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आधुनिक शिक्षाशास्त्री भी भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली के प्रशंसक हो जाएँगे!​

लखनऊ

 04-01-2024 09:32 AM
सभ्यताः 10000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व

शिक्षा के क्षेत्र में लखनऊ वासियों की रुचि का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि “दुनया का सबसे बड़ा विद्यालय "सिटी मोंटेसरी स्कूल”(City Montessori School) हमारे लखनऊ शहर में ही स्थित है!” आपको जानकर हैरानी होगी कि इस विद्यालय परिसर में 61,000 से अधिक छात्र गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ग्रहण करते हैं! हालाँकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली के संदर्भ में केवल लखनऊ ही नहीं बल्कि पूरे भारत का एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है! भारत देश अपनी शिक्षा के लिए इतना प्रसिद्ध था कि यूरोप, खासकर पुर्तगाल और मध्य पूर्व जैसे स्थानों से लोग अध्ययन करने के लिए भारत आते थे। प्राचीन समय में भारत की गुरुकुल परंपरा को भलेही आज भुला दिया गया हो, लेकिन वास्तव में शिक्षा ग्रहण करने की यह प्रणाली इतनी कारगर थी, कि कई आधुनिक शिक्षाशास्त्री भी इस परंपरा के कायल बन गए हैं!​ गुरुकुल एक आवासीय स्कूली शिक्षा प्रणाली (Residential schooling system) थी, जिसकी उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 5000 ईसा पूर्व में हुई थी। शिक्षा ग्रहण करने की यह प्रणाली वैदिक युग के दौरान ज्यादा प्रचलित थी, जहां छात्रों को विभिन्न विषयों और सुसंस्कृत एवं अनुशासित जीवन जीने के तरीके के बारे में शिक्षित किया जाता था। गुरुकुल एक तरह से अध्यापक या आचार्य का घर हुआ करता था, जहां पर छात्र अपनी शिक्षा पूरी होने तक निवास करते थे। गुरुकुल में गुरु (शक्षक) के साथ-साथ शिष्य (छात्र) एक ही घर में रहते थे। गुरु और शिष्य का यह रिश्ता इतना पवित्र था कि विद्यार्थियों से कोई शुल्क भी नहीं लिया जाता था। हालाँकि, अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद प्रत्यक छात्र को अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देनी होती थी, जो शिक्षक के प्रति सम्मान का प्रतीक होता था। गुरु दक्षिणा मुख्य रूप से धन या कोई ऐसा विशेष कार्य होता था, जिसे छात्र को शिक्षक के लिए करना होता था। गुरुकुलों का मुख्य उद्देश्य, छात्रों को प्राकृतिक परिवेश में शिक्षा प्रदान करना होता था, जहाँ शिष्य एक-दूसरे के साथ भाईचारे, मानवता, प्रेम और अनुशासन के साथ रहते थे। यहाँ पर छात्रों को समूह चर्चा, स्वशिक्षा आदि के माध्यम से भाषा, विज्ञान, गणित जैसे विषयों की शिक्षा दी जाती थीं। इस दौरान छात्रों की कला, खेल, शिल्प, गायन कौशल पर भी ध्यान दिया जाता था, जिससे उनकी बुद्धि और आलोचनात्मक सोच विकसित होती थी। गुरुकुल में योग, ध्यान, मंत्र जप आदि जैसी गतिविधियां भी प्रतिदिन की जाती थी, जिससे छात्रों को स्वस्थ रहने में मददमिलती थी, तथा उनके भीतर सकारात्मकता और मन की शांति विकसित होती थी। इसके अलावा गुरुकुलों में छात्रों के आत्मविश्वास, अनुशासन की भावना, बुद्धि और सचेतनता को बढ़ाने के लिए भी सभीआवश्यक गतिविधियां आयोजित की जाती थी।​ हालांकि आज के आधुनिक समय में गुरुकुलों की यह शानदार प्रणाली लगभग विलुप्त ही हो चुकी है, लेकिन बाद के वर्षों ख़ासतौर पर 18वीं सदी में इसी से मिलती जुलती "पाठशाला" नामक शिक्षा प्रणाली भी भारत में खूब लोकप्रिय हुआ करती थी! आपको जानकर हैरानी होगी कि 1830 के दशक में बिहार और बंगाल में एक लाख से अधिक पाठशालाएँ थीं। ​गुरुकुलों की भांति पाठशालाओं में भी शिक्षा प्रणाली काफ़ी लचीली हुआ करती थी। यहाँ पर भी छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाता था, पढ़ने के लिए कोई मुद्रित पुस्तक नहीं होती थी, अलग से कोई समर्पित भवन नहीं होता था, पढ़ाई के लिए बेंच या कुर्सियाँ नहीं होती थीं, कोई रोल-कॉल रजिस्टर (roll-call register) नहीं होता था, कोई भी नियमित परीक्षा नहीं होती थी और कोई भी नियमित समय-सारणी नहीं होती थी। इन सभी के बजाय पाठशालाओं में कक्षाएँ बरगद के पेड़ के नीचे, गाँव की दुकान या मंदिर में या गुरु के घर पर ही आयोजित की जा सकती थी। छात्रों को कोई निर्धारित फ़ीस नहीं देनी पड़ती थी, यह पूरी तरह से माता-पिता की आय पर निर्भर करती थी। मज़े की बात यह है, केवल अमीर और संपन्न लोग ही फीस का भुगतान करते थे जबकि गरीबों को समान शिक्षा, आम तौर पर मुफ्त में मिलती थी। पाठशालाओं में शिक्षा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी और हर छात्र के लिए पाठ्यक्रम उसकी आवश्यकता के अनुसार गुरु के द्वारा तय किया जाता था। गुरु, विद्यार्थियों को अलग- अलग कक्षाओं में पढ़ाने के बजाय सभी विद्यार्थी को एक ही स्थान पर एक साथ बैठाते थे। गुरु याआचार्य, छात्रों के सीखने के स्तर के अनुसार उन्हें विभिन्न समूहों मे बिठाते थे। शिक्षा ग्रहण करने की यह प्रणाली स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप चलती थी। उदाहरण के तौर पर फसल की कटाई के समय, ग्रामीण बच्चे आमतौर पर खेतों में काम करते थे। इसलिए, फसल कटाई के समय कक्षाएं आयोजित नहीं की जाती थी। कटाई का मौसम समाप्त होने के बाद, कक्षाएं फिर से शुरू हो जाती थी। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में शिक्षा को मुख्य रूप से दो समूहों में विभाजित किया गया था! पहला समूह पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का समर्थन करता था और इसे विकास तथा आधुनिकीकरण के साधन के रूप में देखा जाता था! वहीं दूसरा समूह भारतीय जड़ों और वेदों को ध्यान में रखते हुए पारंपरिक और स्वदेशी शिक्षा का समर्थन कर रहा था। भारत पर कब्ज़ा करने केबाद, अंग्रेज़ भारतीयों को रेलवे, डाक सेवाओं, अदालतों आदि में काम करने के लिए प्रशिक्षित करना चाहते थे और लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे। लेकिन आज़ादी के बाद एक ओर जहां राजा राम मोहन राय ने पहले समूह का प्रतिनिधित्व किया, वहीं स्वामी दयानंद सरस्वती ने दूसरे समूह अर्थात् पारंपरिक और स्वदेशी शिक्षा प्रणाली का समर्थन और नेतृत्व किया! उन्होंने इसी वैदिक संस्कृति के अनुरूप आर्य समाज की स्थापना की।​ आर्य समाज ने पारंपरिक और वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा प्रणाली को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका मानना था कि समाज के विकास के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है और उन्होंने लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए समान अवसरों पर ज़ोर दिया। विधवा पुनर्विवाह का समर्थन और पर्दा प्रथा का विरोध जैसे महिलाओं के मुद्दों पर आर्य समाज के विचार प्रगतिशील थे। उनका मानना था कि शिक्षा ही सामाजिक समस्याओं का समाधान है। 1883 में दयानंद सरस्वती के निधन के बाद, समूह दो भागों में विभाजित हो गया। प्रत्येक समूह ने अपने नेता के काम को आगे बढ़ाने के लिए अपने तरीके से काम किया। समय को ध्यान में रखते हुए, शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज का योगदान बहुत बड़ा रहा है! यह योगदान आज भी बढ़ रहा है और फल-फूल रहा है।​

संदर्भ​
http://tinyurl.com/bdzkrn4u
http://tinyurl.com/4hv7hdd3
http://tinyurl.com/2bn4kvyk

चित्र संदर्भ
1. विविध वेशभूषा में भारतीय बच्चों को संदर्भित करता एक चित्रण (needpix)
2. आर्य समाज के गुरुकुल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. गुरुकुलों की पेड़ों की छांव को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. गुरु शिष्य को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को संदर्भित करता एक चित्रण (amazon)



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