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2073 | 263 | 2336 |
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आपने कई बार लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि "मेरी नौकरी से तो बेरोज़गारी ही बेहतर है।" ऐसा आमतौर पर वहीँ लोग बोलेंगे जो अनौपचारिक नौकरियां कर रहे होते हैं। औपचारिक और अनौपचारिक नौकरियों के बारे में अध्ययन करना वाकई में काफी दिलचस्प है। भारत में, कार्यबल को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है: औपचारिक या संगठित क्षेत्र: औपचारिक या संगठित क्षेत्र उन सभी सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्यमों को संदर्भित करता है, जो 10 या उससे अधिक श्रमिकों को रोजगार देते हैं। इन कंपनियों या उद्यमों द्वारा अपने कर्मचारियों को नियमित और गारंटीकृत काम तथा वेतन दिया जाता है। इन्हें औपचारिक प्रक्रियाओं, नियमों और विनियमों का पालन करना पड़ता है। भारत में, केंद्र और राज्य सरकारों, बैंकों, रेलवे आदि के कर्मचारियों को संगठित क्षेत्र के श्रमिक माना जाता है। अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र: अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र उन सभी निजी उद्यमों को संदर्भित करता है, जो 10 से कम कर्मचारियों को काम पर रखते हैं। अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र के तहत आने वाली गतिविधियों में वस्तुओं और सेवाओं के प्राथमिक उत्पादन तथा छोटे पैमाने पर रोजगार और आय के सृजन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों या कर्मचारियों के काम करने के घंटे और वेतन के राम ही मालिक होते हैं। औपचारिक क्षेत्र के विपरीत, इसमें निश्चित नौकरी या वेतन की कोई गारंटी नहीं होती है। कूड़ा बीनने वाले, साहूकार, दलाल आदि के रूप में काम करने वाले लोगों को अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। औपचारिक क्षेत्र में व्यवसाय और आर्थिक गतिविधियाँ शामिल होती हैं, जिनकी निगरानी सरकार करती है। इस क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी सामाजिक सुरक्षा लाभ के हकदार होते हैं। औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का वेतनमान अनौपचारिक क्षेत्र की तुलना में अधिक होता है। इस क्षेत्र के उद्यमों को लाइसेंस (License) प्राप्त होता है, तथा उन्हें सरकार को कर (Tax) भी चुकाना पड़ता है। औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को अपने हितों की रक्षा के लिए ट्रेड यूनियन (trade union) बनाने का अधिकार होता है। दूसरी ओर, अनौपचारिक क्षेत्र में ऐसे श्रमिक और उद्यम शामिल हैं जो सरकार के विनियमन के अंतर्गत नहीं आते हैं। औपचारिक क्षेत्र के विपरीत, इस क्षेत्र के कर्मचारी, सामाजिक सुरक्षा लाभ के हकदार नहीं होते हैं। इस क्षेत्र में वेतनमान भी तुलनात्मक रूप से कम होता है। इस क्षेत्र के उद्यमों को सरकार को कर नहीं देना पड़ता है। साथ ही इस क्षेत्र के श्रमिकों को ट्रेड यूनियन बनाने का कोई अधिकार नहीं होता है। क्या आपने कभी सोचा है कि प्रतिष्ठित मंदिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों के धार्मिक गुरु या पुजारीयों को भी तो अपना घर चलाने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती होगी, फिर इनको वेतन कौन देता है? चलिए जानते हैं। ब्रिटिश काल से पहले, भारत में मंदिरों का प्रबंधन शहर के स्थानीय सदस्यों द्वारा किया जाता था। तब मंदिर केवल पूजा स्थल ही नहीं थे, बल्कि सांस्कृतिक गतिविधियों और सामाजिक विकास के केंद्र भी हुआ करते थे, जिनमें विश्राम गृह, गाय निवास स्थान, सामुदायिक हॉल जैसी कई परोपकारी सुविधाएँ भी होती थी। हालाँकि, 1817 में मद्रास विनियमन अधिनियम के पारित होने के साथ, ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने मंदिरों, उनके परिसरों सहित धन पर भी नियंत्रण हासिल कर लिया। बाद में, 1925 में, राज्य धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम (State Religious and Charitable Endowments Act) पारित होने के बाद मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित हो गया। जिसके बाद राज्य सरकारों ने स्थानीय शहर के सदस्यों के साथ प्रमुख मंदिरों के लिए मंदिर विकास बोर्ड का गठन किया। यही बोर्ड मंदिर के मामलों के रखरखाव और प्रशासन के लिए जिम्मेदार होते हैं। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, राज्यों के धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम के गठन के साथ ही मंदिरों को राज्य सरकारों के प्रशासन के तहत लाया गया। देश में तकरीबन 38,529 हिंदू और जैन धार्मिक संस्थान हैं, जिनका प्रबंधन हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग द्वारा किया जाता है। संस्थानों को छह श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है, जो इस प्रकार हैं:
श्रेणी | संस्थानों की संख्या |
---|---|
मंदिर | 36,488 |
पवित्र मठ | 56 |
पवित्र मठ से जुड़े मंदिर | 58 |
विशिष्ट धनदाता | 1,721 |
चैरिटेबल एंडोमेंट (charitable endowment) | 189 |
जैन मंदिर | 17 |
क्रमांक | वर्गीकरण | वार्षिक आय |
---|---|---|
1. | धारा 49(1) के तहत नामांकित संस्थान नहीं | कम से कम ₹ 10,000/- की वार्षिक आय वाले |
2. | धारा 46(i) के तहत नामांकित संस्थान | 2 लाख से कम वार्षिक आय वाले |
3. | धारा 46(ii) के तहत नामांकित संस्थान | 10 लाख से कम वार्षिक आय वाले |
4. | धारा 46(iii) के तहत नामांकित संस्थान | ₹ 10 लाख से अधिक वार्षिक आय वाले |
इस आधार पर हम कह सकते हैं कि देश के कुछ हजार लोकप्रिय मंदिरों में भले ही पुजारियों को अच्छा वेतन मिल सकता है। लेकिन अधिकांश लगभग 34,336 मंदिरों के पुजारियों की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है। इसके अलावा, ऐसे कई उनुल्लेखित मंदिर, लूटे गए मंदिर, और मजबूत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व वाले अतिक्रमित मंदिर भी हैं, जो 34,366 सीमांत मंदिरों का हिस्सा नहीं हैं। पुजारियों की हालत का अंदाजा आप मद्रास उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने वाले एक पुजारी की स्थिति से लगा सकते हैं, जिन्हें ₹750 का मासिक वेतन मिल रहा था, जो वाकई में बहुत छोटी राशि है।
मंदिरों के विपरीत मस्जिदें अक्सर धर्मार्थ ट्रस्टों (charitable trusts) द्वारा चलाई जाती हैं जो मस्जिद के इमाम और अन्य कर्मचारियों को वेतन प्रदान करते हैं। ये ट्रस्ट वेतन, परिसर के रखरखाव और अन्य बिलों के भुगतान के लिए उपासकों के दान पर निर्भर होते हैं। कभी-कभी, मस्जिद का नवीनीकरण करना या कुछ बिल का भुगतान करने जैसे विशिष्ट उद्देश्यों के लिए विशेष दान अभियान चलाए जाते हैं।
हालाँकि, ये सभी दान स्वैच्छिक होते हैं और अनिवार्य नहीं हैं। इसके अलावा भारत में, चर्चों का स्वामित्व आमतौर पर डायोसीज़ “Diocese” (वरिष्ठ ईसाई धर्मगुरु) के अधीन क्षेत्र जहाँ अनेक चर्च हों।) के पास होता है। दक्षिण भारत जैसे कुछ स्थानों में डायोसीज़, ही पादरी के वेतन का भुगतान करता है। हालाँकि, गोवा जैसे अन्य स्थानों में, चर्च पादरी की संपत्ति नहीं होते है। इसके बजाय, पादरी चर्च को प्रदान की गई सेवाओं के बदले चर्च की संपत्ति का उपयोग कर सकता है।
संदर्भ
http://tinyurl.com/59rtnf5v
http://tinyurl.com/2ahjz5n4
http://tinyurl.com/36djs8nx
चित्र संदर्भ
1. औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र के अंतर को संदर्भित करता एक चित्रण (
Wallpaper Flare, Pexels)
2. ऑफिस में काम करते कर्मचारियों को संदर्भित करता एक चित्रण (PixaHive)
3. बोझा उठाते मजदूरों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. कूड़ा उठाते बच्चे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. एक हिंदू पुजारी को संदर्भित करता एक चित्रण (Look and Learn)
6. पाठ करते पुजारियों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. मस्जिद के इमाम को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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