मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ में फैशन और आराम की नई लहर: विस्कोस और लायोसेल की बढ़ती लोकप्रियता
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
13-10-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी गौर किया है कि आजकल आपके शहर की दुकानों और बाजारों में विस्कोस (Viscose) और लायोसेल (Lyocell) से बने कपड़ों की बढ़ती मांग किस तरह फैशन (fashion) और आराम का नया ट्रेंड बना रही है? मेरठ, जो हमेशा से पारंपरिक सिलाई, वस्त्र उद्योग और छोटे-बड़े व्यापार के लिए जाना जाता रहा है, अब टेक्सटाइल फ़ाइबर (Textile Fiber) के इस आधुनिक और तेजी से बढ़ते रुझान का भी महत्वपूर्ण केंद्र बनता जा रहा है। यहां के लोग इन कपड़ों को उनकी मुलायमियत, हवा को अंदर जाने की क्षमता और सस्ती कीमत के कारण चुनते हैं। लेकिन यह केवल फैशन का मामला नहीं है - इन फ़ाइबरों का इस्तेमाल रोज़मर्रा के जीवन में, घर के वस्त्रों में और औद्योगिक स्तर पर भी होता है, जिससे पहनने वालों को आराम, सुविधा और टिकाऊ गुणवत्ता दोनों मिलती हैं।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि विस्कोस और लायोसेल जैसी सेलूलोज़िक फ़ाइबरों (Cellulosolic Fibres) की लोकप्रियता के पीछे क्या कारण हैं। हम चर्चा करेंगे कि इन फ़ाइबरों का दैनिक जीवन और औद्योगिक उपयोग कैसे बढ़ रहा है और इनके उत्पादन में प्राकृतिक और मानव निर्मित फ़ाइबर का क्या योगदान है। इसके अलावा, हम देखेंगे कि भारत में किन प्रकार के कृत्रिम सेलूलोज़िक फ़ाइबर बनाए जाते हैं और इनकी विशेषताएँ क्या हैं। हम जानेंगे कि विस्कोस का उत्पादन प्रक्रिया कैसे होती है, बाज़ार में इसके आयात और निर्यात के आंकड़े क्या हैं, और अंत में, उन प्रमुख कंपनियों पर भी नज़र डालेंगे जो भारत में विस्कोस रेयान के बड़े निर्माता हैं।

मेरठ में विस्कोस और लायोसेल की लोकप्रियता के कारण
मेरठवासियों के बीच विस्कोस और लायोसेल कपड़ों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। लोग इन कपड़ों को केवल आरामदायक होने के कारण ही नहीं, बल्कि इनके सांस लेने योग्य (breathable) होने और अन्य विकल्पों की तुलना में किफायती होने के कारण भी पसंद करते हैं। गर्मियों और नमी वाले मौसम में ये कपड़े शरीर की गर्मी को बाहर निकालते हैं और पसीने को सोख लेते हैं, जिससे पहनने वाले को लंबे समय तक ठंडक और सहजता महसूस होती है। इन कपड़ों की मुलायमियत और प्राकृतिक चमक उन्हें फैशन और दैनिक उपयोग दोनों के लिए उपयुक्त बनाती है। मेरठ में घरेलू उपयोग के साथ-साथ औद्योगिक स्तर पर भी इन फ़ाइबरों की मांग बढ़ रही है, जैसे कि गद्दे, पर्दे, बेडशीट (bedsheet), तकिए और अन्य घरेलू वस्त्र। प्राकृतिक फ़ाइबर जैसे सूती और भांग के साथ मानव निर्मित फ़ाइबर की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये टिकाऊ, मजबूत और वाणिज्यिक दृष्टि से अधिक उपयोगी हैं। इस तरह, ये फ़ाइबर स्थानीय बाजार के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पकड़ बना रहे हैं।

भारत में विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सेलूलोज़िक फ़ाइबर
भारत में कृत्रिम या मानव निर्मित सेलूलोज़िक फ़ाइबर का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। ये फ़ाइबर कपड़े, घरेलू उपयोग की वस्त्र और औद्योगिक वस्त्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- विस्कोस: यह सबसे प्राचीन और लोकप्रिय मानव निर्मित फ़ाइबर है। इसे बनाने में कार्बन डाईसल्फ़ाइड (Carbon disulfide), सोडियम हाइड्रॉक्साइड (Sodium hydroxide) और सल्फ़्यूरिक एसिड (Sulfuric acid) का इस्तेमाल होता है। हालांकि यह प्रक्रिया जटिल और रासायनिक दृष्टि से हानिकारक हो सकती है, फिर भी इसकी मुलायमियत, सांस लेने की क्षमता और किफायती कीमत इसे ग्राहकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय बनाती है।
- मोडल: यह फ़ाइबर गीली मजबूती के लिए जाना जाता है। उत्पादन प्रक्रिया में किए गए सुधार इसे अधिक टिकाऊ और मजबूत बनाते हैं, जिससे कपड़े लंबे समय तक अपनी गुणवत्ता बनाए रखते हैं। यह फ़ैब्रिक विशेष रूप से उन वस्त्रों में इस्तेमाल होता है, जिन्हें बार-बार धोना और इस्तेमाल करना पड़ता है।
- लायोसेल: यह पर्यावरण के अनुकूल फ़ाइबर है। इसे बनाने में रसायनों और पानी का 100% पुनर्चक्रण किया जाता है, जिससे उत्पादन प्रक्रिया पर्यावरण के अनुकूल बनती है। लायोसेल को टेन्सेल (TENCEL) और मोनोसेल (MONOCEL) जैसे ब्रांड नामों के तहत बेचा जाता है। इसकी नमी सोखने की क्षमता और मुलायमियत इसे संवेदनशील त्वचा वाले लोगों के लिए आदर्श बनाती है।
- पुनर्नवीनीकरण फ़ाइबर आधारित मानव निर्मित फ़ाइबर: हाल के तकनीकी सुधारों ने पुनर्नवीनीकरण सामग्री से बने फ़ाइबर विकसित किए हैं। ये न केवल टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि उत्पादन की लागत को भी कम करते हैं। इस प्रकार ये फ़ाइबर उद्योग और ग्राहकों दोनों के लिए फायदेमंद हैं और स्थिर उत्पादन के लिए एक नए विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।

विस्कोस और लायोसेल की विशेषताएँ और उपयोग
- विस्कोस: यह मुलायम, सांस लेने योग्य और किफायती कपड़ा है। गर्म और नमी वाले मौसम में यह शरीर को ठंडक और आराम देता है। समय के साथ इसका फैब्रिक थोड़ा सिकुड़ सकता है या फट सकता है, लेकिन इसकी आरामदायकता और किफायती कीमत इसे रोज़मर्रा के कपड़ों में विशेष बनाती है। यह कपड़ा शर्ट, कुर्ता, साड़ी और गाउन जैसे दैनिक पहनावे के लिए आदर्श है।
- लायोसेल: यह फ़ाइबर अत्यधिक मुलायम, चिकना और मजबूत होता है। इसकी नमी सोखने की क्षमता और टिकाऊपन इसे संवेदनशील त्वचा वाले लोगों के लिए सुरक्षित बनाता है। यह कपड़ा आसानी से सिकुड़ता नहीं और लंबे समय तक टिकाऊ रहता है। लायोसेल का उपयोग केवल परिधानों में ही नहीं, बल्कि घरेलू वस्त्रों जैसे पर्दे, गद्दे, तकिए, बेडशीट और अन्य सजावटी वस्त्रों में बड़े पैमाने पर होता है। इसकी चिकनाहट और मुलायमियत पहनने वाले को उच्च आराम देती है।

भारत में विस्कोस का उत्पादन प्रक्रिया
विस्कोस रेयान का उत्पादन एक अत्यंत जटिल और तकनीकी प्रक्रिया है, जिसे सावधानी और विशेष ज्ञान के साथ पूरा किया जाता है। सबसे पहले उच्च गुणवत्ता वाली सेल्युलोसिक सामग्री, जैसे पेड़ और पौधों के पल्प को तैयार किया जाता है। यह पल्प उत्पादन की नींव है और इसके गुणवत्ता से ही अंततः तैयार फ़ाइबर की मजबूती और टिकाऊपन निर्धारित होता है। इसके बाद इस पल्प को कैस्टिक सोडा (Castic soda) और कार्बन डाईसल्फ़ाइड के मिश्रण में प्रोसेस किया जाता है। इस मिश्रण के कारण पल्प घुलनशील बन जाता है और इसे आसानी से फ़ाइबर में बदला जा सकता है। इसके पश्चात घोल को स्पिनरेट (Spinneret) के माध्यम से ठोस फ़ाइबर में बदल दिया जाता है। इस प्रक्रिया में यार्न की चमक और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए विशेष रासायनिक उपायों का इस्तेमाल किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य न केवल फ़ाइबर को फैशन और औद्योगिक उपयोग के लिए उपयुक्त बनाना है, बल्कि इसकी मजबूती, टिकाऊपन और पहनने की सुविधा सुनिश्चित करना भी है। विस्तार से देखें तो यह उत्पादन प्रक्रिया हर चरण में सावधानी, तकनीकी नियंत्रण और गुणवत्ता मानकों का पालन करती है, जिससे अंत में एक ऐसा फ़ाइबर तैयार होता है, जो लंबी अवधि तक टिकाऊ, मुलायम और बहुउपयोगी होता है।
विस्कोस फ़ाइबर का आयात-निर्यात और बाजार आंकड़े
वित्तीय वर्ष 2012-2017 के दौरान भारत में विस्कोस फ़ाइबर के आयात और निर्यात में लगातार उतार-चढ़ाव देखा गया। विशेष रूप से उच्च गुणवत्ता वाले विस्कोस फ़िलामेंट यार्न (VFY) के लिए भारत अन्य देशों पर निर्भर करता है, क्योंकि देश में पर्याप्त उच्च गुणवत्ता वाली लकड़ी की पल्प (pulp) उपलब्ध नहीं है। यह विदेशी निर्भरता निर्यात और आयात दोनों को प्रभावित करती है। निर्यात में वृद्धि और घटाव अंतरराष्ट्रीय मांग, घरेलू उत्पादन क्षमता और वैश्विक बाजार की स्थिति पर निर्भर करता है। कभी-कभी वैश्विक बाजार में मांग बढ़ने के कारण निर्यात में इजाफा होता है, तो कभी घरेलू उत्पादन की सीमित क्षमता और उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री की कमी निर्यात को प्रभावित करती है। इस प्रकार की परिस्थितियों ने स्थानीय उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने और उत्पादन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए लगातार प्रेरित किया है। इसके अलावा, आयात पर निर्भरता स्थानीय उद्योग के लिए चुनौतियों के साथ-साथ अवसर भी पैदा करती है। यह उद्योग को नवीन तकनीकों और उत्पादन विधियों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है, जिससे भारत में विस्कोस फ़ाइबर का उत्पादन और गुणवत्ता दोनों में सुधार होता है।

भारत में विस्कोस रेयान के प्रमुख निर्माता
भारत में विस्कोस फ़ाइबर के प्रमुख निर्माता कंपनियों में ग्रासिम इंडस्ट्रीज़ (Grasim Industries), आदित्य बिड़ला न्यूवो (इंडियन रेयान कॉर्पोरेशन - Indian Ryan Corporation), सेंचुरी रेयान (Century Ryan), केसराम रेयान (Kesoram Rayon) और नेशनल रेयान कॉर्पोरेशन (National Ryan Corporation) शामिल हैं। इन कंपनियों ने न केवल घरेलू बाजार में अपनी पकड़ बनाई है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत की उपस्थिति को मजबूत किया है। आदित्य बिड़ला न्यूवो और सेंचुरी रेयान मिलकर लगभग 80% उत्पादन करते हैं, जबकि केसराम रेयान का योगदान लगभग 18% है और अन्य कंपनियों का केवल 2% है। यह आंकड़ा स्पष्ट रूप से दिखाता है कि कुछ बड़ी कंपनियाँ पूरे बाजार में नेतृत्व कर रही हैं और उत्पादन का अधिकांश हिस्सा नियंत्रित कर रही हैं। इन कंपनियों की नवाचार क्षमता, तकनीकी कौशल और कड़े गुणवत्ता नियंत्रण मानक न केवल उत्पादित फ़ाइबर को उच्च गुणवत्ता वाला बनाते हैं, बल्कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक बनाते हैं। इसके अलावा, यह भारत में विस्कोस उद्योग को स्थिर और दीर्घकालिक रूप से मजबूत बनाने में भी मदद करता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2cau4nu5
मेरठवासियो, आइए जानें आपके शहर की ऐतिहासिक धरोहर और स्वादिष्ट स्ट्रीट फ़ूड की खासियत
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
12-10-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

हमारे प्यारे मेरठवासियों, आप सभी इस बात से सहमत होंगे कि मेरठ न केवल ऐतिहासिक और आकर्षक शहर है, बल्कि संभावनाओं से भरा भी है। इसकी खूबसूरत गलियाँ और सिंधु घाटी युग की वास्तुकलाएँ इसे विशिष्ट बनाती हैं। यहाँ संस्कृति, कला, परंपराएँ और त्योहारों का अनोखा मिश्रण देखने को मिलता है, जो इस शहर की प्राचीन विरासत और आधुनिक जीवनशैली दोनों को दर्शाता है। मेरठ के प्रमुख पर्यटन स्थलों में परीक्षितगढ़ किला प्रमुख है। इसके अलावा, विक्टोरिया पार्क (Victoria Park) और गांधी बाग जैसे सुंदर उद्यान, न केवल उत्तर प्रदेश के इस शहर की खूबसूरती बढ़ाते हैं, बल्कि परिवार और मित्रों के साथ समय बिताने के लिए भी आदर्श स्थान हैं। सरधना के पास स्थित ईसाई तीर्थ स्थल भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं।
इतना ही नहीं, महाभारत कालीन कौरवों के राज्य हस्तिनापुर के निकट होने के कारण यहाँ कई ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल हैं। हस्तिनापुर में पुराना पांडेश्वर मंदिर, कर्ण मंदिर, दिगंबर जैन मंदिर और लोटस मंदिर जैसे आकर्षण स्थल पर्यटकों के लिए विशेष महत्व रखते हैं। अगर आप खरीदारी के शौकीन हैं, तो मेरठ के आधुनिक मॉल्स (malls) में जा सकते हैं, लेकिन असली स्थानीय अनुभव के लिए अबुलैन और सदर मार्केट आपके लिए बेहतरीन विकल्प हैं, जहाँ आपको शहर की असली रंगत और स्थानीय संस्कृति का अनुभव मिलेगा।
तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के जरिए हम मेरठ की संस्कृति और प्रमुख आकर्षण जैसे शहीद स्मारक, परीक्षितगढ़ किला और बाबा औघड़नाथ मंदिर को जानेंगे। इसके बाद, हम शहर के प्रसिद्ध स्ट्रीट फ़ूड जैसे हलवा परांठा, गजक, बेड़मी पूरी और पापड़ी चाट का आनंद लेंगे।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/48us357h
https://tinyurl.com/p4frrvuc
https://tinyurl.com/4cpuh6mh
https://tinyurl.com/43etvvj4
मेरठवासियो, टिकाऊ खेती ही है आपकी मिट्टी, पानी और पीढ़ियों की सुरक्षा
भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
Land type and Soil Type : Agricultural, Barren, Plain
11-10-2025 09:14 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, जब आप अपने खेतों में लहराती गेहूँ की सुनहरी बालियों या गन्ने की ऊँची-ऊँची कतारों को देखते हैं, तो क्या कभी यह सवाल आपके मन में उठता है कि क्या आपकी आने वाली पीढ़ियाँ भी इसी तरह खेतों में हरियाली देख पाएँगी? क्या आपके बच्चों और पोतों को भी वैसी ही उपजाऊ मिट्टी, स्वच्छ जल और अनुकूल मौसम मिलेगा, जैसा कभी आपके पूर्वजों को मिला था? ये सवाल आज केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि व्यावहारिक और गंभीर भी हैं - खासकर मेरठ जैसे कृषि-प्रधान ज़िले के लिए, जहाँ खेत ही जीवन की असली कमाई हैं। मेरठ की मिट्टी सदा से उपजाऊ रही है। यहाँ की जलवायु, यहाँ की नहरें, और यहाँ के किसान - सबने मिलकर इस धरती को अन्नपूर्णा बनाया है। लेकिन अब वही मिट्टी थक चुकी है, नदियाँ और भूजल स्तर घटते जा रहे हैं, और मौसम का मिज़ाज भी बदल गया है। कभी बेमौसम बारिश तो कभी ज़्यादा गर्मी, कभी सूखा तो कभी अचानक ओलावृष्टि - इन सबने पारंपरिक खेती की नींव को हिला कर रख दिया है। और ऐसे में, केवल कड़ी मेहनत ही नहीं, बल्कि एक नई सोच की भी ज़रूरत है। ऐसे कठिन समय में, "टिकाऊ खेती" या "संधारणीय कृषि" केवल एक तकनीक नहीं, बल्कि एक उम्मीद बनकर उभरी है। यह एक ऐसा रास्ता है जो खेती को फिर से मिट्टी से जोड़ता है - बिना उसे क्षति पहुँचाए। टिकाऊ खेती केवल उपज बढ़ाने की बात नहीं करती, बल्कि वह पर्यावरण की रक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक कल्याण - इन तीनों आयामों को साथ लेकर चलती है। यह वही खेती है जो कम संसाधनों में भी बेहतर उत्पादन देती है, और प्राकृतिक संतुलन को भी बनाए रखती है। आज के इस लेख में हम समझेंगे कि मेरठ जैसे कृषि-प्रधान क्षेत्र में टिकाऊ खेती क्यों ज़रूरी होती जा रही है। सबसे पहले, हम जानेंगे कि टिकाऊ खेती यानी संधारणीय कृषि वास्तव में होती क्या है और इसके पीछे की सोच क्या है। फिर, हम भारत के संदर्भ में इसकी महत्ता और उन समस्याओं को देखेंगे जो इसे आवश्यक बनाती हैं। इसके बाद, हम विस्तार से जानेंगे सात प्रमुख टिकाऊ कृषि पद्धतियों के बारे में जो किसानों की मेहनत को अधिक लाभदायक और प्रकृति के अनुकूल बनाती हैं। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि भारत सरकार किस तरह की योजनाओं और नीतियों के ज़रिए टिकाऊ खेती को बढ़ावा दे रही है और इससे पर्यावरणीय सुधार के साथ-साथ किसानों की आर्थिक स्थिरता कैसे सुनिश्चित की जा सकती है।

मेरठ में टिकाऊ खेती की आवश्यकता: परंपरा से परिवर्तन तक की यात्रा
मेरठ की पहचान सिर्फ शिक्षा और खेल सामग्री के उत्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि इस ज़िले की आत्मा खेतों में बसती है। यह इलाका गंगा-यमुना के दोआब में स्थित है, जो प्राचीन काल से ही उपजाऊ भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है। यहाँ की मिट्टी में वह शक्ति है जो पीढ़ियों से गेहूं, गन्ना, दालें और मौसमी सब्ज़ियों को जन्म देती आई है। लेकिन आज का मेरठ, जो कभी हरियाली और समृद्धि का प्रतीक था, अब जलवायु परिवर्तन और खेती की गैर-टिकाऊ नीतियों के कारण जूझ रहा है। बदलते मौसम चक्र, लगातार घटता भूजल स्तर, रासायनिक खादों और कीटनाशकों की निर्भरता - इन सभी ने न केवल मिट्टी की सेहत बिगाड़ दी है, बल्कि किसानों को आर्थिक संकट की ओर भी धकेल दिया है। परंपरागत तरीकों से की जाने वाली खेती अब उतनी उपज नहीं दे पा रही जितनी कभी देती थी, और मिट्टी की जैविक संरचना नष्ट हो रही है। इसी परिस्थिति में, टिकाऊ खेती मेरठ के लिए सिर्फ़ एक विकल्प नहीं बल्कि ज़रूरत बन गई है। यह खेती की एक ऐसी दृष्टि है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिट्टी, जल और जीवन को बचाने की दिशा में एक ठोस कदम है। यही वह बदलाव है जो मेरठ के किसान अब महसूस करने लगे हैं - परंपरा से परिवर्तन की यह यात्रा अब आरंभ हो चुकी है।

संधारणीय कृषि क्या है? अवधारणा, उद्देश्य और व्यापक परिभाषा
टिकाऊ खेती का मतलब है - "आज की ज़रूरतों को पूरा करते हुए, कल की संभावनाओं को भी सुरक्षित रखना।" यह एक ऐसी सोच और प्रणाली है, जिसमें खेती केवल उत्पादन तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह प्रकृति, समाज और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन स्थापित करती है। इसमें खेतों की मिट्टी को बार-बार नहीं जोता जाता ताकि उसमें मौजूद सूक्ष्मजीव जीवित रहें। इसमें रसायनों की जगह गोबर, कंपोस्ट (compost), वर्मीकम्पोस्ट (vermicompost), नीम के अर्क और अन्य प्राकृतिक तत्वों का उपयोग होता है। इसमें फसलें बदल-बदल कर बोई जाती हैं ताकि मिट्टी में पोषक तत्वों का संतुलन बना रहे। संधारणीय कृषि का एक बड़ा लक्ष्य यह भी है कि किसान प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से आत्मनिर्भर बने, खेतों की जैव विविधता बनी रहे और उपभोक्ताओं को ज़हरीले रसायनों से मुक्त, पोषणयुक्त खाद्य सामग्री मिले। मेरठ जैसे क्षेत्र, जहाँ खेती से हजारों परिवारों की आजीविका जुड़ी है, वहाँ यह दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
भारत में संधारणीय खेती की महत्ता और वर्तमान चुनौतियाँ
भारत का कृषि क्षेत्र आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। एक ओर तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, जिसके लिए भोजन सुनिश्चित करना आवश्यक है, और दूसरी ओर हैं प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ता दबाव। भारत की 60% से अधिक आबादी आज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खेती पर निर्भर है। ऐसे में कृषि का टिकाऊ होना केवल पर्यावरणीय चिंता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्राथमिकता भी है। आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी को बेजान बना रहा है। भूजल स्तर हर साल कुछ मीटर नीचे जा रहा है। जलवायु परिवर्तन ने मौसम को इतना अनिश्चित बना दिया है कि किसान हर साल डर के साए में खेती करते हैं। कभी असमय बारिश, कभी बेमौसम ओले और कभी लू - ये सब उत्पादन पर गहरा असर डालते हैं। इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए, टिकाऊ खेती एक ऐसा मॉडल है जो इन चुनौतियों का दीर्घकालिक समाधान प्रस्तुत करता है। मेरठ जैसे जल संकट और मिट्टी क्षरण से प्रभावित जिलों में, यह मॉडल आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थिर और समृद्ध भविष्य की नींव बन सकता है।

सात प्रमुख टिकाऊ कृषि पद्धतियाँ जो भविष्य की खेती को दिशा दे रही हैं
- फ़सल चक्रण (Crop Rotation)
इसमें किसान हर मौसम में अलग-अलग फसलें उगाते हैं - जैसे गेंहू के बाद चना, या धान के बाद मटर। इससे मिट्टी को एकसमान पोषण नहीं खिंचता, बल्कि वह खुद को पुनः जीवित रखती है। यह कीटों और बीमारियों की रोकथाम में भी सहायक है। - जैविक खेती (Organic Farming)
इस पद्धति में किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरक या कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता। इसकी जगह गोबर की खाद, वर्मीकम्पोस्ट, नीम आधारित कीटनाशक और अन्य प्राकृतिक विकल्प अपनाए जाते हैं। यह न केवल मिट्टी की सेहत को बेहतर करता है, बल्कि उपभोक्ता को स्वास्थ्यवर्धक भोजन भी प्रदान करता है। - संरक्षण जुताई (Conservation Tillage)
इस तकनीक में खेत की मिट्टी को बार-बार नहीं जोता जाता, जिससे उसमें मौजूद सूक्ष्म जीवों की संरचना बनी रहती है और जलधारण क्षमता भी बढ़ती है। इससे बारिश का पानी ज़मीन में बेहतर तरीके से समा जाता है। - कृषि वानिकी (Agroforestry)
फसल के साथ-साथ पेड़ों को उगाने की यह प्रणाली खेतों को गर्मी, ठंड और तेज़ हवाओं से सुरक्षा देती है। किसान को लकड़ी, फल और चारे की अतिरिक्त आमदनी भी होती है। यह जैव विविधता को बढ़ावा देती है। - एकीकृत कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management - IPM)
आईपीएम (IPM) तकनीक में रसायनों की जगह जैविक कीटनाशकों, मित्र कीटों, फंदों और प्राकृतिक उपायों से कीटों को नियंत्रित किया जाता है। इससे खेत का जैविक संतुलन बना रहता है। - कुशल जल प्रबंधन (Efficient Water Management)
ड्रिप (Drip) और स्प्रिंकलर (Sprinkler) सिंचाई से फसलों को जड़ तक पानी मिलता है और पानी की बर्बादी नहीं होती। साथ ही, वर्षा जल संचयन जैसी विधियाँ सूखे में भी खेती को संभव बनाती हैं। - नवीकरणीय ऊर्जा (Renewable Energy)
सौर पंप (solar pump), बायोगैस संयंत्र (biogas plant) और पवन ऊर्जा जैसे विकल्प खेती में डीज़ल (diesel) या बिजली की लागत को घटाकर उसे अधिक टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल बनाते हैं।

भारत सरकार की प्रमुख योजनाएँ जो टिकाऊ खेती को बना रही हैं मुख्यधारा
भारत सरकार ने टिकाऊ खेती को राष्ट्रीय प्राथमिकता मानते हुए कई योजनाएँ शुरू की हैं जो किसानों को आर्थिक और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराती हैं:
- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA) – इस योजना के तहत टिकाऊ तकनीकों को बढ़ावा दिया जाता है, जैसे कि जल संरक्षण, जैविक खाद का प्रयोग, और मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन।
- परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY) – यह योजना जैविक खेती को बढ़ावा देती है, जिससे रसायन रहित उत्पादन को बढ़ावा मिलता है।
- कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF) – पेड़ आधारित खेती को समर्थन देने के लिए यह योजना किसान को वित्तीय सहायता और तकनीकी प्रशिक्षण देती है।
- राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) – इसमें किसानों को कृषि अवसंरचना और नवाचार के लिए फंडिंग (funding) दी जाती है।
- पूर्वोत्तर जैविक मूल्य श्रृंखला मिशन (MOVCDNER) – यह योजना जैविक उत्पादों को मार्केट (market) से जोड़ने में मदद करती है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर राज्यों में।
मेरठ जैसे जिलों में इन योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन और किसानों तक सही जानकारी पहुँचाना अत्यंत आवश्यक है।
पर्यावरणीय सुधार से आर्थिक स्थिरता तक: टिकाऊ खेती का व्यापक प्रभाव
टिकाऊ खेती के फायदे केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं हैं। इसका सीधा प्रभाव किसानों की आमदनी, ग्राम्य अर्थव्यवस्था, जन स्वास्थ्य, और जलवायु सुरक्षा तक महसूस किया जा सकता है। जब किसान टिकाऊ खेती अपनाते हैं, तो उनकी भूमि लंबे समय तक उत्पादक बनी रहती है। यह खेती लागत को घटाती है क्योंकि इसमें रसायनों की जगह घरेलू संसाधनों का उपयोग होता है। साथ ही, उत्पाद की गुणवत्ता बेहतर होती है जिससे बाज़ार में अच्छा मूल्य मिलता है। यह खेती मिट्टी की गुणवत्ता सुधारती है, जल की बर्बादी रोकती है और वातावरण में कार्बन (carbon) की मात्रा को संतुलित करती है - जो कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में अहम कदम है। सबसे बड़ी बात यह है कि टिकाऊ खेती से खाद्य सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता सुनिश्चित होती है। मेरठ के किसान जब इस बदलाव को अपनाते हैं, तो वे केवल अपने परिवार के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण करते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/ka98hcyf
क्यों मेरठवासियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूक होना आज बेहद जरूरी है?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
10-10-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी महसूस किया है कि आजकल हमारे शहर में लोग तनाव, चिंता, अवसाद और भावनात्मक अस्थिरता जैसी मानसिक समस्याओं से जूझते हैं, लेकिन समाज में इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जितना इसे लेना चाहिए? मानसिक स्वास्थ्य केवल व्यक्तिगत चुनौती नहीं है, बल्कि यह परिवार, समुदाय और पूरे समाज की भलाई से जुड़ा हुआ मुद्दा है। कोविड-19 (Covid-19) महामारी ने इस वास्तविकता को और उजागर कर दिया, जब शहर में मानसिक बीमारियों से पीड़ित लोगों की संख्या अचानक बढ़ी और लोगों की दिनचर्या, कार्यक्षमता और सामाजिक जीवन प्रभावित हुआ। इसके अलावा, नौकरी की असुरक्षा, आर्थिक दबाव, पारिवारिक तनाव और सामाजिक अलगाव जैसी परिस्थितियाँ भी मेरठवासियों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रही हैं।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि मानसिक स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति क्या है, इसके मुख्य कारण कौन-कौन से हैं, इसके परिणाम और समाज पर प्रभाव क्या पड़ता है, और अंततः इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए किस प्रकार के समाधान, हस्तक्षेप और जागरूकता उपाय अपनाए जा सकते हैं। हमारा उद्देश्य यह है कि हर मेरठवासी मानसिक स्वास्थ्य के महत्व को समझे, इसे केवल व्यक्तिगत मुद्दा न मानें, और समय रहते उचित सहायता और जागरूकता के माध्यम से न केवल स्वयं बल्कि अपने परिवार और समाज की भलाई सुनिश्चित करें।
मानसिक स्वास्थ्य का वर्तमान परिदृश्य और जागरूकता
भारत में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आज भी अपेक्षाकृत सीमित है, लेकिन हाल के वर्षों में इसके महत्व को समझने की जरूरत बढ़ती जा रही है। खासकर कोविड-19 महामारी ने लोगों के जीवन, नौकरी, सामाजिक रिश्तों और व्यक्तिगत दिनचर्या पर गहरा असर डाला। इससे तनाव, अवसाद, चिंता और भावनात्मक अस्थिरता जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ी हैं। महामारी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि लोग अपनी भावनाओं को दबा कर रखते हैं और यह अक्सर मानसिक बीमारी की गंभीर अवस्था में पहुँचने का कारण बनता है। सर्वेक्षणों से यह भी सामने आया कि लगभग 40% लोग मानसिक परेशानी का सामना करने पर सबसे पहले अपने मित्रों से ही अपनी स्थिति साझा करते हैं, जबकि केवल 20% लोग अपने परिवार से संपर्क करते हैं। यह दर्शाता है कि मानसिक स्वास्थ्य पर समाज में खुलकर बातचीत अभी भी कम है और लोगों के लिए सही जानकारी और संसाधनों की तत्काल आवश्यकता है। महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य को केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा भी बना दिया है।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सामाजिक और पारिवारिक चुनौतियाँ
मानसिक रोगियों के उपचार और स्वास्थ्य सुधार में परिवार और समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अक्सर परिवार हिचकिचाता है और रोगी सही उपचार या विशेषज्ञ चिकित्सक तक नहीं पहुँच पाता। यह स्थिति उन लोगों में और गंभीर हो जाती है जिनके बचपन में घरेलू हिंसा, शोषण या तनावपूर्ण वातावरण रहा हो। समाज में मानसिक बीमारी के प्रति विद्यमान कलंक (stigma) और शर्मिंदगी के कारण लोग अक्सर उपचार लेने से कतराते हैं, जिससे बीमारी और गंभीर रूप ले लेती है। अकेले रहकर मानसिक समस्या का सामना करने से रोगी की स्थिति और बिगड़ती है, और उनके जीवन की गुणवत्ता पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान न देने से परिवार और समाज के बीच तनाव बढ़ता है, रिश्तों में दरार आती है और व्यक्ति का सामाजिक समर्थन नेटवर्क (support network) कमजोर हो जाता है। मानसिक स्वास्थ्य को अनदेखा करना केवल रोगी का ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और समुदाय का जीवन प्रभावित करता है।
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण और जोखिम कारक
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के अनेक कारण और जोखिम कारक होते हैं। सर्वेक्षणों के अनुसार, बचपन में शोषण, घरेलू हिंसा, कठिन पारिवारिक परिस्थितियाँ और उग्र स्वभाव वाले वातावरण का व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, जीवन में लगातार तनाव, आर्थिक कठिनाइयाँ, नौकरी या पढ़ाई का दबाव, पारिवारिक संघर्ष और सामाजिक अलगाव मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। घर से काम करने की आदत, डिजिटल माध्यमों का अत्यधिक उपयोग और व्यक्तिगत जीवन और काम के बीच संतुलन बिगड़ना भी मानसिक दबाव को बढ़ाते हैं। कई बार लोग इन समस्याओं का सामना अकेले करते हैं और विशेषज्ञ मदद तक पहुँचने में देर कर देते हैं, जिससे मानसिक बीमारी जटिल और गंभीर रूप ले लेती है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन, कामकाज और सामाजिक संबंधों पर दीर्घकालिक असर पड़ता है।

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लक्षण और निदान में देरी
मानसिक बीमारी अक्सर धीरे-धीरे प्रकट होती है और इसके लक्षण प्रारंभ में सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं जैसे लग सकते हैं। प्रमुख लक्षणों में लगातार सुस्ती, शरीर में दर्द, अपच, नींद की कमी, ऊर्जा की कमी, भावनात्मक अस्थिरता और जीवन में रुचि की कमी शामिल हैं। अधिकांश लोग इन संकेतों को अनदेखा कर देते हैं और यह मानते हैं कि यह अस्थायी समस्या है। दुर्भाग्य से, जब तक रोगी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ के पास पहुँचते हैं, अक्सर वह बीमारी के गंभीर चरण में पहुँच चुके होते हैं। इस देरी के कारण उपचार जटिल और लंबा हो जाता है, और व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। समय पर निदान और उपचार की कमी मानसिक स्वास्थ्य संकट को और गंभीर बना देती है। विशेषज्ञों के अनुसार, प्रारंभिक पहचान और सही समय पर उपचार रोग की गंभीरता को कम कर सकती है और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बना सकती है।
मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या: आंकड़े और सामाजिक प्रभाव
मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या के बीच गहरा और जटिल संबंध है। भारत में हर वर्ष लाखों लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण अपने जीवन का अंत करने की ओर बढ़ते हैं। केवल 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान ही आत्महत्या के कारण अधिक लोग मरे। आर्थिक कठिनाइयाँ, पारिवारिक तनाव, सामाजिक अलगाव और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षा ऐसे कदम उठाने के मुख्य कारण हैं। यह स्पष्ट करता है कि मानसिक स्वास्थ्य पर समय पर ध्यान देना और रोगियों तक उचित उपचार पहुँचाना अत्यंत आवश्यक है। मानसिक बीमारी को अनदेखा करना केवल व्यक्ति के जीवन को प्रभावित नहीं करता, बल्कि परिवार और समाज पर भी गहरा असर डालता है। इसलिए, मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता बढ़ाना, शुरुआती पहचान करना और समय पर हस्तक्षेप करना जीवन रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

समाधान, हस्तक्षेप और जागरूकता बढ़ाने के उपाय
मानसिक स्वास्थ्य सुधारने और आत्महत्या को रोकने के लिए व्यापक, समन्वित और स्थायी उपाय आवश्यक हैं। शिक्षा प्रणाली में मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम में शामिल करना, स्कूलों और कॉलेजों में जागरूकता फैलाना और डॉक्टरों तथा मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों तक पहुँच बढ़ाना बेहद महत्वपूर्ण है। योग, ध्यान, काउंसलिंग (counseling), समूह चिकित्सा और डिजिटल हेल्पलाइन (digital helpline) जैसी सेवाएँ रोगियों को सहारा देती हैं। परोपकारी संगठन, मीडिया (media) और सरकारी संस्थाएँ मिलकर समुदाय स्तर पर जागरूकता अभियान चला सकती हैं। परिवार और मित्रों का सहयोग रोगी के स्वास्थ्य सुधार में अहम भूमिका निभाता है। जब तकनीकी, सामाजिक और सामुदायिक उपाय एक साथ अपनाए जाते हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य में सुधार संभव है, आत्महत्या की घटनाएँ कम होती हैं और समाज एक स्वस्थ, सुरक्षित और सहायक वातावरण प्रदान कर सकता है। यह सुनिश्चित करता है कि मानसिक स्वास्थ्य केवल व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं, बल्कि सामूहिक सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/37j775ss
कैसे तिब्बत का ठंडा रेगिस्तान, मेरठवासियों को हिमालय की अनोखी झलक दिखाता है?
मरुस्थल
Desert
09-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

भारत और चीन के बीच ऊँचाइयों में बसा तिब्बत, केवल एक भूभाग नहीं बल्कि प्रकृति और संस्कृति का अद्भुत संगम है। इसे "दुनिया की छत" कहा जाता है क्योंकि यह धरती का सबसे ऊँचा पठार है, जहाँ आसमान मानो ज़मीन को छूने लगता है। चारों ओर बर्फ़ से ढकी चोटियाँ, गहरी घाटियाँ और विशाल पर्वत श्रृंखलाएँ इसे रहस्य और रोमांच से भर देती हैं। तिब्बत का भूगोल जितना कठोर है, उतना ही मोहक भी। यहाँ की नदियाँ, रेगिस्तानी हवाएँ और बर्फ़ीली जलवायु मिलकर एक ऐसा संसार बनाती हैं जो हर किसी को विस्मित कर देता है। लेकिन तिब्बत केवल प्राकृतिक अद्भुतताओं का प्रदेश नहीं है; यह मानवीय धैर्य, परंपरा और अध्यात्म का भी घर है। यहाँ की हवा भले ही पतली हो, लेकिन लोगों की संस्कृति और जीवनशैली उतनी ही गहरी और समृद्ध है। कठोर जलवायु और ऊँचाई की चुनौतियों के बावजूद, तिब्बती समाज ने अपनी सभ्यता, कृषि, पशुपालन और त्योहारों को जीवंत बनाए रखा है। यही वजह है कि तिब्बत दुनिया भर के यात्रियों, शोधकर्ताओं और श्रद्धालुओं के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र बना रहता है।
आज हम तिब्बत के बारे में कई महत्वपूर्ण पहलुओं को जानेंगे। सबसे पहले, हम समझेंगे कि इसकी भौगोलिक स्थिति और "ठंडे रेगिस्तान" का स्वरूप इसे इतना विशिष्ट क्यों बनाता है। फिर, हम तिब्बत की जलवायु और वर्षा के पैटर्न को देखेंगे, जो यहाँ के जीवन को प्रभावित करते हैं। इसके बाद, हम तिब्बत की अर्थव्यवस्था और लोगों की आजीविका के साधनों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम तिब्बत की समृद्ध संस्कृति के हिस्से - त्योहारों, औषधीय पौधों और प्रमुख पर्यटक स्थलों - को समझेंगे, जो इसे वैश्विक आकर्षण का केंद्र बनाते हैं।

तिब्बत का भौगोलिक परिचय और ठंडे रेगिस्तान की पहचान
तिब्बत को अक्सर "दुनिया की छत" कहा जाता है क्योंकि यह धरती का सबसे ऊँचा और विशाल पठार है, जिसकी औसत ऊँचाई लगभग 4,500 मीटर है। चारों ओर फैली हिमालय, कुनलुन और काराकोरम जैसी पर्वत श्रृंखलाएँ इसे प्राकृतिक दीवार की तरह घेरती हैं। यहीं पर माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) जैसी विश्व की सबसे ऊँची चोटी भी स्थित है, जिसने तिब्बत को वैश्विक भूगोल और रोमांच की दुनिया में एक विशेष स्थान दिलाया है। यहाँ की भूमि ऊँचे पठार, गहरी घाटियाँ, बर्फ़ से ढकी चोटियाँ और सूखी हवाओं का संगम है, जो इसे "ठंडा रेगिस्तान" बनाते हैं। तिब्बत केवल भूगोल का चमत्कार नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा प्राकृतिक प्रयोगशाला है जहाँ इंसान और प्रकृति दोनों कठिन परिस्थितियों में सह-अस्तित्व का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
तिब्बत की जलवायु और वर्षा का पैटर्न
तिब्बत की जलवायु बेहद कठोर और चुनौतीपूर्ण है। यहाँ मानसून की पकड़ कमजोर है, इसलिए वर्षा बहुत सीमित होती है और औसतन केवल 100 से 300 मिमी तक पहुँचती है। यही कारण है कि तिब्बत शुष्क और बंजर दिखाई देता है। गर्मियों में दिन का तापमान कभी-कभी 20 डिग्री सेल्सियस (°C) तक पहुँच जाता है, लेकिन जैसे ही रात ढलती है, तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। सर्दियों में हालात और भी कठिन हो जाते हैं - तापमान माइनस 30 डिग्री तक गिर जाता है और तेज़ हवाएँ जीवन को और कठोर बना देती हैं। यहाँ की पतली हवा और कम ऑक्सीजन (Oxygen) यात्रियों के लिए बड़ी चुनौती है। इन सभी विशेषताओं के कारण तिब्बत न केवल एक ठंडा रेगिस्तान कहलाता है, बल्कि साहस और सहनशीलता की परीक्षा लेने वाला स्थान भी माना जाता है।

तिब्बत की अर्थव्यवस्था और आजीविका के साधन
तिब्बत की अर्थव्यवस्था मुख्यतः पारंपरिक खेती, पशुपालन और अब पर्यटन के इर्द-गिर्द घूमती है। यहाँ की प्रमुख फसल जौ (Barley) है, जिससे स्थानीय लोग 'त्साम्पा' (Tsampa) नामक भोजन और 'चांग' (Chang) नामक पेय तैयार करते हैं। गेहूँ, सरसों और आलू भी सीमित मात्रा में उगाए जाते हैं। यहाँ के लोग सदियों से खानाबदोश जीवनशैली अपनाए हुए हैं और याक, भेड़, बकरियाँ उनकी आजीविका और संस्कृति का अहम हिस्सा हैं। याक न केवल दूध और ऊन प्रदान करता है बल्कि परिवहन और ईंधन (गोबर) का भी स्रोत है। तिब्बत खनिज संपदा से भी समृद्ध है, जहाँ सोना, तांबा, लिथियम (Lithium) और नमक पाए जाते हैं। आधुनिक समय में पर्यटन ने अर्थव्यवस्था में नई जान फूँकी है - कैलाश मानसरोवर यात्रा, बौद्ध मठ और पर्वतारोहण लाखों पर्यटकों को यहाँ खींच लाते हैं। यह सब मिलकर तिब्बत को परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम बनाते हैं।
तिब्बत की वनस्पति और औषधीय पौधों का महत्व
तिब्बत की भौगोलिक ऊँचाई और मौसम की परिस्थितियाँ इसकी वनस्पति को बेहद अनूठा बनाती हैं। यहाँ के अल्पाइन घासभूमि और शंकुधारी जंगल न केवल प्राकृतिक सुंदरता का हिस्सा हैं बल्कि जीवन का आधार भी हैं। कई क्षेत्रों में चराई और जलवायु परिवर्तन के कारण हरे-भरे मैदान रेगिस्तान में बदल रहे हैं, जो पर्यावरण के लिए चिंता का विषय है। तिब्बत को औषधीय पौधों की भूमि भी कहा जाता है। सूडो जिनसेंग (Pseudo Ginseng), जेंटियाना (Gentiana), और गेनोडर्मा (Ganoderma) जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ यहाँ पाई जाती हैं, जिनका उपयोग पारंपरिक तिब्बती और चीनी चिकित्सा में किया जाता है। ये पौधे न केवल स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और जीवनयापन के लिए जरूरी हैं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी औषधि उद्योग के लिए अत्यधिक मूल्यवान माने जाते हैं।

तिब्बत के प्रमुख त्योहार और सांस्कृतिक उत्सव
तिब्बत की संस्कृति उसके त्योहारों में जीवंत होकर सामने आती है। लॉसर (Losar), यानी तिब्बती नव वर्ष, सबसे महत्वपूर्ण उत्सव है जिसमें लोग घरों को सजाते हैं, पारंपरिक व्यंजन बनाते हैं और एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं। शोटन उत्सव (Shoton Festival) विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जहाँ विशाल थांग्का (Thangka) चित्रों का प्रदर्शन किया जाता है और दही खाने की परंपरा निभाई जाती है। मोनलाम प्रार्थना उत्सव (Monlam Prayer Festival) बौद्ध आध्यात्मिकता और सामूहिक प्रार्थनाओं का प्रतीक है। इसके अलावा तिब्बती लोग पारंपरिक घुड़दौड़ और तीरंदाजी प्रतियोगिताओं का आयोजन भी बड़े उत्साह से करते हैं। ये त्योहार तिब्बत की सामाजिक एकजुटता और उसकी आध्यात्मिक धरोहर को जीवंत रखते हैं।

तिब्बत के प्रमुख पर्यटक आकर्षण और धरोहर स्थल
तिब्बत की धरती प्रकृति और संस्कृति दोनों का अद्भुत संगम है। राजधानी ल्हासा (Lhasa) का पोटाला पैलेस (Potala Palace) न केवल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है बल्कि दलाई लामा का ऐतिहासिक निवास भी रहा है। यह स्थल आज यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। इसके अतिरिक्त जोखंग मंदिर (Jokhang Temple) तिब्बती बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। प्राकृतिक दृष्टि से यारलुंग त्सांगपो ग्रैंड कैन्यन (Yarlung Tsangpo Grand Canyon) अपनी विशालता और रहस्यमय सुंदरता से चकित करता है। शाक्य मठ (Sakya Monastery), नोरबुलिंगका गार्डन (Norbulingka Garden), और ल्हासा की पारंपरिक गलियाँ भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। धार्मिक दृष्टि से कैलाश पर्वत (Mount Kailash) और मानसरोवर झील (Lake Manasarovar) का महत्व सर्वोपरि है, जहाँ हर साल हजारों श्रद्धालु आत्मिक शांति की तलाश में पहुँचते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3f963czj
भारतीय वायुसेना का सफर: मेरठ की निगाहों से आज़ाद आसमान तक की उड़ान
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
08-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हर साल 8 अक्टूबर को भारतीय वायुसेना दिवस पूरे देश में गर्व और सम्मान के साथ मनाया जाता है, तो यह दिन केवल परेड (Parade), एयर शो (Air Show) और वीर गाथाओं का उत्सव नहीं होता - यह उस आत्मबल, अनुशासन और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक होता है, जो मेरठ जैसे वीर भूमि से उपजा है। हमारा शहर सिर्फ़ विद्रोह की धरती नहीं, बल्कि उन हजारों सपनों की भी ज़मीन है, जहाँ के युवा नीले आकाश में उड़ने की तमन्ना लेकर अपने गांव-मोहल्लों से निकलते हैं, वायुसेना की वर्दी पहनते हैं और देश की सीमाओं की हिफाज़त में अपने प्राण अर्पित करते हैं। भारतीय वायुसेना की यात्रा 1932 में जब शुरू हुई थी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह एक दिन दुनिया की चौथी सबसे शक्तिशाली वायुसेना बन जाएगी। लेकिन यह संभव हुआ - तकनीकी उन्नति, अनुशासित प्रशिक्षण, और उस अडिग साहस से जो हर मेरठवासी के खून में भी बहता है। इसलिए यह कहानी सिर्फ़ आसमान की नहीं है, बल्कि ज़मीन से उठते उन सपनों की भी है जो मेरठ की हर गली, हर चौक और हर स्कूल से पंख फैलाकर निकलते हैं।
इस लेख में हम सात प्रमुख चरणों के माध्यम से भारतीय वायुसेना के विकास की कहानी को समझेंगे। पहले, हम जानेंगे वायुसेना की स्थापना और उसके शुरुआती वर्ष कैसे रहे। फिर, द्वितीय विश्व युद्ध और स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों की बात करेंगे। इसके बाद हम 1962 से 1971 तक के युद्धों में वायुसेना की भूमिका पर प्रकाश डालेंगे। अगले हिस्से में तकनीकी उन्नयन और वैश्विक मिशनों में इसकी सक्रियता को देखेंगे। इसके बाद, हम कारगिल युद्ध जैसे बड़े ऑपरेशनों में वायुसेना की रणनीतिक सफलता को जानेंगे। फिर, 2025 के ऑपरेशन सिंदूर (Operation Sindoor) की सटीकता और ताकत को समझेंगे। अंत में, आज की आधुनिक और आत्मनिर्भर वायुसेना की वर्तमान स्थिति और भविष्य की दिशा की चर्चा करेंगे।

भारतीय वायुसेना की स्थापना और शुरुआती सफर
भारतीय वायुसेना (Indian Air Force) का इतिहास 8 अक्टूबर 1932 से शुरू होता है, जब इसकी स्थापना ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ‘रॉयल इंडियन एयर फोर्स’ (Royal Indian Air Force) के रूप में की गई थी। प्रारंभ में इसके पास सीमित संख्या में कर्मचारी और उपकरण थे, और इसकी भूमिका सहायक स्तर की थी - विशेष रूप से ज़मीनी सेना की सहायता में। हालाँकि, इसकी रणनीतिक भूमिका धीरे-धीरे विकसित होती चली गई। 1950 में, भारत के गणराज्य बनने के साथ ही ‘रॉयल’ शब्द हटा दिया गया और यह भारतीय वायुसेना बन गई - पूरी तरह से भारतीय, पूरी तरह से राष्ट्र के लिए समर्पित। इसका प्रमुख दायित्व देश की हवाई सीमाओं की सुरक्षा करना और आपातकालीन समय में राहत और आपदा प्रबंधन में सहायता प्रदान करना है। राष्ट्रपति भारतीय वायुसेना के सर्वोच्च सेनापति होते हैं। यह केवल एक सैन्य संस्था नहीं, बल्कि देश की हवाई संप्रभुता का प्रतीक है।

द्वितीय विश्व युद्ध और आज़ादी के बाद की चुनौतियाँ
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद महत्वपूर्ण योगदान दिया। उस समय इसकी प्राथमिक भूमिका टैक्टिकल सपोर्ट (tactical sport) और ज़मीनी सेना के सहयोग तक सीमित थी, लेकिन फिर भी इसके सैनिकों को 22 ‘डिस्टिंग्विश्ड फ्लाइंग क्रॉस’ (Distinguished Flying Cross) जैसे सम्मान मिले। आज़ादी के बाद विभाजन के दौरान, वायुसेना की कुल 10 स्क्वॉड्रनों (Squadron) में से 3 स्क्वॉड्रन पाकिस्तान को सौंप दी गईं - जिससे वायुसेना को दोबारा खड़ा करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया। भारत-पाकिस्तान के पहले कश्मीर युद्ध (1947-48) में, वायुसेना ने बिना पूर्व योजना के पलाम हवाई अड्डे से सैनिकों को श्रीनगर एयरफील्ड (airfield) तक पहुँचाया, ताकि पाकिस्तानी घुसपैठियों को रोका जा सके। उस समय वायुसेना के पास सीमित संख्या में विमानों और प्रशिक्षित पायलटों के बावजूद, युद्धभूमि में उनकी तत्परता और साहस ने देश की एकता को बचाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
1962 से 1971 तक के युद्धों में वायुसेना की भूमिका
1962 के भारत-चीन युद्ध में भारतीय वायुसेना का आक्रामक उपयोग नहीं किया गया। यह निर्णय तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिया गया, जिसमें आशंका जताई गई कि चीन भारतीय शहरों पर बमबारी कर सकता है। कई सैन्य विशेषज्ञों ने बाद में इस निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि अगर वायुसेना का इस्तेमाल आक्रामक तरीके से किया गया होता, तो युद्ध का परिणाम भिन्न हो सकता था। इसी अनुभव के बाद, 1965 के भारत-पाक युद्ध में वायुसेना ने अपने अभियान को आक्रामक रूप से संचालित किया - पाकिस्तानी हवाई अड्डों पर हमला कर उनकी क्षमता को नुकसान पहुँचाया, हालाँकि खुद वायुसेना को भी कुछ नुक़सान उठाना पड़ा। 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारतीय वायुसेना की भूमिका निर्णायक रही। उसने पूर्वी और पश्चिमी मोर्चों पर दुश्मन के ठिकानों, संचार साधनों और हथियार डिपो पर हमले किए। इस युद्ध में फ्लाइंग ऑफिसर (Flying Officer) निर्मल जीत सिंह सेखों को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया - यह भारतीय वायुसेना के लिए एकमात्र परमवीर चक्र है।

वायुसेना की तकनीकी प्रगति और वैश्विक हस्तक्षेप
1950 के दशक के अंत से वायुसेना में तकनीकी आधुनिकीकरण का दौर शुरू हुआ। डसॉल्ट मिस्टेरे 4th (Dassault Mistere IV), हॉकर्स हंटर (Hawkers Hunter) और इंग्लिश इलेक्ट्रिक कैनबरा (English Electric Canberra) जैसे लड़ाकू विमानों को शामिल किया गया। 1962 में भारत और सोवियत संघ के बीच रक्षा सौदों के तहत मिग-21 विमानों की खरीद की गई और भारत में इनका उत्पादन शुरू हुआ - जिसने वायुसेना को तकनीकी रूप से और सशक्त किया। इस दौरान वायुसेना ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी भाग लिया, जैसे कि 1960 के दशक में कांगो में किया गया हस्तक्षेप। इन अभियानों से वायुसेना को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान मिली और उसकी प्रतिष्ठा वैश्विक स्तर पर स्थापित हुई। इस चरण में वायुसेना ने न केवल अपने संसाधनों का विस्तार किया, बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण में भी बदलाव लाया - जिससे पश्चिमी, पूर्वी और केंद्रीय एयर कमांड (Central Air Command) की स्थापना हुई।

कारगिल युद्ध और नई पीढ़ी की हवाई रणनीतियाँ
1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में शानदार प्रदर्शन किया। यह युद्ध समुद्र तल से 18,000 फीट ऊँचाई पर लड़ा गया था, जहाँ पारंपरिक वायु अभियानों की रणनीतियाँ लागू करना बेहद चुनौतीपूर्ण था। ऑपरेशन 'सफेद सागर' के तहत वायुसेना ने मिग-27 से बमबारी की, मिग-29 (MiG-29) और मिराज-2000 (Mirage-2000) विमानों ने हवाई समर्थन और निगरानी की भूमिकाएँ निभाईं। मिराज-2000 ने उच्च ऊँचाई पर अपनी सटीकता और ताकत का प्रदर्शन किया, जिससे पाकिस्तानी ठिकानों को भारी नुकसान पहुँचा। इस युद्ध ने सिद्ध किया कि भारतीय वायुसेना, तेज निर्णय क्षमता और उन्नत तकनीकी बल के दम पर, सीमित समय में भी निर्णायक परिणाम ला सकती है।
ऑपरेशन सिंदूर: सटीकता और साहस का प्रदर्शन
2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना ने ऑपरेशन 'सिंदूर' नामक एक व्यापक सैन्य कार्रवाई की। 8 से 10 मई के बीच की गई इस कार्रवाई में पाकिस्तान के 11 प्रमुख हवाई अड्डों को निशाना बनाया गया, जिनमें नूर खान (चकलाला), रफीकी, सर्गोधा, मुरिद, सुक्कुर, और जैकोबाबाद जैसे महत्वपूर्ण सैन्य अड्डे शामिल थे। इन हमलों में पाकिस्तान के ड्रोन युद्ध केंद्र, एयर डिफेंस सिस्टम (Air Defense System) और फाइटर जेट बेस (Fighter Jet Base) को गंभीर क्षति पहुँची। हर हमला सटीक था, और खास बात यह रही कि सभी भारतीय पायलट सुरक्षित लौटे। वायुसेना की यह कार्रवाई न केवल सैन्य बल का प्रदर्शन थी, बल्कि यह एक स्पष्ट संदेश भी थी कि भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए हर आवश्यक कदम उठाने को तैयार है।
आज की वायुसेना: रणनीति, ताकत और भविष्य की उड़ान
वर्तमान में भारतीय वायुसेना न केवल भारत की हवाई सीमाओं की रक्षा करती है, बल्कि यह रणनीतिक शक्ति, मानवीय सहायता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की दृष्टि से भी अत्यंत प्रभावशाली बन चुकी है। इसके पास 1500 से अधिक विमान हैं, जिसमें मिराज-2000, सुखोई-30 (Sukhoi-30), तेजस और राफेल (Raphael) जैसे आधुनिक लड़ाकू विमान शामिल हैं। इसके अलावा, एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम (anti-aircraft missile systems), रडार नेटवर्क (radar network), और ड्रोन स्क्वॉड्रन (drone squadron) जैसी प्रणालियाँ भी इसकी रणनीतिक ताकत को और अधिक प्रभावशाली बनाती हैं। लगभग 1.6 लाख कर्मियों के साथ, भारतीय वायुसेना एक ऐसा संगठन बन चुका है जो पारंपरिक युद्ध से लेकर महासागरीय निगरानी, प्राकृतिक आपदा राहत और अंतरिक्ष आधारित खतरों से निपटने तक पूरी तरह तैयार है। यह न केवल एक सैन्य संगठन है, बल्कि राष्ट्र के आत्मबल और उन्नति की उड़ान का प्रतीक भी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/55fknyx5
https://tinyurl.com/mt9v5c3p
कैसे मुस्तफा महल ने मेरठ को बनाया नवाबी तहज़ीब और आज़ादी का संगम स्थल?
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
07-10-2025 09:16 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हम अपने शहर की बात करते हैं, तो अक्सर खेल सामान, हथकरघा उद्योग या 1857 की क्रांति जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को ही याद करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन सबके परे भी एक ऐसा इतिहास मौजूद है, जो न तो अख़बारों की सुर्खियों में आता है और न ही स्कूल की किताबों में? मुस्तफा महल - मेरठ कैंट के मध्य में खड़ी वह शाही इमारत, जो आज भी अतीत की गूंज अपने भीतर समेटे हुए है। यह महल महज़ एक भवन नहीं, बल्कि नवाबी शान, साहित्यिक चेतना और राजनीतिक उथल-पुथल की अद्भुत गवाही है। इसकी जालीदार खिड़कियों से जब धूप छनकर गलियारों में गिरती है, तो लगता है जैसे कोई पुरानी कहानी फिर से जीवित हो गई हो। इन झरोखों से झांकते कल्पनाओं के चेहरे मानो हमें उस समय में ले जाते हैं, जब बारीक कढ़ाईदार शेरवानी पहने नवाब अपनी बैठक में शायरी की महफ़िलें सजाया करते थे, जब हर दीवार पर उर्दू शेर टंगे होते थे और हर कोने में फ़व्वारों की मद्धम फुहारें गूंजती थीं। यह वही स्थान था जहां महज़ इश्क और अदब की नहीं, बल्कि आत्मबलिदान और राजनीतिक क्रांति की भी चर्चा होती थी। जब एक ही छत के नीचे मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों की खुशबू और स्वतंत्रता संग्राम की रणनीतियों की गंभीरता एक साथ महसूस की जाती थी। महल की दीवारों ने जितनी कविता सुनी है, उतना ही प्रतिरोध भी महसूस किया है। आज, जब हम स्मार्ट सिटी (Smart City) बनने की ओर बढ़ रहे हैं, तब मुस्तफा महल हमें याद दिलाता है कि तकनीक और तरक्की के इस दौर में भी हमारी असल जड़ें उन्हीं दीवारों में छुपी हैं, जो कभी नवाब की कलम, कवि की कल्पना और देशभक्त की क्रांति का ठिकाना रही हैं। यह सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि मेरठ की आत्मा का एक ठोस, जीवित प्रतीक है - जिसे देखना नहीं, समझना ज़रूरी है।
इस लेख में, हम जानेंगे कि कैसे मुस्तफा महल मेरठ के नवाबी अतीत का प्रतीक बन गया। सबसे पहले, हम देखेंगे इसके निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और नवाब इशाक खान की मंशा। फिर, हम नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता के जीवन और उनके साहित्यिक तथा राजनीतिक योगदान पर चर्चा करेंगे। उसके बाद, हम महल की अद्भुत वास्तुकला और अंदरूनी सजावट के बारे में विस्तार से बात करेंगे। इसके बाद हम जानेंगे कि यह महल स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक आंदोलनों के लिए कैसे एक केंद्रीय स्थान बना। अंत में, हम देखेंगे कि आज के मेरठ में यह महल किस रूप में जीवित है और इसका सांस्कृतिक महत्व क्या है।

मेरठ के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मुस्तफा महल की समयरेखा और निर्माण का उद्देश्य
मेरठवासियों, जब हम अपने शहर के इतिहास को ध्यान से देखते हैं, तो यह साफ़ दिखता है कि यहाँ की हर ईंट में कोई न कोई कहानी दबी हुई है। ऐसी ही एक कथा है मुस्तफा महल की, जो न केवल स्थापत्य की दृष्टि से भव्य है, बल्कि यह भावनाओं और स्मृतियों का भी अद्भुत संगम है। इस महल का निर्माण 1896 से 1900 के बीच नवाब मोहम्मद इशाक खान द्वारा किया गया था, अपने पिता नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता की स्मृति में। यह कोई सामान्य इमारत नहीं थी। यह एक पुत्र का श्रद्धांजलि स्वरूप प्रेम था, जो 30 एकड़ की ऐतिहासिक ज़मीन पर खड़ा हुआ - वही ज़मीन, जहां 1857 की क्रांति के बाद उनके पिता को कैद किया गया था। इस भूमि को उन्होंने न केवल बदल दिया, बल्कि उसे नवाबी गौरव, मुगल विरासत और व्यक्तिगत भावना से सजाया। कहा जाता है कि इस महल की डिज़ाइन खुद इशाक खान ने तैयार की और उसके निर्माण में उन्होंने उन स्थापत्य कारीगरों की सहायता ली, जिन्हें सैन्य बैरकों और औपनिवेशिक भवनों का निर्माण करने में महारत थी। एक विशेष बात यह है कि इस महल के निर्माण में मक्का से लाई गई मिट्टी का भी उपयोग हुआ - एक ऐसा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संकेत, जो दर्शाता है कि यह महल किसी ईंट-पत्थर का ढांचा भर नहीं, बल्कि आस्था और आदर का पवित्र स्थल भी था। आज, यह महल मेरठ की गूढ़ ऐतिहासिक परंपरा में एक अमिट छवि बन चुका है।

नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता का जीवन, साहित्यिक योगदान और स्वतंत्रता संग्राम से संबंध
नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता की ज़िन्दगी महज़ एक नवाब की नहीं थी, बल्कि एक ऐसे विचारशील व्यक्ति की थी, जिसने उर्दू साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रवाद को एक साथ जिया। वे केवल एक राजसी परिवार के उत्तराधिकारी नहीं थे, बल्कि मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे दिग्गज शायर के अभिन्न मित्र भी थे। उनके काव्य में प्रेम, करुणा और जागृति का ऐसा समावेश था, जिसने उस समय की पूरी उर्दू दुनिया को प्रभावित किया। उनके दादा इस्माइल बेग मुग़ल सेना के कमांडर-इन-चीफ़ (Commander-in-Chief) थे, और इस तरह उनका पारिवारिक इतिहास भी मुग़ल दरबार की बहादुरी और सैन्य परंपराओं से भरा था। नवाब शेफ्ता की पहचान एक राष्ट्रप्रेमी विचारक की थी, जिसने 1857 की क्रांति में अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ लेखनी और भावना से संघर्ष किया। परिणामस्वरूप, उन्हें सात वर्षों की कठोर कारावास भुगतनी पड़ी - और यही जेल, बाद में मुस्तफा महल की भूमि बनी। उन्होंने ग़ालिब जैसे कवियों को संरक्षित किया, साहित्य को संरचित किया और साथ ही स्वतंत्रता की भावना को शब्दों में ढाला। उनका जीवन एक ऐसी कविता था, जो स्वतंत्रता, साहस और संस्कृति के छंदों में बसी हुई है। मुस्तफा महल, उनके सम्मान में बना स्मारक नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का भौतिक स्वरूप है - जो आज भी नवाबों की तहज़ीब, अदब और राष्ट्रीयता की भावना को जीवंत रखता है।
स्थापत्य विशेषताएं: मुस्तफा महल की मिश्रित शैली और अंदरूनी शिल्प सौंदर्य
मुस्तफा महल, वास्तुकला का एक ऐसा जीवित नमूना है, जो समय को थामे हुए खड़ा है। नवाब इशाक खान ने इसे महज़ एक भवन के रूप में नहीं देखा, बल्कि एक कल्पनाशील कैनवस के रूप में गढ़ा, जिसमें यूरोपीय संयम, राजस्थानी रंग, और अवध की नफ़ासत का सामंजस्य बख़ूबी देखा जा सकता है। महल का हर एक कक्ष एक कहानी कहता है। रंगों के नाम पर रखे गए कमरे - जैसे ‘गुलाबी महल’, ‘बसंती कमरा’, ‘नीला कक्ष’ - मौसमों के अनुसार उपयोग में लाए जाते थे, जिससे यह साफ़ झलकता है कि वास्तुकला और जीवनशैली के बीच एक गहरा जुड़ाव था। अंदरूनी सजावट में पेंडुलम घड़ियाँ, झूमर, अलंकृत फर्नीचर (Ornate Furniture), इंग्लैंड से आयातित लकड़ी की अलमारियाँ, ड्रेसिंग टेबल (Dressing Table) और दुर्लभ कलाकृतियाँ शामिल थीं। महल के गलियारों में आज भी जैसे सरसराते घरारों की गूंज सुनाई देती है, और झरोखों के पीछे से झांकते हुए चेहरे जैसे अपने बीते ज़माने की कहानियाँ दोहराते हैं। बाग़-बगिचों के बीच से बहती फव्वारों की ध्वनि, महल की सजीवता को और भी बढ़ा देती है। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह महल केवल एक इमारत नहीं, बल्कि एक समय विशेष की समृद्ध और कलात्मक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।

मुस्तफा महल का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व: आज़ादी की गतिविधियों का गढ़
मुस्तफा महल का राजनीतिक महत्व उसके स्थापत्य सौंदर्य जितना ही प्रभावशाली है। स्वतंत्रता संग्राम के समय यह स्थान एक जीवंत केंद्र बन गया, जहां विचारों का आदान-प्रदान, गोपनीय बैठकें और राष्ट्रीय रणनीतियाँ गढ़ी जाती थीं। नवाब इशाक खान, एक सजग राजनीतिज्ञ और राष्ट्रप्रेमी थे, जिन्होंने इस महल को क्रांतिकारियों का सुरक्षित ठिकाना बना दिया। मुस्लिम लीग (Muslim League) की बैठकें, खिलाफत आंदोलन की विचार गोष्ठियाँ, और देशभर से आए स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाएं इसी महल की दीवारों में तय होती थीं। यह स्थान एक ऐसा सांस्कृतिक और राजनीतिक मंच बन गया था, जहां काव्य, क्रांति और कूटनीति एक साथ सांस लेते थे। मुस्तफा महल की दीवारें महज़ सजावटी नहीं थीं - वे उन विचारों की गूंज थीं, जो एक स्वतंत्र भारत की नींव डाल रही थीं। यह महल, मेरठ के इतिहास में वह अध्याय है, जो संस्कृति और संघर्ष दोनों को समेटे हुए है।
आज के संदर्भ में मुस्तफा महल: नवाबी विरासत का जीवित प्रतीक
आज, जब मेरठ स्मार्ट सिटी की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है, तब मुस्तफा महल जैसे ऐतिहासिक स्थल हमें याद दिलाते हैं कि आधुनिकता और विरासत का संतुलन कितना आवश्यक है। यह महल आज भी पूर्णता के साथ खड़ा है - नवाबी विरासत की गरिमा और राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक बनकर। मुस्तफा महल न केवल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है, बल्कि मेरठ की सांस्कृतिक आत्मा का एक अमिट हिस्सा भी है। यह वह स्थल है जहां बीते युग की गूंज, वर्तमान की पहचान और भविष्य की प्रेरणा एक साथ समाहित है। नई पीढ़ी के लिए यह महल महज़ ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि यह बताता है कि एक परिवार की विरासत कैसे पूरे शहर की सांस्कृतिक धरोहर बन सकती है। यह दर्शाता है कि ऐतिहासिक स्मारक सिर्फ देखने की चीज़ नहीं, समझने और संभालने की ज़िम्मेदारी भी होते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4nsmzrat
https://tinyurl.com/3p5tf37x
मेरठवासियों, ऑनलाइन प्यार अब भरोसे का नहीं, साइबर ठगी का नया जाल बन चुका है!
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
06-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, डिजिटल इंडिया (Digital India) के इस युग में जहां तकनीक ने हमारे रिश्तों को नई रफ्तार दी है, वहीं इसके साथ कई ऐसे अनदेखे खतरे भी जन्मे हैं जो सीधे हमारे भरोसे, भावनाओं और जेब पर हमला करते हैं। आज सोशल मीडिया (Social Media), इंस्टाग्राम (Instagram), व्हाट्सएप (WhatsApp) या ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स (Online Dating Apps) के ज़रिए दोस्ती और प्रेम संबंधों की शुरुआत करना बेहद सामान्य हो गया है। लेकिन क्या ये हर बार उतने ही मासूम होते हैं जितने दिखते हैं? मेरठ जैसे विकसित होते शहर में, जहां युवा पीढ़ी टेक्नोलॉजी (Technology) से कदम मिलाकर चल रही है, वहीं बुज़ुर्गों में भी इंटरनेट (Internet) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। पर इसी बढ़ती डिजिटल सक्रियता के बीच, ऑनलाइन रोमांस स्कैम (Online Romance Scam) का खतरा भी लगातार गहराता जा रहा है। ये धोखाधड़ी सिर्फ आर्थिक नुकसान नहीं पहुंचाती, बल्कि व्यक्ति के आत्म-सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक प्रतिष्ठा को भी गहरा आघात देती है। कभी कोई खूबसूरत प्रोफाइल (profile) बनाकर, तो कभी भावनात्मक कहानियाँ सुनाकर - स्कैमर (scammer) आपके भरोसे को हथियार बनाते हैं और धीरे-धीरे आपको ऐसे जाल में फंसा लेते हैं जिससे निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है। इस लेख में हम समझेंगे कि ऑनलाइन रोमांस स्कैम क्या होता है, यह कैसे काम करता है, कोविड-19 (Covid-19) के बाद इसमें इतनी तेज़ी क्यों आई, स्कैमर्स किन तरीकों से आपको जाल में फँसाते हैं, और सबसे अहम - हम मेरठवासियों को इससे कैसे सतर्क रहना चाहिए और खुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले समझेंगे कि ऑनलाइन रोमांस स्कैम किस प्रकार कार्य करता है और जालसाज अपने शिकार को कैसे फंसाते हैं। फिर हम देखेंगे कि कोविड-19 के दौर में ऐसे घोटालों में अचानक बढ़ोतरी क्यों हुई। इसके बाद हम जानेंगे कि डेटिंग ऐप्स और सोशल मीडिया पर सबसे आम ठगी के तरीके क्या हैं। फिर हम भारत में लोगों, खासकर युवाओं की डेटिंग ऐप्स को लेकर बढ़ती सतर्कता और व्यवहार पर बात करेंगे। अंत में, आप सीखेंगे कि इन स्कैम्स से कैसे बचा जा सकता है, और कौन-कौन सी आसान साइबर (Cyber) सुरक्षा तकनीकें आपको ऑनलाइन सुरक्षित रख सकती हैं।

ऑनलाइन रोमांस स्कैम क्या है और यह कैसे काम करता है?
ऑनलाइन रोमांस स्कैम आज के डिजिटल युग का सबसे खतरनाक भावनात्मक और वित्तीय फंदा बन चुका है। इसका मूल उद्देश्य है - किसी व्यक्ति के साथ नकली भावनात्मक रिश्ता बनाकर उसे आर्थिक रूप से लूटना। आमतौर पर स्कैमर इंटरनेट से किसी सुंदर व्यक्ति की तस्वीर चुरा कर आकर्षक प्रोफाइल बनाते हैं, जिसमें खुद को अकेला, भावनात्मक और भरोसेमंद दिखाया जाता है। उनका पहला लक्ष्य होता है - बातचीत की शुरुआत करके सामने वाले का भरोसा जीतना, और धीरे-धीरे उन्हें भावनात्मक रूप से अपने साथ बाँधना। यह प्रक्रिया हफ्तों या महीनों तक खिंच सकती है, जिसमें वे प्यार भरे मैसेज (message), कॉल्स (calls) और साथ में जीवन बिताने के सपने दिखाते हैं। एक बार जब भरोसा मजबूत हो जाता है, तो शुरू होता है असली खेल - वे किसी आपातकाल का बहाना बनाते हैं। जैसे - “मेरा बच्चा अस्पताल में है”, “मुझे वीजा की दिक्कत है”, या “मैं तुमसे मिलने आना चाहता हूँ लेकिन टिकट के पैसे नहीं हैं।” चूंकि सामने वाला व्यक्ति पहले से ही भावनात्मक रूप से जुड़ चुका होता है, इसलिए बिना ज्यादा जांच के पैसे भेज देता है। इस तरह की ठगी अक्सर महीनों और कभी-कभी वर्षों तक भी चल सकती है। अंततः जब पीड़ित को सच का पता चलता है, तब तक वह न केवल आर्थिक रूप से टूट चुका होता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी बुरी तरह आहत होता है।
कोविड-19 और रोमांस स्कैम में अचानक आई वृद्धि के मुख्य कारण
कोविड-19 के दौरान, जब पूरी दुनिया लॉकडाउन (lockdown) में कैद थी, तब लोगों के बीच का शारीरिक संपर्क लगभग खत्म हो गया था। इस अलगाव और अकेलेपन ने सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स को एकमात्र सामाजिक सहारा बना दिया था। कई लोग, खासकर युवा, इन प्लेटफॉर्म्स पर सच्चे रिश्तों की तलाश में आ गए। यही वह समय था जब स्कैमर्स ने इन परिस्थितियों का भरपूर फायदा उठाया। ‘यूएस फेडरल ट्रेड कमिशन’ (US Federal Trade Commission) के अनुसार, केवल 2021 में रोमांस स्कैम से $547 मिलियन की ठगी दर्ज हुई - यह आंकड़ा 2020 की तुलना में 80% अधिक था। इतना ही नहीं, 18 से 29 वर्ष की उम्र के युवाओं में इन मामलों की संख्या दस गुना तक बढ़ गई। स्कैमर्स ने वर्चुअल रिश्तों (virtual relationships) के प्रति बढ़ती निर्भरता को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया। लोगों ने अपने अकेलेपन को भरने के लिए जिन ऐप्स पर भरोसा किया था, वही उनके नुकसान का कारण बन गए। जब भावनाएं हावी हो जाती हैं और सोचने की शक्ति कम हो जाती है, तब स्कैमर अपना जाल फैलाते हैं और शिकार को अपनी चाल में फंसा लेते हैं।

डेटिंग ऐप्स पर सबसे आम धोखाधड़ी के तरीके और भुगतान माध्यम
स्कैमर्स हमेशा ऐसे तरीके अपनाते हैं जिनमें पैसा मिलते ही उनका पीछा करना लगभग असंभव हो जाता है। सबसे पहले आता है वायर ट्रांसफ़र (Wire Transfer), जिसमें पैसा एक बार भेज देने के बाद वापस पाना लगभग नामुमकिन होता है। यह तरीका स्कैमर्स को तेज़ी से धन प्राप्त करने का आसान रास्ता देता है। दूसरा आम तरीका है गिफ़्ट कार्ड्स (Gift Cards)। स्कैमर पीड़ित से कहते हैं कि वह किसी दुकान से गिफ़्ट कार्ड खरीदे और उसका कोड भेज दे - एक बार कोड भेज दिया गया तो पैसा गायब। एक और तरीका है रिलोडेबल डेबिट कार्ड्स (Reloadable Debit Cards), जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है। स्कैमर्स पहले मामूली राशि की मांग करते हैं और फिर कहते हैं कि कार्ड रिचार्ज नहीं हो रहा है - कृपया और पैसा भेजिए। इससे पहले कि पीड़ित कुछ समझे, वह हज़ारों रुपये गवां चुका होता है। अब क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency) भी इस सूची में शामिल हो गई है, जिसमें नकली निवेश योजनाएँ दिखाकर पीड़ित को लुभाया जाता है। स्कैमर्स अक्सर किसी आपात स्थिति की कहानी गढ़ते हैं - “मेरी मां बीमार है”, “मैं आर्मी में हूं, छुट्टी नहीं मिल रही”, या “मुझे मिलने आना है लेकिन टिकट का पैसा नहीं है।” ये कहानियाँ इतनी भावुक होती हैं कि इंसान सहानुभूति में आकर अपनी गाढ़ी कमाई भी बिना सोचे दे देता है।

भारत में डेटिंग ऐप्स को लेकर लोगों की सतर्कता और व्यवहार
भारत में इंटरनेट यूज़र्स की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ ही बढ़ रही है जागरूकता और सतर्कता। खासतौर से डेटिंग ऐप्स को लेकर अब भारतीयों का दृष्टिकोण पहले से ज्यादा व्यावहारिक हो गया है। एक वैश्विक साइबर सुरक्षा कंपनी कैस्परस्की (Kaspersky) की रिपोर्ट के अनुसार, 34% भारतीय यूज़र्स डेटिंग ऐप्स से दूर रहते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं वो धोखा न खा जाएं। लगभग 43% लोग किसी भी अजनबी पर भरोसा नहीं करते, खासकर तब जब ऑनलाइन रिश्ता नए-नए शुरू हुआ हो। इस रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि जिन लोगों ने स्कैम का सामना किया, उनमें से 42% ने समय रहते नकली प्रोफाइल को पहचान लिया, और 48% ने पैसे भेजने से इंकार कर दिया। 37% लोग तब चौकन्ने हुए जब उन्हें असामान्य या अजीब मैसेज मिलने लगे। वहीं 29% लोगों को तब शक हुआ जब सामने वाला बार-बार वीडियो कॉल (Video Call) से बचता रहा। यह आंकड़े यह दिखाते हैं कि भारत में डिजिटल जागरूकता बढ़ रही है। लोग अब केवल भावनाओं से नहीं, दिमाग से भी काम ले रहे हैं - और यही सतर्कता उन्हें ऑनलाइन चूना खाने से बचा सकती है।
ऑनलाइन डेटिंग स्कैम से बचने के लिए प्रभावी साइबर सुरक्षा उपाय
ऑनलाइन दुनिया जितनी दिलचस्प और आकर्षक है, उतनी ही खतरनाक भी हो सकती है। सुरक्षित रहने के लिए हमें कुछ आसान लेकिन बेहद ज़रूरी आदतें अपनानी चाहिए। सबसे पहले, अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स (accounts) को हमेशा प्राइवेट (private) रखें ताकि आपकी प्रोफ़ाइल और पोस्ट (post) सिर्फ़ भरोसेमंद दोस्तों तक ही सीमित रहें। यह छोटी-सी सावधानी आपको स्कैमर्स और अनजान लोगों की नज़रों से बचा सकती है। दूसरी अहम बात यह है कि अजनबी फ्रेंड रिक्वेस्ट (friend request) को लेकर कभी भी लापरवाह न हों, क्योंकि हर दोस्ती भरोसे के लायक नहीं होती और कई बार ठग नकली प्रोफ़ाइल बनाकर लोगों से जुड़ने की कोशिश करते हैं। साथ ही, अपने मोबाइल और कंप्यूटर में मज़बूत सिक्योरिटी सॉफ़्टवेयर (Security Software) रखें और उसे नियमित रूप से अपडेट करते रहें, ताकि वायरस (Virus), रैंसमवेयर (Ransomware) और फिशिंग (Phishing) जैसे खतरों से सुरक्षा मिल सके। लेकिन सबसे ज़रूरी बात यह है कि किसी अनजान व्यक्ति को कभी भी पैसे न भेजें, चाहे उसकी कहानी कितनी भी इमरजेंसी वाली क्यों न लगे। अगर कोई व्यक्ति बार-बार वीडियो कॉल से बच रहा है या बहाने बना रहा है, तो यह साफ़ संकेत है कि कुछ गड़बड़ है। सच तो यह है कि डिजिटल दुनिया में सुरक्षित रहने का असली मंत्र सिर्फ़ एक है - सतर्कता और समझदारी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/27xakb3s
मेरठवासियों, क्या आपने कभी भीमपलासी की रागात्मक शाम को महसूस किया है?
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
05-10-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

राग भीमपलासी भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक अत्यंत मधुर और आत्मीय राग है, जिसे आमतौर पर संध्या के समय गाया जाता है। यह राग 'काफी' थाट से जुड़ा हुआ है और इसकी विशेषता यह है कि इसके आरोह में कुछ स्वरों का संयमित प्रयोग होता है, जबकि अवरोह में सातों स्वर सम्मिलित होते हैं। अवरोह में विशेषकर रिषभ और धैवत स्वर पर ठहरने की अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन यदि पंचम और षड्ज़ के साथ रिषभ और धैवत को कण स्वर के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो राग की सुंदरता और बढ़ जाती है।
भीमपलासी में षड्ज-मध्यम तथा पंचम-गंधार स्वर जोड़कर मींड का विशेष प्रयोग होता है। जब गायक निषाद का प्रयोग करता है, तो ऊपर की श्रुति में गाया गया कोमल निषाद रियाज़ की गहराई को दर्शाता है। यह राग पूर्वांग प्रधान होता है, यानी इसका विकास राग के पहले हिस्से में प्रमुख रूप से होता है, और इसका विस्तार तीनों सप्तकों में सहज रूप से किया जा सकता है। भावनात्मक दृष्टि से भी यह राग अत्यंत गूढ़ और गम्भीर प्रकृति का माना जाता है। इसमें श्रृंगार रस और भक्ति भाव दोनों की प्रबल उपस्थिति होती है। इस राग में ध्रुपद, ख्याल, तराना जैसी शास्त्रीय रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। कर्नाटक संगीत में 'आभेरी' राग को इसकी समकक्षता दी जाती है। वहीं काफी थाट का ही एक और राग - धनाश्री - भीमपलासी से साम्य रखता है, हालांकि उसमें वादी स्वर पंचम होता है, जबकि भीमपलासी में मध्यम।
संदर्भ-
https://shorturl.at/DDtN9
https://shorturl.at/ohWob
https://shorturl.at/2wA57
मेरठवासियो, जानिए बाढ़ के असली कारण, इसके असर और बचाव के उपाय
नदियाँ
Rivers and Canals
04-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, आपने अक्सर टीवी पर या अख़बारों में बाढ़ की तबाही की भयावह तस्वीरें देखी होंगी। कहीं गाँव के गाँव पानी में समा जाते हैं, तो कहीं लोग अपनी ज़िंदगी की सारी जमा-पूँजी - घर, खेत, पशुधन - सबकुछ खो बैठते हैं। सोचिए, जिस घर में सालों की मेहनत से ईंट-ईंट जोड़कर दीवारें खड़ी की गई हों, वो कुछ ही घंटों में पानी के तेज़ बहाव से बह जाए, तो इंसान पर कैसी विपत्ति आती होगी। सड़कों और पुलों का टूट जाना सिर्फ़ यातायात को नहीं रोकता, बल्कि राहत और बचाव कार्य को भी बेहद कठिन बना देता है। सबसे बड़ा दर्द तब होता है, जब लोग अपने ही गाँव-घर छोड़कर ऊँचाई पर बने अस्थायी शिविरों में शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, बुज़ुर्ग दवाइयों से दूर हो जाते हैं और पूरे परिवार का जीवन असुरक्षा और चिंता से भर जाता है। लेकिन मेरठवासियो, यह समझना बहुत ज़रूरी है कि बाढ़ सिर्फ़ पानी भर जाने की साधारण घटना नहीं होती। यह एक गंभीर प्राकृतिक आपदा है, जिसका असर हमारे जीवन, समाज और पर्यावरण पर गहरा और लंबे समय तक रहता है। कभी यह प्रकोप प्रकृति की शक्तियों से आता है - जैसे मूसलाधार बारिश, बर्फ़ और हिमनदों का तेज़ी से पिघलना या समुद्री चक्रवात और सुनामी। तो कभी यह हमारी अपनी लापरवाहियों का नतीजा भी होता है - जैसे बेतहाशा शहरीकरण, नालियों और नदियों पर अतिक्रमण, वनों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु परिवर्तन को नज़रअंदाज़ करना। यही वजह है कि मामूली-सी बारिश भी कई बार बड़े शहरों में जलभराव और शहरी बाढ़ का कारण बन जाती है।
आज हम इस लेख में सबसे पहले हम यह जानेंगे कि बाढ़ की परिभाषा क्या है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे कैसे देखा जाता है। इसके बाद हम यह समझेंगे कि बाढ़ आने के पीछे कौन-कौन से प्राकृतिक और मानवीय कारण ज़िम्मेदार होते हैं। फिर हम बाढ़ के विभिन्न प्रकार और उनकी विशेषताओं पर चर्चा करेंगे, ताकि यह साफ़ हो सके कि अलग-अलग क्षेत्रों में बाढ़ किस रूप में सामने आती है। अगले भाग में हम देखेंगे कि बाढ़ का असर स्वास्थ्य, समाज और पर्यावरण पर किस तरह पड़ता है। इसके बाद हम बाढ़ नियंत्रण और रोकथाम की रणनीतियों के बारे में जानेंगे। और अंत में, हम यह समझेंगे कि बाढ़ के समय कौन-कौन सी सावधानियाँ अपनानी चाहिए, ताकि नुकसान को कम किया जा सके और जीवन को सुरक्षित रखा जा सके।
बाढ़ की परिभाषा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
बाढ़ केवल पानी का इकट्ठा होना नहीं है, बल्कि यह एक जटिल प्राकृतिक आपदा है। सरल भाषा में, जब किसी नदी, झील या जलस्रोत का पानी अपने किनारों को पार कर आसपास की ज़मीन और बस्तियों को डुबो देता है, तो इसे बाढ़ कहा जाता है। वैज्ञानिक रूप से बाढ़ की स्थिति का पता लगाने के लिए हर नदी पर दो स्तर तय किए जाते हैं - चेतावनी स्तर (Warning Level) और ख़तरे का स्तर (Danger Level)। जैसे ही पानी चेतावनी स्तर पर पहुँचता है, प्रशासन को चौकसी बरतनी पड़ती है, और ख़तरे का स्तर पार करते ही स्थिति गंभीर मानी जाती है। इसे “फ्लड स्टेज” (Flood Stage) भी कहा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, बाढ़ केवल जलभराव की समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज की आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा भी है। यानी बाढ़ तब ही आपदा बनती है जब कोई इलाक़ा अचानक आई जल-स्थिति को संभाल नहीं पाता।

बाढ़ के प्रमुख प्राकृतिक और मानवीय कारण
बाढ़ कई कारणों से आती है और इन्हें मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँटा जा सकता है - प्राकृतिक कारण और मानवजनित कारण।
- प्राकृतिक कारणों में सबसे अहम है भारी वर्षा। जब किसी क्षेत्र में लगातार मूसलाधार बारिश होती है और ज़मीन या नदी उसे सँभाल नहीं पाती, तो बाढ़ की स्थिति बन जाती है। हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर (glacier) और बर्फ़ के तेजी से पिघलने से भी नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है। कई बार बाँध, बैराज या लीवी टूट जाते हैं और लाखों लीटर पानी पलभर में आसपास के क्षेत्र को डुबा देता है। तटीय क्षेत्रों में चक्रवात और सुनामी जैसे समुद्री तूफ़ान बाढ़ का बड़ा कारण बनते हैं।
- मानवजनित कारणों में सबसे अहम है अनियंत्रित शहरीकरण। जैसे-जैसे शहरों का विस्तार होता है, प्राकृतिक जलनिकासी मार्ग नष्ट हो जाते हैं। सड़क, सीमेंट (cement) और कंक्रीट (concrete) की सतह पानी को सोखने नहीं देती, जिससे मामूली बारिश भी शहरी बाढ़ का रूप ले लेती है। वनों की अंधाधुंध कटाई से नदियों में गाद भर जाती है और उनका प्रवाह बाधित होता है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन भी अब बाढ़ के पैटर्न (pattern) को और अनिश्चित और खतरनाक बना रहा है - कभी अचानक बारिश, तो कभी असामान्य मौसमी बदलाव।

बाढ़ के प्रकार और उनकी विशेषताएँ
बाढ़ कई रूपों में आती है और हर प्रकार की अपनी विशिष्टताएँ होती हैं:
- नदी बाढ़: यह तब होती है जब नदियों में जलप्रवाह उनकी क्षमता से ज़्यादा हो जाता है। लगातार बारिश या पहाड़ी इलाक़ों से पानी के तेज़ बहाव के कारण नदी किनारे के गाँव और शहर जलमग्न हो जाते हैं।
- तटीय बाढ़: समुद्री तूफ़ानों, चक्रवातों या सुनामी की वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़कर ज़मीन पर फैल जाता है। यह विशेषकर भारत के तटीय इलाक़ों जैसे ओडिशा और आंध्र प्रदेश में देखने को मिलती है।
- फ़्लैश फ़्लड (Flash Flood): इसे अचानक और तेज़ बाढ़ कहा जाता है। यह आमतौर पर क्लाउडबर्स्ट (Cloudburst) यानी बादल फटने के कारण होती है और कुछ ही मिनटों में पूरा इलाक़ा डूब जाता है।
- शहरी या सीवर (Sewer) बाढ़: शहरों में तब आती है जब ड्रेनेज सिस्टम (Drainage System) भारी बारिश को सँभाल नहीं पाता। दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु जैसे शहरों में अक्सर यह समस्या देखी जाती है।
- भूजल आधारित बाढ़: जब लगातार लंबे समय तक बारिश होती है और ज़मीन पानी से संतृप्त हो जाती है, तो भूजल सतह पर आने लगता है।
- आइस-जैम (Ice-Jam) बाढ़: ठंडे क्षेत्रों में जब बर्फ़ नदी के प्रवाह को रोक देती है और अचानक पिघलने पर पानी तेज़ी से बह निकलता है।
हर प्रकार की बाढ़ अपने साथ अलग-अलग तरह के नुकसान और चुनौतियाँ लेकर आती है।
बाढ़ के प्रभाव: स्वास्थ्य, समाज और पर्यावरण
बाढ़ के असर बहुआयामी होते हैं और यह सिर्फ़ पानी में डूबने तक सीमित नहीं है।
- स्वास्थ्य पर असर: जब घर और गलियाँ गंदे पानी से भर जाती हैं, तो डायरिया (diarrhea), हैज़ा, त्वचा रोग और मलेरिया (malaria) जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। कई बार लोग लंबे समय तक तनाव, अवसाद और मानसिक समस्याओं से भी जूझते हैं।
- समाज और इन्फ्रास्ट्रक्चर (infrastructure) पर असर: सड़कें टूट जाती हैं, पुल बह जाते हैं, बिजली और संचार व्यवस्था ठप हो जाती है। हज़ारों परिवार बेघर हो जाते हैं और उन्हें राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ती है।
- कृषि और पशुधन पर असर: खेतों की फसलें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं, जिससे किसानों की आर्थिक हालत बिगड़ती है। मवेशी बह जाते हैं या बीमार पड़ जाते हैं।
- पर्यावरण पर असर: जंगलों का नुकसान होता है, वन्यजीव अपने प्राकृतिक आवास से विस्थापित हो जाते हैं और नदियाँ गाद व प्रदूषण से भर जाती हैं। हालाँकि, एक सकारात्मक पहलू यह है कि बाढ़ के बाद खेतों में उर्वर सिल्ट (fertile silt) जम जाती है और भूजल स्तर रिचार्ज (recharge) हो जाता है, जिससे अगले सीज़न (season) में खेती को फ़ायदा मिल सकता है।

बाढ़ नियंत्रण और रोकथाम की रणनीतियाँ
बाढ़ को पूरी तरह रोकना मुश्किल है, लेकिन इसके नुकसान को कम करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं।
- इंजीनियरिंग (Engineering) उपाय: बाँध, तटबंध, चेक डैम (Check Dam) और नदियों के चैनल को चौड़ा करने जैसे उपाय बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।
- शहरी समाधान: शहरों में परमेएबल सतह (Permeable Surface - ऐसी ज़मीन जो पानी सोख ले), ग्रीन रूफ़ और मज़बूत ड्रेनेज सिस्टम बनाए जाने चाहिए ताकि बारिश का पानी जमा न हो।
- तकनीकी उपाय: फ़्लड वार्निंग सिस्टम (Flood Warning System), सैटेलाइट मॉनिटरिंग (Satellite Monitoring) और रिस्क मैपिंग (Risk Mapping) से प्रशासन को पहले से चेतावनी मिल जाती है, जिससे नुकसान को कम किया जा सकता है।
- सामुदायिक भागीदारी: आपदा प्रबंधन योजनाएँ, राहत केंद्र, मॉक ड्रिल्स (Mock Drill) और सामुदायिक प्रशिक्षण बाढ़ के समय लोगों को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं।
इन सभी उपायों का संयुक्त रूप ही किसी क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित रखने में मदद कर सकता है।
बाढ़ के समय अपनाई जाने वाली सावधानियाँ
बाढ़ से बचने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर कुछ सावधानियाँ बेहद ज़रूरी हैं।
- बाढ़ से पहले: ज़रूरी दस्तावेज़, दवाइयाँ और भोजन पैक करके सुरक्षित जगह पर रखें। घर को बिजली और गैस सप्लाई से अलग कर दें।
- बाढ़ के दौरान: सबसे पहले सुरक्षित ऊँची जगह पर पहुँचें। कभी भी बाढ़ के पानी में चलने या गाड़ी चलाने की कोशिश न करें। बिजली के खंभों और तारों से दूर रहें। प्रशासन द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें।
- बाढ़ के बाद: जब पानी उतर जाए तो बिना आधिकारिक अनुमति के घर में प्रवेश न करें। सफ़ाई करते समय दस्ताने और मास्क पहनें। खाने-पीने की वस्तुओं को उबालकर या शुद्ध करके ही इस्तेमाल करें। मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें, क्योंकि बाढ़ का असर लंबे समय तक रह सकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/22px89ke
https://tinyurl.com/yc4r8cch
https://tinyurl.com/2p9nwet3
https://tinyurl.com/bdhmxwn7
मेरठ की सुबह में घुलती कॉफ़ी की ख़ुशबू: एक बीज से वैश्विक ब्रांड तक की कहानी
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
03-10-2025 09:23 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब आप अपनी सुबह की शुरुआत एक कप गरम कॉफ़ी (coffee) के साथ करते हैं, तो वह सिर्फ़ एक पेय नहीं होता - वह एक पूरी यात्रा की शुरुआत होती है। यह यात्रा शुरू होती है 17वीं सदी में, एक सूफ़ी संत की चुपचाप की गई कोशिश से, और आज पहुँचती है आपके शहर के किसी कोज़ी कैफ़े (cozy cafe), किसी स्टाइलिश ऑफिस ब्रेक एरिया (stylish office break area) या फिर आपके घर के आरामदायक कोने तक। कॉफ़ी का वह प्याला जो आज आपके हाथ में है, उसकी खुशबू में इतिहास की कहानियाँ, व्यापारिक क्रांति और सामाजिक बदलाव की परछाइयाँ समाई हुई हैं। मेरठ जैसे शहर, जहाँ युवा सोच और पुरातन परंपराएँ एक साथ सांस लेती हैं, वहाँ कॉफ़ी का सफ़र किसी कहानी से कम नहीं। बाबा बुधान की दूरदृष्टि से शुरू होकर यह बीज दक्षिण भारत की मिट्टी में फला-फूला, और ब्रिटिश राज (British Rule) के दौरान एक वाणिज्यिक फ़सल के रूप में विकसित हुआ। फिर समय ने करवट ली और इरानी कैफ़े (Irani cafe), इंडियन कॉफ़ी हाउस (Indian Coffee House), और बाद में कैफ़े कॉफ़ी डे (Cafe Coffee Day) जैसे ब्रांड्स (brands) ने भारत में ‘कैफ़े कल्चर’ को जन्म दिया - एक ऐसा स्थान जहाँ कॉफ़ी के साथ-साथ विचार भी पकते हैं। आज जब आप मेरठ की गलियों में किसी कैफ़े के सामने से गुज़रते हैं, तो वह कॉफ़ी की महक सिर्फ़ स्वाद की नहीं, उस ऐतिहासिक यात्रा की भी है, जिसने भारत को वैश्विक कॉफ़ी मानचित्र पर एक मज़बूत स्थान दिलाया। यह कहानी स्वाद से कहीं ज़्यादा है - यह कहानी है साहस, संस्कृति और संवाद की।
आज हम जानेंगे कि भारत में कॉफ़ी की शुरुआत कैसे हुई और इसमें बाबा बुधान जैसे महान व्यक्तित्व की क्या भूमिका रही। फिर, हम विस्तार से समझेंगे कि कॉफ़ी की खेती भारत में कैसे विकसित हुई और दक्षिण भारत के किन क्षेत्रों में इसका विस्तार हुआ। इसके बाद, हम भारत में कैफ़े संस्कृति के शुरुआती इतिहास पर नज़र डालेंगे और देखेंगे कि कैसे इरानी कैफ़े और इंडियन कॉफ़ी हाउस ने सामाजिक जीवन को प्रभावित किया। इसके साथ ही हम आधुनिक कैफ़े संस्कृति में आए बदलाव और वैश्विक ब्रांड्स जैसे स्टारबक्स (Starbucks), सीसीडी (CCD), डंकिन (Dunkin) आदि के प्रभाव को भी देखेंगे। इसके बाद, हम भारत की वैश्विक कॉफ़ी उत्पादन में स्थिति को समझेंगे और यह जानेंगे कि भारत कैसे दुनिया के प्रमुख कॉफ़ी उत्पादक देशों में शामिल हुआ। अंत में, हम कुछ प्रमुख वैश्विक कॉफ़ी ब्रांड्स जैसे स्टारबक्स, नेस्काफे (Nescafe), टिम हॉर्टन्स (Tim Hortons) और डंकिन डोनट्स (Dunkin Donuts) के प्रभाव और उनकी वैश्विक पहचान पर भी बात करेंगे।

भारत में कॉफ़ी का आगमन और बाबा बुधान की भूमिका
कॉफ़ी भारत में 17वीं सदी में बाबा बुधान द्वारा लायी गई। ये एक मुस्लिम सूफ़ी संत थे, जिन्होंने यमन से सिर्फ सात बीज छिपाकर भारत में लाए और उन्हें चिकमंगलुर में रोपा। इस साहसिक कदम ने भारत में कॉफ़ी की कहानी शुरू की। पहले से ही अरबों में कॉफ़ी का एकाधिकार था और बीजों को बाहर नहीं जाने दिया जाता था। बाबा बुधान ने अपनी सूझबूझ और धार्मिक श्रद्धा का उपयोग कर इसे छिपाकर लाया। माना जाता है कि वह मक्का की तीर्थयात्रा पर गए थे और वहीं से कॉफ़ी बीजों को अपने वस्त्रों के अंदर छिपाकर भारत लाए। उनके इस दुस्साहसिक कार्य ने भारत में न केवल कॉफ़ी को जन्म दिया, बल्कि "बाबा बुधान गिरी" के रूप में एक सांस्कृतिक स्थल को भी जन्म दिया। इतिहास में यह भी देखा गया कि भारत में कॉफ़ी का परिचय अरब व्यापारियों के माध्यम से मालाबार तट पर पहले ही हुआ था। इसके प्रमाण हेज़ल कोलाको (Hazel Colaco) की पुस्तक ‘अ कैश ऑफ कॉफ़ी’ (A Cash of Coffee) में भी मिलते हैं, जिसमें बताया गया है कि अरब व्यापारी पहले से ही कॉफ़ी को लेकर भारत के पश्चिमी तट से जुड़े थे। इसके अलावा, मुग़ल काल में जहींगिर के दरबार में एडवर्ड टेरी (Edward Terry) ने कॉफ़ी के उपयोग का उल्लेख करते हुए लिखा, “जो लोग धर्म में कट्टर होते हैं वे शराब नहीं पीते, बल्कि एक पेय का उपयोग करते हैं जिसे वे कॉफ़ी कहते हैं… यह पाचन के लिए बहुत उपयोगी है, मन को जागृत करती है और रक्त को शुद्ध करती है।” यह दिखाता है कि भारत में कॉफ़ी का प्रसार और उसकी लोकप्रियता काफी पहले से शुरू हो चुकी थी और यह न केवल व्यापार बल्कि स्वास्थ्य और समाज में भी अपनी पहचान बना चुकी थी।
कॉफ़ी की खेती और भारत में इसका विस्तार
बाबा बुधान द्वारा लाए गए बीजों से मुख्य रूप से अरेबिका कॉफ़ी (Arabica Coffee) उत्पन्न हुई, जो बाद में रोबस्टा (Robusta) के साथ भारत की प्रमुख फसल बन गई। दक्षिण भारत के राज्यों - कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल - में कॉफ़ी की खेती विकसित हुई और ये क्षेत्र आज भी भारत के प्रमुख कॉफ़ी उत्पादक क्षेत्र हैं। विशेष रूप से चिकमंगलुर और कोडगु जैसे स्थानों ने कॉफ़ी उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ब्रिटिश शासन के दौरान कॉफ़ी ने वाणिज्यिक महत्त्व हासिल किया और 19वीं सदी में यूरोप में भी इसकी मांग बढ़ी। 1940 के दशक में माईसूर कॉफ़ी का यूरोपियन बाज़ार में स्थापित नाम था, और ब्रिटिश व्यापारियों के लिए यह कॉफ़ी, चाय की तुलना में अधिक लाभदायक मानी जाती थी। अंग्रेज़ों ने भारत में कॉफ़ी को एक प्रमुख निर्यात फसल के रूप में देखा और इसके उत्पादन को संगठित किया। भारत आज दुनिया का छठा सबसे बड़ा कॉफ़ी उत्पादक देश है, जो न केवल अरेबिका और रोबस्टा की विविध किस्में उगाता है, बल्कि कई क्षेत्रीय ब्रांडों और माइक्रो-क्लाइमेट (micro-climate) पर आधारित विशेष कॉफ़ी किस्में भी विकसित कर चुका है। हालांकि, यह फसल भारत की मूल भूमि की नहीं है, लेकिन इसकी लोकप्रियता और उत्पादन ने इसे देश की आर्थिक और सांस्कृतिक धारा में एक मजबूत स्थान दिलाया।

भारत में कैफ़े कल्चर का विकास और प्रारंभिक इतिहास
भारत में कैफ़े संस्कृति की शुरुआत 19वीं सदी में हुई जब कोलकाता में ब्रिटिशों द्वारा अल्बर्ट हॉल कैफ़े (Albert Hall Cafe) (1876) की स्थापना की गई, जो बाद में भारतीय कॉफ़ी हाउस (Indian Coffee House) में तब्दील हो गया। मुंबई में स्थापित पहले इरानी कैफ़े, जो ज़रथुश्त्री प्रवासियों द्वारा शुरू किए गए थे, भारतीय समाज में स्वाद और संवाद दोनों के लिए प्रसिद्ध हुए। ये कैफ़े केवल पेय स्थल नहीं थे, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र भी बन गए, जहाँ आज़ादी से पहले कई आंदोलनकारियों की मुलाक़ातें होती थीं। इरानी कैफ़े अपने सरल इंटीरियर (interior), मसाला बन्स (masala buns), इरानी चाय और समोसे के लिए प्रसिद्ध हुए। 1878 में पुणे में स्थापित डोरबजी ऐंड संस (Dorabjee and Sons), 1942 में दिल्ली का यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस (United Coffee House), और बाद में इंडियन कॉफ़ी हाउस की सैकड़ों शाखाएँ पूरे भारत में खुलीं। ये स्थान न केवल कॉफ़ी पीने की जगह थे, बल्कि विचारों के आदान-प्रदान और बौद्धिक चर्चाओं के मंच भी थे। इन कैफ़े की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1940 के दशक में भारतीय कॉफ़ी हाउस की 50 से अधिक शाखाएँ खोली गईं। इन स्थानों ने भारत की सार्वजनिक बहस और लोकतांत्रिक संस्कृति को आकार देने में अद्वितीय भूमिका निभाई।

आधुनिक कैफ़े संस्कृति और वैश्विक प्रभाव
1996 में वी. जी. सिद्धार्थ द्वारा स्थापित कैफ़े कॉफ़ी डे ने भारत में आधुनिक कैफ़े संस्कृति को एक नई दिशा दी, जिसने युवाओं को एक आधुनिक, आरामदायक और सामाजिक स्थान दिया जहाँ वे कॉफ़ी के साथ अपनी मीटिंग्स (meetings), बातचीत और रचनात्मक गतिविधियाँ कर सकते थे। इसके बाद, स्टारबक्स (Starbucks), कोस्टा कॉफ़ी (Costa Coffee), डंकिन डोनट्स (Dunkin Donuts) और क्रिस्पी क्रीम (Crispi Creme) जैसे अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों ने भारत में अपनी शाखाएँ खोलीं और एक नई संस्कृति की नींव रखी। 2012 में भारत में टाटा स्टारबक्स की शुरुआत के बाद, वैश्विक ब्रांडों ने भारतीय बाज़ार की संभावनाओं को पहचाना और देशभर में अपने कैफ़े खोले। आज के कैफ़े सिर्फ कॉफ़ी पीने का स्थान नहीं हैं, बल्कि ये युवाओं और पेशेवरों के लिए कार्यस्थल, मीटिंग स्पेस (meeting space) और सामाजिक मेलजोल के केंद्र बन गए हैं। फ्री वाई-फाई Free Wi-Fi), आरामदायक बैठने की व्यवस्था और विविध पेय-पदार्थों की उपलब्धता ने इन्हें अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। अब कैफ़े में न केवल कैपुचिनो और लट्टे मिलते हैं, बल्कि ऑर्गेनिक (organic) और स्पेशलिटी कॉफ़ी (specialty coffee) के लिए भी एक अलग वर्ग तैयार हो चुका है जो गुणवत्ता और अनुभव को प्राथमिकता देता है।
वैश्विक कॉफ़ी उत्पादन में भारत की स्थिति और शीर्ष उत्पादक देश
2023 के आँकड़ों के अनुसार, ब्राज़ील दुनिया का सबसे बड़ा कॉफ़ी उत्पादक देश है, जिसने कुल 34 लाख टन से अधिक हरी कॉफ़ी का उत्पादन किया। इसके बाद वियतनाम (Vietnam) (19.5 लाख टन), इंडोनेशिया (Indonesia) (7.6 लाख टन), कोलंबिया (Columbia) (6.8 लाख टन), और इथियोपिया (Ethiopia) (5.6 लाख टन) जैसे देश प्रमुख स्थान पर हैं। भारत ने 3.3 लाख टन उत्पादन के साथ दुनिया में नवां स्थान प्राप्त किया है। हालांकि उत्पादन के मामले में भारत कुछ देशों से पीछे है, लेकिन इसकी अरबिका और रोबस्टा दोनों किस्मों की विविधता और मोनसून मालाबार जैसे अनूठे स्वाद भारत को वैश्विक कॉफ़ी व्यापार में एक विशेष पहचान दिलाते हैं। इसके अलावा होंडुरस (Honduras), युगांडा (Uganda), पेरू (Peru) और सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (Central African Republic) जैसे देश भी कॉफ़ी उत्पादन में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत का उभरता हुआ कॉफ़ी उद्योग न केवल निर्यात के लिए महत्त्वपूर्ण है, बल्कि देश की कैफ़े संस्कृति और युवाओं के स्वाद में भी बड़ी भूमिका निभा रहा है।

दुनिया के प्रमुख कॉफ़ी ब्रांड और उनके वैश्विक प्रभाव
स्टारबक्स, कोस्टा कॉफ़ी, नेस्काफे, टिम हॉर्टन्स, डंकिन डोनट्स और फोल्ज़र्स (Folgers) जैसे ब्रांड दुनियाभर में कॉफ़ी संस्कृति को आकार दे रहे हैं। स्टारबक्स की 83 देशों में 30,000 से अधिक शाखाएँ हैं, और यह 12.4% अमेरिकी ग्राउंड कॉफ़ी मार्केट (ground coffee market) पर कब्ज़ा जमाए हुए है। कोस्टा कॉफ़ी के 31 देशों में 4,000 से अधिक स्टोर और 10,000 स्मार्ट कैफ़े मशीनें हैं। नेस्काफे, जो नेस्ले ब्रांड (Nestle brand) का हिस्सा है, 180 से अधिक देशों में मौजूद है और इंस्टेंट कॉफ़ी (instant coffee) में इसका नाम सबसे आगे है। टिम हॉर्टन्स कनाडा में लगभग 4,300 स्टोरों के साथ एक प्रमुख ब्रांड है और इसकी पहचान कॉफ़ी के साथ डोनट्स के लिए होती है। डंकिन डोनट्स की 12,000 से अधिक शाखाएँ 45 देशों में हैं, और यह रोज़ 30 लाख से अधिक ग्राहकों को सेवा देती है। फोल्ज़र्स, 1850 में स्थापित एक ब्रांड, 150 वर्षों से अधिक समय से अपनी ग्राउंड कॉफ़ी के लिए प्रसिद्ध है। इन ब्रांडों ने वैश्विक स्तर पर न केवल कॉफ़ी की खपत को बढ़ाया है, बल्कि भारतीय बाज़ार में भी अपने विशेष स्थान बनाए हैं और भारत के कैफ़े उद्योग को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/7fsf673r
https://tinyurl.com/2p9u4yed
https://tinyurl.com/4dmuv87r
https://tinyurl.com/bdzn7akn
क्यों दशहरे का हर रंग, मेरठवासियों को देश की सांस्कृतिक विविधता से जोड़ता है?
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-10-2025 09:08 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, दशहरा आपके लिए केवल रामलीला ग्राउंड (ground) में रावण दहन देखने का उत्सव भर नहीं है। यह पर्व उस विशाल सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है, जिसमें भारत की विविध परंपराएँ, लोक मान्यताएँ और सामाजिक मूल्यों की गहरी परछाइयाँ दिखाई देती हैं। दशहरा एक ऐसा पर्व है, जो हमें याद दिलाता है कि अच्छाई और नैतिकता की राह चाहे कितनी ही कठिन क्यों न हो, उसकी विजय निश्चित है - और यही संदेश हर राज्य, हर शहर और हर समुदाय अपने-अपने तरीकों से व्यक्त करता है। मेरठ के ऐतिहासिक रामलीला मैदानों में जब राम, लक्ष्मण और हनुमान की गाथाएँ मंचित होती हैं, और रावण, कुंभकरण व मेघनाद के विशाल पुतलों को अग्नि के हवाले किया जाता है, तो वह केवल नाट्य नहीं होता - वह हमारी सामूहिक स्मृति का जीवंत प्रदर्शन होता है। लेकिन यही पर्व जब आप कुल्लू की घाटियों में मनता देखेंगे, तो वहाँ रावण दहन की जगह देवी-देवताओं की झांकियाँ निकलती हैं। मैसूर में दशहरे की रातें राजसी रथयात्रा और चामुंडेश्वरी के दिव्य श्रृंगार से जगमग करती हैं, जबकि बंगाल में यह पर्व देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में शक्ति-साधना और सांस्कृतिक उत्सव बनकर उभरता है। इसलिए, दशहरा केवल ‘एक दिन’ नहीं है - यह भारत की धार्मिक आस्था, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि चाहे हम मेरठ में हों या मणिपुर में, हमारी परंपराएं भले अलग हों, लेकिन मूल भावना - सत्य की विजय, अधर्म का पराभव और मानव मूल्यों की स्थापना - हर स्थान पर समान रूप से गूंजती है। इस दशहरे, आइए हम केवल रावण का दहन न देखें, बल्कि इस पर्व के पीछे छिपे विशाल भारतीय चिंतन को भी महसूस करें - और गर्व करें कि हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां विविधता में ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति बसती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में दशहरे को किस तरह अनूठे रंगों और परंपराओं के साथ मनाया जाता है। सबसे पहले हम दक्षिण भारत की ओर रुख करेंगे, जहाँ मैसूर और तमिलनाडु में दशहरे का राजसी और पारंपरिक स्वरूप देखने को मिलता है। इसके बाद, हम पूर्वी भारत में चलेंगें, जहाँ बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह पर्व पूरी सामाजिक और सांस्कृतिक गरिमा के साथ मनाया जाता है। फिर हम उत्तर भारत की चर्चा करेंगे, जहाँ दशहरा रामलीला, रावण दहन और धार्मिक नाटकों के रूप में समाज की धार्मिक चेतना से जुड़ा है। अंत में हम पश्चिम व मध्य भारत जैसे गुजरात और छत्तीसगढ़ तथा हिमाचल के कुल्लू जैसे हिमालयी क्षेत्रों में मनाए जाने वाले दशहरे की भिन्न-भिन्न परंपराओं और सामाजिक सरोकारों को भी गहराई से समझेंगे।
दक्षिण भारत का दशहरा - मैसूर और तमिलनाडु की राजसी परंपराएं
दक्षिण भारत में दशहरा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक वैभव और भव्यता की एक जीवंत मिसाल है। मैसूर का दशहरा पूरे भारत में राजसी परंपराओं और शाही आयोजन के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि वाडियार राजवंश के समय से यह परंपरा चली आ रही है। दशमी की रात जब ऐतिहासिक मैसूर महल हज़ारों बल्बों और दीपों की रोशनी में नहाया होता है, तो वह दृश्य मानो इतिहास के किसी पन्ने से निकलकर साक्षात आपके सामने आ जाता है। इस दिन देवी चामुंडेश्वरी की सजी-धजी प्रतिमा को हाथी पर विराजमान कर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जो महल से निकलकर पूरे शहर में भ्रमण करती है। इसके अलावा पारंपरिक संगीत, नृत्य, सैन्य परेड (military parade) और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इस आयोजन का हिस्सा होते हैं। वहीं दूसरी ओर, तमिलनाडु में दशहरा ‘गोलू’ या ‘बोम्मई कोलू’ नामक परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसमें घरों में लकड़ी और मिट्टी की गुड़ियों को सुसज्जित ढंग से सीढ़ीनुमा ढांचे पर सजाया जाता है। ये गुड़ियाँ पौराणिक कथाओं, धार्मिक घटनाओं और समकालीन समाज की झांकियों को दर्शाती हैं। दशहरे के इन नौ दिनों में घर-घर पूजा होती है, विशेषकर देवी लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की। विवाहित महिलाएं एक-दूसरे के घरों में जाकर कुमकुम, चूड़ियाँ, सुपारी, नारियल आदि उपहार स्वरूप देती हैं। यह न केवल धार्मिक भावना को बल देता है, बल्कि सामाजिक मेलजोल और स्त्रियों के आपसी संबंधों को भी सुदृढ़ करता है।

पूर्व भारत का दशहरा - बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा की भव्यता
पूर्व भारत में दशहरा का अर्थ दुर्गा पूजा है - एक ऐसा आयोजन जो शक्ति की उपासना और सामाजिक सामूहिकता दोनों का उत्सव है। बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में यह पर्व महिषासुर मर्दिनी के रूप में देवी दुर्गा की विजय के स्मरण में मनाया जाता है। यहाँ दशहरा ‘विजयादशमी’ कहलाता है, जो दुर्गा पूजा के पांच दिवसीय समारोह का अंतिम दिन होता है। पंडालों की भव्य सजावट, मूर्तियों की कलात्मकता, और पारंपरिक संगीत व नृत्य इन दिनों हर गली और मोहल्ले में जीवन्त हो जाते हैं। देवी की मूर्तियों का विसर्जन एक भावुक क्षण होता है, जब भक्त 'शुभो बिजोया' कहते हुए माँ दुर्गा को विदाई देते हैं। इस क्षेत्र में दशहरा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सहभागिता का अद्भुत संगम है। कविता पाठ, नृत्य प्रतियोगिता, पेंटिंग प्रदर्शनी (Painting Exhibition) और पारंपरिक भोजन का वितरण इस पर्व को एक बहुआयामी उत्सव बनाते हैं। महिलाएं विशेष तौर पर ‘सिंदूर खेला’ करती हैं - वे एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं और वैवाहिक सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। यह परंपरा बंगाल की स्त्री-शक्ति की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है। यहाँ दशहरे की आस्था शक्ति में निहित है, और रावण-दहन जैसी उत्तर भारतीय परंपराएं नहीं होतीं।

उत्तर भारत का दशहरा - रामलीला, रावण वध और धार्मिक नाट्य परंपराएं
उत्तर भारत में दशहरा राम की मर्यादा, नाटक के रस और सामूहिक स्मृति का महोत्सव है। विशेषकर दिल्ली, मेरठ और वाराणसी जैसे शहरों में दशहरे का मतलब है रामलीला मैदान की भीड़, नायक राम का जयघोष और अंत में रावण, कुंभकरण और मेघनाद के विशाल पुतलों का दहन। इन शहरों में रामलीला नौ दिनों तक चलती है, जिसमें गाँव-गाँव के कलाकार भगवान राम के जीवन को मंचित करते हैं। हर रात दर्शक इन लीलाओं को देख, धर्म और नीति की शिक्षा ग्रहण करते हैं। पंजाब में दशहरा शक्ति उपासना और भक्ति के संगम के रूप में मनाया जाता है। यहाँ नवरात्रि के पहले सात दिनों तक लोग उपवास रखते हैं और रात्रि में जगराते का आयोजन करते हैं। अष्टमी को 'कंजक पूजन' होता है, जिसमें नौ कन्याओं को देवी के स्वरूप मानकर भोजन कराया जाता है। यह परंपरा नारी शक्ति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। इस क्षेत्र में दशहरा सिर्फ रावण वध नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, धर्मपरायणता और सांस्कृतिक एकता का पर्व भी है।

पश्चिम और मध्य भारत में दशहरा - गुजरात, छत्तीसगढ़ और अन्य रंगबिरंगे स्वरूप
पश्चिम भारत, खासकर गुजरात, दशहरे को नवरात्रि के नौ रंगीन रातों के रूप में देखता है। यहाँ गरबा और डांडिया सिर्फ नृत्य नहीं, बल्कि एक धार्मिक साधना का रूप है। लोग पारंपरिक पोशाकें पहनकर देवी की आराधना करते हुए सैकड़ों की संख्या में मैदानों और मंदिरों के प्रांगण में एकत्रित होते हैं। यह परंपरा गुजरात की सांस्कृतिक ऊर्जा, सामूहिकता और स्त्री शक्ति की अभिव्यक्ति है। वहीं मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में दशहरा की परंपराएं सबसे अद्वितीय हैं। यहाँ का बस्तर दशहरा 75 दिनों तक चलता है - यह न केवल भारत, बल्कि विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा उत्सव माना जाता है। इस क्षेत्र में देवी दंतेश्वरी की पूजा की जाती है, और उनकी झांकियाँ निकाली जाती हैं। अनुष्ठान जैसे पाटा जात्रा (लकड़ी की पूजा), डेरी गढ़ाई (कलश की स्थापना), मुरिया दरबार (जनजातीय सम्मेलन) और ओहदी (देवताओं की विदाई) - सभी इस पर्व को स्थानीय जनजातीय आस्था और संस्कृति से जोड़ते हैं। यह पर्व आध्यात्म, प्रकृति और परंपरा का त्रिकोणीय संगम है।
हिमालयी परंपरा - कुल्लू दशहरा की अनोखी धार्मिक व्याख्या
हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में दशहरा एक पूरी तरह से अलग रूप ले लेता है। यहाँ ना तो रावण के पुतले जलाए जाते हैं, ना रामलीला होती है - बल्कि यहाँ भगवान रघुनाथ जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। कहते हैं कि 17वीं सदी में राजा जगत सिंह ने रघुनाथ जी को कुल्लू राज्य का अधिष्ठाता देवता घोषित किया था। तभी से ढालपुर मैदान इस उत्सव का केंद्र बना। इस दौरान कुल्लू की हर घाटी, हर गांव से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सज-धज कर जुलूस में लाई जाती हैं। यह ना सिर्फ धार्मिक एकता का प्रतीक है, बल्कि कुल्लू के सामूहिक सामाजिक जीवन की गहराई को भी दर्शाता है। दशहरे की समाप्ति ‘लंका दहन’ के प्रतीक रूप में होती है, जहां झाड़ियों में आग लगाई जाती है - यह प्रतीकात्मक लंका है। कुल्लू दशहरा सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव, धार्मिक श्रद्धा और लोक परंपरा का संगम है - जो यह सिखाता है कि हर पर्व की गहराई उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही निहित होती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2e7rbxbv
संस्कृति 768