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आज से कुछ हजारों साल पहले मध्ययुगीन काल के दौरान इंसानी सभ्यता ने ज़मीन के नीचे कुछ ऐसी चमत्कारी संरचनाओं का निर्माण कर दिया, जिनकी कार्यशैली आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी कि आज से 500 वर्ष पहले हुआ करती थी! इन संरचनाओं को "बावड़ी (Stepwells)" कहा जाता है! समय के साथ बावड़ियाँ पौराणिक कथाओं, संस्कृति, वास्तुकला और जल विज्ञान के सम्मिश्रण को दर्शाती हुई स्थानीय संस्कृति के सबसे विस्तृत प्रतीकों में एक बन गई हैं।
बावड़ियाँ एक तरह की हौज, कुआँ या तालाब ही होती हैं, जिनमें गहराई तक मौजूद जल स्तर तक उतरने वाली सीढ़ियों का एक लंबा गलियारा होता है। इनका निर्माण मुख्य रूप से लंबे समय तक बारिश नहीं होने पर या अत्यधिक गर्मियों में होने वाली पानी की क़िल्लतों से निपटने के लिए 7वीं से 19वीं शताब्दी तक पश्चिमी भारत में किया गया था। पानी की कमी से निपटने के लिए उस समय के कारीगरों ने धरती में गहरी खाइयाँ खोदीं और इन खाइयों की दीवारों को पत्थर के ब्लॉकों से पंक्तिबद्ध किया और पानी तक नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाईं।
बावड़ियाँ आमतौर पर दो स्थानों पर पाई जा सकती हैं:
1. किसी मंदिर के विस्तार या भाग के रूप में!
2. किसी गाँव के बाहरी इलाके में।
जब कोई बावड़ी किसी मंदिर या देवस्थान से जुड़ी होती है, तो वह या तो उसकी विपरीत दीवार पर या मंदिर के सामने होती हैं । बावड़ियों का सबसे पहला पुरातात्विक साक्ष्य, धोलावीरा में पाया जाता है, जहाँ इस स्थल पर सीढ़ियों के साथ पानी के टैंक या जलाशय भी हैं। मोहनजोदड़ो के महान स्नानागार में विपरीत दिशाओं में भी सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी यात्रियों की सुविधा के लिए प्रमुख भारतीय सड़कों के किनारे हर 8 कोस की दूरी पर बावड़ियों के निर्माण का उल्लेख मिलता है।हालांकि यह परंपरा सम्राट अशोक से भी पहले से स्थापित थी, यानी इन बावड़ियों का निर्माण उससे पूर्व के राजाओं द्वारा भी किया गया था।
भारत में चट्टानों को काटकर बनाई गई पहली बावड़ियाँ 200 से 400 ई.पू. के बीच की हैं। सीढ़ियों से पानी तक पहुंचने वाले स्नानागार जैसे तालाब का सबसे पहला उदाहरण जूनागढ़ में ऊपरकोट की गुफाओं में मिलता है। ये गुफाएँ चौथी शताब्दी की हैं। नवघन कुवो, आसपास गोलाकार सीढ़ियों वाला एक कुआँ, इन बावड़ियों का एक और उदाहरण है। इसका निर्माण संभवतः पश्चिमी क्षत्रप (200-400 ई.) या मैत्रक (600-700 ई.) काल में हुआ था, हालाँकि कुछ लोग इसे 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का मानते हैं। बावड़ियों के सबसे पुराने मौजूदा उदाहरणों में से एक, “माता भवानी” की बावड़ी जो 11वीं शताब्दी में गुजरात में बनाई गई थी।
बावड़ियों का निर्माण वास्तव में 11वीं से 16वीं शताब्दी के मुस्लिम शासन के दौरान हुआ था। स्तंभों, कोष्ठकों और बीमों पर विस्तृत डिज़ाइन दर्शाते हैं, कि कैसे बावड़ियों का उपयोग कला के रूप में किया जाता था। यहां तक कि जब भारत में मुगल बादशाहों का शासन था, तब भी उन्होंने बावड़ी संस्कृति ध्वस्त नहीं किया! लेकिन ब्रिटिश राज के दौरान, ब्रिटिश अधिकारी बावड़ियों की साफ़-सफ़ाई से खुश नहीं थे। इसलिए, उन्होंने बावड़ियों की पूरी व्यवस्था को ही पाइप और पंप सिस्टम (Pipe And Pump System) से बदल दिया।
मध्ययुगीन काल के दौरान, भारतीयों ने घरेलूसिंचाई, सफ़र और मनोरंजन जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए पानी के संरक्षण और उपयोग की विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया। इन तकनीकों में बावड़ियों के साथ-साथ कुएँ, टैंक और नहरें भी शामिल थीं। मुगलों के शासन काल में जल-प्रबंधन के विज्ञान और प्रौद्योगिकी में ख़ासा विकास देखा गया। उदाहरण के लिए, शेरशाह ने 'नहर' का खाका खींचा और अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी में गर्मियों के तापमान पर नियंत्रण करने की कोशिश की। गोलकुंडा किले में 'फ़ारसी पहियों' के माध्यम से पानी उठाना, उस समय की अद्वितीय हाइड्रोलिक तकनीकों (Hydraulic Techniques) का ही एक और उदाहरण है।
मध्ययुगीन काल के दौरान, मोहम्मद-बिन-तुगलक ने खेती का विस्तार करने के लिए कुएँ खोदने के लिए किसानों को ऋण दिए । इस संदर्भ में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा ”हौस कास” का निर्माण भी एक उल्लेखनीय विकास था। चौदहवीं शताब्दी में लोगों ने सिंचाई के लिए नहरें खोदनी शुरू कर दीं। कृषि को बढ़ावा देने के लिए नहरें खुदवाने का श्रेय 'करौना' सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक को दिया जाता है। हालाँकि, नहरों का सबसे बड़ा नेटवर्क फ़िरोज़ शाह तुगलक के अधीन ही बनाया गया था। उसने यमुना नदी से रजब-वाह' और उलुग-खानी' नाम से दो नहरें काटी, जिन्हें वह हिसार तक ले गया। नई नहरों के निर्माण से हिसार इतनी अच्छी तरह से सिंचित हो गया कि जहां पहले यहां केवल वर्षा आधारित शरद ऋतु की फसलें (खरीफ) ही उगाई जाती थीं, वहाँ अब गेहूं जैसी वसंत (रबी) फसलें भी उगाई जाने लगी।
संक्षेप में समझें तो मध्ययुगीन काल के दौरान, भारत में हाइड्रोलिक उपयोग और प्रबंधन की अपनी पद्धति थी। जल प्रबंधन की इस पद्धति से बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादकता बढ़ी और भारतीय किसानों द्वारा बड़ी संख्या में खाद्य और गैर-खाद्य फसलें उगाई गईं। नई कृषि क्रांति को पूरा करने के लिए पूर्व-इस्लामिक तरीके अपर्याप्त थे। इसलिए, जल जुटाने के उपकरणों की नई तकनीक और पानी के भंडारण, परिवहन और वितरण के तरीकों को सफलतापूर्वक विकसित और फैलाया गया। इससे कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिली।
संदर्भ
http://tinyurl.com/3vnjamt9
http://tinyurl.com/44n39udm
http://tinyurl.com/4nzpfpt5
चित्र संदर्भ
1. राजस्थान के बांदीकुई के पास आभानेरी गांव में चांद बावड़ी भारत की सबसे गहरी और बड़ी बावड़ियों में से एक है। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. रानी की वाव को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. श्रीरंगम, मद्रास के एक मंदिर में पानी की टंकी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. नई दिल्ली में मौजूद अग्रसेन की बावली को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. हौस कास झील को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. पानी की नहर को संदर्भित करता एक चित्रण (PickPik)
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