12 बिलियन डॉलर होगा।
भारत के वस्त्र उद्योग पर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का असर
1.) स्वचालन और दक्षता: आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, वस्त्र बनाने की जटिल प्रक्रियाओं को स्वचालित (ऑटोमेट) कर रहा है, जिससे काम जल्दी और अच्छे तरीके से होता है। जैसे, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से चलने वाली जांच प्रणाली से वस्त्रों में खराबी कम होती है और फैब्रिक का रंग और गुणवत्ता बेहतर हो जाती है।
2.) नवाचार और कस्टमाइजेशन: आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल डिजाइन में भी हो रहा है। इससे नए और अलग तरह के वस्त्र पैटर्न बनाए जा रहे हैं और फैशन के ट्रेंड्स का अनुमान भी लगाया जा रहा है। डिज़ाइनर अब आसानी से नए और कस्टमाइज़्ड (विशेष) उत्पाद बना सकते हैं, जो लोगों की पसंद के अनुसार होते हैं।
3.) सततता और प्रतिस्पर्धा: वस्त्र उद्योग पर अब पर्यावरण की चिंता बढ़ रही है। आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तकनीकें इसका समाधान देने में मदद कर रही हैं। ए आई से कंपनियों को अपनी ज़रूरत के हिसाब से चीज़ों का अनुमान लगाने और संसाधनों का सही तरीके से इस्तेमाल करने में मदद मिल रही है, जिससे पर्यावरण पर कम असर पड़ता है।
भारत के वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने वाली प्रमुख सरकारी पहलों
1.) पीएम मित्रा (PM MITRA): प्रधानमंत्री मेगा इंटीग्रेटेड टेक्सटाइल रीजन और ऐपरेल योजना का मुख्य उद्देश्य वस्त्र और परिधान उद्योग में निवेश बढ़ाना, नवाचार को बढ़ावा देना और विकास को प्रेरित करना है। प्रत्येक पीएम मित्रा पार्क को एक विशेष उद्देश्य वाहन (SPV) द्वारा प्रबंधित किया जाता है, जिसे केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से स्वामित्व प्राप्त होता है। वस्त्र मंत्रालय पार्क और उसकी इकाइयों को विकास पूंजी और प्रतिस्पर्धी प्रोत्साहन सहायता के माध्यम से वित्तीय सहायता प्रदान करता है। 4,445 करोड़ रुपये के कुल आवंटन के साथ, पीएम मित्रा पार्क 2026-27 तक स्थापित होने की उम्मीद है, जो भारत के वस्त्र उद्योग के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर होगा।
2.) प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम (PLI): वस्त्रों के लिए पी एल आई योजना दो भागों में बांटी गई है। भाग 1 में कम से कम 3 अरब रुपये का निवेश और 6 अरब रुपये का न्यूनतम कारोबार होना चाहिए। भाग 2 में कम से कम 1 अरब रुपये का निवेश और 2 अरब रुपये का न्यूनतम कारोबार अपेक्षित है। इस ड्यूल-पार्ट संरचना से विभिन्न उद्योग खिलाड़ियों को लाभ होगा। 64 वस्त्र निवेशकों को पी एल आई योजना के तहत पात्र के रूप में पहचाना गया है, जिन्हें पांच सालों तक प्रोत्साहन मिलेगा। यह रणनीतिक चयन वस्त्र कंपनियों के उत्पादन क्षमता को अपग्रेड करने को बढ़ावा देने के लिए है।
3.) नेशनल टेक्निकल टेक्सटाइल्स मिशन (NTTM): इस मिशन का मुख्य उद्देश्य इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी स्तर पर तकनीकी शिक्षा को प्राथमिकता देना है, ताकि तकनीकी वस्त्रों और उनके अनुप्रयोगों में विशेषज्ञता विकसित की जा सके। यह मिशन फ़ाइबर और अनुप्रयोगों पर क्रांतिकारी शोध पर केंद्रित है, जिसमें जियो, एग्री, मेडिकल, स्पोर्ट्स और मोबाइल वस्त्र शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, यह बायोडिग्रेडेबल (Biodegradable) तकनीकी वस्त्रों और स्वदेशी मशीनरी के विकास को भी बढ़ावा देता है।
वस्त्र उत्पादन से संबंधित भारत के कुछ प्रमुख शहर
1.) करूर, तमिलनाडु: करूर भारत में लगभग 6000 करोड़ रुपये (300 मिलियन डॉलर) का योगदान करता है, जो सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से निर्यात के माध्यम से प्राप्त होता है। यहां लगभग 3 लाख लोग वस्त्र उद्योगों जैसे कि स्पिनिंग, गिनिंग मिल्स और डाईइंग यूनिट्स से जुड़े हुए हैं। उच्च गुणवत्ता के वस्त्रों के कारण, इसे जे सी पेनी (JC Penny), आइकिया (IKEA), टार्गेट (Target), वॉलमार्ट (Walmart), आहलेंस (Ahlens), कैरेफ़ोर (Carrefour) जैसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों का समर्थन प्राप्त है।
2.) सूरत, गुजरात: सूरत मुख्य रूप से कृत्रिम रेशों (मनमेड फैब्रिक) के लिए प्रसिद्ध है। इसे भारत की सिंथेटिक राजधानी भी कहा जाता है। यह शहर रोज़ाना लगभग 25 मिलियन मीटर प्रोसेस किए गए कपड़े और 30 मिलियन मीटर कच्चा माल उत्पादन करता है। भारत में उपयोग होने वाला 90% पॉलिएस्टर, सूरत से आता है। यहां कुछ पुरानी मिल्स भी हैं।
3.) पोचमपल्ली, तेलंगाना: पोचमपल्ली शहर अपनी समृद्ध और अद्वितीय विरासत वस्त्र उद्योग के लिए जाना जाता है। यह तेलंगाना के नलगोंडा जिले में स्थित है और इसे भारत का सिल्क सिटी भी कहा जाता है। यहां के इकट (Ikat) वस्त्रों ने पूरी दुनिया में विशेष ध्यान आकर्षित किया है।
4.) मुंबई, महाराष्ट्र: कच्चे माल की उपलब्धता, बंदरगाह और जलवायु मुंबई के वस्त्र उत्पादन को प्रसिद्ध बनाने वाले प्रमुख कारक हैं । महाराष्ट्र राज्य ने अगले पांच वर्षों में कपास प्रसंस्करण क्षमता को 30% से बढ़ाकर 80% करने का प्रस्ताव किया है। इस कदम से 25,000 करोड़ रुपये का निवेश आने की संभावना है और पांच लाख लोगों को रोज़गार मिलेगा।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भारत में वस्त्र फैशन उद्योग से जुड़े श्रमिकों का स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 2009
प्रकृति 712